SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 528
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, २, १४, ३८. ] daणपरिमाणविहाणाणियोगद्दारं [ ४९५ ण च जुत्तीए सुत्तस्स बाहा संभवदि, सयलवाहादीदस्स सुत्तववएसादो । जदि एवं तो एदेसिं कम्माणं तिणं केवडिया समयपबद्धगुदा ? वीसंसागरोवमकोडा कोडिमेचा । एदेसिं तिष्णं कम्माणमुक्कस्सट्ठिदिबंधो अंतोकोडा कोडिमेत्तो चेव । ण च तेत्तियं कालमेदसिं बंधो वि संभवदि, कमेण संखेजवस्ससादिरेय तेत्ती ससागरोवममेत्तकालबंधुव भादो । जेसिमंतो को डाकोडिमेत्तावि समयपबद्धदा ण संभवदि कथं तेसिं वीससागरोत्रम कोडाको डिमेत्तसमयबद्ध णं संभवो त्ति ? ण एस दोसो, एदेसु तिसु कम्मे सु बज्झमाणे वीसंसागरोवमकोडाकोडीसु संचिदणामकम्मसमयपत्रद्धेसु एदेसु संकममाणेसु बी सागरोव मकोडाको डिमेत्तसमयपबद्धट्ठदाए उवलंभादो । एदाओ तिष्णि वि बंधपगदीओ । ण च बंधपयडीणं संकमेण समयपबद्धट्टदा वोत्तु सकिजदे, सादस्स वि तीसंसागरोत्रम कोडा कोडिमेत्तसमयपत्रद्धदापसंगादोत्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहाजासं पयडीणं द्विदितादो उवरि कम्हि वि काले ट्ठिदिबंधो संभवदि ताओ बंधपयडीओ णाम । जासं पुण पयडीणं बंधो चेव णत्थि, बंधे संते वि जासि पयडीणं हिदिसंतादो उवरि सव्वकालं बंधो ण संभवदि; ताओ संतपयडीओ, संतपहाणत्तादो। ण च आहारदुग- तित्थयराणं ट्ठिदिसंतादो उवरि बंधो अस्थि, समाइट्ठीसु तदणुत्रलंभादो वह व्याख्यानाभास कहा जाता है । यदि कहा जाय कि युक्तिसे सूत्रको बाधा पहुँचाई जा सकती है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, जो समस्त बाधाओं से रहित होता है उसकी सूत्र संज्ञा है । शङ्का - यदि ऐसा है तो फिर इन तीन कर्मोंकी समयप्रबद्धार्थता कितनी है ? समाधान — उनकी समयप्रबद्धार्थता बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण है । शङ्का - इन तीन कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण ही होता है । परन्तु इतने काल तक उनका बन्ध भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, वह क्रमसे संख्यात वर्ष और साधिक तेतीस सागरोपम काल तक ही पाया जाता है। इसलिए जिनकी अन्तःकोड़ाकोड़ी मात्र भी समय प्रबद्धार्थता सम्भव नहीं है उनके बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण समयप्रबद्धों की सम्भावना कैसे की जा सकती है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, बँधते समय इन तीनों कर्मोंमें बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंमें संचयको प्राप्त हुए नामकर्मके समयप्रबद्धोंका संक्रमण होनेपर इनकी बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण समयप्रबद्धार्थता पायी जाती है । शङ्का – ये तीनों ही बन्धप्रकृतियाँ हैं, और बन्धप्रकृतियोंकी संक्रमण से समयप्रबद्धार्थता कहना शक्य नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर साता वेदनीयकी भी समयप्रबद्धार्थता तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण प्राप्त होती है ? समाधान- यहाँ उक्त शङ्काका परिहार कहते हैं । वह इस प्रकार है - जिन प्रकृतियोंका स्थितिसत्त्वसे अधिक किसी भी कालमें बन्ध सम्भव है वे बन्धप्रकृतियाँ कही जातीं हैं । परन्तु जिन प्रकृतियों का बन्ध ही नहीं होता है और बन्धके होनेपर भी जिन प्रकृतियोंका स्थितिसत्त्वसे अधिक सदा काल बन्ध सम्भव नहीं है वे सत्त्वप्रकृतियाँ हैं, क्योंकि, सत्त्वकी प्रधानता है । आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका स्थिति सत्त्वसे अधिक बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि, वह सम्यग्दृष्टियों में नहीं पाया जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy