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________________ ४, २, १३, २०. ] वेणसगियासविहाणाणियोगद्दारं तो अणुस्सा होदि, तेहि उक्कस्सडिदी चेव बज्झदि त्ति नियमाभावादो । उकस्सादो अणुकस्सा तिठ्ठाणपदिदा - असंखेज्जभागहींणा वा संखेज्जभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा ॥ २० ॥ किमङ्कं तिष्णं हाणीणं णामणिद्देसो कीरदे ? अनंतभागहाणि असंखेज्जगुणहाणि - अनंतगुणहाणीयो कालम्मि णत्थि त्ति जाणावणङ्कं । तत्थ ताव तासिं हाणीणं सरूवपरूवणं कस्साम । तं जहा — उकस्सखेत्तं काढूण अच्छिदमहामच्छेण तीसं सागरोवमकोMinist समऊणासु पबद्धासु णाणावरणीयकालवेयणा अणुक्कस्सा होदि, ओघुकस्सहिदि पेक्खिदूण समऊणत्तादो । एदिस्से हाणीए को भागहारो होदि । उक्कस्सट्ठिदी चेव । कुदो ? उक्कस्सट्ठिदिं विरलेदूण तं चैव समखंडं काढूण दिण्णे रूवं पडि एगेगरूवुवलंभादो । पुणो उक्कस्सखेत्तं काढूणच्छिदमहामच्छेण दुसमऊणुकस्साए द्विदीए ' पत्रद्धाएं असंखेज्जभागहाणी होदि । पुणो तेणेव तिसमऊणुक्कस्सट्ठिदीए पबद्धाएं असंखेज्जभागहाणी चैव होदि । एवमसंखेज्जभागहाणी होदूण ताव गच्छदि जाव उक्कस्सखेत्तं काढूणच्छिद महामच्छेण तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ जहण्णपरित्तासंखेज्जेण अपेक्षा अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि, उन परिणामोंके द्वारा उत्कृष्ट स्थिति ही बँधती है; ऐसा नियम नहीं है । वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट असंख्यात भागहीन, संख्यात भागहीन या संख्यातगुणहीन, इन तीन स्थानों में पतित है ।। २० ।। शंका- तीन हानियों के नामोंका निर्देश किसलिये किया जारहा है ? [ ३८५ समाधान-कालमें अनन्तभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अनन्तगुणहानि; ये तीन हनियाँ नहीं है, इसके ज्ञापनार्थ उन तीन हानियोंका नाम निर्देश किया गया है। अब सर्व प्रथम उन हानियोंके स्वरूपकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकारसे - उत्कृष्ट क्षेत्रको करके स्थित महामत्स्यके द्वारा एक समय कम तीस कोड़ीकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थितियोंके बांधे जानेपर ज्ञानावरणीयकी कालवेदना अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि, ओघ उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा वह एक समय कम है । शंका- इस हानिका भागद्दार क्या है ? समाधान - उसका भागहार उत्कृष्ट स्थिति ही, है, क्योंकि, उत्कृष्ट स्थितिका विरलन करके उसी को समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति एक एक अंक पाया जाता है । पुनः उत्कृष्ट क्षेत्रको करके स्थित हुए महामत्स्यके द्वारा दो समय कम उत्कृष्ट स्थिति के बांधे जानेपर असंख्यात भागहानि होती है । फिर उसी महामत्स्यके द्वारा तीन समय कम उत्कृष्ट स्थितिके बांधे जाने पर असंख्यात भागहानि ही होती है । इस प्रकार असंख्यात भागहानि होकर तब तक जाती है जब तक कि उत्कृष्ट क्षेत्रको करके स्थित हुए महामत्स्यके द्वारा तीस कोड़ाकोड़ि १ श्रश्रा - कामतिषु - गुकस्सा हिदीए', ताप्रतौ ' -णुकरसहिदीए' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'उक्करसेण खेतं' इति पाठः । छ. १२४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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