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________________ ४, २, ७, २००] वेयणमहाहियारे वेयणभाषविहाणे विदिया चूलिया [ ११३ विजादिसरूवा घेप्पदे, कालस्स आणतियप्पसंगादो। ण च सेसपरूवणा णिप्फला, अप्पिदअणुभागपरमाणुणा अविणाभावियअणुभागपरूवणदुवारेण पयदस्सेव परूवणाए सफलत्तादो । एगेण चेव परमाणुणा जदि एगं ठाणं णिप्फजदि' तो एगसमए एगजीवम्मि हाणाणमाणंतियं पसजदे ? जदि एवं घेप्पदि तो सव्वमणंताणि' चेव हाणाणि होति । [ण] च एवं, दव्वट्टियणयावलंबणादो । तं जहा-ण ताव समाणधणाणं गहणं, तदणुभागस्स समाणतणेण अप्पिदेण एगत्तमुवगयस्स तत्थेव उवलंभादो । ण असमाणाणं गहणं, सद संखाए एगादिसंखाए व हेहिमाणुभागाणमुक्कस्साणुभागे उवलंभादो । एत्थ दव्वहियणओ अवलंविदो ति कधं णव्वदे ? ओकड्डक्कड्डणाए ह्राणहाणि-वड्डीणमभावादो संतस्स हेट्ठा अणुभागे बज्झमाणे अणुभागहाणवुड्डीए अणुवलंभादो संतं पेक्खिदूण एक्कम्हि समए अणंतभागवड्डीए बंधे वि अणुभागवुड्डिदंसणादो अगुणियकम्मंसियम्मि उक्कस्साणुभागाभावादो वत्तीए'। ण च समाणासमाणधणेसु पोग्गलेसु घेप्पमाणेसु होनेपर कालकी अनन्तताका प्रसंग आता है। यदि कहा जाय कि शेष प्ररूपणा निष्फल है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, विवक्षित अनुभाग परमाणुके साथ अविनाभाव रखनेवाले अनुभागकी प्ररूपणा द्वारा प्रकृत की ही प्ररूपणा सफल है। शंका एक ही परमाणुसे यदि एक स्थान उत्पन्न होता है तो एक समयमें एक जीवमें स्थानोंकी अनन्तताका प्रसंग आता है। समाधान- यदि ऐसा ग्रहण करते हैं तो सचमुचमें सब अनन्त स्थान होते हैं। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, व्यार्थिक नयका अवलम्बन है। वह इस प्रकारसे-समान धनवा तो ग्रहण हो नहीं सकता, क्योंकि, उनके अनुभागकी समानता होनेसे विवक्षितके साथ एकताको प्राप्त हुआ वह वहाँ ही पाया जाता है। असमान धनवाले परमाणुओंका भी ग्रहण नहीं हो सकता है, क्योंकि, जिस प्रकार एक आदि संख्याएँ शत संख्या में पायी जाती हैं उसी प्रकार अधस्तन अनुभाग उत्कृष्ट अनुभागमें पाये जाते हैं। - शंका-यहाँ द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन है, यह कैसे जाना जाता है ? __ समाधान-अपकर्षण व उत्कर्षण द्वारा स्थानकी हानि व वृद्धि का अभाव होनेसे, सत्त्वके नीचे अनुभागके बाँधे जानेपर अनुभागस्थानवृद्धिके न पाये जानेसे, सत्त्वकी अपेक्षा एक समयमें अनन्तभागवृद्धि द्वारा बन्धके होनेपर भी अनुभागवृद्धिके देखे जानेसे, तथा गुणितकर्माशिकसे अन्य जीवमें उत्कृष्ट अनुभागके अभावकी आपत्ति आनेसे जाना जाता है कि यहाँ द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन है। इसके अतिरिक्त समान व असमान धनवाले पुद्गलोको ग्रहण करनेपर १ श्रा-ताप्रत्योः 'णिप्पज्जदि' इति पाठः। २ अप्रतौ 'सव्यमणंताणि', अाप्रतौ 'सव्वधणंताणि तापतौ 'सच्च (ब) मणंताणि' इति पाठः। ३ प्राप्रती 'सग' इति पाठः। ४ अप्रतौ 'अणुभागे बज्झमाणे' इत्येतावान् पाठो नास्ति । ५ अप्रतौ ‘भावादो व वत्तीए च', आप्रतौ 'भावादो वड्डीए च', ताप्रतौ 'भावादो. वत्तीए च', मप्रतौ भावादो वत्तीए' इति पाठः । छ. १२-१५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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