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________________ ४, २, १३, ३१७] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [४७५ तस्स गामवेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ३१३ ॥ सुगमं । जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा छट्ठाणपदिदा ॥३१४॥ जहण्णमाउअमावं पंधिय सुहमणिगोदजीवअपञ्जत्तेसु उप्पञ्जिय हदसमुप्पत्तियं काऊण जदि णामस्स जहण्णाणुभागो कदो तो आउअभावेण सह णामभावो जहण्णो होदि । अण्णहा अजहण्णो होदण छट्टाणपदिदो जायदे । जस्स णामवेयणा भावदो जहण्णा तस्स छण्णं कम्माणमाउअवजाण वेयणा भावदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥३१५ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥३१६ ॥ सुगम । तस्स आउअवेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ३१७ ॥ सुगम । . उसके नामकर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ३१३॥ ___ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी होती है, जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य छह स्थानों में पतित होती है ॥ ३१४ ॥ __ आयुके जघन्य अनुभागको बाँधकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न होकर हतसमुत्पत्ति करके यदि नामकर्मका अनुभाग जघन्य कर लिया है तो आयुके अनुभागके साथ नाम कर्मका अनुभाग जघन्य होता है। इससे विपरीत अवस्थामें वह अजघन्य होकर छह स्थान पतित होता है। जिस जीवके नामकर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके आयुको छोड़कर शेष छह कर्मोंकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ३१५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ।। ३१६ ॥ यह सूत्र सुगम है। उसके आयुकी वेदना क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ३१७ ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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