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________________ ३५६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२, १०,४७. तिसंजोगचउत्थसुत्तस्स वे चेव मंगा [२] । ए बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणं एग-दु[-ति] संजोगेहि ववहारणयमस्सिदूण णाणावरणीयवेयणविहाणं परूविदं । · एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥४७॥ जहा णाणावरणीयस्स ववहारणयमस्सिदूण वेयणवेयणविहाणं परूविदं तहा सेससत्तण्णं कम्माणं परवेदव्वा विसेसाभावादो। (संगहणयस्स णाणावरणीयवेदणा सिया बज्झमाणिया वेयणा ॥४८॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे जीव-पयडि-समयाणमेगवयणं जीवबहुवयणं च इविय १११/ पुणो एत्थ अक्खपरावत्तं' करिय जणिद पत्थारं च ठवेदूण | १२ / अत्थ परूवणं कस्सामो) तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा सिया बज्झइस प्रकार तीनोंके संयोग रूप चतुर्थ सूत्रके दो ही भङ्ग हैं ( २)। इस प्रकार व्यवहार नयका आश्रय करके बध्यमान, उदीर्ण और उप्रशान्त, इनके एक, दो [ और तीनोंके ] संयोगसे ज्ञानावरणीयकी वेदनाके विधानकी प्ररूपणा की गई है। . इसी प्रकार शेष सात कर्मों के वेदनाविधानकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ ७॥ जिस प्रकार व्यवहारनयका आश्रय करके ज्ञानावरणीय कर्मकी वेदनाके विधानकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मोकी वेदनाके विधानकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है संग्रह नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् वध्यमान वेदना है ॥४॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय जीव, प्रकृति और समय इनके एक वचन तथा जीव प्रकृति समय जीवके बहुवचन | एक | एक | एक | को स्थापित करके फिर यहाँ अक्षपरावर्तन करके उत्पन्न | जीव | एक अनेक हुए प्रस्तार प्रकृति एक | एक | को स्थापित करके अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है समय | एक | एक | एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् बध्यमान वेदना है। इस प्रकार एक भङ्ग १ ताप्रतौ 'परावत्ति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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