SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [२, ४, १३, २४०० अणुक्कस्सा होदि, विसेसपञ्चयविगलत्तणेण एगसमयमादि कादूण जाव पक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेतद्विदीणं परिहाणिदंसणादो। परिहीणद्विदीणं को पडिभागो ? सादिरेयउक्कस्सोबाहा । कुदो ? उक्कस्सावाहाए उकस्सहिदीए खंडिदाए तत्थ एगखंडस्स रूवूणमेत्तस्स परिहाणिदंसणादो। उक्कस्सेण एत्तिया चेव हाणी होदि, अण्णहा आचाहाहागीए णाणावरणीयस्स वि उकस्सहिदीए अभावप्पसंगादो । तस्स आउववेयणा कालदो किमुक्कस्सा अणकस्सा ॥२४०॥ सुगमं । उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा, उकस्सादो अणुक्कस्सा चउट्ठाण पदिदा ॥२४१ ॥ _णाणावरणीयहिदीए वक्कम्मियाए बज्झमाणियाए जदि आउअस्स वि पुव्वकोडितिभागपढमसमए उक्कस्सबंधो होदि तो णाणावरणीयट्ठिदीए सह आउहिदी वि उकस्सा होदि । अण्णहा अणुक्कस्सा होदूण चउहाणपदिदा होदि । तं जहा-णाणावरणीयस्स उक्कस्सटिदिं बंधमाणेण समऊणदुसमऊणादिकमेण पुवकोडितिभागाहियतेत्तीससागरोवमाणि उक्कस्ससंखेज्जेण खंडिय तत्थ एगखंडमेतं जाव परिहाइदूण आउए पबद्धे असंखेज्जभागहाणी होदि । तत्तो क्योंकि, विशेष प्रत्ययोंसे विकल होने के कारण एक समयसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितियोंकी हानि देखी जाती है। शंका-हीन स्थितियों का प्रतिभाग क्या है ? समाधान-उनका प्रतिभाग साधिक उत्कृष्ट आबाधा है, क्योंकि, उत्कृष्ट आबाधासे उत्कृष्ट स्थितिको खण्डित करनेपर उसमें एक कम एक खण्ड मात्रकी हानि देखी जाती है। उत्कृष्टसे इतनी मात्र ही हानि होती है, क्योंकि, अन्यथा आबाधाकी हानि होनेपर झाना. वरणीयकी भी उत्कृष्ट स्थितिके अभावका प्रसंग आता है। उसके आयुकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ।।२४०॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुष्ट भी। उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट चार स्थानों में पतित है ॥ २४१ ॥ ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिके बाँधते समय यदि आयुकर्मका भी पूर्वकोटिके त्रिभागके प्रथम समयमें उत्कृष्ट बन्ध होता है तो ज्ञानावरणीयकी स्थितिके साथ आयुकी स्थिति भी उत्कृष्ट होती है। इसके विपरीत वह अनुत्कृष्ट होकर चार स्थानों में पतित होती है। यथा-ज्ञानावरणोयकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके द्वारा एक समय कम दो समय कम इत्यादि क्रमसे पर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक तेतीस सागरोपमोको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उनमें एक खण्ड मात्र तक हीन होकर आयुके बाँधनेपर असंख्यातभागहानि होती है। वहांसे लेकर आयुकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy