SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (वेयणसामित्तविहाणाणियोगद्दार वेयणसामित्तविहाणे ति ॥ १॥ मंदमेहावीणमंतेवासीणमहियारसंभालणहमिदं सुत्तं परविदं । जं जेण कम्मं बद्धं तस्स' वेयणाए सो चेव सामी होदि ति विणोवदेसेण णजदे। तम्हा वेयणसामित्तविहाणे ति अणिओगद्दारं णाढवेदव्यमिदि. १ जदि जदो उप्पण्णो तत्थेव चिटेज कम्मक्खंधो तो सो चेव सामी होज । ण च एवं, कम्माणमेगादो उप्पत्तीए अभावादो । तं जहा–ण ताव जीवादो चेव कम्माणमुप्पत्ती, कम्मविरहिदसिद्धेहितो वि कम्मुप्पत्तिप्पसंगा । णाजीवादो चेव, जीववदिरित्तकालपोग्गलाकासेहितो वि तदुप्पत्तिप्पसंगादो। 'णासमवेदजीवाजीवेहिंतो चेव समुप्पजदि, सिद्धजीवपोग्गलहितो वि कम्मुप्पत्तिप्पसंगादो। ण च संजुत्तेहिंतो चेव तदुप्पत्ती, संजुत्तजीव-पोग्गलेहिंतो कम्मुप्पत्तिप्पसंगादो। अब वेदनस्वामित्व विधान प्रकृत है ॥१॥ मन्दबुद्धि शिष्योंको अधिकारका स्मरण कराने के लिये यह सूत्र कहा गया है। शंका-जिस जीवके द्वारा जो कर्म बांधा गया है वह उक्त कर्मकी वेदनाका स्वामी है, यह विना उपदेशके ही जाना जाता है। अत एव वेदनस्वामित्वविधान अनुयोगद्वारको प्रारम्भ नहीं करना चाहिये? समाधान-कर्मस्कन्ध जिससे उत्पन्न हुआ है वहाँ ही यदि वह स्थित रहे तो वही स्वामी हो सकता है। परन्तु ऐसा है नहीं; क्योंकि, कोंकी उत्पत्ति किसी एकसे नहीं है। इसीको स्पष्ट करते हैं यदि केवल जीवसे ही कर्मोंकी उत्पत्ति स्वीकार की जाय तो वह सम्भव नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारसे कर्म रहित सिद्धोंसे भी कर्मोकी उत्पत्तिका प्रसंग आ सकता है । एकमात्र अजीवसे भी कर्मोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि, ऐसा होनेपर जीवसे भिन्न काल, पुद्गल एवं आकाशसे भी कर्मोंकी उत्पत्तिका प्रसंग अनिवार्य होगा। असमवेत (समवाय रहित) जीव व अजीव दोनोंसे भी कर्मोकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर [ समवाय रहित ] सिद्ध जीव और पुद्गलसे भी कर्मोंकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। इस प्रसंगके निवारणार्थ यदि संयुक्त जीव व अजीवसे ही कोंकी उत्पत्ति स्वीकार की जाती है तो वह भी नहीं बन सकती, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेपर संयुक्त जीव और पुद्गलसे भी उनकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। १ श्रा-ताप्रत्योः तिस्से' इति पाठः। २ अ-आप्रत्योः 'णादवेदव्वमिदि' पाठः। ३ प्रतिषु 'तदो' इति पार।४ताप्रतौ 'णो[अ] जीवादो' इति पाठः।५मप्रतिपाठोऽयम् । अ-पा-ताप्रतिषु 'ण समवेद' इति पाठः। ताप्रती 'संजुतेहिंत्तो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy