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________________ ४, २, ८, २.] वेयणमहाहियारे वेयणपञ्चविहाणं [ २७७ यखंधेहि देसविसयपञ्चासत्तीए अभावादो । वुत्तं च ( एयक्खेत्तोगाढ सव्वपदेसेहि कम्मणो जोग्गं'। . बंधड़ जहुत्तहेदू सादियमहणादिय वा वि ॥१॥) जदि एयक्खेतोगाढा कम्मइयखंधा पाणादिवादादो कम्मपजाएण परिणमंति तो सव्ववलोगगयजीवाणं पाणादिवादपच्चएण सव्वे कम्मइयखंधा अक्कमेण णाणावरणीयपज्जाएण परिणदा होति । ण च एवं, विदियादिसमएसु कम्मइयखंधाभावेण सयजीवाणं णाणावरणीयबंधस्स अभावप्पसंगादो। ण च एवं, सबजीवाणं णिबाणगमणप्पसंगादो? एत्थ परिहारो वुच्चदे-पच्चासत्तीए एगोगाहणविसयाए संतीए वि ण सव्वे कम्मइयक्खंधा णाणावरणीयसरूवेण एगसमएण परिणमंति, पत्तं दझ दहमाणदहणम्मि व जीवम्मि तहाविहसत्तीए अभावादो । किं कारणं जीवम्मि तारिसी सत्ती पत्थि ? साभावियादो । कम्मइयक्खंधा किं जीवेण समवेदा संता णाणावरणीयपज्जाएण परिणमंति आहो असमवेदा" १ णादिपक्खो, ओरालिय-वेउव्विय-आहार-तेजइयसरीरसण्णिदणोकम्मवदिरि प्रत्यासत्तिका अभाव है। कहा भी है सूक्ष्म निगोद जीवका शरीर धनांगुलके असंख्यातवें भागमात्र जघन्य अवगाहनाका क्षेत्र एक क्षेत्र कहा जाता है। उस एक क्षेत्रमें अवगाहको प्राप्त व कर्मस्वरूप परिणमनके योग्य सादि अथवा अनादि पुद्गल द्रव्यको जीव यथोक्त मिथ्यादर्शनादिक हेतुओंसे संयुक्त होकर समस्त प्रात्मप्रदेशोंके द्वारा बाँधता है ॥१॥ शंका-यदि एक क्षेत्रावगाहरूप हुए कार्मण स्कन्ध प्राणातिपातके निमित्तसे कर्म पर्यायरूप परिणमते हैं तो समस्त लोकमें स्थित जीवोंके प्राणातिपात प्रत्ययके द्वारा सभी कार्मण स्कन्ध एक साथ ज्ञानावरणीय रूप पर्यायसे परिणत हो जाने चाहिये। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि, वैसा होनेपर द्वितीयादिक समयोंमें कार्मण स्कन्धोंका अभाव हो जानेसे सब जीवोंके ज्ञानावरणीयका बन्ध न हो सकनेका प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा सम्भवं नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारसे समस्त जीवोंके मुक्ति प्राप्तिका प्रसंग अनिवार्य है ? समाधान- उपर्युक्त शंकाका परिहार कहा जाता है-एक अवगाहनाविषयक प्रत्यासत्तिके होनेपर भी सब कार्मण स्कन्ध एक समयमें ज्ञानावरणीय स्वरूपसे नहीं परिणमते हैं, क्योंकि, इन्धन आदि दाह्य वस्तुको जलानेवाली अग्निके समान जीवमें उस प्रकारकी शक्ति नहीं है। शंका-जीवमें वैसी शक्तिके न होनेका क्या कारण है ? समाधान-उसमें वैसी शक्ति न होनेका कारण स्वभाव ही है। शंका-कार्मण स्कन्ध क्या जीवमें समवेत होकर ज्ञानावरणीय पर्यायरूपसे परिणमते हैं अथवा असमवेत होकर ? प्रथम पक्ष तो सम्भव नहीं है, क्योंकि, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक १ अ-आप्रत्योः 'जोग' इति पाठः। २ गो०,क०, १८५। ३ अ-श्रापत्योः पादोदो' इति पाठः । ४ श्राप्रतौ 'अकम्मेण' इति पाठः। ५ अाप्रतौ 'असमदणादि-' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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