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________________ ११४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २०१ सयजीवरासिपडिभागअणंतभागब्भहियत्तं जुज्जदे, विरोहादो। एवं असंखेज्जलोगमेत्तट्टाणाणं पादेकं सरूवपरूवणं कायव्यं । एवं हाणपरूवणा समत्ता।। अंतरपरूवणदाए एकेकस्स हाणस्स केवडियमंतरं ? सव्वजीवेहि अणंतगुणं, एवडिय'मंतरं ॥२०१ ॥ असंखेजलोगमेत्ताणि अणुभागबंधहाणाणि संतहाणाणि च परूविदाणि । एदम्हादो चेव परूवणादो णव्वदे जहा हाणाणमंतरमत्थि त्ति, अण्णहा हाणभेदाणुववत्तीदो। तदो अंतरपरूवणा णिप्फले त्ति ? ण णिप्फला, अंतरपमाणपरूवणदुवारेण सहलत्तदंसणादो। ण च हाणभेदावगममेत्तेण अंतरपमाणमवगम्मदे, तहाणुवलंभादो। ण च हाणाणमंतरेण होदव्वमेव इत्ति णियमो अस्थि, अविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण गदाणं पि ठाणत्तं पडि विरोहाभावादो' । किं ठाणंतरं णाम ? हेहिमट्ठाणमुवरिमट्ठाणम्हि सोहिय रूवूणे कदे जं लद्धं तं हाणंतरं णाम । तत्थ जं जहण्णं ठाणंतरं तं पि सव्वजीवेहितो अणंतगुणं, एगम्मि अणंतभागवड्डिपक्खेवे वि सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तअविभागपडिसब जीवराशिके प्रतिभाग रूप अनन्तभागसे अधिकता भी घटित नहीं होती, क्योंकि, उसमें विरोध है। इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र स्थानों से प्रत्येकके स्वरूपकी प्ररूपणा करनी चाहिये। इस प्रकार स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। अन्तरप्ररूपणामें एक एक स्थान का अन्तर कितना है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा है, इतना अन्तर है ॥ २०१॥ शंका-असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागबन्धस्थान और सत्त्वस्थानोंकी प्ररूपणा की जा चुकी है। इसी प्ररूपणासे जाना जाता है कि स्थानोंमें अन्तर है, क्योंकि, इसके बिना स्थानभेद घटित नहीं होता। इस कारण अन्तरप्ररूपणा निष्फल है ? समाधान-वह निष्फल नहीं है, क्योंकि अन्तरके प्रमाणकी प्ररूपणा द्वारा उसकी सफलता देखी जाती है। कारण कि स्थानभेदके जान लेने मात्रसे अन्तरका प्रमाण नहीं जाना जाता, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता है। दूसरे स्थानोंका अन्तर होना ही चाहिये, ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, एक एक अविभागप्रतिच्छेदकी अधिकताके क्रमसे गये हुए भी स्थानोंको स्थानरूपता में कोई विरोध नहीं है। शंका--स्थानान्तर किसे कहते हैं ? समाधान--उपरिम स्थानोंमेंसे अधस्तन स्थानको घटाकर एक कम करनेपर जो प्राप्त हो वह स्थानोंका अन्तर कहा जाता है। उसमें जो जघन्य स्थानान्तर है वह भी सब जीवोंसे अनन्तगुणा है, क्योंकि, एक अनन्तभाग वृद्धि प्रक्षेपमें भी सब जीवोंसे अनन्तगुणे मात्र अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। यहाँ १ अ-श्राप्रत्योः 'केवडिय', मप्रतौ 'येवडिय' इति पाठः । २.अप्रतौ 'विरोधाभावो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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