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________________ ५०२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २,१५, ४. डीओ च पुध पुध असंखेज्जलोगमेत्ताओ' होदण अण्णोण्णं पेक्खिदूण समाणाओ, सव्वस्स मदिणाणस्स दंसणपुरंगमत्तभुवगमादो। सुदणाणावरणीयपयडीयो असंखेज्ज. लोगमेत्ताओ । मणपज्जवणाणावरणीयपयडीओ असंखेज्जकप्पमेत्ताओ । एदासिं सुदमणपज्जवणाणावरणीयपयडीणं ण दंसणमत्थि, मदिणाणपुरंगमत्तादो । तेण दंसणावरणीयपयडीहिंतो णाणावरणीयपयडीओ विसेसाहियाओ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? असंखेज्जदिभागमेत्तो। किंतु मदिणाणे सुदणाणं पविसदि त्ति एत्थ पुध ण घेत्तव्वं, अण्णहा देसूणदुभागत्ताणुववत्तीदो । अधवा, सुद-मणपज्जवणाणाणं' पि दंसणमत्थि, तदवगमत्थसंवेयणाए तत्थ वि उवलंभादो। ण पुव्वब्भुवगमेण विरोहो', तक्कारणीभूददंसणस्स तत्थ पडिसेहविणासादो । केवलदसणस्स एका पयडी अस्थि । केवलणाणावरणीयस्स वि एक्का चेव । तेण ताओ सरिसाओ । णिहाणिद्दा पयलपयला थीणगिद्धी णिद्दा य पयला य एदाओ पंच पयडीओ दसणावरणीए अस्थि । किं तु एदाओ अप्पहाणाओ, मणपज्जवणाणावरणीय पयडीणमसंखेज्जदिभागत्तादो। तदो सिद्धं दंसणावरणीयपयडीहितो णाणोवरणीयपयडीओ बहुगाओ त्ति ।। ___ असादावेदणीयादिसेसपयडीओ दसणावरणीयपयडीणं असंखेज्जदिभागमेत्ताओ होद्ण मणपज्जवणाणावरणीयपयडीहितो असंखेज्जगुणाओ। कमसंखेज्जगुणत्तं प्रकृतियाँ पृथक् पृथक् असंख्यात लोक मात्र होकर अन्योन्यकी अपेक्षा समान हैं, क्योंकि, समस्त मतिज्ञानको दर्शनपूर्वक स्वीकार किया गया है। श्रतज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ असंख्यात लोक मात्र हैं। मनःपययज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ असंख्यात कल्प मात्र हैं। इन श्रुतज्ञानावरणीय और मनःपर्ययज्ञानावरणीय प्रकृतियोंका दर्शन नहीं होता, क्योंकि, ये ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होते हैं। इसलिए दर्शनावरणीयकी प्रकृतियोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? वह असंख्यातवें भाग मात्र है । किन्तु मतिज्ञानमें चूंकि श्रुतज्ञान प्रविष्ट है अतएव यहाँ पृथक् ग्रहण नहीं करना चाहिये, अन्यथा ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी प्रकृतियाँ सब प्रकृतियोंके कुछ कम द्वितीय भाग प्रमाण नहीं बन सकती। - अथवा, श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञानोंके भी दर्शन है, क्योंकि, उन ज्ञानोंरूप अर्थका संवेदन वहाँ भी पाया जाता है। ऐसा स्वीकार करनेपर पूर्व मान्यताके साथ विरोध होगा, सो भी नहीं है, क्योंकि उनके कारणीभूत दर्शनके प्रतिषेधका वहाँ पर अभाव है। केवलदर्शनावरणीयकी एक प्रकृति है। केवलज्ञानावरणीयकी भी एक ही प्रकृति है। इस लिये वे दोनों समान है। निद्रनिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला, ये पाँच प्रकृतियाँ दर्शनावरणीयकी हैं। किन्तु ये अप्रधान हैं, क्योंकि, वे मनःपर्ययज्ञानावरणीय प्रकृतियोंके असंख्यातवें भाग मात्र हैं । इससे सिद्ध है कि दर्शनावरणीयकी प्रकृतियोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ बहुत हैं। असातावेदनीय आदि शेष कर्मोकी प्रकृतियाँ दर्शनावरणकी प्रकृतियों के असंख्यातवें भाग १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'लोगमेत्ता' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'असंखेज्जकम्ममेत्ताश्रो' इति पाठः । ३ अ-प्राकाप्रतिषु 'मणपज्जवाणं' इति पाठः । ४ अ-श्रा-काप्रतिषु 'विरोहा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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