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________________ २६२] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ७, २८१. पावदि, गहिदगहणादो । तत्थ एगरूवधरिदमैत्ताओ जवमझादो हेडिमगुणहाणिसलागाओ त्ति घेत्तव्यं । एदासिं सलागाणं विरलिय विगुणिदाणं अण्णोण्णब्भत्थरासिपमाणं जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्ध मेत्तं होदि । एदेण जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धण गुणगारगुणिजमाणसरूवेण अवट्ठिदेसु उवरिमविरलणमेत्तेसु जवमझजीवेसु ओवट्टिदेसु गुणगार-भागहारे सरिसे अवणिय रूवूणुवरिमविरलणमेत्तेसु जहण्णपरित्तासंखेज्जयम्स अद्धसु अण्णोण्णभत्थेसु संतेसु जहण्णट्ठाणजीवपमाणं होदि । जहण्णपरित्तासंखेञ्जवग्गचदुब्भागमेत्ता उक्कस्सट्ठाणजीवा जदि होति तो जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धछेदणय. सलामाओ रूवूणाम्रो दुरूवूणुवरिमविरलणाए गुणिदाओ जवमझादो उवरिमगुणहाणि. सलागपमाणं होदि। उवरिमविरलणा च असंखेजा, जहण्णपरित्तासंखेजयस्स रूवूणद्धबेदणएहि उक्कस्ससंखेजे भागे हिदे तत्थ एगभागेण अब्भहियउक्कस्ससंखेजपमाणत्तादो । तेण हेट्ठिमगुणहाणिसलागाहिंतो उवरिमगुणहाणिसलागाओ असंखेजगुणा त्ति सिद्धं । ण च जहण्णपरित्तासंखेजयस्स रूबूणद्धछेदणयमेत्ताओ चेव जवमझादो हेट्ठिमगुणहाणिसलागाओ होंति त्ति णियमो अस्थि । किं तु एत्तियमेत्तासु हेहिमगुणहाणिसलागासु गहिदासु सुत्तविरोहो' णत्थि त्ति परूविदं । जहण्णपरित्तासंखेजयस्स रूवूणद्धछेदणय अंकके प्रति जघन्य परीतासंख्यातके एक कम अर्धच्छेदोंका प्रमाण प्राप्त होता है, यहाँ गृहीतका ग्रहण है। उनमें एक एक अंकके प्रति प्राप्त राशिप्रमाण यवमध्यसे नीचेकी गुणहानि शलाकायें होती हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। इन शलाकाओंका विरलन करके दूना कर परस्पर गुणित करनेपर जो प्रमाण प्राप्त होता है वह जघन्य परीतासंख्यातके अध भाग मात्र होता है। इस जघन्य परीतासंख्यातके अर्धे भागके द्वारा गुणकार गुण्य स्वरूपसे अवस्थित उपरिम विरलन प्रमाण यवमध्य जीवोंको अपवर्तित करने पर समान गुणकारों और भागहारोंका अपनयन कर एक कम उपरिम विरलन प्रमाण जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंको परस्पर गुणित करनेपर जघन्य स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है । जघन्य परीतासंख्यातके वर्गके चतुर्थ भाग प्रमाण यदि उत्कृष्ट स्थानके जीव होते हैं तो जघन्य परीतासंख्यातकी एक कम अर्धच्छेदशलाकायें दो अंकोंसे हीन ऊपरकी विरलन राशिसे गुणित होकर यवमध्यसे ऊपरकी गुणहानिशलाकाओंका प्रमाण होता है। उपरिम विरलन राशि भी असंख्यात हैं, क्योंकि, वे जघन्य परीतासंख्यातके एक कम अर्धच्छेदोंका उत्कृष्ट संख्यातमें भाग देनेपर उसमें एक भागसे अधिक उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण होती हैं। इसीलिये अधस्तन गुणहानिशलाकाओंकी अपेक्षा उपरिम गुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी हैं, यह सिद्ध होता है। यवमध्यसे नीचेकी गुणहानिशलाकायें जघन्य परीतासंख्यातके एक कम अर्धच्छेदोंके बराबर ही होती हैं, ऐसा नियम भी नहीं है। किन्तु अधस्तन गुणहानिशलाओंको इतनी मात्र ग्रहण करनेपर सूत्रविरोध नहीं है, ऐसी प्ररूपणा की गई है। जघन्य परीतासंख्यातके एक कम १ अ-आप्रत्योः 'सुत्तविरोहा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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