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________________ ४, २, ७, १८८.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे पढमा चूलिया [८५ जोगणिरोधकेवलिसंजदस्स गुणसेडिगुणोअसंखेजगुणो ॥१८५॥ कुदो ? साभावियादो। संपहि 'तबिवरीदो कालो संखेज्जगुणो [य] सेडीए' एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि- . (सव्वत्थोवो जोगणिरोधकेवलिसंजदस्स गुणसेडिकालो ॥१८६) जोगणिरोधं कुणमाणो सजोगिकेवली आउववजाणं कम्माणं पदेसमोकट्टिदूण उदए थोवं देदि । विदियसमए असंखेजगुणं देदि। तदियाए द्विदीए असंखेज्जगुणं णिसिंचदि । एवं ताव णिसिंचदि जाव अंतोमुहुत्तं । तदुवरिमसमए असंखेज्जगुणं णिसिंचदि । तत्तो विसेसहीणं जाव अप्पप्पणो अइच्छावणावलियमपत्तो त्ति । एत्थ जं गुणसेडीए कम्मपदेसणिक्खेवद्धाणं तं थोवं, सवजहण्णअंतोमुहुत्तपमाणत्तादो। अधापवत्तकेवलिसंजदस्स गुणसेडिकालो संखेजगणो ॥१८७॥ एत्था वि उदयादिगुणसेडिकमो पुव्वं व परूवेदव्यो। णवरि पुग्विल्लगुणसेडिपदेसणिसेगद्धाणादो एदस्स गुणसेडीए पदेसणिसेगद्धाणं संखेज्जगुणं । को गुणगारो ? संखेज्जा समया । खीणकसायवीयरायछदुमत्थस्स गुणसेडिकालोसंखेजगणो॥१८॥ को गुणगारो ? संखेजा समया । उससे योगनिरोधकेवली संयतका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥ १८५ ॥ क्योंकि ऐसा स्वभाव है। अब 'तव्विवरीदो कालो संखेजगुणो [य] सेडीए' इस गाथासूत्रके अर्थका कथन करनेके । लिये आगेका सूत्र कहते हैं योगनिरोध केवली संयतका गुणश्रेणिकाल सबसे स्तोक है ॥ १८६ ॥ योगनिरोध करनेवाला सयोगकेवली आयुको छोड़कर शेष कर्मों के प्रदेशोंका अपकर्षण कर उदयमें स्तोक देता है। उससे द्वितीय समयमें असंख्यातगुणा देता है। उससे तीसरी स्थितिमें असंख्यातगुणा निक्षिप्त करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक निक्षिप्त करता है। उससे आगेके समयमें असंख्यातगुणे प्रदेश निक्षिप्त करता है। आगे अपनी अपनी अतिस्थापनावलिको नहीं प्राप्त होने तक विशेष हीन निक्षिप्त करता है । यहां गुणश्रेणि कर्मप्रदेशनिक्षेपका अध्वान स्तोक है, क्योंकि, वह सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। उससे अधःप्रवृत्त केवली संयतका गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥ १८७ ॥ यहांपर भी उदयादि गुणश्रेणिका क्रम पहिलेके ही समान कहना चाहिए । विशेष इतना है कि पहिलेके गुणश्रेणिप्रदेशनिषेकके अध्वानसे अधःप्रवृत्त केवलीके गुणश्रेणिप्रदेशनिषेकका अध्वान संख्यातगुणा है । गुणाकार क्या है ? गुणाकार संख्यात समय है। उससे क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थका गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥१८८॥ गुणकार क्या है । गुणकार संख्यात समय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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