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________________ ४, २, १४, ३५.) वेयणपरिमाणविहाणाणियोगहारं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसरूवेण संकंताणं पि दव्वट्ठियणयेण तव्ववएस पडि विरोहाभावादो। एस कमो अबंधपयडीणं चेव, ण बंधपयडीणं पुरिसवेदस्स वि चालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तसमयपवद्धट्ठदापसंगादो । ण च एवं, तहाविहसुत्ताणुवलंभादो। एवदियाओ पयडीओ॥३३॥ जत्तिया समयपबद्धा तत्तियमेत्ताओ पयडीओ एक्कक्का पयडी होदि, कालभेदेण भेदुवलंभादो। आउअस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ ३४ ॥ सुगम । आउअस्स कम्मस्स एकेका पयडी अंतोमुहुत्तमंतोमुहत्तं समयपबद्धट्टदाए गुणिदाए ॥ ३५ ॥ अंतोमुत्तमंतोमुत्तमिदि विच्छाणिद्देसो। तेण चदुण्णमाउआणं अंतोमुहुत्तमेत्ता चेव हिदिबंधगद्धा होदि त्ति सिद्धं । एदीए बंधगद्धाए एगसमयपबद्ध गुणिदे चदुण्णमाउआणं पुध पुध समयपबद्धट्टदापमाणं होदि । आउअस्स संखेवद्धाए ऊणपुवकोडितिभागमेत्ता समयपबद्धट्टदा किण्ण परूविदा, कदलीघादमस्सिदूण अंतोमुत्तूणपुव्व'. कर्मस्कन्धोंके सम्यक्त्व एवं सम्यङ्मिथ्यात्व स्वरूपसे सक्रान्त होनेपर भी उनको द्रव्यार्थिक नयसे समयप्रबद्ध कहने में कोई विरोध नहीं है । यह क्रम अबन्ध प्रकृतियोंके ही सम्भव है, बन्ध प्रकृतियों के नहीं; क्योंकि, वैसा होनेपर पुरुषवेदके भी चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण समयप्रबद्धार्थताका प्रसङ्ग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, उस प्रकारका कोई सूत्र नहीं है। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ३३ ॥ जितने समयप्रबद्ध हों उतनी मात्र प्रकृतियों स्वरूप एक एक प्रकृति होती है, क्योंकि, कालके भेदसे प्रकृतिभेद पाया जाता है । आयु कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ३४ ।। यह सूत्र सुगम है। __ अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्तको समयप्रबद्धार्थतासे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी आयु कर्मकी एक एक प्रकृति है ॥ ३५ ॥ 'अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त' यह वीप्सानिर्देश है। इसलिए चारों आयुअोंका स्थितिबन्धक काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है, यह सिद्ध है। इस बन्धककालसे एक समयप्रबद्धको गुणित करनेपर पृथक् पृथक चारों आयुओंकी समयप्रबद्धार्थताका प्रमाण होता है। शंका-आयुके संक्षेपाद्वासे हीन पूर्वकोटिके विभाग प्रमाण अथवा कदलीघातका आश्रय करके अन्तर्मुहूर्तसे हीन पूर्वकोटि प्रमाण समयप्रबद्धार्थता क्यों नहीं कही गई है ? १ प्रतिषु 'अंतोमुहुत्तेणपुव्व-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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