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________________ ४, २, १३, १११] वेयणसणियासविहाणाणियोगदारं [४१ खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण खीणकसायचरिमसमए द्विदस्स कालेण सह दव्वं पि जहण्णं, खविज्जमाणकम्मपदेसाणं सम्वेसि पि खविदत्तादो। एदस्स जहण्णदव्वस्सुवरि एग-दोआदिकम्मपोग्गलेसु वड्डिदेसु दव्ववेयणा अजहण्णत्तं पडिवज्जदे । सा वि' पंचट्ठाणपदिदा होदि, ण छहाणपदिदा होदि, एत्थ छट्ठाणस्स संभवाभावादो। काणि ताणि पंचट्ठाणाणि त्ति तण्णिण्णयत्थमुत्तरसुत्तावयवो मणिदो। एदेसिं पंचणं पि ट्ठाणाणं परूवणा कीरदे । तं जहा-जहण्णट्ठाणस्सुवरि एगपरमाणुम्हि वड्डिदे अणंतभागमहियं द्वाणं होदि । एदमादि कादण ताव अणंतभागवड्डी होदूण गच्छदि जाव जहण्णदव्वे उकस्सअसंखज्जेण खंडिदे तत्थ एगखंडण जहण्णदव्वं वड्डिदं ति । तदो प्पहुडि परमाणुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डी होदण ताव गच्छदि जाव जहण्णदव्वमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदण तत्थ एगखंडमेत्तं पविट्ठ ति । एत्तो प्पहुडि उवरि संखेज्जभागवड्डी। एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव असंखेज्जगुणवड्डि त्ति । एत्थ चरिमवियप्पो गुणिदकम्मंसियमस्सिदण वत्तव्यो । सेसं सुगमं । तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥११०॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया॥ १११ ॥ ___ क्षपितकांशिक स्वरूपसे आकरके क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें स्थित हुए जीवके कालके साथ द्रव्य भी जघन्य होता है, क्योंकि, यहाँ क्षयको प्राप्त कराये जानेवाले सभी कर्मप्रदेशोंका क्षय हो चुकता है । इस अजघन्य द्रव्यके ऊपर एक दो आदि कर्मपुद्गलोंकी वृद्धिके होनेपर द्रव्यवेदना अजघन्य अवस्थाको प्राप्त होती है। वह भी पाँच स्थानोंमें पतित होती है, छह स्थानोंमें पतित नहीं होती; क्योंक, यहाँ छठे स्थानकी सम्भावना नहीं है। वे पाँच स्थान कौनसे हैं, इसका निर्णय करनेके लिये आगेका सत्रांश कहा गया है। इन पाँचों स्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य स्थान के ऊपर एक परमाणुकी वृद्धि होनेपर अनन्तभाग अधिक स्थान होता है। इससे लेकर तब तक अनन्तभागवृद्धि होकर जाती है जब तक जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट असंख्यातसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्डसे जघन्य द्रव्य वृद्धिको प्राप्त होता है । उससे लेकर एक परमाणु अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि होकर तब तक जाती है जब तक कि जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमेंसे एक खख्ड मात्र द्रव्य प्रविष्ट होता है। यहाँसे लेकर आगे संख्यातभागवृद्धि होती है। इस प्रकार जान करके असंख्यातगुणवृद्धि तक ले जाना चाहिये । यहाँ अन्तिम विकल्पका गुणितकांशिकको आभित कर कथन करना चाहिये । शेष कथन सुगम है। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥११॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १११॥ १ मप्रतौ 'ण वि इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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