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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, १३, १६. सणियासी चउत्रिहो चैव होदि, दव्व-खेत्त-काल-भावेहिंतो वदिरित्तस्स अण्णस्स पंचमस्स अभावादो । जस्स णाणावरणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स खेतदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ६६ ॥ ४१४ ] for पुरस्सरा चेव अत्थपरूवणा कीरदे ? सोदुमिच्छंताणं चेव अत्थपरूपणा कीरदे, ण अण्णेसिमिदि जाणावणः अण्णहा परूवणाए विहलत्तप्पसंगादो | उक्तं च बुद्धिविहीन श्रोत वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुंसाम् ।. नेत्रविहीनेभर विलास- लावण्यवत्स्त्रीणाम् ॥ ४ ॥ ) धारण- गहण समत्थाणं चैव संजदाणं 'विणयालंकाराणं वक्खाणं कादव्यमिदि भणिदं होदि । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण भहिया ॥ ६७ ॥ कुदो ? सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स तिसमयआहार-तिसमयतन्भवत्थस्स "जहण्णजोगिस्स जहण्णोगाहणादो घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागपमाणादो णाणावरणजहण्ण संनिकर्ष चार प्रकारका ही है, क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे भिन्न अन्य पाँचवें संनिकर्षका अभाव है । जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ६६ ॥ शंका - प्रश्नपूर्वक ही अर्थकी प्ररूपणा किसलिये की जाती है ? समाधान - सुनने की इच्छा रखनेवाले जीवोंके लिये ही अर्थकी प्ररूपणा की जाती है, अन्यके लिये नहीं; यह जतलानेके लिये प्रश्नपूर्वक अर्थप्ररूपणा की जाती है, क्योंकि, इसके बिना प्ररूपणाके निष्फल होनेका प्रसंग आता है। कहा भी है जिस प्रकार पति अन्धे होनेपर स्त्रियोंका विलास व सुन्दरता व्यर्थ (निष्फल ) है, इसी प्रकार श्रोता के मूर्ख होनेपर पुरुषोंका वक्तापन भी व्यर्थ है ॥ ४ ॥ धारण व अर्थग्रहण समर्थ तथा विनयसे अलंकृत ही संयमी जनोंके लिये व्याख्यान करना चाहिये, यह उसका अभिप्राय है । वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ ६७ ॥ कारण यह कि त्रिसमयवर्ती आहारक व तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान जघन्य योगवाले सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी घनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अवगाहनाकी १ - कातिषु 'विणाया-' इति पाठः । २ - श्राकाप्रतिषु 'तन्भवत्थजहण्ण-' इति पाठः । ३ ताप्रतौ ' - पमाणात्तादो । णाणावरण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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