SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 430
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, २, १३, ५१] . वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं ३९७ कुदो ? णेरड्यदुचरिमसमयम्मि उक्कस्ससंकिलेसाविणाभाविम्हि बद्ध उक्कस्सद्विदीए चरिमसमयम्मि अधट्टिदिगलणेण एगसमयपरिहाणिदंसणादो। तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥४८॥ सुगमं । णियमा अणुकस्सा अणंतगुणहीणा ॥४६ ॥ सुहमसांपराइयखवगचरिमाणुभागवंधं पेक्खिदूण णेरइयचरिमसमयाणुभागस्स अणंतगुणहीणत्तुवलंभादो । कुदो ? सादावेदणीयस्स सुहस्स संकिलेसेण अणुभागहाणिदंसणादो। जस्स वेयणीयवेयणा खेत्तदो उकस्सा तस्स दव्वदो किमुक्कस्सा अणकस्सा ॥५०॥ सुगमं। णियमा अणुकस्सा चउहाणपदिदा ॥५१॥ उक्कस्सा किण्ण जायदे ? ण, रइयचरिमसमयगुणिदकम्मंसियम्मि उक्कस्सभावेण अवविदवेयणीयदव्ववेयणाए लोगपूरणाए वट्टमाणसजोगिकेवलिम्हि संभवविरोहादो। संपहि दव्वस्स चउट्ठाणपदिदत्तं कधं णव्वदे ? सुत्ताणुसारिवक्खाणादो। तं कारण कि उत्कृष्ट संक्लेशक अविनाभावी नारक भावके द्विचरम समयमें बाँधी गई उत्कृष्ट स्थितिमेंसे चरम समयमें अधःस्थितिके गलनेसे एक समयकी हानि देखी जाती है। उसके भावकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ४८॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमतः अनुत्कृष्ट चार स्थानों में पतित होती है ॥ ४ ॥ कारण यह कि सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम समय सम्बन्धी अनुभागकी अपेक्षा नारक जीवका अन्तिम समय सम्बन्धी अनुभाग अनन्तगुणा हीना पाया जाता है, क्योंकि, साता वेदनीयके शुभ प्रकृति होनेसे संक्लेशके द्वारा उसके अनुभागमें हानि देखी जाती है। जिस जीवके वेदनीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ५० ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट चार स्थानों में पतित होती है ॥ ५१ ॥ शंका-वह उत्कृष्ट क्यों नहीं होती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, नारक भवके अन्तिम समयमें वर्तमान गुणितकांशिक जीवमें उत्कृष्ट स्वरूपसे अवस्थित वेदनीय कर्मकी द्रव्य वेदनाके लोकपूरण अवस्थामें रहनेवाले सयोगकेवलीमें होनेका विरोध है। शंका-यह अनुस्कृष्ट द्रव्य वेदना चार स्थानोंमें पतित है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह सूत्रका अनुसरण करनेवाले व्याख्यानसे जाना जाता है। यथा-एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy