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________________ ४, २, ७, २६६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [२४३ असंखेज्जलोगमेत्ताणि अणुभागट्ठाणाणि उड्डमेगपंत्तियागारेण पण्णाए हविय तत्थ एगेगअणुभागट्ठाणम्मि जहण्णुक्कस्सेण जीवपमाणं वुच्चदे। तं जहा-जहण्णेण एगो वा जीवो तत्थ होदि दो वा होति तिण्णि वा होंति एवमेगुत्तरवड्डीए एकेकअणुभागट्ठाणम्मि उक्कम्सेण जाव आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता होति । अणुभागहाणाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि, जीवरासी पुण अणंतो, तेण एककम्हि अणुभागट्ठाणे जहण्णुक्कस्सेण अणंतेहि जीवेहि होदव्वं, अणुभागट्ठाणाणि विरलेदूण जीवरासिं समखंडं कादण दिण्णे एकेक म्हि द्वाणम्मि अणंतजीवोवलंभादो त्ति ? ण एस दोसो, तसजीवे अस्सिदण जीवसमुदाहारस्स परूविदत्तादो । थावरजीवे अस्सिदूण किमटुं जीवसमुदाहारो ण परविदो ? ण, अणुभागहाणेसु तसजीवाणमच्छणविहाणे अवगदे थावरजीवाणं तत्थावट्ठाणविहाणस्स सुहेण अवगंतु सकिज्जमाणत्तादो । थावरजीवाणमवट्ठाणविहाणे अवगदे तसजीवाणमवट्ठाणविहाणं किण्णावगम्मदे ? ण, एकेक्कम्हि द्वाणम्हि तसजीवपमाणस्स णिरंतरं तसजीवेहि णिरुद्धहाणपमाणस्स' तसजीवविरहिदअणुभागट्ठाणपमाणस्स य' तत्तो अवगंतुमसक्किज्जमाणत्तादो। एवमेयहाणजीवपमाणाणुगमो समत्तो। असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागस्थानोंको ऊपर एक पंक्तिके आकारसे बुद्धिद्वारा स्थापित करके उनमेंसे एक एक अनुभागस्थानमें जघन्य व उत्कृष्टसे जीवोंके प्रमाणको कहते हैं। वह इस प्रकार है-उसमें जघन्यसे एक जीव होता है, दो होते हैं, अथवा तीन होते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एककी वृद्धिपूर्वक एक एक अनुभागस्थानमें उत्कृष्टसे वे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण तक होते हैं। शंका-अनुभागस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं, परन्तु जीवराशि अनन्तानन्त है; अतएव एक एक अनुभागस्थानमें जघन्य व उत्कृष्टसे अनन्त जीव होने चाहिये, क्योंकि, अनुभागस्थानोंका विरलन करके जीवराशिको समखण्ड करके देनेपर एक एक स्थानमें अनन्त जीव पाये जाते हैं ? __समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीवसमुदाहारकी प्ररूपणा त्रस जीवोंका आश्रय करके की गई है। शंका स्थावर जीवोंका आश्रय करके जीवसमुदाहारकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? समाधान नहीं, क्योंकि, अनुभागस्थानों में त्रस जीवोंके रहनेके विधानको जान लेनेपर उनमें स्थावर जीवोंके रहनेका विधान सुखपूर्वक जाना जा सकता है। शंका-स्थावर जीवोंके रहनेके विधानको जान लेनेपर त्रस जीवोंके रहनेका विधान क्यों नहीं जाना जाता है ? समाधान --नहीं, क्योंकि, उससे एक एक स्थानमें त्रस जीवोंके प्रमाणको, निरन्तर स जीवोंसे निरुद्ध स्थानप्रमाणको तथा त्रस जीवोंसे रहित अनुभागस्थानोंके प्रमाणको जानना शक्य नहीं है। इस प्रकार एकस्थानजीवप्रमाणानुगम समाप्त हुआ। १ अप्रतौ 'णिरुद्धद्धाण' इति पाठः। २ अाप्रती 'अणुभागठाणस यइति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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