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________________ ४, २, ७, २६७.) वैयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२१९ प्पाबहुगे समत्ते अणुभागबंधझवसाणपरूवणा समत्ता । संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदाणं अणुभागसंतकम्मट्ठाणाणं परूवणं कस्सामो । पुव्वं परूविदबंधहाणाणं एण्हिं' भण्णमाणसंतकम्मट्ठाणाणं च को विसेसो ? उच्चदे-बंधेण जाणि णिप्फज्जति ठाणाणि ताणि बंधहाणाणि । अणुभागसंते घादिज्जमाणे जाणि णिष्फजंति हाणाणि ताणि वि कणि वि' बंधट्ठाणाणि चेव भण्णंति, बज्झमाणाणुभागट्टाणेण समाणत्तादो। जाणि पुण अणुभागहाणाणि घादादो चेव उप्पज्जति, ण बंधादो, ताणि अणुभागसंतकम्मट्ठाणाणि भण्णंति । तेसिं चेव हदसमुप्पत्तियहाणाणि विदिया सण्णा । बंधट्ठाणपरूवणं मोत्तण पढमं हदसमुप्पत्तियहाणपरूवणा किण्ण कदा ? ण, बंधादो उप्पज्जमाणाणं हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं अणवगयबंधट्ठाणस्स अंतेवासिस्स पण्णवणोवायाभावादो। संपहि सुहमणिगोदअपज्जत्तजहण्णाणुभागहाणप्पहुडि जाव पज्जवसाणअणुभागट्ठाणे ति ताव एदाणि असंखेज्जलोगमेतबंधसमुप्पत्तियहाणाणि एगसेडिआगारेण रचेदण पुणो एदेसिं बंधट्ठाणाणं घादकारणाणं असंखेज्जलोगमेत्तज्झवसाणट्ठाणाणं जहण्णपरिणामट्टाणमादि कादूण जावुकस्सझवसाणहाणपज्जवसाणाणमेगसेडिआगारेण वामपा इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर अनुभागबन्धाध्यवसानप्ररूपणा समाप्त हुई। अव इस सूत्रसे सूचित अनुभागसत्कर्मस्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं। शंका-पहिले कहे गये बन्धस्थानोंमें और इस समय कहे जानेवाले सत्त्वस्थानोंमें क्या समाधान-इस शंकाका उत्तर कहते हैं । बन्धसे जो स्थान उत्पन्न होते हैं वे बन्धस्थान कहे जाते हैं। अनुभागसत्त्वके घाते जानेपर जो स्थान उत्पन्न होते हैं उनमेंसे कुछ तो बन्धस्थान ही कहे जाते हैं, क्योंकि, वे बांधे जानेवाले अनुभागस्थान के समान हैं । परन्तु जो अनुभागस्थान घातसे ही उत्पन्न होते हैं, बन्धसे उत्पन्न नहीं होते हैं; वे अनुभागसत्त्वस्थान कहे जाते हैं। उनकी ही हतसमुत्पत्तिकस्थान यह दूसरी संज्ञा हैं। . शंका-बन्धस्थान प्ररूपणाको छोड़कर पहिले हतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि, वैसा होनेपर जो शिष्य बन्धस्थानके ज्ञानसे रहित है उसको बन्धसे उत्पन्न होनेवाले हतसमुत्पत्तिकस्थानोंका ज्ञान करानेके लिये कोई उपाय नहीं रहता। अब सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवके जघन्य अनुभागस्थानसे लेकर पर्यवसान अनुभागस्थान तक इन असंख्यात लोक मात्र बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंको एक पंक्तिके आकारसे रचकर फिर इन बन्धस्थानोंके घातके कारणभूत असंख्यात लोक मात्र अध्यक्सानस्थानोंमें जघन्य परिणामस्थानसे लेकर उत्कृष्ट अध्यवसानस्थान पर्यन्त स्थानोंको एक पंक्तिके आकारसे वाम पार्श्वभागमें १ अ-आप्रत्योः 'एण्ह' इति पाठः। २ श्राप्रतौ नोपलभ्यते पदमिदम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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