SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ > वे जीवसे पृथक् न पाये जानेके कारण जीवपदसे लिए गये हैं । तथा वे ही अनन्तानन्त विस्रसोपचयसहित कर्मपुद्गल स्कन्ध ही प्राणधारण शक्तिले रहित होनेके कारण अथवा ज्ञान-दर्शनशक्तिसे रहित होनेके कारण नोजीव कहलाते हैं । अथवा उनसे सम्बन्ध रखनेके कारण जीवको भी नोजीव कहते हैं । संग्रह नयकी अपेक्षा इन ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की वेदनाका कथंचित् एक जी स्वामी है और कथंचित् नाना जीव स्वामी हैं। तथा शब्द और ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा इन ज्ञानावरणादि वेदनाका एक जीव स्वामी है। यहाँ इन नयोंकी अपेक्षा एक जीवको स्वामी कहनेका कारण यह है कि ये नय बहुवचनको स्वीकार नहीं करते । १० वेदनावेदनाविधान इस अनुयोगद्वार में सवप्रथम नैगमनयकी अपेक्षा जीव, प्रकृति और समय, इनके एकत्व और अनेकत्वका आश्रय करके ज्ञानावरण वेदना के एकसंयोगी, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी भंगों का प्ररूपण किया गया है । यथा - ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् बध्यमान वेदना है, कथंचित् उदीर्ण वेदना है, कथंचित् उपशान्त वेदना है, कथंचित् बध्यमान वेदनाएँ हैं, कथंचित् उदीर्ण वेदनाएं हैं, कथंचित् उपशान्त वेदनाएं हैं, इत्यादि । यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि इन अंगों का विवेचन करते हुए वीरसेन स्वामीने विवक्षाभेदसे इन भंगों के अन्य अनेक अवान्तर भंगों का भी निर्देश किया है। नैगमनयकी अपेक्षा शेष सात कर्मों के भंग ज्ञानावरण के ही समान हैं। आगे व्यवहारनय और संग्रह की अपेक्षा यथासम्भव इन भंगों का क्रमसे विवेचन करके ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा आठ कर्मों के फलप्राप्त विपाकको ही वेदना बतलाया है । शब्दनयका विषय इन सब दृष्टियों से अत्रतत्र्य है, यह स्पष्ट ही है । ११ वेदनागतिविधान इस अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि कर्मोंकी वेदना अपेक्षाभेदसे क्या स्थित है, क्या स्थित है या क्या स्थितास्थित है, इस बातका विचार किया गया है । पहले नैगम, संग्रह और व्यवहारनयी अपेक्षा बतलाया है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायकर्म की वेदना कथंचित् स्थित है और कथंचित् स्थितास्थित है । तथा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्मकी वेदना कथंचित् स्थित है, कथंचित् अस्थित है और कथंचित् स्थित स्थित है । ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा विवेचन करते हुए बतलाया है कि आठों कर्मों की वेदना कथंचित् स्थित है और कथंचित् स्थित है। तथा शब्दनयकी अपेक्षा सब कर्मोंकी वेदना अवक्तव्य है, यह बतलाया गया है । १२ वेदनाअनन्तर विधान ज्ञानावरणादि कर्मोंका बन्ध होनेपर वे उसी समय फल देते हैं या कालान्तर में फल देते हैं, इस विषयका विवेचन करने के लिए वेदना अनन्तरविधान अनुयोगद्वार आया है । इसमें बतलाया है कि नैगम और व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंकी वेदना अनन्तरबन्ध है, परम्पराबन्ध है और तदुभयबन्ध है । संग्रहनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंकी वेदना अनन्तरबन्ध है और परम्पराबन्ध है । ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा आठों कर्मोंकी वेदना परम्पराबन्ध है। और शब्दन की अपेक्षा आठों कर्मोंकी वेदना अवक्तव्यबन्ध है । १३ वेदनासन्निकर्षविधान / ज्ञानावरणादि कर्मोंकी वेदना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट भी होती है और जघन्य भी । फिर भी इनमें से प्रत्येक कर्मके उत्कृष्ठ या जघन्य द्रव्यादि वेदनाके रहनेपर उसीकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy