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________________ ४, २, ७, २८२] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [ २६३ प्पहुडि दुरूवूण-तिरूवूणादिकमेण ओवट्टिदाविय जवमझहेडिमगुणहाणिसलागाणं पमाणे परूविदे वि ण सुत्तविरोहो होदि ति वुत्तं होदि । हेडिमगुणहाणिसलागाओ एत्तियाओ चेव होति त्ति किण्ण बुच्चदे ? ण, तहाविहसुत्तवएसाभावादो' । ण च उकस्मट्ठाणजीवा जहण्णपरित्तासंखेज्जवरिमवग्गस्स चदुव्भागमेत्ता चेव होति ति णियमो अत्थि; ति-चत्तारिपंचादिजहण्णपरित्तासंखेजद्धाणमण्णोण्णब्भत्थरासिमेत्तेसु उक्कस्सट्ठाणजीवेसु गहिदेसु वि सुत्तविरोहाभावादो । एवमणंतरोवणिधा समत्ता। परंपरोवणिधाए अणुभागबंधज्झवसाणहाणजीवहिंतो तत्तो असंखेजुलोगं गंतूण दुगुणवहिदा ॥२८२॥ कुदो ? असंखेजलोगमेत्तअणुभागबंधज्झवसाणहाणेसु जीवा जहण्णाणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणजीवेहि सरिसा होदण पुणो तेसिमेगजीवेण । अहियत्तुवलंभादो। चदुसमइयहाणप्पहुडि जाव विसमइयाणमसंखेजदिभागो त्ति ताव सव्वट्ठाणाणि जीवेहिं सरिसाणि त्ति भणिदं होदि । अवद्विदमेत्तियमद्धाणं गंतूण एगेगजीववड्डीए जहण्णहाणजीवमेत्तेसु जीवेसु जहण्णट्ठाणजीवाणमुवरि वड्डिदेसु 'दुगुणवड्डिसमुप्पत्तीदो गुणहाणिअद्धाणमसंखेजलोगमेत्तं होदि त्ति घेत्तव्यं । अर्धच्छेदोंसे लेकर दो अंक कम, तीन अंक कम इत्यादि क्रमसे अपवर्तित कराकर यवमध्यकी अधस्तन गुणहानिशलाकाओंके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेपर भी सूत्र विरोध नहीं होता है, यह उसका अभिप्राय है। शंका- अधस्तन गुणहानिशलाकायें इतनी ही होती हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते ? समाधान-नहीं, क्योंकि, वैसा सूत्रोपदेश नहीं है। उत्कृष्ट स्थानके जीव जघन्य परीतासंख्यातके उपरिम वर्गके चतुर्थ भाग प्रमाण ही होते हैं, ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, तीन, चार, पाँच आदि जघन्य परीतासंख्यातके अर्ध भागोंको परस्पर गुणित करनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र उत्कृष्ट स्थानके जीवोंको ग्रहण करनेपर भी सूत्र विरोध नहीं होता है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। परम्परोपनिधामें जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानके जो जीव हैं उनसे असंख्यात लोकमात्र जाकर वे दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते हैं ।। २२॥ कारण यह है कि असंख्यात लोकमात्र अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों में जीव जघन्य अनुभागवन्धाध्यवसानस्थानके जीवोंसे समान होकर फिर वे एक जीवसे अधिक पाये जाते हैं। चार समय योग्य स्थानांसे लेकर दो समय योग्य स्थानोंके असंख्यातवें भाग तक सब स्थान जीवोंकी अपेक्षा समान हैं, यह अभिप्राय है। इतना भात्र अवस्थित अध्वान जाकर एक एक जीवकी वृद्धि द्वारा जघन्य स्थानसम्बन्धी जीवोंके ऊपर जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवोंके बराबर जीवोंके बढ़ जानेपर दूनी वृद्धिके उत्पन्न होने के कारण गुणहानिअध्वान असंख्यात लोकमात्र होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। १ प्रतिषु 'सुटुवए साभावादो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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