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________________ [४१७ ४,२, १३, १०६ ] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं वड्डी ताव गच्छदि जाव जहण्णदव्वस्सुवरि 'अण्णेगजहण्णदव्वमेत्तं वविदं ति। ताधे संखेज्जगुणवड्डीए आदी होदि । एत्तो उवरि परमाणुत्तरकमेण वड्डमाणे संखेज्जगुणवड्डी चेव होदि जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जेण गुणिदं ति । तत्तो पहुडि उरिमसंखेज्जगुणवड्डी चेव होदूण गच्छदि जाव जहण्णक्खेत्तसहचारिउक्तस्सदव्वं ति । केण लक्खणेणागदस्स उक्कस्सदव्वं जायदे ? गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सत्तमपुढविणेरइयचरिमसमए दव्वमुक्कस्सं करिय पंचिंदियतिरिक्खसु उप्पज्जिय पुणो तिसमयआहार-तिसमयतब्भवत्थजहण्णजोगसुहुमणिगोदअपज्जत्तएसु उप्पण्णस्स उकस्सं जायदे । एदेण कारणेण दव्वं चउट्ठाणपदिदं चेवे त्ति घेत्तव्यं । तस्स कालदो किं जहण्णा [ अजहण्णा ]॥ १०४॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ १०५ ॥ कुदो ? खीणकसायचरिमसमयजहण्णदव्वकालेण एगसमयपमाणेण जहण्णखेत्तसहचारिणाणावरणीयकाले सागरोवमस्स तिष्णिसत्तभागमेत्ते पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण परिहीणे भागे हिदे असंखज्जरूवोवलंभादो। तस्स भावदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥१०६॥ तक जाती है जब तक जघन्य द्रव्यके ऊपर अन्य एक जघन्य द्रव्य प्रमाण वृद्धि होती है । तब संख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है। इससे आगे परमाणु अधिक क्रमसे वृद्धिके चालू रहनेपर जघन्य परीतासंख्यातसे गणित मात्र होने तक संख्यातगुणवृद्धि ही होती है उससे लेकर आगे जघन्य क्षेत्रके साथ रहनेवाले उत्कृष्ट द्रव्य तक असंख्यातगुणवृद्धि ही होकर जाती है । शंका-किस स्वरूपसे आये हुए जीवके उत्कृष्ट द्रव्य होता है ? समाधान-गुणितकांशिक स्वरूपसे आकरके सप्तम पृथिवीस्थ नारकीके अन्तिम समयमें द्रव्यको उत्कृष्ट करके पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो । पुनः त्रिसमयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान जघन्य योगवाले सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न हुए जीवके उत्कृष्ट द्रव्य होता है। इसी कारणसे द्रव्य चार स्थानोंमें ही पतित है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१०४॥ यह मूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १०५॥ कारण कि क्षीणकषायके अन्तिम समय सम्बन्धी जघन्य द्रव्यके एक समय प्रमाण कालका जघन्य क्षेत्र के साथ रहनेवाले पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे तीन भाग प्रमाण ज्ञानावरणीय कालमें भाग देनेपर असंख्यात रूप पाये जाते हैं। उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१०६ ॥ १ प्रतिषु 'श्रणेग' इति पाठः। . छ. १२-५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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