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________________ ४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २ मा०. त्ति उत्ते चदुण्हं संजलणाणं गहणं । तत्थ लोभसंजलणाए अणंतगुणहीणाहियारो अणुवदृदे, ण उवरिमेसु । कुदो णव्वदे ? उवरि भण्णमाणसुत्तादो। एत्थ वि माया-कोध-माणाणुभागाणं कमेण विसेसहीणत्तं वत्तव्वं । (अट्ठाभिणि-परिभोगे चक्खू तिण्णि तिय पंचणोकसाया। णिदाणिद्दा पयलापयला णिद्दा य पयला य ॥२॥) ___ एदस्स विदियगाहासुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा-'अट्ठ' इदि वुत्ते अट्ठकसायाणं महणं । तत्थ पञ्चक्खाणावरणीयाणं लोमे जेण अणंतगुणहीणाहियारो अणुवट्टदे तेण माणसंजलणाणुभागादो पञ्चक्खाणावरणीयलोमाणभागो अणंतगुणहीणो। माया विसेसहीणा कोधो विसेसहीणो माणो विसेसहीणो पयडिविसेसेण । कुदो ? अणंतगुणहीणअहियाराणणुवुत्तीदो। अपञ्चक्खाणावरणीयलोभो अणंतगुणहीणो, तत्थ तदणुवुत्तीदो। उवरि [वि- ] सेसहीणदा, तदणणुवुत्तीदो । कथं सव्वमिदं णव्वदे ? उवरि भण्णमाणइसप्रकार आगेके सूत्रोंमें उसकी प्ररूपणा की जानेवाली है। 'संजलणा' ऐसा कहनेपर चार संज्वलन कषायोंका ग्रहण किया है। उनमेंसे संज्वलन लोभमें अनन्तगुणहीन पदके अधिकारकी अनुवृत्ति होती है, आगेकी कषायोंमें नहीं होती। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-यह आगे कहे जानेवाले सूत्रसे जाना जाता है। यहाँ भी माया, क्रोध और मानके अनुभागोंमें क्रमशः विशेषहीनताका कथन करना चाहिये। आठ कषाय अर्थात् चार प्रत्याख्यानावरण और चार अप्रत्याख्यानावरण, आमिनिबोधिक ज्ञानावरण और परिभोगान्तराय ये दो, चक्षुदर्शनावरण, तीन त्रिक अर्थात् श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तराय ये तीन प्रकृतियाँ, अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय ये तीन प्रकृतियाँ, मनःपर्ययज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धि और दानान्तराय ये तीन प्रकृतियाँ, पाँच नोकषाय अर्थात् नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला निद्रा और प्रचला ये प्रकृतियाँ क्रमशः उत्तरोत्तर अनन्तगुणहीन है ॥ २॥ __ इस द्वितीय गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं। यथा 'अट्ठ' ऐसा कहनेपर आठ कषायोंका ग्रहण किया गया है। उनमेंसे प्रत्याख्यानावरण लोभमें चूंकि अनन्तगुणहीन अधिकारको अनुवृत्ति आती है अतः संज्वलनमानके अनुभागसे प्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। उससे प्रकृतिविशेष होनेके कारण माया विशेष हीन है, उससे क्रोध विशेष हीन है, उससे मान विशेष हीन है, क्यों क इनमें अनन्तगुणहीन अधिकारकी अनुवृत्ति नहीं होती। उससे अप्रत्याख्यानावरण लोभ अनन्तगुणाहीन है, क्योंकि, उसमें अनन्तगुणहीन पदकी अनुवृत्ति होती है। आगे माया आदि क्रमशः विशेष हीन हैं, क्योंकि, उनमें अनन्तगुणहीन पदकी अनुवृत्ति नहीं होती। शंका--यह सब किस प्रमाणसे जाना जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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