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________________ २५६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २८१. तदो एदमेवं चेव हविय परूवणा कीरदे । तं जहा-जवमझजीवा आवलियाए असंअदिभागा। विदियहाणे जीवा तत्तिया चेव । एवं तत्तिया तत्तिया चेव होदूण ताव गच्छति जाव पढमदुगुणवड्डिअद्धाणम्मि एगजीवपविठ्ठट्ठाणं' जहण्णपरित्तासंखेजयस्स चदुब्भागेण खंडिदएगखंडमेत्तद्धाणं गदं ति । ताधे हेहिमविरलणाए एगरूवधरिदं घेत्तण तदित्थट्ठाणजीवेसु अवणिदे तदुवरिमट्ठाणजीवपमाणं होदि। पुणो विदियखंडमेत्ताणि हाणाणि जीवेहि सरिसाणि होदृण गच्छंति तदो हेडिमविरलणाए विदियरूवधरिदएगजीवं घेत्तण तदित्यहाणजीवेसु अवणिदे तदणंतरउवरिमहाणजीवपमाणं होदि । पुणो तेण हाणेण जीवेहि सरिसाणि तदियखंडमेत्ताणि हाणाणि गंतूण तदियो जीवो परिहायदि । एवमेगेगखंडमेत्तद्धाणं गंतूण एगेगजीवपरिहाणिं करिय णेयव्वं जाव हेट्टिमविरलणाए अद्धमेत्तजीवा परिहीणा त्ति । तदित्थट्ठाणाणं जीवा जवमज्झजीवे हिंतो दुगुणहीणा, हेट्टिमविरलण मेत्तजीवेसु समुदिदेसु जवमझजीवुप्पत्तीदो। पुणो दुगुणहाणीए जीवा आवलियाए असंखेजदिभागो। विदिए अणुभागट्ठाणे जीवा नत्तिया चेव । तदिए अणुभागहाणे जीवा तत्तिया चेव । एवं तत्तिया तत्तिया चेव जीवा होदण ताव गच्छंति जाव जवमझगुणहाणिम्हि एगजीवपरिहीणट्ठाणादो दुगुणमेत्तद्धाणं करके प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-यवमध्यके जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। द्वितीयस्थानमें जीव उतने ही हैं। इस प्रकारसे उतने उतने ही होकर प्रथम दुगुणवृद्धिके अध्वानमें से एक जीव प्रविष्ट स्थान | अध्वान ] को जघन्य परीतासंख्यातके चतुर्थ भागसे खण्डित करने ड प्रमाण अध्वानके वीतने तक जाते हैं। तब अधस्तन विरलनके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहण करके उसे वहांके स्थानके जीवोंमेंसे कम करने पर उससे आगेके स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। पश्चात् द्वितीय खण्ड प्रमाण स्थान जीवोंसे ( जीवप्रमाणप्ते ) सदृश होकर जाते हैं। फिर अधस्तन विरलनके द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त एक जीवको ग्रहण कर उसे वहांके स्थानसम्बन्धी जीवोंमेंसे कम करनेपर तदनन्तर अग्रिम स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। पश्चात् जीवोंकी अपेक्षा उस स्थानके सहश तृतीय खण्ड प्रमाण स्थानोंके वीतनेपर तृतीय जीवकी हानि होती है। इस प्रकारसे एक एक खण्ड प्रमाण अध्यान जाकर एक एक जीवकी हानिको करके अधस्तन विरलनके आधे मात्र जीवोंकी हानि होने तक ले जाना चाहिये। वहांके स्थानोंसम्बन्धी जीव यवमध्यके जीवोंकी अपेक्षा दुगुणे हीन होते हैं, क्योंकि, अधस्तन विरलन प्रमाण जीवोंके समुदित होनेपर यवमध्य जीव उत्पन्न होते हैं। पुनः दुगुणहानिके जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। द्वितीय अनुभागस्थानमें जीव उतने ही होते हैं। तृतीय अनुभागस्थानमें जीव उतने ही होते हैं। इस प्रकार उतने उतने ही होकर यवमध्य गुणहानिमेंसे एक जीवकी हानि युक्त स्थानसे दूना मात्र अध्वान वीतने तक जाते हैं । तब अधरतन विरलन राशिके अर्धे भाग १ अप्रतौ 'पविठ्ठाण' इति पाटः । २ अप्रत्योः 'तदित्थट्टाणाणि' इति पाटः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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