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________________ ४, २, ७, २०१. ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ ११५ च्छेदुवलंभादो | एत्थ अणुभागबंधट्ठाणाणमंतराणि जोगहाणंतराणि इव सरिसाणि ण होंति, जोगट्ठाण पक्खेवाणं व अणुभागट्ठाण पक्खेवाणं सरिसत्ताभावादी । अणुभागट्ठाणेसु छविवदिंसणदो वा णाणुभागट्ठाणंतराणं सरिसत्तण' मत्थि । तं जहा - सुहुमसपराइयचरिमसमए जहण्णाणुभागबंधद्वाणं चैव होदि । जोगवड्डिवसेण सुहुमसांपराइयचरिमसमए अजहण्णाणुभागबंधहाणं पि कत्थ वि जीवविसेसे किण्ण भवे ? ण, जोगवदो अणुभागवडीए अभावादो । तं कधं णव्वदे ? वेदणीय-णामा-गोदाणं सजोगिbrity उकसाणुभागो चैव होदि त्ति वेयणसामित्तसुत्ते परुविदत्तादो । जदि पुण जोगवड्डी अणुभागवड्डीए कारणं होज तो ण एसो नियमो जुजदे, उकस्साकस्साणं दोणं पि अणुभागट्टाणाणं संभवादो । वेयणसष्णियासविहाणे जस्स वेयणीयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा तस्स भाववेयणा णियमा उक्कस्से त्ति परुविदत्तादो वा णव्वदे जहा atra-हाणीयो अणुभागवड्डि-हाणीणं कारणं ण होंति त्ति । सजोगिकेवलिस्स लोगपूरणे वट्टमाणस्स खेत्तमुक्कस्सं जादं । भावो वि सुहुमसां पराइयखवगेण जो बद्धो र सो उकस्सो वा अणुक्कस्सो' वा लोगमावूरिदकेवलिम्हि होदि त्ति अभणिदूण उक्कस्सो चेव अनुभागबन्धस्थानोंके अन्तर योगस्थानान्तरोंके समान सदृश नहीं होते हैं, क्योंकि, योगस्थानप्रक्षेपोंके समान अनुभागस्थानप्रक्षेपोंमें सदृशताका अभाव है । अथवा अनुभागस्थानोंमें छह प्रकारकी वृद्धिके देखे जानेसे अनुभागस्थानान्तरों में सदृशता नहीं है । वह इस प्रकार से - सूक्ष्मसाम्परायिक के अन्तिम समयमें जघन्य अनुभागबन्धस्थान ही होता है । शंका- योगवृद्धिके प्रभावसे सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय में किसी जीवविशेषमें अजघन्य अनुभागस्थान भी क्यों नहीं होता ? समाधान- नहीं, क्योंकि, योगवृद्धिसे अनुभागवृद्धि सम्भव नहीं है । शंका- वह कैसे जाना जाता है ? समाधान - वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मका सयोग और अयोग केवलियोंमें उत्कृष्ट अनुभाग ही होता है; ऐसा चूँकि वेदनास्वामित्व सूत्रमें कहा जा चुका है, अतः इससे जाना जाता है. कि योगवृद्धि के होनेसे अनुभागवृद्धि सम्भव नहीं है । यदि योगवृद्धि अनुभागवृद्धिका कारण होती तो यह नियम उचित नहीं था, क्योंकि, वैसा होनेपर उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों ही अनुभागस्थान वहाँ सम्भव थे । अथवा, जिस जीवके वेदनीय कर्मकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती हैं, उसके भाववेदना नियमसे उत्कृष्ट होती है; इस प्रकार जो वेदनासंनिकर्षविधान में प्ररूपणा की गई है उससे भी जाना जाता है कि योगकी वृद्धि व हानि अनुभागकी वृद्धि व हानिमें कारण नहीं है । लोकपूरण समुद्घातमें वर्तमान केवलीका क्षेत्र उत्कृष्ट होता है। भाव भी जो सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके द्वारा बाँधा गया है वह लोकपूरणको प्राप्त केवली में उत्कृष्ट भी होता है व अनुत्कृष्ट भी १ - प्रत्योः 'सरिसत्तण्ण' इति पाठः । २ - श्रापत्योः 'लद्धो', ताप्रतौ 'ल [ब] द्धो' इति पाठः । ३ प्रतौ 'उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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