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________________ ४, २, ७, २२१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१९७ कंदयमेत्ताओ चेव असंखज्जभागवड्डीयो सुत्तण परूविदाओ। संपहि तेरासिए'कीरमाणे रूवाहियकंडयादो अणंतभागवड्डिहाणाणं उप्पायणं कधं जुज्जदे ? ण एस दोसो, संखज्जभागवड्डीए हेट्ठा असंखेज्जभागवड्डीयो कंदयमेत्ताओ चेव, किंतु अण्णेकिस्से असंखेन्जभागवड्डीए विसयं गंतण असंखेज्जभागवड्डिपाओग्गद्धाणे असंखेज्जभागवड्डी अहोदूण' संखेजभागवड्डिसमुप्पत्तीदो। असंखेजभागभहियाणं कंदयवग्गं कंदयं च गंतूण संखेजगुणब्भहियट्ठाणं ॥ २२१ ॥१६ एदेसिमुप्पायणविहाणं उच्चदे । तं जहा- एकिस्से संखेजभागवड्डीए हेट्ठा जदि कंदयमेत्ताओ असंखेज्जभागवड्डीयो लभंति तो रूवाहियकंदयमत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए कंदयसहियकंदयवग्गमेत्ताओ असंखेज्जभागवड्डीयो होति । सेसं सुगमं ।। संखेजभागब्भहियाणं कंदयवग्गं कंदयं च गंतूण असंखेज्जगुणब्भहियट्ठाणं ॥२२२ ॥१६ तं जहा–एक्किस्से संखेजगुणवड्डीए हेहा जदि कंदयमेत्ताओ संखेज्जभाग___शंका-पहिले संख्यातभागवृद्धिके नीचे काण्डक प्रमाण ही असंख्यातभागवृद्धियाँ सूत्र द्वारा बतलाई गई हैं। अब त्रैराशिक करनेपर एक अधिक काण्डकसे 'अनन्तभागवृद्धिस्थानोंका उत्पन्न कराना कैसे योग्य है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संख्यातभागवृद्धिके नीचे असंख्यातभागवृद्धियाँ काण्डक प्रमाण ही होती हैं, किन्तु अन्य एक असंख्यातभागवृद्धिके विषयको प्राप्त होकर असंख्यातवृद्धिके योग्य अध्वानमें असंख्यातभागवृद्धि न होकर संख्यातभागवृद्धि उत्पन्न होती है । __ असंख्यातभागवृद्धियाँका काण्ड कवर्ग व एक काण्डक जाकर संख्यातगुणवृद्धिका स्थान होता है ॥ २२१ ॥ १६+४ इनके उत्पन्न करानेकी विधि बतलाते हैं। वह इस प्रकार है- एक संख्यातभागवृद्धिके नीचे यदि काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियाँ पायी जाती हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धियोंके नीचे वे कितनी पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर काण्डक सहित काण्डकवर्ग प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियाँ होती हैं । शेष कथन सुगम है। संख्यातभागवृद्धियोंका काण्डकवर्ग और एक काण्डक जाकर (१६+४) असंख्यातगुणवृद्धिका स्थान होता है ।। २२२ ॥ यथा-एक संख्यातगुणवृद्धिके नीचे यदि काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धियाँ पायी १ प्रतिषु 'तेराचीए' इति पाठः। २ अ-श्रा प्रत्योः 'बाहोदूण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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