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________________ ४५८] छक्खंडागमे वेयणाखं [४, २, १३, २५५ पमाणाणमसंते वावारविरोहादो। अविरोहे वा गद्दहसिंग पि पमाणविसयं होज्ज । ण च एवं, अणुवलंभादो । तम्हा भावो चेव अभावो त्ति सिद्धं । अणुपादाणुच्छेदो णाम पज्जवडिओ गयो । तेण असंतावत्थाए अभावववएस. मिच्छदि, भावे उवलब्ममाणे अभावत्तविरोहादो। ण च पडिसेहविसओ भावो भावत्तमल्लियइ, पडिसेहस्स फलाभावप्पसंगादो । ण च विणासो पत्थि, 'घडियादीणं 'सव्वद्धमवट्ठाणाणुवलभादो । ण च भावो अभावो होदि, भावाभावाणमण्णोण्णविरूद्धाणमेयत्तविरोहादो । एत्थ जेण दव्वट्ठियणयो उप्पादाणुच्छेदो अवलंविदो तेण मोहणीयभाववेयणा णत्थि त्ति भणिदं । पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे मोहणीयभाववेयणा अणंतगुणहीणा होदूण अस्थि त्ति वत्तव्वं । तस्स आउअवेयणा भावदो किमुकस्सा अणुकस्सा ॥ २५५ ॥ सुगमं । णियमा अणुकस्सा अणंतगुणहीणा ॥ २५६ ॥ जेण आउअस्स उक्स्सभाववेयणा अप्पमत्तसंजदेण चद्धदेवाउअम्मि होदि । ण च अथवा, असत्के विषयमें उनकी प्रवृत्तिका विरोध न माननेपर गधेका सींग भी प्रमाणका विषय होना चाहिये। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वह पाया नहीं जाता। इस कारण भाव स्वरूप ही अभाव है, यह सिद्ध होता है। अनुत्पादानुच्छेदका अर्थ पर्यायार्थिक नय है। इसी कारण वह असत् अवस्थामें अभाव संज्ञाको स्वीकार करता है, क्योंकि, इस नयकी दृष्टिमें भावकी उपलब्धि होनेपर अभावरूपताका विरोध है। और प्रतिषेधका विषयभूत भाव भावस्वरूपताको प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर प्रतिषेधके निष्फल होनेका प्रसङ्ग आता है । विनाश नहीं है, यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि, घटिका ( छोटा घड़ा) आदिकोंका सर्वकाल अवस्थान नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि भाव ही अभाव है (भावको छोड़कर तुच्छ अभाव नहीं है) तो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, भाव और अभाव ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, अतएव उनके एक होनेका विरोध है। यहाँ चूँ कि द्रव्यार्थिक नय स्वरूप उत्पादानुच्छेदका अवलम्बन किया गया है, अतएव 'मोहनीय कर्मकी भाववेदना यहाँ नहीं है। ऐसा कहा गया है। परन्तु यदि पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन किया जाय तो मोहनीयकी भाववेदना अनन्तगुणी हीन होकर यहाँ विद्यमान है ऐसा कहना चाहिये। उसके आयु कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २५५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट होकर अनन्तगुणी हीन होती है ॥ २५६ ॥ इसका कारण यह है कि आयुकी उत्कृष्ट भाववेदना अप्रमत्तसंयतके द्वारा बाँधी गई देवायु में १ प्रतिषु 'घादियादीगं' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'सव्वत्थमव' ताप्रतौ 'सव्वत्थ अव-' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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