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पंडित टोडरमल : व्यक्तिाव और कर्तव
इन्दौर विश्वविद्यालय से पीएच. डी. के लिए स्वीकृत शोध-प्रबन्ध]
स्मारक
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.मा विद्या या विमो .
लेखक : डॉ० हुकमचन्द मारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, एम. ए., पीएच. डी.
भूमिका : डॉ० हीरालाल माहेश्वरी
प्रस्तावना : डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन
प्रकाशक: मंत्री, पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट
ए-४, बापूनगर, जयपुर ३०२००४
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| डॉ. होरालरस माहेश्वरी भूमिका
एम.ए., एल-एल.बी., डी.फ़िल् , डी.लिट्. प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
हिन्दी साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग धार्मिक साहित्य के रूप में है। धार्मिक साहित्य को दो रूपों में देखा जा सकता है :(१) दार्शनिक, वैचारिक और धर्माचरण मूलक साहित्य, जिसे चिन्तनपरक साहित्य कह सकते हैं, तथा (२) इनकी प्रेरणा से निर्मित साहित्य, जिसमें मानवानुभूतियों का अनेकरूपेण चित्रणवर्णन रहता है । विद्वानों ने शुद्ध साहित्य के अन्तर्गत विवेचनीय, दूसरी सीमा में पाने वाले साहित्य को माना है। परन्तु जब साहित्य का इतिहास लिखा जाता है, तो धर्म और दर्शन से प्रभावित साहित्य को प्रेरणा देने वाले विभिन्न चिन्तन-विन्दुओं, चिन्ता-धाराओं और दार्शनिक प्रणालियों का आकलन और समानान्तर प्रवाह का लेखा-जोखा करना आवश्यक हो जाता है। प्रायः सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यों के इतिहास-लेखन में यह बात स्पष्ट दिखाई देती है। यही कारण है कि विभिन्न सम्प्रदायों से सम्बन्धित साहित्यों पर कार्य करते समय विद्वानी ने तत्सम्बन्धी दार्शनिक और वैचारिक स्वरूप का स्पष्टीकरण किया है। अष्टछाप और पुष्टिमार्ग, राधावल्लभ सम्प्रदाय आदि से सम्बन्धित कार्य इसके प्रमाण हैं। यही नहीं, विभिन्न कवियों और सन्त-भक्तों के केवल दार्शनिक विचारों का भी अध्ययन-मनन प्रस्तुत किया गया है, जैसे-कबीर, तुलसीदास, सन्त कवि दरिया प्रादि-आदि । साहित्यिक शोध के परिणामस्वरूप जो भी ज्ञान-किरण प्रसरित और पालोकित होती है, वह किसी न किसी रूप में हमारे ज्ञान क्षितिज का विस्तार करती है।
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डॉ० हुकमचंद भारिल्ल द्वारा प्रस्तुत पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व' शोध-प्रबंध एक ऐसा ही कार्य है, जो उल्लिखित धार्मिक साहित्य की दोनों सीमानों को समाविष्ट किए हुए है ।
पंडित टोडरमलजी का समय वि० सं० १७७६-७७ से १८२३-२४ तक है। ये जयपुर के निवासी थे, तथा इनका अधिकांश जीवन ढूंढाड़ प्रदेश में ही बीता । जयपुर में धार्मिक दुराग्रह के कारण उनका प्राणान्त हुअा (प्रस्तुत ग्रंथ, पृष्ठ ५४) । इस कृति से पूर्व हिन्दी के बहुत से पाठकों की आँखों से पंडित टोडरमलजी प्रोझल ही थे; प्रस्तुत कृति के माध्यम से ही उनके व्यक्तित्व और कर्तत्व को पहली चार उजागर किया गया है। जन-जगत में दार्शनिक और वैचारिक क्षेत्र में, तथा तत्समय तंत्र-मंत्र, कर्मकाण्ड और इतर ऐहिकता की ओर उन्मुख होते हए भट्रारकवाद और उसकी सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध प्रबल संघर्षकर्ता के रूप में पंडित टोडरमलजी का महत्त्व एक विशाल स्वयंभूत प्रकाशस्तंभ की तरह है। पंडितजी ने अतीत की वैचारिक परम्पराओं को प्रबल तर्कों की कसौटी पर कसा, मान्य शास्त्रीय ग्रंथों-समयसार, गोम्नटकार के आलोक में उनका परिमुष्ट किया और इनमें प्रतीत होने वाले परस्पर विभिन्न मत-मतान्तरों की देश, समाज और काल-सापेक्ष संगत व्याख्याएँ प्रस्तुत की। इस कृति के लेखक डॉ० भारिल्ल ने बताया है कि गोम्मटसार का पठन-पाठन उसमें निहित सूक्ष्म सद्धान्तिक विचारणानों के कारण जैन-जगत में टोडरमलजी से पांच सौ वर्ष पूर्व प्रायः लुप्त-सा हो गया था ( प्रस्तुत ग्रंथ, पृष्ठ ६७ ) । टोडरमलजी ने इस पर 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' नामक भाषाटीका लिख कर इसके पठन-पाठन का मार्ग प्रशस्त किया । बर्तमान में गोम्मटसार के अध्ययन का मुख्य आधार पं० टोडरमल की उक्त भाषाटीका ही है । यह लिखने की आवश्यकता नहीं कि दिगम्बर जैन-जगत में प्राचार्य कुन्दकुन्द रचित समयसार और सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य रचित गोम्मटसार स्वत: प्रमाण, परमपूज्य और सर्वमान्य शास्त्र हैं। दोनों ही शास्त्र प्राकृत गाथाओं में हैं। समयसार अब से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व रचित और गोम्मटसार लगभग एक हजार वर्ष पूर्व रचित है। प्रसिद्ध है कि
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गोम्मटसार की रचना धरसेनाचार्य के शिष्यों - प्राचार्य भूतबलि और पुष्पदन्त द्वारा रचित घट्खण्डागम नामक प्राकृत गाथाओं में निबद्ध ग्रंथ के आधार पर हुई है। षट्खण्डागम ग्रंथ के आशय को संक्षेप में सुस्पष्ट रूप से प्रस्तुत करना गोम्मटसार के रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवती का लक्ष्य था। तब से विगत एक हजार वर्षों से गोम्मटसार, समयसार के समान ही महत्त्व पाता रहा है। षट्खण्डागम दिगम्बर जैन सम्प्रदाय की सर्वाधिक प्राचीन सैद्धान्तिक रचना है । इसका नामोल्लेख तो जैन विद्वान् करते पाए थे और किसी ने क्वचित्कदाचित् इसका पठन-पाठन भी किया हो, किन्तु इसकी विस्तृत चर्चा गोम्मटसार के पश्चात् कभी नहीं हुई। गोम्मटसार की रचना के पश्चात् इसका पठन-पाठन बन्द-सा होगया। हर्ष का विषय है कि अब यह 'षट्खण्डागम' स्वर्गीय डॉ० हीरालाल जैन के संपादकत्व में प्रकाशित होकर सम्मुख आ गया है, जिससे इसकी मान्यताओं और सिद्धान्तों के आलोक में गोम्मटसार का पठन-पाठन संभवतः एक नया मोड़ ले ।
ऊपर लिखा जा चुका है कि पं० टोडरमलजी से लगभग ५०० वर्ष पूर्व गोम्मटसार का पठन-पाठन बन्द-सा हो गया था। ध्यातव्य है कि स्वयं पं० टोडरमलजी ने षट्स्खण्डागम की प्रति, जो दक्षिण भारत के जैनबद्री नामक स्थान पर थी, प्राप्त करने का बहुत प्रयास किया था; उन्होंने इस हेतु पांच-सात जैन-मुमुक्षुत्रों को भी भेजा था किन्तु दुर्भाग्य से वे सफल नहीं हो सके थे। यदि वह प्रति पंडितजी को प्राप्त हो जाती, तो संभवत: इस पर भी वे टीका लिखते। इस अनुमान की पुष्टि इससे होती है कि उन्होंने गोम्मटसार पर टीका लिखी है। हो सकता है कि पंडितजी समयसार पर भी ऐसी ही टीका लिखते, जैसा कि उनके समकालीन सहयोगी ब्र. रायमलजी के इस कथन से स्पष्ट है - "और पांच-सात ग्रन्यां की टीका वरणायवे का उपाय है सो आयु की अधिकता हूवां वरणेगा" (प्रस्तुत ग्रंथ, पृष्ठ ५०)। उल्लेखनीय है कि समयसार में प्रमुख विषयवस्तु शुद्ध प्रास्मा का निरूपण है, जबकि गोम्मटसार में परिवर्तनशील तत्त्वों-विकारी और अविकारी पर्यायों की विवेचना है। इन दोनों शास्त्रों की गहन विवेचनात्रों को पढ़ कर ऐसी भी धारणा बन सकती है कि दोनों के
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कथनों में परस्पर विरोधाभास है। यदि इस विरोधाभास को प्रमुखता दी जाय, तो हो सकता है कि कालान्तर में विरोधी विचारधारात्रों के फलस्वरूप दोनों के प्राधार पर नए-नए उपरांप्रदाय स्थापित हो जाएँ। पं० टोडरमल जी की सलस्पशिनी दृष्टि ने इस बात को भलीभांति जान लिया था पोरोंने अपने मोक्षमार्ग प्रमाणात गंध में ऐसे विरोधाभासों में अनेक दृष्टियों से समन्वय स्थापित करने की चेष्टा की। उदाहरण के लिए, गोम्मटसार में जीव (आत्मा) की विभिन्न अवस्थाओं (गति, इन्द्रिय, काय, वेद प्रादि के भेद-प्रभेदों) का विस्तृत विवेचन है। पंडित टोडरमलजी का कथन है कि इन सव का यदि ज्ञान हो तो बहुत ही अच्छा है, किन्तु जानने की मुख्य वस्तु केवल शुद्ध आत्मा ही है। उनकी विचारधारा और समस्त तर्क इस अंतिम लक्ष्य - शुद्ध आत्मा को जानने और अनुभूत करने की मोर ही हैं। उनका मोक्षमार्ग प्रकाशक, जो दुर्भाग्य से अपूर्ण रह गया है, दि० जैनों की सैद्धान्तिक विचारधारा तथा गोम्मटसार और समयसार में समन्वय स्थापित करने वाला विलक्षण सैद्धान्तिक ग्रंथ है (द्रष्टव्य - मोक्षमार्ग प्रकाशक, अध्याय ७ तथा ) । दि० जैन मुमुक्षुत्रों और पाठकों की दृष्टि से एक प्रकार से मोक्षमार्ग प्रकाशक दोनों ही सिद्धान्त ग्रंथों-समयसार और गोम्मटमार के गुढ़ रहस्यों को समन्वयात्मक दृष्टि और तर्कसंगत प्रणाली से बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत करने वाला आधुनिक काल का एक सिद्धान्त ग्रंथ ही है। मोक्षमार्ग प्रकाशक का प्रकाशन आज से ७६ वर्ष पूर्व हुआ था । तब से इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और अाज तो यह दि० जैन समाज में व्यापक रूप से मान्य और प्रचलित है । पं० टोडरमलजी की मेधा, विद्वत्ता और ज्ञान का इससे ऋिचित् अनुमान लगाया जा सकता है।
दूसरा कार्य - भट्टारकवाद का विरोध जो टोडरमलजी ने किया, वह उनकी उपर्युक्त योजना की स्वाभाविक परिणति है । शुद्ध आत्मा की बात करने वाला व्यक्ति जड़ जगत से सम्बन्धित और इससे प्राप्त भोगोपभोगों की भर्त्सना करेगा ही। इस सम्बन्ध में इस परम्परा के विषय में दो शब्द कहने आवश्यक हैं। हिन्दी में सबसे पहले कवि
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बनारसीदासजी ने तत्समय में व्याप्त पाखण्डों और सिद्धान्त ग्रंथों के नाम पर अपनी मनचाही बातों को चलाने वाले लोगों का विरोध किया था। अनेक ग्रन्थों के अध्ययनोपरान्त वे समयसार की पोर मुड़े । सत्य का अनुभव उन्होंने समयसार में किया। उनकी कृति 'नाटक समयसार' इसी सत्य को तत्कालीन प्रचलित भाषा के माध्यम से सुपाठ्य बनाने का प्रयास है । तब आगरा में आध्यात्मिक 'सैलियो' नियमित रूप से चलती थीं, जिनमें विभिन्न सैद्धान्तिक ग्रंथों पर चर्चाएँ हुमा करती थीं । इनमें जिज्ञासुओं के अतिरिक्त अनेक अधिकारी विद्वान् उपस्थित हुआ करते थे। बनारसीदासजी की विचारधारा इन 'सलियों के माध्यम से विशेष रूप से जन-सामान्य में फैली। कालान्तर में यह विचारधारा (ज्ञेय और अनुभवनीय - शुद्ध
आत्मा ही है) अन्य स्थानों में भी फली। टोडरमलजी के समय जयपुर में इस 'सली' को चलाने वाले बाबा बंशीधरजी थे 1 इस प्रकार इसका बीज-बपन किसी न किसी रूप में हो चुका था। आवश्यकता अब केवल एक ऐसे विद्वान की थी जो मान्य सिद्धान्त ग्रंथों के आधार पर इसको पल्लवित एवं पुष्पित कर सके तथा इसकी जड़ें दृढ़, स्थायी
और पुष्ट बना सके। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसके लिए कितने विशाल और तलस्पर्शी ज्ञान तथा तर्कबुद्धि की आवश्यकता थी। पंडित टोडरमलजी के रूप में वह प्रतिभा अवतरित हुई, जिसने अनेक कृतियों के माध्यम से -- विशेषत: मोक्षमार्ग प्रकाशक के रूप में यह महान् दायित्व पूरा किया । भट्टारकवाद, उसका विरोध और विरोध के कारण अनेक थे। इन सबका प्रस्तुत लेखक डॉ० भारिल्लजी ने सप्रमाण उल्लेख विवेचन किया है जो मूल में पठनीय है (प्रस्तुत ग्रंथ अध्याय १) । अठारहवीं शताब्दी में पं० टोडरमलजी दि० जैन-जगत में जो आध्यात्मिक और सामाजिक क्रान्ति कर रहे थे, उसका महत्त्व प्रस्तुत नन्थ में मूलरूप में पठनीय है । पंडित टोडरमलजी जैसे महान् विद्वान् के कार्यों का सम्यक् रूप से महत्त्व-दिग्दर्शन बहुत कठिन और अध्ययन सापेक्ष कार्य है। डॉ० भारिल्लजी ने इसे सफलतापूर्वक सम्पन्न किया है, तदर्थ वे बधाई के पात्र हैं।
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प्रस्तुत शोध-प्रबंध की इयत्ता यहीं तक ही नहीं है। इसमें टोडरमलजी की सम्पूर्ण रचनात्रों के अतिरिक्त उनकी गद्य शैली और भाषा का भी अध्ययन प्रस्तुत किया गया है, जो प्रबंध के शीर्षक 'कत्व' को दृष्टि में रखते हुए ठीक ही है। पंडित टोडरमलजी की भाषा को हम 'मिश्रित हिन्दी भाषा' कह सकते हैं। उदाहरण के रूप में पिंगल, जिसका व्याकरणिक प्राधार तो ब्रजभाषा है किन्तु जिसमें राजस्थानी का प्रभुतशः सम्मिश्रण है। अभी तक जहाँ तक जानकारी है, पिंगल के अतिरिक्त अन्य किसी ऐसी मिश्रित भाषा और उसके साहित्य पर कार्य नहीं हुआ। विभिन्न शास्त्र-भण्डारों और संग्रहालयों में अनेक ऐसी रचनाएं मिलती हैं, जिनकी भाषा विचार के नये आयाम प्रस्तुत करती है। ब्रज और खड़ी बोली, राजस्थानी और खड़ी बोली, अन्नधी और राजस्थानी और कहीं-कहीं तो तीन-तीन भाषाओं का मिश्रण भी एक ही रचना में देखने को मिल जाता है, यथा- राजस्थानी, अज और खड़ी बोली। पंडित टोडरमलजी की भाषा ऐसी ही मिश्रित भाषा है। इसमें मूलाधार के रूप में तो ब्रज है पर ढूंढाड़ी (जयपुरी) और खड़ी बोली का पुट भी मिलता है । भाषा सामाजिक दाय है । एक व्यापक समाज को सहजरूपेण बोधगम्य कराने की दृष्टि से संभवत: टोडरमलजी ने इस तरह की भाषा अपनाई थी। ऐसी भाषाओं और उनके साहित्यों का अध्ययन, समय-समय पर बदलते समाज और उसके मान्यतापरिवर्तन, तथा मान मूल्यों एवं सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से भी अध्ययनीय है । प्रस्तुत ग्रन्थ के पांचवें और छठे अध्याय – पंडित टोडरमलजी की शैली और भाषा का अध्ययन - ऐसी मिश्रित भाषाओं पर काम करने वाले परवर्ती शोधाधियों के लिए अनेक दृष्टियों से दिगनिर्देश करते हैं । इस ओर शोधाथियों द्वारा प्रयास अवश्य किया जाना चाहिए । विभिन्न प्रदेशों के दिगम्बर जैन समाज के प्रवचनों में व्यापक रूप से पंडित टोडरमल जी की यह भाषा चलती और समझी जाती रही है, जबकि इन प्रदेशों की बोलियौं भिन्न-भिन्न हैं । भाषायी एकता का यह बड़ा प्रमाण है।
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टोडरमलजी की विचारधारा ने कितने समकालीन और परवर्ती विचारकों, कवियों, लेखकों और व्यक्तियों को प्रभावित किया इसका अध्ययन अभी बाकी है । तत्सम्बन्धी संकेत यत्र-तत्र प्रस्तुत ग्रन्थ में मिलते हैं। पं० टोडरमलजी के बाद अब तक इस वैचारिक परम्परा का इतिहास उनके व्यक्तित्व को और भी सबल रूप में हमारे सामने रख सकेगा । मैं डॉ० भारिल्लजी से अनुरोध करता है कि वे इस कार्य को अपने हाथ में लें और उसी शोध दृष्टि से उसे पूरा करें जैसा कि उन्होंने प्रस्तुत कार्य किया है। यह प्रत्यन्त हर्ष की बात है कि इसके लेखक प्राप्त नवीन सामग्री के आलोक में पुरानी मान्यताओं को परखते और निर्भीकतापूर्वक कहते हैं। उदाहरणार्थ, अब तक पंडित टोडरमलजी की मृत्यु २७ वर्ष की अवस्था में हुई मानी जाती थी (श्री टोडरमल जयन्ती स्मारिका, पृष्ठ १४-१५ ) । निश्चय ही २७ वर्ष की अवस्था में इतना बड़ा कार्य कर देने वाले टोडरमलजी और भी महान् थे। डॉ० भारिल्लजी ने अनेक प्रमारणों के आधार पर स्पष्ट किया है कि उनका देहान्त २७ वर्ष को नहीं प्रपितु ४७ वर्ष की अवस्था में हुआ था ( प्रस्तुत ग्रंथ, पृष्ठ ४४-५३) । ४७ वर्ष की अवस्था में इतना कार्य टोडरमलजी ने किया, इस स्थापना से उनकी महत्ता में कोई ग्रांच नहीं आती ।
प्रस्तुत ग्रन्थ जैनधर्म से सम्बन्धित सिद्धान्तों, व्याख्यानों, साहित्य और भाषा की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इस कार्य के लिए डॉ० भारिल्ल हिन्दी विद्वानों की ओर से बधाई के पात्र हैं । इसके प्रकाशक, पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के संचालकगण और मूल प्रेरणा के स्रोत श्री कानजी स्वामी जिनका उल्लेख लेखक ने अपने निवेदन में किया है, भी बधाई के पात्र हैं ।
बी-१७४ ए, राजेन्द्र मार्ग
बापूनगर, जयपुर-४
१ अगस्त १६७३
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- हीरालाल माहेश्वरी
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"तात बहुत कहा कहिए. जैसे रागादि मिटावने का श्रद्धान होय सो ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। बहुरि जैसे रागादि मिटावने का जानना होय सो ही जानना सम्यग्ज्ञान है। बहुरि जैसे रागादि मिट सो ही आचरण सम्यकचारित्र है। ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है।"
H41-81441001
- पंडित टोडरमल
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प्रस्तावना
डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन
एम०ए०, पी एच० डी०, साहित्याचार्य प्राध्यापक एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, शासकीय एस० एन० स्नातकोत्तर महाविद्यालय, खण्डवा
प्रवृत्ति और निवृत्ति
जिसके
'धर्म' का कार्य है - वह जो पार करता है द्वारा धारण किया जाय । 'प्रश्न है वह क्या है जिसे धारण किया जाता है या जो धारण करता है ?' मनुष्य की मुख्य समस्या है - उसका अस्तित्व | उसके सारे भौतिक और आध्यात्मिक कार्य तथा प्रवृत्तियाँ इसी प्रश्न के हल के लिए हैं । बहु सोचता है कि क्या उसका भौतिक अस्तित्व ही है या और कोई सूक्ष्म अस्तित्व भी है, जो जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया से परे है ? फिर वह जीवन में शुभ-अशुभ प्रवृत्तियों की कल्पना करता है और अपने आपको शुभ पथ में लगाना चाहता है। इस गार्हस्थ जीवन में अशुभ प्रवृत्तियों से एक दम बच पाना नितान्त प्रसंभव है, जीवन की प्रक्रिया ही कुछ ऐसी पेचीदा है। इसलिए वह मान लेता है कि 'शुभाशुभाभ्यां मार्गाम्यां बहति वासना सरित् - यह वासनारूपी सरिता अच्छे चुरे मार्गों से बहती है और उसे प्रयत्नपूर्वक अच्छे मार्ग पर लगना और शुभ से बचना चाहिए ।
दूसरा प्रश्न वो उत्तर
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जहाँ तक दूसरे प्रश्न का सम्बन्ध है, उसके दो उत्तर हो सकते हैं । एक तो यह है कि विश्व एक प्रवाह है, जिसमें प्रत्येक वस्तु को उसका स्वभाव धारण करता है । 'वस्तु स्वभावो धर्मः । जल तभी तक जल है जब तक उसमें ठंडक है। भाग तब तक आग है जब तक उसमें गर्मी है। किसी वस्तु को उसका अपना भाव ही
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धारण करता है, इसलिए वही धर्म है ! दूसरा उत्तर है कि विश्व अपने भाव में अनादि-प्रवाह नहीं है, उसका कोई न कोई उद्गम है, कोई न कोई महाअस्तित्व है, जिससे सृष्टि का उद्गम हुआ है । इश्य विश्व उसी की परिणति है। यह महाअस्तित्व ईश्वर है। हम विश्व को एक प्रवाह मानें या ईश्वर की कृति, इसमें मतभेद हो सकता है किन्तु विश्व के अस्तित्व में कोई मतभेद नहीं है। हम सब अपने अस्तित्व को मात्र बनाए ही नहीं रखना चाहते, प्रत्युत उसे अधिक सुविधायुक्त और परिष्कृत भी करना चाहते हैं । यह मनुष्य ही कर सकता है, दूसरे प्राणी नहीं, क्योंकि उसके पास सोचने-समझने की शक्ति है, यह विषेक ही उसकी सब से बड़ी संपत्ति है । मूल प्रवृत्तियों और धर्म
आहार, निद्रा, भय और मैथुन - ये प्रवृत्तियाँ हीनाधिक रूप में सभी प्राणियों में पाई जाती हैं। केवल विवेक ऐसी विशेषता है जो दूसरों के पास नहीं है। अतः मनुष्य के सन्दर्भ में धर्म का अर्थ है - उसका विवेक । यह विवेक न केवल मनुष्य को लौकिक प्रगति के लिये प्रेरित करता है बल्कि उसे आध्यात्मिक प्रगति के लिए भी प्रेरणा देता है। यह उसे स्व के सीमित घेरों को तोड़ कर एक व्यापकतर अनुभूति के क्षेत्र में ले जाता है । व्यापकतर अनुभूति के लिये ध्यापक सम्भावना की अनुभूति बहुत आवश्यक है । अनीश्वरवादी
जीवमात्र में विद्यमान अन्तःसमानता के अाधार पर व्यापकता को • खोजते हैं, जब कि ईश्वरवादी व्यापक एकता के प्राधार पर ।
मनुष्य और धर्म
धर्म मनुप्य जीवन की व्यापक अनुभूति है जो उसकी विशेषता भी है और आवश्यकता भी, परन्तु जीवन का रथ प्रवृत्ति और निवृत्ति के पहियों पर घूमता है । जीवन में कोई न तो सर्वथा प्रवृत्तिवादी हो सकता है और न निवृत्तिबादी। दुर्भाग्य से यह भ्रान्ति गहरी जड़ पकड़ चुकी है कि अमुक धर्म प्रवृत्तिवादी है और अमूक धर्म निवृत्तिवादी । वस्तुतः प्रवृत्ति और निवृत्ति एक ही सिक्के के दो पहलु हैं, एक का सम्पूर्ण निषेध कर हम दूसरे का भी बहिष्कार कर देंगे और जीवन लूला-लंगड़ा बन जायेगा।
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परिवर्तन और जैन धर्म
जैन धर्म कितना ही आध्यात्मिक या आत्मवादी क्यों न रहा हो, विशुद्ध निवृत्तिबादी कभी नहीं था। यह उसके अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के भी विरुद्ध है । ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो प्रारम्भिक तीर्थकरों के जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति का सुन्दर समन्वय है । 'तीर्थंकर' शब्द ही प्रवृत्ति का सूचक है । वह प्रवृत्ति प्राध्यात्मिक ही सही, किन्तु पाठवीं सदी या उसके कुछ पूर्व से उसमें भट्टारकवाद, तंत्रवाद, सराग उपासना का बोलबाला था। यद्यपि इसके पूर्व कंदकंदाचार्य विशुद्ध अध्यात्मवाद का प्रर्वतन कर चुके थे, उसके बाद सत्रहवीं सदी में उक्त विचारधारा को शुद्धाम्नाय के नाम से प्रसिद्ध कवि बनारसीदासजी ने आगे बढ़ाया । उनके साहित्य को देखने से पता चलता है कि उस समय जैन साधकों में अहं और शिथिलाचार चरम सीमा पर था । सारी साधना अनुभूति की प्रांतरिक पीड़ा से मुक्त थी। उनके द्वारा स्थापित मत को तरहपथ कहा गया है। कुछ लोग इसे अनादिनिधन मानते हैं। संभवत: यहाँ पर अनादिनिधन से अभिप्राय मूल दृष्टिकोण से है ।
वीतरागता
जैन आचार और विचार प्रक्रिया समय की छांव में अपना रंग-रूप बदलती रही है । उसके जीवित रहने के लिये यह जरूरी था। जैन दर्शन के अनुसार सत् की परिभाषा है “उत्पादव्ययधोव्ययुक्त सत्'। उसके अनुसार यदि पदार्थ अपना अस्तित्व रखता है तो उसमें एक साथ कुछ न कुछ नया जुड़ता है और कुछ न कुछ पुराना टूटता है, फिर भी वह बना रहता है, यही उसकी नित्यता है। यह सोचना गलत है कि जैन विचारधारा भौतिक प्राधार के बिना खड़ी नहीं रह सकती। बीतरागता एक दृष्टिकोण है संसार को देखने का न कि अनुभूतिशून्य प्राचार-तंत्र । वीतरागता का अर्थ दिगम्बरत्व नहीं है । वह तो उसे पाने की एक प्राचार प्रक्रिया है जो पूर्ण वीतरागता के लिए जरूरी है, पर वह अपने आप में वीतरागता नहीं है। वीतरागता प्रात्मा का धर्म है, नग्नता शरीर का। वह साधन है, साध्य है वीतरागता।
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कसोटी
यह सोचना गलत है कि प्रवृत्ति हमेशा प्रवृत्ति रहती है और निवृत्ति हमेशा निवृत्ति । कभी प्रवृत्ति निवृत्तिमूलक हो सकती है
और कभी निवृत्ति प्रवृत्तिमूलक । पं० टोडरमल का मुख्य तर्क यह है है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति का संग्रह या त्याग आध्यात्मिकता की कसौटी नहीं है, उसकी असली कसौटी है बीतरागता। प्रवृत्ति यदि वीतरागता में सहायक है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए और यदि निवृत्ति राग या कपाय को बढ़ातो ह तो ठीक नहीं । वीतरागता और सम्यग्दृष्टि का चोलो-दामन का सम्बन्ध है, यह अन्तविवेक वीतरागता के बिना सम्भव नहीं है । अतः यदि अन्तविवेक मनुष्यता को धारण करने वाला धर्म हो तो यह भी मानना होगा कि उसका पूर्ण विकास वीतराम दृष्टि में ही सम्भव है। वीतरागता पशु में भी होती है, क्योंकि वह चेतन है इसलिए उसमें यदि राग है तो वीतरागता भी होगी ही । अतः वीतरागता केवल निवृत्ति नहीं है वरन् विवेकपूर्वक निवृत्ति है। इसलिए जो लोग निवृत्ति के नाम पर बिवेकशून्य प्राचरण करते हैं उन्हें भर्तृहरि के शब्दों में क्या यह कहा जाय कि वे पशु से भी गये बीते हैं ?
इस में सन्देह नहीं कि पंडित टोडरमल ज्ञान-साधना और साधुता के प्रतीक थे। वे त्यागी नहीं थे और न धुरन्धर आचार्य । वे सच्चे पुरुषार्थी और वीतराग-विज्ञानदर्शी थे । प्रायः देखा जाता है जो लोग जीवन में अपने पैरों पर खड़े हैं वे आध्यात्मिक दृष्टि से दूसरों पर निर्भर करते हैं और जो लोग अध्यात्मसाधना में लगे हैं उनका उत्तरदायित्व समाज को उठाना पड़ता है। लेकिन पं० टोडरमल दोनों क्षेत्रों में अपने पुरुषार्थ पर विश्वास रखते थे। उन्होंने पर-मतों का ही नहीं, स्वमत का और उसमें व्याप्त रूढ़ियों की कड़ी आलोचना की है। दूसरों के मत की आलोचना करना आसान है परन्तु अपने मत की आलोचना करना तलवार की धार पर चलना है क्योंकि उसमें अपनों के बीच प्रतिष्ठा दाव पर लगानी होती है। मोक्षमार्ग प्रकाशक
उनकी समूची साहित्य साधना में 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' विशिष्ट महत्त्व रखता है। वह अनुभूति और चिन्तनप्रधान ग्रन्थ है। वह
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मोक्षमार्ग प्रकाशक है, मोक्ष का शास्त्र नहीं। वे मोक्ष का मार्ग बताते हैं, उस पर चलाने का काम नहीं करते । बह नेता नहीं, स्वयं एक राही हैं । लेकिन राह को समझ लेना और दूसरे को ठीक-ठीक समझा देना बहुत बड़ा काम है। तत्त्वार्थसूत्र का पहला सूत्र 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रारिण मोक्षमार्ग:' रट कर जो लोग अपने प्रापको सम्यग्दृष्टि और मोक्षमार्गी समते हैं, मोक्षमार्ग प्रत्र, नारों साल देने वाला ग्रन्थ है। जो जैन यह समझते हैं कि जैन कुल में उत्पन्न होना ही सम्यग्दृष्टि होना है, यह ग्रंथ उनके इस दंभ को चूर-चूर कर देता है । मोक्षमार्ग प्रकाशक में मिथ्याइष्टि की विस्तार से चर्चा है, ताकि उसग बचा जा सके । 'संग्रह त्याग न बिन पहिचान । जैनाभासों का उनका विभाजन मौलिक है-१. निश्चयाभासी, २.व्यवहाराभासी और ३. उभयाभासी। उनकी आलोचना रचनात्मक है। उन्होंने इसके द्वारा जैनों में व्याप्त प्राध्यात्मिक स्वच्छंदतावाद, वाद्याडबरवाद और संशयावाद पर तीव प्रहार किया है। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों की भी आलोचना की है, परन्तु उन्होंने कभी अपने आपको समाज-सुधारक नहीं कहा । इस प्रकार मोक्षमार्ग प्रकाशक न केवल प्राध्यात्मिक ग्रंथ है, बल्कि समाज का दर्पण भी है, और हम चाहें तो उसमें अपने मुंह का आकार 'देख सकते हैं।
मोक्षमार्ग प्रकाशक आध्यात्मिक चिकित्सा का शास्त्र है, जिसमें रोग का निदान ही नहीं वरन् औषधि भी है। इसमें पंडितजी केवल वीतराग-विज्ञानी ही नहीं, वरन् अनुभूतिमुलक गद्यकार, पालोचक और एक महान प्राधिनक एवं उत्तरदाता के रूप में हमारे सम्मुख पाते हैं। इच्छात्रों का विभाजन . पंडितजी के अनुसार शास्त्र साधन है, साध्य है वीतरागता । वीतरागता के साथ राग नहीं रह सकता। पंडितजी अर्थशास्त्र के पंडित नहीं थे, परन्तु उन्होंने मनुष्य की इच्छानों का विभाजन करते हुए प्रकारान्तर से बताया है कि अर्थशास्त्र और धर्मशास्त्र की सीमाएँ क्या हैं ? उनके अनुसार इच्छाएँ चार प्रकार की हैं-विषयगत इच्छाएँ जिन्हें अर्थशास्त्र में मल अावश्यकताएँ कहते हैं, जिनको पुत्ति और प्रत्ति के साधन जीवन के लिये जरूरी हैं। दूसरी और तीसरी इच्छाएँ वे हैं जो मनुष्य में पाप या पुण्य के उदय से उत्पन्न होती हैं और जिनका
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परिणाम दुखःसुख है । इनमें अनुकूल इच्छा को मनुष्य भोगना चाहता है और प्रतिकूल को छोड़ना चाहता है । पंडितजी का तर्क है इन्हें पूर्व जन्म के कर्मफल समझ कर मनुष्य को अपने वर्तमान जीवन का संतुलन नहीं खोना चाहिए । परन्तु जहाँ तक कषायों का संबंध है, ये मनुष्य की सबसे घातक इच्छाएँ हैं। ये हैं- काम, क्रोध, मान, और लोभ । ये न तो विषयगत इच्छाओं की तरह जीवन के अस्तित्व के लिये जरूरी हैं और न पाप-पुण्यगत इच्छात्रों की तरह पूर्व जन्म का ऋण। फिर भी मनुष्य इनके चक्कर में पड़ कर अपना और दूसरे का सर्वनाश कर डालता है। वीतरागता इन्हीं इच्छाओं पर रोक लगाने के लिए है । मनुष्य वस्तुतः जिन चीजों से राग करता है, वे जड़ हैं । काम, क्रोध, मान, और लोभ इसी राग की तीव्रतम चेतना की विभिन्न प्रतिक्रियाएं हैं। इसीलिए कहा गया है कि निर्मोही गृहस्थ अच्छा है उस मुनि से जो मोही है । 'अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः' । प्रस्तुत ग्रन्थ
प्रस्तुत ग्रन्थ सन्दर्भित विषय पर पहिला मौलिक और प्रामाणिक शोध-प्रबन्ध है | निर्देशक होने के नाते मैं कह सकता हैं कि इसके लेखन में - श्री भारिल्ल ने प्राप्त तथा प्राप्य सामग्री के अनुसंधान और अनुशीलन में कोई कसर नहीं रखी, परन्तु यह शोध का प्रारम्भ हैं, ग्रन्त नहीं | पंडितजी के पूर्व प्राचार्य कुंदकुंद तक विशुद्ध अध्यात्म की लम्बी धारा है। इस परम्परा का नवीनीकरण कर जनमानस में सच्ची अध्यात्म विवेक दृष्टि जाग्रत करने के लिए पूज्य कानजी स्वामी की प्रेरणा से जो कुछ कार्य हो रहा है, यह शोध भी उसी का एक अंग है। मैं चाहता हूँ कि पूज्य आचार्य कुंदकुंद से लेकर पूर्व - टोडरमल तक इस विचारधारा के महत्त्वपूर्ण विचारों की वृत्तियों पर ऐसा शोध - पूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ तैयार किया जाय जो समूची विचारधारा का समकालीन संदर्भों में तथा जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक मूल्यों का अध्ययन प्रस्तुत करे। किसी भी विचारधारा के जीवित रहने के लिये उस पर शोधपरक अध्ययन बहुत जरूरी है। पूज्य कानजी स्वामी के प्रति यही श्रद्धांजलि हो सकती है कि यह काम उनके जीवन काल में ही पूरा हो जाए ।
- देवेन्द्रकुमार जैन
११४, ऊपा नगर इन्दौर ( म०प्र०)
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प्रकाशकीय 'पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व शोध-प्रबंध प्रकाशित करते हुए हमें अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है । प्राचार्यकल्प पंडितप्रवर टोडरमलजी को जैन समाज में कौन नहीं जानता ? उनका 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' तो समाज के हृदय का हार बना हुआ है। आज से लगभग ४८ वर्ष पूर्व उक्त ग्रंथ आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य श्री कानजी स्वामी के हाथ लगा । उसका सातवाँ अध्याय पढ़ कर वे इतने प्रभावित हए कि उन्होंने उक्त अध्याय के ५० पृष्ठ अपने हाथ से लिख लिए जो आज भी सुरक्षित हैं।
पूज्य स्वामीजी के मुख से मोक्षमार्ग प्रकाशक व उसके कर्ता पंडितप्रवर टोडरमल जी की श्रद्धापूर्वक प्रशंसा सुन कर श्रीमान् सेठ पूरणचंदजी गोदीका, जयपुर के हृदय में पंडितजी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई एवं यह जान कर तो उन्हें अपार हर्ष हुआ कि पंडितजी की कर्मभूमि जयपुर ही रहा है । उन्हें जयपुर में उनका एक भव्य स्मारक बनाने का भाव आया। पूज्य गुरुदेव की अनुमोदना एवं स्वर्गीय पंडित चैनसुखदासजी से प्रेरणा पाकर उन्होंने अपनी भावना को साकार रूप दे दिया। परिणामस्वरूप पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट की स्थापना हुई एवं श्री टोडरमल स्मारक भवन का निर्माण हुअा।
उपर्युक्त स्मारक ट्रस्ट के ट्रस्टियों में विचार चल रहा था कि जिन पूज्य पंडितजी के नाम पर स्मारक ट्रस्ट की स्थापना हुई है, उन महापुरुष के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से जनसाधारण अपरिचित है; अतः इस विषय पर सूक्ष्मता एवं गहराई के साथ प्रामाणिक शोध-कार्य करने की आवश्यकता है। इसी बीच श्री टोडरमल स्मारक भवन, जयपुर में डॉ० सत्येन्द्र, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय की अध्यक्षता में मात्र सन् १९६८ ई० में प्रायोजित 'टोडरमल जयंती समारोह के अवसर पर स्व. पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ ने पं० हुकमचंदजी भारिल्ल, शास्त्री, न्यायतीर्थ, एम०ए०, संयुक्तमंत्री,
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पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर से आचार्यकल्प पं० टोडरमलजी पर शोध कार्य करने का आग्रह किया। उस अनुरोध को उन्होंने तत्काल सहर्ष स्वीकार कर लिया क्योंकि उनका भी विचार चल ही रहा था । फलस्वरूप इन्दौर विश्वविद्यालय में डॉ० डी० के० जैन, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग के निर्देशन में उक्त शोध-प्रबंध उनके द्वारा मई सन् १९७२ ई० में प्रस्तुत किया गया ।
मेरा डॉ० भारिल्लजी से अत्यधिक निकट का सम्पर्क होने से मुझे मालूम है कि उन्होंने इस शोध-प्रबंध को तैयार करने में कितना अथक परिश्रम किया है। इस संबंध में खोज करने के लिए बहुत सा प्रकाशित व हस्तलिखित साहित्य कई स्थानों से इकट्ठा करना पड़ा । अनेकों जगह स्वयं को भी जाना पड़ा। महीनों तक लगातार अपने स्वास्थ्य का ध्यान न रखते हुए रात-दिन एक किए। वह कहने में किंचित् भी अतिशयोक्ति नहीं कि डाक्टर साहब का सारा परिश्रम पूर्णरूपेण सफल हो गया है ।
मैं ट्रस्ट की ओर से डॉक्टर भारिल्लजी को इस सत्कार्य के लिये अनेकानेक बधाई प्रेषित करता हूँ । वे धन्यवाद के पात्र हैं । उन्होंने ट्रस्ट के संकल्प को पूर्ण किया और स्व० पं० चैनसुखदासजी की भावना को मूर्त रूप दिया । यदि आज वे हमारे बीच होते तो उनको कितनी खुशी होती इसका अनुमान हम नहीं लगा सकते ।
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दिनांक २८ जनवरी १६७३ ई० को हल्दियों का रास्ता स्थित बुलियन एक्सचेंज, जयपुर में आयोजित पंडित टोडरमल स्मृति समारोह के अवसर पर पंडित टोडरमलजी पर शोध-प्रबंध लिखने के उपलक्ष में डॉ० भारिलजी का सार्वजनिक अभिनंदन किया गया था। उक्त अवसर पर पू श्री कानजी स्वामी का मंगल आशीर्वाद प्राप्त हुआ था जो आरंभ में दिया जा चुका है। उसके बाद डॉक्टर साहब के क्षयोपशम, अलौकिक ज्ञान व विलक्षण प्रतिभा के लिये मेरे पास लिखने को विशेष कुछ नहीं बचता है |
इस शोध प्रबंध द्वारा महापंडित टोडरमलजी के संबंध में कई महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आए हैं। अभी तक पूज्य पंडितजी के
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संबंध में ऐसी मान्यता चली आ रही थी कि उनका २७ वर्ष की आयु में देहावसान हो गया था, लेकिन डाक्टर साहब ने अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है कि वे ४७ वर्ष तक जीवित रहे। प्रलीगंज ( जिला ऐटा यू० पी० ) से प्राप्त हस्तलिखित सामग्री शोध-प्रबंध में उसी रूप में लगाई गई है ( देखिए पृ० ५१-५२), जिसको पढ़ने से हृदय गद्गद् हो जाता है ।
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इसी प्रकार यह मान्यता प्रचलित थी कि पंडितजी को पढ़ाने के लिए बनारस से एक विद्वान् बुलाया गया था। डाक्टर साहब ने उसको अप्रामाणिक सिद्ध किया है। उनका लिखना है कि जिस परिवार के व्यक्ति की छोटी उम्र में आज से २०० वर्ष पूर्व श्रावागमन के समुचित साधनों के अभाव में भी आजीविका के लिए जयपुर से १५० किलोमीटर दूर सिंघारा जाना पड़ा हो, उसका परिवार इतना सम्पश नहीं हो सकता कि उसको पढ़ाने के लिये बनारस से विद्वान् बुलाया गया हो। मैं यहाँ पर यह लिखना चाहूँगा कि आर्थिक स्थिति से इतने कमजोर होते हुये भी पंडितजी अपनी आत्म-साधना च ज्ञानसाधना में निरंतर तत्पर रहे। इससे यह सिद्ध होता है कि आत्मिक पवित्रता का बाहरी संयोगों से कोई मेल नहीं है। यह एक सुखद श्राश्चर्य है कि पंडितजी का सिंघारणा जाना जैन समाज के लिये एक वरदान सिद्ध हुआ। वहाँ पर महान सैद्धान्तिक ग्रंथ 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' की रचना हुई, जिसका विशद वर्णन आप प्रस्तुत ग्रंथ में स्वयं पढ़ेंगे ।
इस प्रकार के और भी कई तथ्य शोध-प्रबंध के द्वारा प्रकाश में आए हैं। आप स्वयं इस ग्रंथ के माध्यम से उनसे परिचित होकर आश्चर्यान्वित होंगे। उन सब को यहाँ लिख कर मैं आपका विशेष समय नहीं लेना चाहूँगा |
उपर्युक्त शोध-प्रबंध सात अध्यायों में विभक्त है। उनका विस्तृत विवेचन तो थाप स्वयं पढ़ेंगे ही। चतुर्थ अध्याय 'वर्ण्य विषय और दार्शनिक विचार' में जिस सूक्ष्मता से पंडितजी के साहित्य का समग्र जैनदर्शन के परिपेक्ष्य में विवेचन किया गया है, वह डॉ० भारिल्लजी के जैनदर्शन के वर्षों के तलस्पर्शी, गन व गंभीर अध्ययन से ही संभव
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हो सका है। मेरा लिखने का प्राशय यह है कि शोध-प्रबंध तो कोई भी जैन-अजैन विद्वान लिख सकता था, किन्तु जैन वाङ्मय के सम्यक् ज्ञान व अनेकान्त दृष्टिकोण के बिना इस प्रकार का स्याद्वादमय विवेचन संभव नहीं था । पूज्य श्री कानजी स्वामी ने फतेपुर (गुजरात में) पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के शुभ अवसर पर उपर्युक्त शोध-प्रबंध को डाक्टर साहब के मुख से आद्योपांत सुनकर अत्यन्त प्रसन्नता व्यक्त की थी।
यहाँ पर पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट की गतिविधियों का संक्षिप्त परिचय देना अप्रासंगिक नहीं होगा।
स्मारक भवन का शिलान्यास आध्यात्मिक प्रवक्ता माननीय श्री खेमचन्द भाई जेठालाल शेठ के हाथ से हुआ था एवं उद्घाटन आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य श्री कानजी स्वामी के कर-कमलों से दिनांक १३ मार्च, १९६७ ई० को हुआ।
संस्था का मुख्य उद्देश्य प्रात्म-कल्याणकारी, परम शांतिप्रदायक वीतराग-विज्ञान-तत्त्व का नयी पीढ़ी में प्रचार व प्रसार करना है । इसकी पूत्ति के लिए संस्था ने तत्त्व-प्रचार सम्बन्धी अनेक गतिविधियाँ प्रारम्भ की, जिन्हें अत्यल्प काल में ही अप्रत्याशित सफलता प्राप्त हुई है । वर्तमान में ट्रस्ट द्वारा निम्नलिखित गतिविधियाँ संचालित हैं :पाठयपुस्तक-निर्माण विभाग
बालकों को सामान्य तत्त्वज्ञान प्राप्ति एवं सदाचारयुक्त नैतिक जीवन बिताने की प्रेरणा देने के उद्देश्य से युगानुकूल उपयुक्त धार्मिक पाठ्यपुस्तकें सरल सुबोध भाषा में तैयार करने में यह विभाग कार्यरत है। इसके अन्तर्गत बालबोध पाठमाला भाग १, २, ३, वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग १, २, ३ तथा तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग १ पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। परीक्षा विभाग
उपर्युक्त पुस्तकों की पढ़ाई आरम्भ होते ही सुनियोजित ढंग से उन पुस्तकों की पढ़ाई के लिए परीक्षा लेने की समुचित व्यवस्था की
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अावश्यकता प्रतीत हुई। फलस्वरूप 'श्री वीतराग-विज्ञान विद्यापीठ परीक्षा बोर्ड' की स्थापना हुई। इस परीक्षा लोई मे १९६८-६६ में ५७१ छात्र परीक्षा में बैठे, जबकि १९७२-७३ में यह संख्या बढ़कर १६,५७१ हो गई। परीक्षा बोर्ड से विभिन्न प्रांतों की २५६ शिक्षणसंस्थाएँ सम्बन्धित हैं - जिनमें से १५५ तो बोर्ड द्वारा स्थापित नवीन वीतराग-विज्ञान पाठशालाएं हैं।
गुजराती भाषी परीक्षार्थियों की सुविधा की दृष्टि से इसकी एक शाखा अहमदाबाद में भी स्थापित की गई है । शिविर विभाग
इस विभाग की २ शाखाएँ हैं :१. प्रशिक्षण शिविर
२. शिक्षण शिविर १. प्रशिक्षण शिविर
श्री वीतराग-विज्ञान विद्यापीठ परीक्षा बोर्ड का पाठ्यक्रम चालू हो जाने पर और उत्तरपुस्तिकाओं के अवलोकन करने पर अनुभव हुमा कि अध्ययन शैली में पर्याप्त सुधार हुए बिना इन पुस्तकों को तैयार करने का उद्देश्य सफल नहीं हो सकेगा। अतएव धार्मिक अध्यापन की सैद्धान्तिक व प्रायोगिक प्रक्रिया में अध्यापक बन्धुत्रों को प्रशिक्षित करने हेतु ग्रीष्मकालीन अवकाश के समय २० दिवसीय प्रशिक्षण शिविर लगाया जाना प्रारम्भ किया गया । अभी तक ऐसे पांच शिविर क्रमश: जयपुर, विदिशा, जयपुर, आगरा व विदिशा में सम्पन्न हो चुके हैं, जिनमें ६६५ अध्यापकों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया है। आगामी प्रशिक्षण शिविर गुजरात व महाराष्ट्र में लगाने का निश्चय हो चुका है । तत्सम्बन्धी एक पुस्तक 'वीतराग-विज्ञान प्रशिक्षण निर्देशिका' भी प्रकाशित की गई है। २. शिक्षण शिविर
प्रशिक्षण शिविर की भांति ही बालकों के हेतु यथासमय जगह-जगह शिक्षण शिविर लगाये जाते हैं।
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शिक्षा विभाग
इस विभाग की ४ शाखाएं हैं :
(१) वीतराग - विज्ञान पाठशाला विभाग
(२) सरस्वती भवन विभाग
(३) वाचनालय विभाग
( ४ ) शोधकार्य विभाग
१. वीतराग - विज्ञान पाठशाला विभाग
यह अनुभव किया गया है कि हमारे स्कूलों में, जिन पर समाज का लाखों रुपया खर्च होता है, धार्मिक शिक्षा एक तो चलती ही नहीं और चलती भी है तो नाममात्र की। अतः एक योजना बनाई गई कि देश में जगह-जगह ऐसी पाठशालाएँ चलाई जायें जिनमें एक घंटा मात्र धर्म की शिक्षा दी जाय। इसके अन्तर्गत सारे भारतवर्ष में १५५ वीतराग - विज्ञान पाठशालाएँ चल रही हैं। इस प्रकार की पाठशालाओं के लिए, यदि नाहा जावे तो, २०रु० माहवार का नुदान देने की व्यवस्था है। इन पाठशालाओं में परीक्षा बोर्ड से प्रशिक्षित अध्यापक-अध्यापिकाएँ कार्य करते हैं। इस दिशा में कार्य करने की बहुत गुंजाइश है ।
२. सरस्वती भवन विभाग
अध्ययन व स्वाध्याय के लिए श्री टोडरमल स्मारक भवन में सर्व प्रकार का साहित्य उपलब्ध हो सके, इस दिशा में सरस्वती भवन में अब तक १६८० ग्रन्थों का संग्रह किया जा चुका है।
३. वाचनालय विभाग
वाचनालय विभाग में लौकिक और पारलौकिक ज्ञान की वृद्धि हेतु धार्मिक, सामाजिक और लौकिक सभी प्रकार की पत्र-पत्रिकाएँ मंगाई जाती हैं। वर्तमान में इनकी संख्या २० है ।
४. शोधकार्य विभाग
प्रस्तुत शोध-प्रबंध इस विभाग की प्रथम उपलब्धि है । इस विभाग द्वारा आगे और भी शोध कार्य हाथ में लिए जाने की अपेक्षा है ।
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प्रकाशन विभाग
हमारे प्रकाशन श्री टोडरमल ग्रन्थमाला के नाम से होते हैं । सर्वप्रथम हमें प्राचार्यकल्प पंडित प्रवर टोडरमलजी की अमर कृति 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के प्रकाशन का महान सौभाग्य प्राप्त हुआ । तदुपरान्त जैन समाज के प्रसिद्ध मूर्धन्य विद्वानों के मध्य जयपुर ( खानियाँ ) में हुई ऐतिहासिक तत्त्वचर्चा जो कि 'खानियाँ तत्त्वचर्चा' के नाम से प्रसिद्ध है, का प्रकाशन हमारे यहाँ से हुआ | हमारे सभी प्रकाशनों की सूची प्रस्तुत ग्रंथ के आवरण पृष्ठ पर दी गई है। महाराष्ट्र व गुजरात की माँग पर हमारी कतिपय पुस्तकों का मराठी व गुजराती में भी प्रकाशन हुआ है । प्रचार विभाग
पंडित हुकमचन्द शास्त्री द्वारा श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर तैरापंथियान, जयपुर में प्रातः और श्री टोडरमल स्मारक भवन में सायंकाल प्रवचन होता है, जिनसे काफी संख्या में तत्वप्रेमी समाज लाभ लेता है। बाहर से उनके प्रवचनार्थं बहुत ग्रामन्त्रण प्राते हैं, पर समयाभाव के कारण बहुत कम जा पाते हैं । फिर भी बम्बई, दिल्ली, कलकत्ता, गोहाटी, अहमदाबाद, उज्जैन, नागपुर, शोलापुर, कोल्हापुर, इन्दौर, सागर, उदयपुर, भोलवाड़ा, विदिशा, अलवर, आगरा, खण्डबा, कुचामरण, अशोकनगर, ललितपुर, शिरपुर, महावीरजी गुना, सीकर यादि कई स्थानों पर पंडितजी गए हैं और उनके द्वारा महती धर्म प्रभावना हुई है। आपकी व्याख्यान शैली से सारा समाज परिचित ही है ।
इस प्रकार संक्षेप में ट्रस्ट की गतिविधियों का परिचय ग्रापके सम्मुख प्रस्तुत किया है । हमारे प्रत्येक विभाग का कार्यक्षेत्र बहुत बड़ा है प्रोर उसमें कार्य बढ़ाने की बहुत गुंजाइश है । तत्त्वप्रचार की और कई योजनाएँ भी विचाराधीन हैं
ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि संस्था को वर्तमान स्वरूप प्राप्त होने का श्रेय ट्रस्ट के सम्माननीय अध्यक्ष श्रीमान् सेठ पूरणचंदजी गोदीका को है, जिन्होंने ट्रस्ट की समस्त
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योजनाओं को कार्यान्वित करने में कभी किसी प्रकार की प्राधिक समस्या उत्पन्न नहीं होने दी ।
डॉ० हुकमचन्दजी भारिल्ल इस संस्था के प्राण हैं । पूज्य स्वामीजी के उद्गार "अच्छा मिल गया । टोडरमल स्मारक को अच्छा मिल गया । गोदीका के भाग्य से मिल गया । गोदीका भी पुण्यशाली है न, सो मिल गया। बाद रहा। नरनार
आते हैं। संस्था के सभी कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाने व उनको कार्यान्वित करने में पापकी अद्भुत कार्यक्षमता व विलक्षण प्रतिभा प्रस्फुटित हई है। आपकी तत्वप्रचार की उत्कट लगन तथा दीर्घ दृष्टि से कार्य संभालने की कुशलता अनुकरणीय है।
डॉ० देवेन्द्रकुमारजी जैन, इन्दौर के प्रति मैं हार्दिक आभार प्रगट करता हूँ, जिनके सक्षम निर्देशन में यह पुनीत कार्य सम्पन्न हुआ व जिन्होंने हमारे अनुरोध पर प्रस्तावना लिखने की भी कृपा की है।
डॉ० हीरालाल जी माहेश्वरी ने शोध-प्रबंध के मुद्रण के लिये कई महत्वपूर्ण सुझाव दिये, तथा भूमिका लिखने का हमारा प्राग्रह समयाभाव होते हुए भी स्वीकार किया, एतदर्थ हम उनके प्राभारी हैं ।
अन्त में मैं श्री सोहनलालजी जैन, श्री राजमलजी जैन व जयपुर प्रिण्टर्स परिवार का भी पूर्णरूपेण प्राभारी है, जिन्होंने दिन-रात एक करके इतने अल्प समय में ऐसा सून्दर मुद्रण करके, अन्य आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया।
आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि यह ग्रंथ ऐतिहासिक, साहित्यिक व आध्यात्मिक दृष्टि से लाभदायक सिद्ध होगा।
द्वितीय संस्करण हेतु समुचित सुझावों की अपेक्षा के साथ,
ए-४, वापूनगर जयपुर ३०२००४ दि. ५ अगस्त, १९७३ ई०
नेमीचंद पाटनी
मंत्री पंडित टोडरमल स्मारक इस्ट
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अपनी बात प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी का विद्वत्ता और रचना-परिमाण की दृष्टि से हिन्दी गद्य साहित्य जगत में महत्त्वपूर्ण स्थान है, परन्तु उनके व्यक्तित्व और कर्तत्व पर अनुसंधानपरक अध्ययन अभी तक नहीं हुआ था। उनका नाम हिन्दी साहित्य के इतिहास में इसलिए नहीं पा सका क्योंकि उनकी रचनाएँ गद्य में थीं और ब्रजभाषा गद्य उम समय इतना लोकप्रिय नहीं थाः तथा खड़ी बोली में गदा का विकास इस द्रुतगति से हुआ कि १७वीं- १८ौं शती के ब्रजभाषा गद्म के मूल्यांकन की साहित्य के इतिहास के पंडितों ने प्रावश्यकता ही नहीं समझी। यदि वे गद्य की जगह पद्य लिखते तो इतिहासकार संभवतः उनका विशेष रूप से उल्लेख करते । हिन्दी जैन साहित्य के इतिहासों में भी उनके व्यक्तित्व और साहित्य का उल्लेख मात्र है ।
दुसरा कारण यह भी रहा कि पंडितजी जैन अध्यात्म से सम्बद्ध थे । मुमुक्ष लोग पंडितजी की रचनाओं की विषय-वस्तु से ही संतुष्ट थे, उसके कलात्मक पक्ष या ऐतिहासिकता अथवा अभिव्यक्ति कौशल से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं था । जो भी हो, उनकी रचना (मोक्षमार्ग प्रकाशक ) अाज से ७६ वर्ष पूर्व विक्रम संवत् १९५४ (सन् १८६७ ई०) में सर्वप्रथम लाहौर से बाबू ज्ञानचन्दजी जैन ने प्रकाशित की थी। तब से उनकी रचनाएँ निरन्तर प्रकाशित ही नहीं होती रहीं, बल्कि पठन-पाठन की दृष्टि से भी लोकप्रिय रही हैं । उनका 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' अपने आप में अभूतपूर्व मौलिक प्राध्यात्मिक ग्रन्थ है।
यह तो हुई उनके साहित्य प्रकाश और परिचय की पहली भूमिका । दूसरी भूमिका में यद्यपि पंडितजी पर कुछ फुटकर निबंध और अस्त्रबारों के विशेषांक प्रकाशित हुए और सन् १९६४ ई० में पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट की स्थापना हुई तथा जयपुर में एक स्मारक भवन का निर्माण हुआ तथापि पंडितजी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर शोधपूर्ण अध्ययन नहीं हुआ ।
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पंडित टोडरमलजी के विशाल एवं गंभीर प्राध्यात्मिक साहित्य को देख उन पर शोधकार्य करने का मेरा विचार चल ही रहा था कि पंडितजी की जयन्ती के अवसर पर सन् १६६८ ई० में स्वर्गीय पंडित चैनसुखदासजी ने प्राग्रह के स्वर में मुझे उन पर शोध-कार्य करने के लिए काहा, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के संचालकगण भी यह चाहते ही थे। उन्होंने सर्व प्रकार के सहयोग का आश्वासन देते हुए उक्त कार्य को शीघ्र ही प्रारम्भ करने का अनरोध किया। यथाशीघ्र मैंने डॉ० देवेन्द्रकुमारजी जैन, तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष, इन्हौर विश्वविद्यालय, इन्दौर के निर्देशन में अपना शोधकार्य प्रारंभ कर दिया ।
__ अपने इस अध्ययन काल में सबसे बड़ी कठिनाई पंडितजी के जीवन सम्बन्धी तथ्यों की प्रामाणिक जानकारी संकलित करने में हुई। विभिन्न स्रोतों से अधिक से अधिक प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करने का पूरा-पूरा यत्न किया गया एवं उसमें बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त हई । मैं चाहता था कि जयपुर राजघराने व शासकीय प्रालेख विभाग से उनके सम्बन्ध में मौलिक प्रमाणों को इकट्ठा करूं, परन्तु यह संभव नहीं हो सका।
उनके प्राप्त साहित्य के पालोड़न में मैंने अपनी दृष्टि से कोई कसर बाकी नहीं रखी है । उसका गंभीर और बारीकी से पूरा-पूरा अध्ययन किया है, विशेषकर मोक्षमार्ग प्रकाशक की तो पंक्ति-पंक्ति से मैंने घनिष्टतम संपर्क स्थापित किया है । उनके सम्पूर्ण साहित्य का भाषा और शैली की दृष्टि से एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण से तो अध्ययन प्रस्तुत किया ही है। साथ ही उनके दार्शनिक और सैद्धान्तिक पक्षों का भी, उनके पूर्ववर्ती समग्र दिगम्बर जैन साहित्य-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन प्रस्तुत किया है। संदर्भ साहित्य विशेषतः हस्तलिखित साहित्य का प्राप्त करना स्वयं अपने आप में एक कठिनतर कार्य है। कई ग्रन्थों के अब तक प्रकाशित न होने से, हस्तलिखित प्रतियों से अध्ययन करना पड़ा है। यह सब कितना श्रम-साध्य कार्य है, इसे विद्वद्वर्ग अच्छी तरह जानता है ।
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पूर्व परिस्थितियों, जीवन, साहित्य, दर्शन, भाषा और शैली के सम्बन्ध में मैंने अपने अध्ययन के आधार पर कई नए तथ्य प्रस्तुत किए हैं
और पुरानी धारणामों का विनम्न निरसन भी किया है। अपने कथनों की प्रामाणिकता के लिए कतिपय महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित प्रतियों के चित्र तथा आवश्यक महत्व के उल्लेख यथास्थान दिए हैं । पूर्वअध्येतानों के प्रांत र हपथ में पूरस-पूरा सम्मान है एवं मेरे निष्कर्षों के संबंध में आगामी अनुकुल-प्रतिकूल शोधों के प्रति पवित्र जिज्ञासा भी है।
इस सन्दर्भ में जिन-जिन ग्रंथों और ग्रन्थकारों से ज्ञान लाभ लिया एवं उनका उपयोग किया , उनका उल्लेख यथास्थान किया गया है। बहुत से ग्रंथ ऐसे भी हैं जिनका इस सन्दर्भ में अध्ययन तो किया पर प्रस्तुत कृति में उपयोग नहीं हुआ, अतः उनका उल्लेख संभव नहीं था । उन सब के प्रति मैं कृतज्ञ हैं।
प्रस्तुत शोधाध्ययन सात अध्यायों में विभक्त है :
प्रथम अध्याय में पंडित टोडरमलजी के पूर्व व समकालीन धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों तथा विचारधाराओं पर विचार किया गया है। साथ ही समकालीन राजनीतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों की भी चर्चा है ।
द्वितीय अध्याय पंडितजी के जीवन और व्यक्तित्व से संबंधित है - इसके अन्तर्गत उनके नाम, निवास, जन्म, मृत्यु, परिवार, गुरु, शिक्षा, व्यवसाय, कार्यक्षेत्र, प्रचारकार्य, सम्पर्क-सहचर्य, प्रतिभा, प्रभाव, प्रामाणिकता और स्वभाव पर प्रामाणिक प्रकाश डाला गया है ।
तृतीय अध्याय में उनकी रचनाओं का वर्गीकरण एवं परिचयात्मक अनुशीलन प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक रचना का नाम, परिमाण, रचनाकाल, रचनास्थान, प्रेरणा, उद्देश्य, वर्ण्य-विषय और रचनाशैली का प्रामाणिक परिशीलन प्रस्तुत कर अन्त में उनके पद्य साहित्य का परिचय एवं उसकी विशेषताओं पर विचार किया गया है।
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चतुर्थ अध्याय में जनदर्शन एवं जैनागम परम्परा के परिप्रेक्ष्य में उनके द्वारा वरिणत वर्थ-विषय एवं दार्शनिक विचारों का परिशीलन किया गया है - जिसमें सम्यग्दर्शन, जीव-अजीत्र, कर्म, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य-पाप, देव-शास्त्र-गुरु, भक्ति, देव और पुरुपार्थ, निमित्त-उपादान, सम्यग्ज्ञान, निश्चय-व्यवहारनय, जैनाभास, निश्चयाभासी,व्यवहाराभासी, कुल अपेक्षा धर्म मानने वाले, याज्ञानुसारी जैनत्व, लौकिक प्रयोजन से धर्म साधना करने वाले, उभयाभासी, नयकथनों का मर्म और उनका उपयोग, चार अनुयोग, अनयोगों का अध्ययन-ऋम, बीतरागता एक मात्र प्रयोजन, न्याय-व्याकरणादि शास्त्रों के अध्ययन की उपयोगिता, सम्यक्चारित्र, अहिंसा, भावों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, वक्ता, श्रोता, पढ़ने योग्य शास्त्र, वीतरागविज्ञान, गृहीत-अग्रहीत मिथ्याभाव, इच्छा, इच्छाओं के भेद, आदि विषयों का अनुशीलन किया गया है।
पंचम अध्याय में उनकी गद्य शैली पर प्रकाश डाला गया है। इसके अन्तर्गत दृष्टान्त, प्रश्नोत्तर आदि शैलीगत विशेषताओं पर सोदाहरण विवेचन किया है ।
षष्ठ अध्याय में पंडितजी की भाषा पर विचार किया गया है । शब्द समूह - तत्सम, तद्भव, देशी, विदेशी : संज्ञा शब्द व उनके व्यक्तिवाचक, जातिवाचक, भाववाचक भेद; सर्वनाम - उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष, अन्य पुरुष; अव्यय - कालवाचक, स्थानवाचक, परिमारगवाचक, गुणवाचक, प्रश्नवाचक, निश्चयवाचक एवं सामान्य अध्यय; शब्द विशेष के कई प्रयोग; कारक - कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध और अधिकरण : क्रियापद - साध्यमान धातु से बनी क्रियाएँ, देशी क्रियाएँ, प्रेरणार्थक क्रियाएँ, पूर्वकालिक क्रियाएँ एवं क्रिया के वर्तमान, भूत, भविष्य काल, आज्ञार्थ प्रादि रूपों पर विचार किया गया है। अन्त में निष्कर्ष रूप से उनकी भाषा की प्रकृति का ' विश्लेषण किया गया है।
सप्तम अध्याय में हिन्दी भाषा और माहित्य को पंडितजी के योगदान का मूल्यांकन करते हुए समस्त विषय का उपसंहार किया है।
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अन्त में तीन परिशिष्ट दिये गए हैं । प्रथम परिशिष्ट में पं० टोडरमलजी के अनन्य सहयोगी साधर्मी भाई व रायमलजी द्वारा लिखित जीवन पत्रिका एवं इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका दी गई हैं। उनमें पंडितजी के जीवन के कई पहलू उजागर हुए हैं तथा उनमें उल्लिखित तथ्यों से उनके व्यक्तित्व और कत्र्तृत्व पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। उनकी मूल प्रतियों प्राप्त हैं। उन्हें उसी रूप में छापा गया है, जिस रूप में वे हैं। मात्र विराम, अर्द्ध-विराम आदि अपनी ओर से लगाए हैं व आवश्यक शब्दार्थ टिप्पणी के रूप में दिए हैं। दूसरे परिशिष्ट में संदर्भ-ग्रंथों की सूची एवं तीसरे में नामानक्रमणिका दी गई है । ग्रंथ के प्रारंभ में संकेत-सूची भी दी गई है ।
पंडित टोडरमलजी के साहित्य, विशेषकर 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' का साध्यात्मिा मर्म शमोनी इट ओ पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी से प्राप्त हुई, उनके प्रति मैं श्रद्धानवत है एवं उनका मंगल आशीर्वाद पाकर अपने को गौरवान्वित अनुभव करता है।
अपने इस अध्ययन काल में डॉ० जैन ने न केवल भाषाशैली की दृष्टि से मुझे महत्त्वपूर्ण और मौलिक खोज के प्रति प्रेरित किया बल्कि कई प्रसंगों पर दार्शनिक व तात्त्विक चिन्तन में भी उनसे नई दृष्टि मिली। मेरे अनुरोध पर उन्होंने सारगभित प्रस्तावना भी लिखने की कृपा की है। मैं उनके प्रति माब्दों में क्या आभार व्यक्त करूँ । 'कुंदवंदाचार्य से कानजी स्वामी तक की परम्परा पर शोधपूर्ण कार्य होना चाहिए' - प्रस्तावना में उनका यह सुझाव वास्तव में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
डॉ० हीरालालजी माहेश्वरी ने ग्रन्थ प्रकाशन के पूर्व कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं एवं मेरे आग्रह पर विद्वत्तापूर्ण भूमिका लिख दी है। भूमिका में उल्लिखित उनका यह ग्रादेश कि 'टोडरमलजी की विचारधारा के समकालीन एवं परवर्ती प्रभावों पर शोधकार्य हो और बह भी मेरे द्वारा' - प्रस्तुत शोधकार्य व मेरे प्रति उनका सद्भाव है। मैं उनकी इस महानता के प्रति बहुत-बहुत प्राभारी हूँ।
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डॉ० नरेन्द्रकुमारजी भानावत, प्राध्यापक, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर ने भी समय-समय पर सत्परामर्श दिए एवं मेरे कार्य को बीच-बीच में देख कर सहयोग दिया है । मैं उनका हृदय से आभारी हूँ ।
श्रीमान् सेठ पूरणचंदजी गोदीका - जिन्होंने पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट की स्थापना की और जयपुर में स्मारक भवन का भव्य निर्माण कार्य किया की निरन्तर प्रेरणा एवं सर्व प्रकार के सक्रिय सहयोग का इस कार्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है । उनके सहयोग के बिना यह कार्य सम्भव नहीं था। ट्रस्ट के सुयोग्य मंत्री श्री नेमीचंदजी पाटनी की निरन्तर प्रेरणा एवं सक्रिय सहयोग भी अविस्मरणीय है ।
पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ने इस ग्रन्थ को प्रकाशित ही नहीं किया किन्तु लागत मूल्य पर पाठकों तक पहुँचाने का संकल्प किया तथा श्री सोहनलालजी जैन, जयपुर प्रिंटर्स ने प्रार्थिक लाभ की परवाह किए बिना इतनी शीघ्रता से इतना सुन्दर मुद्रण किया है- एतदर्थं मैं उनका भी आभारी हूँ । इसी प्रकार सर्व श्री खीमचंद भाई, श्री बाबू भाई, एवं मेरे अग्रज पंडित रतनचंद्र शास्त्री का सहयोग भी स्मरणीय है ।
प्रत्येक स्तर पर निरन्तर सहयोग देने वाले श्री राजमलजी जैन, जयपुर प्रिण्टर्स के प्रति आभार व्यक्त कर उक्त कार्य के प्रति उनकी आत्मीयता को मैं कम नहीं करना चाहता है । जैसा सहयोग पंडित टोडरमलजी को सम्यग्ज्ञानचंद्रिका के निर्माण में ब्र० रायमलजी से प्राप्त हुआ था, वैसा ही सहयोग इस कार्य में मुझे बन्धुवर श्री राजमलजी से प्राप्त हुआ है।
इस अवसर पर पूज्य पिताजी साहब के प्रति भी मैं गद्गद् हृदय से अद्धान्वित हूँ, जिन्होंने अनेक कठिनाइयों और विषमताओं के बीच मुझे इस योग्य बनाया तथा स्व० माताजी, जिनका वरदहस्त छः माह पूर्व तक प्राप्त था, जो पच्चीस वर्ष तक रोग- शय्या पर रहने पर भी मेरे अध्ययन में सदा साधक ही बनी रहीं के प्रति में विनम्र श्रद्धाजंलि समर्पित करता हूँ ।
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___डॉ० कस्तूरचन्दजो कासलीवाल, श्री अनूप धन्दी न्यावतीर्थ, श्री भंवरलालजी न्यायतीर्थ, पंडित हीरालालजी सिद्धांतशास्त्री, वैद्य गम्भीरचन्दजी जैन, ब्र. गुलाबचन्दजी आदि से भी यावश्यक साहित्य-सामग्री प्राप्त करने में तथा श्री हेमचंदजी जैन का पाण्डुलिपि तैयार करने में सराहनीय सहयोग रहा है । उन सबके प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ।
व्यवस्थापकगण - राजस्थान विश्वविद्यालय पुस्तकालय जयपुर, श्री सन्मति पुस्तकालय जयपुर, श्री दि० जैन बड़ा मन्दिर तेरापंथियान जयपुर, दि० जैन मंदिर दीवान भदीचंदजी जयपुर, दि० जैन मंदिर प्रादर्श नगर जयपुर, लाल भवन जयपुर, महावीर भवन जयपुर, दि० जैन मंदिर बड़ा धड़ा अजमेर, श्री सीमंधर जिनालय बम्बई, ऐ०प० सरस्वती भवन बम्बई-त्र्यावर, दि० जैन मंदिर अलीगंज, श्री दि० जन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ़, वीर वाचनालय इन्दौर, पुस्तकालय शासकीय वाणिज्य एवं कला महाविद्यालय इन्दौर, दि. जैन कांच का मंदिर इन्दौर, श्री नेमिनाथ दि. जैन मंदिर रामाशाह इन्दौर, दि० जैन मारवाड़ी मंदिर शक्कर बाजार इन्दौर आदि से आवश्यक साहित्य-सामग्री प्राप्त करने में सुविधा रही है, उन सब के प्रति मै आभार व्यक्त करता है । अंत में ज्ञात-अज्ञात जिन महानुभावों से भावात्मक एवं सक्रिय सहयोग मुझे प्राप्त हुआ है, उन सब के प्रति मैं प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्राभार प्रदशित करता है।
सब कुछ मिला कर प्रस्तुत कृति जैसी भी बन सकी है, आपके हाथ में है । यदि इससे हिन्दी साहित्य जगत व मुमुक्षु बन्धुओं को थोड़ा भी लाभ मिला, तो मैं अपमा श्रम सार्थक समभूगा। यद्यपि इसमें बहुत कुछ कमियां हो सकती हैं तथापि मैंने यह गुरुतर भार पूज्य पंडित टोडरमलजी के निम्नलिखित वाक्य को लक्ष्य में रखकर ही उठाया है :
संशयादि होते किछु, जो न कीजिए ग्रंथ । तो छद्मस्थान के मिट, ग्रंथ करन को पंथ ।।
टोडरमल स्मारक भवन ए-४, बापू नगर, जयपुर
- हुकमचन्द भारिल्ल
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शुद्धिपत्र
[नोट : कृपया पुस्तक पढ़ने से पूर्व निम्नलिखित अशुद्धियां अवश्य ठीक कर लें।
पृष्ठ
पंक्ति
अशुद्ध कुमुन्द कुमुध कीया पीछे कीया । पीछे
रहो
तिही
७४
-
और न ही खंद्य
खंध खंद खंध उनका उनकी समवसरन समवसरण यह ईष सम्यक्त्वदिक सम्यक्त्वादिक जुयधा जुरया परिणामवाचक परिमारणवाचक
कह
.
द्वेष
२७५
२८
३०३
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प० प्र०
पी० पु० जै० ० वा० सू० पु० भा० टी०
प्रो०
पृ०
संकेत सूची
अध्याय
गाथा
ग्राचार्य
आत्मानुशासन
भाषाटीका इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका
ईस्वी
उत्तर प्रदेश
उत्तरी भारत की संत परम्परा
ऐलक पन्नालाल
कविवर बनारसीदास जीवनी और कृतित्व
चरचा संग्रह
जैन साहित्य और इतिहास
नाथूराम प्रेमी
टोडरमल जयन्ती स्मारिका
डॉक्टर
दिगम्बर
नम्बर
पंडित
:
परमात्मप्रकाश
पीठिका
पुरातन जैन वाक्य सूची पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषाटीका
प्रशस्ति
प्रोफेसर
पृष्ठ
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बु० वि०
म० वि० वृ० वि० भ० सं० भा० इ० एक दृष्टि भा० सं० जै० यो
म० का० ध० साल मो० मा०प्र० मो० मा० प्र०, मथुरा यू० प्र० वि० सं० शा० पू० व०प्र०
स० चं
बुद्धि विलास ब्रह्मचारी ब्रह्म विलास वृन्दाबन विलास भट्टारक सम्प्रदाय भारतीय इतिहास एक दृष्टि भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान मध्यकालीन धर्म माधना मोक्षमार्ग प्रकाशक, दिल्ली मोक्षमार्ग प्रकाशक, मथुरा युक्ति प्रबोध विक्रम संवत् शान्तिनाथ पुराण बचनिवा प्रशस्ति सम्यग्ज्ञानचंद्रिका सुत्र हस्तलिखित हिन्दी गन का विकास हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास हिन्दी साहित्य का पालोचनात्मक इतिहास हिन्दी साहित्य का इतिहास हिन्दी साहित्य का इतिहास : रामशंकर शुक्ल 'रसाल' हिन्दी साहित्य, द्वितीय खण्ड त्रिलोकमार भाषाटीका ज्ञानानंद श्रावकाचार
ह० लि. हि० ग० वि० हि० ज० सा० इति० हि जै० सा० सं० इति
हि० भा० उ० वि०
हि सा. आ. इतिः
हि० सा० इति हि० सा० इति ० 'रसाल'
हि सा०, द्विक खं० त्रि भा० टी. ज्ञा० श्रा०
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-
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विषय-सची
पृष्ठ संख्या
प्रथम अध्याय पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएँ और परिस्थितियाँ राजनीतिक परिस्थिति साहित्यिक परिस्थिति
३२-३५ ६६-४०
द्वितीय अध्याय जीवनवृत्त
नाम ४३, जन्मतिथि ४४, जन्मस्थान ५२, मृत्यु ५६, परिवार ५६, शिक्षा और शिक्षागुरु ५५, व्यवमाय ६१, अध्ययन और जीवन ६२, कार्यक्षेत्र
और प्रचारकार्य ६४, सम्पर्क और साहचर्य ६६ व्यक्तित्व
७०-७६
७९-८? ८२-१४८
तृतीय अध्याय रचनाएँ और उनका वर्गीकरण रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन रहस्यपूर्ण चिठ्ठी ८२, सम्यग्ज्ञानचंद्रिका ८५, गोम्मटसार गुजा ६७, त्रिलोकसार भाषाटोका १००, समोसरण वर्णन १०६, मोक्षमार्ग प्रकाशक १०६, प्रात्मानुशासन भाषाटोका १३२, पुरुषार्थमिदपाय
भाषाटीका १४१ पद्य साहित्य
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चतुर्थ अध्याय
१५६-२०७
वर्ण्य-विषय और दार्शनिक विचार
सम्यग्वर्शन १६३, जीव और अजीव तत्त्व १६४, कर्म १६५, आस्रव तत्त्व १६७, बंध तत्त्व १६७, संबर तत्त्व १६६, निर्जरा तत्त्व १७०, मोक्ष तत्त्व १७१, पुण्य-पाए १७२, देव १७३, माास्त्र १७४, गुरु १५५, भक्ति १७६, देव और पुरुषार्थ १७७, निमित्त उपादान १७९ सम्यग्ज्ञान १८१, निश्चय और व्यवहार नय १८१, गामास !', म्यागासी १, व्यवहाराभासी १८५, उभयाभासी १६०, नयकथनों का मर्म और उनका उपयोग १६१, चार अनुयोग १६२, प्रथमानुयोग १९२, करणानुयोग १६४, धरणानुयोग १९४, द्रव्यानुयोग १९५, अनुयोगों का प्रध्ययनकम १६८, वीतरागता एकमात्र प्रयोजन १९८, न्याय व्याकरणादि शास्त्रों के अध्ययन की उपयोगिता १९६
सम्यक्चारित्र १६६. अहिंसा २०२, भावों कार तास्विक विश्लेषण २०५
विविध विचार वक्ता और श्रोता २०७, पठनपाठन के योग्य शास्त्र २११, वीतराग-विज्ञान (सम्यक्भाव ) २१५, मिथ्याभाव २१६, मूक्ष्मातिसूक्ष्म मिध्याभाव २२२, इच्छाएं २२७
पंचम अध्याय
गद्य शैली
२३३-२६०
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षष्ठ अध्याय
२६३-३०८
भाषा शव समूह २६७, संशा शब्द २६८, सर्वनाम २७१, अव्यय २७३, संख्यानाची शब्द २८१, शब्द विशेष के कई प्रयोग २८३ वचन २८५ कारक और विभक्तियाँ २८६, कर्ती २८७, कर्म २८८, करा २८६ सम्प्रदान २८६, अपादान २६०, सम्बन्ध २६०, अधिकरण २६१. क्रियापद २९२, वर्तमानकालिक क्रिया ३००, भूतकालिक क्रिया ३०१, भविष्यकालिक क्रिया ३०३, प्राज्ञार्थ क्रिया ३०४, पूर्वकालिक क्रिया ३०४
सप्तम अध्याय
उपसंहार : उपलब्धियां और मूल्यांकन परिशिष्ट १. जीवन पत्रिका
इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका २. संन्दर्भ ग्रंथ-सूची ३. नामानुक्रमणिका
३३७-३४६
३४.-३५६
३५७-३६०
( xxxv )
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मंगलमय मंगलकरण वीतराग विज्ञान । नमौ ताहि जात भये अरहतादि महान ।। करि मंगल करिहौं महाग्रंथ करन को काज । जातै मिलै समाज सब पावै निज पद राज ।।
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CASA Pads repZ
प्रथम अध्याय
पूर्व - धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएँ और परिस्थितियाँ
राजनीतिक परिस्थिति
साहित्यिक परिस्थिति
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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएँ
और परिस्थितियाँ धर्म का मूल उद्गम चाहे जो हो परन्तु उसका लौकिक रूप सम्प्रदाय या उपसम्प्रदायों के रूप में ही विभक्त है। विश्व और. विशेषत: भारत में धर्म और दर्शन दोनों एक दूसरे से अनुस्यूत हैं । दर्शन के द्वारा बिवेचित तत्त्व का याचरण भी धर्म के अंतर्गत या जाता है । धर्म के मनुष्य-सापेक्ष्य होने से देशकाल का प्रभाव उस पर भी पड़ता है । जैनधर्म भी इससे अछूता नहीं है।
प्रारंभ में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय के साधु वनवासी और मग्न हा करते थे। कालान्तर में उनमें से कतिपय साधुओं ने मठों-मंदिरों में रहना एवं वस्त्रादि का उपयोग करना प्रारंभ कर दिया। डॉ० हीरालाल जैन लिखते हैं
. "जैन मुनि आदितः वर्षा ऋतु के चातुर्मास को छोड़ अन्य कान में एक स्थान पर परिमित दिनों से अधिक नहीं ठहरते थे और वे सदा विहार किया करते थे। वे नगर में केवल ग्राहार व धर्मोपदेश के निमित्त ही पाते थे और शेषकाल वन-उपवन में ही रहते थे किन्तु धीरे-धीरे पांचवी-छठी शताब्दी के पश्चात् कुछ साधु चैत्यालयों में स्थायी रूप से निवास करने लगे । इससे श्वेताम्बर समाज में बनबासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय उत्पन्न हो गये । दिगम्बर सम्प्रदाय में भी प्रायः उसी काल में कुछ साधु चैत्यों में रहने लगे।" ' ज. सा. इति०, ४५६ २ भा० सं० ० यो, ४५
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और फरव
विक्रम की आठवीं शती के प्रसिद्ध दार्शनिक श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र ने संबोध प्रकरण' के गुर्वधिकार में मठवासी साधुत्रों के शिथिलाचार का वर्णन इस प्रकार किया है
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"ये कुसाधु त्यों और मठों में रहते हैं, पूजा करने का प्रारंभ करते हैं, देव-द्रव्य का उपभोग करते हैं, जिनमंदिर और शालाएं चिनवाते हैं। रंगविरंगे धूपवासित वस्त्र पहनते हैं, बिना नाथ के बैलों के सदृश स्त्रियों के श्रागे गाते हैं, आर्यिकाओं द्वारा लाए गये पदार्थ खाते हैं और तरह-तरह के उपकरण रखते हैं । जल, फल, फूल यदि संचित द्रव्यों का उपभोग करते हैं। दो तीन बार भोजन करते और ताम्बूल लवंगादि भी खाते हैं ।
ये मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, भभूत भी देते हैं । ज्योनारों में मिष्ट आहार प्राप्त करते हैं, आहार के लिए खुशामद करते और पूछने पर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते ।
स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी दूसरों से बालोचना-प्रतिक्रमण कराते हैं । स्नान करते, तेल लगाते, श्रृंगार करते और इत्र - फुलेल का उपयोग करते हैं।
अपने हीनाचारी मृतक गुरुयों की दाह भूमि पर स्तूप बनवाते हैं। स्त्रियों के समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियां उनके गुणों के गीत गाती हैं ।
सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने विकथाएं करते हैं
चेला बनाने के लिए छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों को ठगते और जिन प्रतिमाओं को भी बेचते -खरीदते हैं। उच्चाटन करते और वैद्यक, यंत्र, मंत्र, गंडा, ताबीज आदि में कुमाल होते हैं ।
ये श्रावकों को सुविहित साधुओं के पास जाते हुए रोकते हैं, शाप देने का भय दिखाते हैं, परस्पर विरोध रखते हैं, और चेलों के लिये एक दूसरों से लड़ मरते हैं ।
जं०] सा० इति०, ४८०-८१
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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थिति
जो लोग इन भ्रष्ट चरित्रों को मुनि मानते हैं, उनको लक्ष्य कर के हरिभद्र ने लिखा है
"कुछ नासमझ लोग कहते हैं कि यह तीर्थकरों का वेष है, इसे भी नमस्कार करना चाहिये । अहो ! धिक्कार हो इन्हें ! मैं अपने सिर के शूल की पुकार किसके आगे जाकर करू ?' '
दिगम्बर सम्प्रदाय में भी शैथिल्य पुराने समय से ही है तथा परिस्थिलियाँ और मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलताएं उसे बराबर सींचती रहीं, जिसकी अंतिम परिणति भट्टारकों के रूप में हुई ।
दिगम्बरों में चैत्यवास की प्रवृत्ति सर्वप्रथम द्राविडसंघी, काष्ठासंघी और माथुरमंघियों में आई। बाद में मूलसंघियों में भी चैल्पवास की प्रवृत्ति प्रागई । उक्त संदर्भ में नाथूराम प्रेमी लिखते हैं --
___ "गरज यह है कि द्राविड़संघ के संस्थापक वजनन्दि आदि तो पुराने चैत्ययासो हैं, जिन्हे पहिले हं. अनानास मान लिया गया था और मूलसंघी उसके बाद के नये चैत्यवासी हैं, जिन्हें देवसेन (विक्रम सम्बत् ११०) ने तो नहीं परन्तु उनके बहुत पीछे के तेरहरंथ के प्रवर्तकों ने जैनाभास बतलाया।"
नवीं शती के प्राचार्य गुणभद्र के समय दिगम्बर मुनियों की प्रवृत्ति नगरवास की ओर विशेष वढ़ रही थी। इसकी कटु पालोचना करते हुये वे 'अात्मानुशासन' में कहते हैं "जिस प्रकार इधर-उधर से भयभीत गीदड़ रात्रि में वन को छोड़ गांव के समीप आ जाते हैं, उसी प्रकार इस कलिकाल में मुनिजन भी बन को छोड़ गांव के समीप रहने लगे हैं । यह खेद की बात है।"3
चैत्यवास की प्रवृत्ति के कारणों पर विशद प्रकाश डालते हुए डॉ. हीरालाल जैन लिखते हैं – "चैत्यवास की प्रवृत्ति प्रादितः सिद्धान्त बाला वयंति एवं बेसो तित्थंकराण एसो वि।
णमणिज्जो धिद्धी अहो सिरसूलं कस्स पुष्करिमो ।।७६।। - संबोध प्रकरण २ जे० सा० इति०, ४८६ 3 इतस्ततमच यस्यतो विभावर्या यथा मृगाः । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलो कष्टं तपस्विनः ॥१९७५
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कत्रय के पठन-पाठन व साहित्य सृजन की सुविधा के लिये प्रारम्भ हुई होगी किन्तु धीरे-धीरे वह एक साधुवर्ग की स्थायी जीवन-प्रणाली बन गई, जिसको कारण नाना मंदिरों में भट्टारकों की गद्दियां व मठ स्थापित हो गये । इस प्रकार भट्टारकों के प्राचार में शैथिल्य व परिग्रह अनिवार्यतः या गया ।
दिगम्बर ब श्वेताम्बर दोनों शाखाओं के साधु निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। निर्ग्रन्थ का अर्थ है - सर्वप्रकार के परिग्रहों से रहित । यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में साधुनों को लज्जा-निवारण के लिये बहुत ही सादा वस्त्र रखने की छूट दी गई है। तथापि जिन शर्तों के साथ दी गई है वह न देने के ही बरावर है । वास्तव में अशक्ति या लाचारी में ही वस्त्र का उपयोग करने की प्राज्ञा है। 'संबोध प्रकरण' में बिना कारण कटिवस्त्र बांधने वाले साधुओं को क्लीव कहा गया है।
काफी खोजबीन के बाद नाथुराम प्रेमी लिखते हैं - "इस बात के भी प्रमाण हैं कि प्राचीन काल में दिगम्बर और श्वेताम्बर प्रतिमानों में कोई भेद न था। प्रायः दोनों ही नम्न प्रतिमाओं को पूजते थे। मथुरा के कंकाली टोले में जो लगभग दो हजार वर्ष की प्राचीन प्रतिमायें मिली हैं, वे नग्न हैं और उनपर जो लेख हैं वे कल्पसूत्र की स्थिरावली के अनुसार हैं।" इसके सिवा १७वीं शताब्दी में पं० धर्मसागर उपाध्याय ने अपने प्रवचन परीक्षा' नामक ग्रंथ में लिखा है - "गिरिनार और शग्रंजय पर एक समय दोनों संप्रदायों में झगड़ा हुया और उसमें शासन देवता की कृपा से दिगम्बरों की पराजय हुई। जब इन दोनों तीर्थों पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय का अधिकार हो गया, तत्र प्रागे किसी प्रकार का झगड़ा न हो, इसके लिये श्वेताम्बर संघ ने यह निश्चय किया कि अब से जो नई प्रतिमायें बनवाई जाए उनके पादमुल में वस्त्र का चिह्न बना दिया जाय ।" १ भा० सं० ज० यो०, ४५ ३ आचारांग प्र० १० अश्वरन ६, उद्देश्य ३; द्वि० श्रु० अध्ययन १४ उद्देश्य १-२ ' कीवो न कुमार लोग लज्जइ गदिमाइ बल्न मुवरोई 1
सोचाहगा य हिंडइ, बंधई कटि पट्टयमकम्जे ।।१४।। ४ जं. सा. इति०, ४६६
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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितिया
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में न केबल मुनियों द्वारा वस्त्र-ग्रहण की मात्रा बढ़ी किन्तु धीरे-धीरे तीर्थंकरों की मूर्तियों में भी कोपीन का चिह्न प्रदर्शित किया जाने लगा तथा मुर्तियों का लांख, अंगी, मुकुट बारिश अल है कि सीमासमतोमा। इस कारण दिगम्बर और श्वेताम्बर मंदिर व मूर्तियाँ, जो पहले एक ही रहा करते थे, अब पृथक्-पृथक् होने लगे। ये प्रवृत्तियां सातवी-आठवीं शती से पूर्व नहीं पाई जाती हैं।
ग्यारहवीं शती के तार्किक बिद्वान् सोमदेव शिथिलाचारी मुनियों की वकालत करते हुए लिखते हैं -
"यथा पूज्यं जिनेन्द्रागां रूपं लेपादि निमितं । तथा पूर्वमुनिच्छाया: पूज्याः संप्रति संयता ।।'' "भुक्तिमात्र प्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्तः संत्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति ।। मरिंभप्रवृत्तानां गृहस्थानां धनन्ययः ।
बहुधाऽस्ति ततोऽत्यर्थं न कर्तव्या विचारणा ।।"3 "जैसे लेप-पाषाणादि में बनाया हुअा अर्हतों का रूप पूज्य है वैसे ही वर्तमान काल के मुनि पूर्व मुनियों की छाया होने से पूज्य हैं।
भोजनमात्र देने में तपस्वियों की क्या परीक्षा करनी ? वे अच्छे हों या बुरे, गृहस्थ तो दान देने से शुद्ध हो ही जाता है। गृहस्थ लोग अनेक प्रारम्भ करते हैं जिनमें उनका बहुत धन खर्च होता है, अतः साधुओं को आहार दान देने में उन्हें विचार नहीं करना चाहिये।"
पहले मठवासी हो जाने पर भी दिगम्बर साधु नग्न ही रहते थे पर उनका चरित्र शिथिल था। वि० सं० ११५१ में भट्टारक कुमुन्दचन्द्र का शास्त्रार्थ श्वेताम्बर यति देवसूरि के साथ गुजरात के राजा सिद्धराज की सभा में हुआ था । उसके वर्णन में कुमुदचन्द्र के बारे में
- -- - । भा० सं० ज० यो०, ४४-४५ २ यशस्तिलकचम्पू, उत्तरखण्ड, ४०५ ३ नही, ४०७
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व लिखा गया है कि वे पालकी पर बैठे , उन पर छत्र लगा हुआ था और वे नग्न थे।
इससे स्पष्ट है कि व्यवहार में यद्यपि वस्त्र का उपयोग भट्टारकों में खुलकर होने लगा और उसे वैध-सा भी मान लिया गया तथापि तत्व की दृष्टि से नग्नता ही पुज्य मानी जाती रही। भद्रारक पद प्राप्ति के समय कुछ क्षणों के लिये ही क्यों न हो, मग्न अवस्था धारण करना अावश्यक रहा। कुछ, भट्टारक मृत्यू समीप अाने पर नग्न अवस्था लेकर सल्लेखना स्वीकार करते रहे।
बारहवीं शती के पंडितप्रवर आशाधर ने 'अनागार धर्मामृत' के दूसरे अध्याय में इन चैत्यवासी किन्तु नग्न साधुनों की चर्चा करते हुए लिखा है - "तथा तीसरे प्रकार के साधु वे हैं जो द्रव्यजिनलिंग को धारण करके मठों में निवास करते हैं और मठों के अधिपति बने हुए हैं और म्लेच्छों के समान यावरण करते हैं । ३
परमात्मप्रकाशकार मुनिराज योगोन्दु भी केशलुंच करके जिनवर लिंग धारण करने वाले परिग्रहधारी साधनों को लक्ष्य करके कहते हैं कि वे अपने को ठगने वाले और वमन का भक्षण करने वाले हैं ।'
आगे चलकर उन्होंने चर्या और बिहार के समय वस्त्र पहनना आरम्भ कर दिया किन्तु उसके बाद वे वस्त्र उतार देते थे। चारहवीं शती से भारत में मुस्लिम राजसत्ता दृढमूल हुई। इस्लाम के अनुयायी मुसलमान विजेतानों का भारत पर आक्रमण एवं उनका देश के भीतरी भागों तक प्रदेश एक ऐसी घटना है जिसका नग्न मुनियों के स्थान पर भट्टारकों की स्थापना होने में बहुत बड़ा हाथ था।
-- .. -- - - १ जन निर्वध रत्नावली, ४०५ २ भ० सं० भूमिका, ८ एवं लेधांचा १९० १ "अपरे पुनव्यजिनालागि गम्पायो भनेच्छन्ति मनच्छा इवाचरन्ति । लोकणास्त्रविरुद्धमाचारं चरनीयर्थ." - जं. सा• इति०, ४८८ कोण वि अप्पउ चंत्रियउ सिम त्रिवि छारेगा । मनल वि संग गा परिहरिय जिगावर-निगमलेगा ।।२।१० जे जिग-लिगु धरेवि मुगि इदुगग्गिगह न नि ।। छद्दि करेविगु ते जि जिय सा पुरण दि गिलंलि ।।२।६१
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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियों आक्रामक के रूप में मुसलमानों का भारत प्रवेश अत्यन्त बर्बर एवं धार्मिक कट्टरता से युक्त था। यह राजनीतिक आक्रमण मूलतः धार्मिक मदान्धता और कट्टरता का प्रतिफल था । इतिहासकार सर जी. एस. देसाई इस्लामी शासकों की नीति की चर्चा करते हए लिखते हैं कि वे केवल राजनीतिक सत्ता को हस्तगत करके सन्तुष्ट नहीं हो, वे भारत के मैदानों पर केवल विजेता और लुटेरे के रूप में नहीं उतरे, वरन् काफिरों के देश में अपने धर्म का प्रसार करने पर उतारू जेहादी योद्धानों के रूप में पाए। वे नियमित रीति से अपने धर्म को जनता पर बलात् लादने में तत्पर हो गए। हिन्दू मंदिर तोड़े गए, उनकी सुन्दर कलाकृतियों का विध्वंस हुआ, मूर्तियां नष्ट हुई, प्रस्तर-लेख मिटा दिये गए। इस प्रकार से ध्वंस से प्राप्त सामग्री से उन्होंने मसजिदें बनाईं। कुझ को मिटाने और भारतीय जनता को इस्लाम के दामन में समेटने के लिये इन हृदयहीन और असभ्य धर्माधिकारियों ने हिन्दू धर्म के सार्वजनिक प्रदर्शन की मनाही कर दी तथा उसके अनुयायियों को कठोर दण्ड दिए । हिन्दुओं को अच्छे कपड़े पहनने की इजाजत नहीं थी और न भले ग्रादमियों की तरह रहने और वैभवशाली दिखने की अनुमति थी। उन पर विक्षुब्ध कर देने वाले कर लगाये जाते थे और उनके अध्ययन और ज्ञान के केन्द्र बरबाद किये जाते थे।
मुस्लिम शासकों की कोप दृष्टि मात्र हिन्दुओं पर ही न थी बरन् समस्त भारतीयों पर उन्होंने जुल्म ढाए थे । अतः उनके अत्याचारों से जैन भी अछूते न रहे और अन्य भारतीय धर्मों की भांति जैन धर्म पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा। ___ 'पटप्राभूत टीका' में भट्टारक श्रुतसागर सूरि ने लिखा है कि कलिकाल में म्लेच्छादि (मुसलमान वगैरह) यतियों को नग्न देखकर उपद्रव करते हैं, इस कारण मण्डप दुर्ग (मांडू) में श्री बसन्तकीर्ति स्वामी ने उपदेश दिया कि मुनियों को चर्या आदि के समय चटाई, १ न्यु हिस्ट्री ऑफ दि मराठाज, २६ १ नाथूराम प्रेमी ने इनका समय सोलहवीं शती माना है।
-जै० सा० इति०, ३७५
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तुत्व टाट प्रादि से शरीर ढक लेना चाहिए और फिर चर्या के बाद उस चटाई आदि को छोड़ देना चाहिए । यह अपवाद वेष है ।'
मूलसंघ की गुर्वावली में चित्तौड़ की गद्दी के भट्टारकों के जो नाम दिये हैं उनमें वसन्तकीर्ति का नाम आता है जो वि० सं० १२६४ के लगभग हुये हैं । उस समय उस ओर मुसलमानों का आतंक भी बढ़ रहा था। इन्हीं को श्रुतसागर ने अपवाद भेए का प्रवर्तक बतलाया है।
इससे यह प्रतीत होता है कि तेरहवीं शती के अन्त में दिगम्बर साधु बाहर निकलते समय उपद्रवों के डर से चढाई श्रादि का उपयोग करने लगे थे।
'परमात्मप्रकाश' की संस्कृत टीका में योगीन्दुदेव शक्ति के प्रभाव में साधु को तृणमय आवरणादि रखने परन्तु उस पर ममत्व न रखने की बात करते हैं 13
वि० सं० १२९४ में श्वेताम्बर प्राचार्य महेन्द्र सूरि ने 'शतपदी' नामक ग्रंथ बनाया जो १२६३ में बनी धर्मघोष की 'प्राकृत शतपदी' का अनुवाद है। वे उसके 'दिगम्बर मत विचार' वाले प्रकरण में लिखते हैं - .
___ "यदि तुम दिगम्बर हो तो फिर सादड़ी और योगपट्ट५ क्यों ग्रहण करते हो ? यदि कहो पंचमकाल होने से और लज्जा परीपह १ (क) कोऽपवाद वेष : ? कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्टबोपद्भवं यतीनो
कुर्वन्ति तेन मण्डपदुर्ग श्रीबसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां लट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाध चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुंचतीत्यु
पदेशः कृतः संयमिना, इत्यपदादवेषः। - पटनाभृत टीका, २१ (ख) भ० सं०, लेखांक २२५ २ जैन हितैषी भाग ६, ग्रंक ७-८ 3 विशिष्टसंहननादिशक्त्यभावे सति यद्यपि तपःपर्यायणरीरसहकारिभूतमन्न
पानसंयमशौचज्ञानोपकरपतृणमयप्रावरणादिकं किमपि गृह्णाति तथापि ममत्वं न करोतीति ।
__ -प० प्र०, २०६ ४ घास या ताड़ खजूर के पत्तों से बनी हुई चटाई को सादड़ी कहते हैं । ५ योगपट्र रेशमी कपड़ा रंगा कर बनाया जाता था।
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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियों सहन न होने से आवरण डाल लेते हैं, तो फिर उसे पहनते क्यों नहीं ? क्योंकि ऐसा तो निषेध कहीं है नहीं कि प्रावरण रखना परन्तु पहनना नहीं। और वह प्रावरण भी जैसे-तैसे मिले हुए प्रासुक वस्त्र से क्यों नहीं बनाते हो? धोबी आदि के हाथ से जीवाकुल नदी तालाब में क्यों धुलवाते हो और बिना सोधे ईंधन से जलाई हुई प्राग के द्वारा उसे रंगाते भी क्यों हो?"
___ इससे स्पष्ट है कि विक्रम की तेरहवीं शती तक सादड़ी और योगपट्ट पा गये थे। आगे चलकर दिगम्बर साधुनों ने वस्त्र धारण करना जायज-सा मान लिया। भट्टारक श्रुतसागर ने तत्वार्थसूत्र की संस्कृत टीका में लिखा है कि द्रयलिंगी मुनि शीतकाल में कम्बलादि ले लेते हैं और दूसरे समय में उन्हें त्याग देते हैं ।
इसके बाद तो वस्त्र धारग में बाहर जाने के समय एवं शीतादि के समय की ही कोई सीमा नहीं रही, उनका खूब खुलकर उपयोग होने लगा। गद्दे-तकिये भी आगये । यहां तक कि पालकी, छत्र-चंवर
आदि राजसी ठाटबाट भी परम दिगम्बर मुनियों (भट्टारकों) ने स्वीकार कर लिए।
पूर्वोक्त 'शतपदी के अनुसार उस समय दिगम्बर साधु मठों में रहते थे, अपने लिए पकाया हुआ (हिष्ट) भोजन करते थे, एक ही स्थान पर महीनों रहते थे, शीतकाल में अंगीठी का सहारा लेते थे, पयाल के बिछौने पर सोते थे, तेल मालिश कराते थे। सर्दी के मारे जिन मंदिरों के गूट मण्डप (गर्भालय) में रहते थे। कपड़े के जूते, धोती, दुपट्टे पहनते और सदिरवटी आदि औषधियाँ रखते थे। मंत्र, तंत्र, ज्योतिष ग्रादि विद्यानों का उपयोग करते थे। इस सम्बन्ध में पंडित पाशाधरजी ने एक एलोक उद्धत किया है जिसमें
१ जैन सा इति०, ४६१ २ व्यलिगिन: असमर्थामहर्षयः शीतकालादो कम्बलादिकं गृहीत्वा न प्रक्षालयन्ते न सौश्यन्ति न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति अपरकाले परिहरंतीति ।
-- अ.६ सुष ४७ 3 ज. सा० इति०, ४६२
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
कहा गया है कि भ्रष्ट चरित्र पंडितों और वठर मुनियों ने जिनदेव का निर्मल शासन मलिन कर दिया है ।"
वह युग ही उथल-पुथल का था। एक ओर शिथिलता बढ़ रही थी तो दूसरी ओर उसकी आलोचना भी डट कर हो रही थी । उस समय मात्र जैनियों में ही नहीं वरन् प्रत्येक भारतीय धर्म में शिथिलाचार और उसका विरोध क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में हो रहा था । प्राचार्य परशुराम चतुर्वेदी लिखते हैं
" उस समय न केवल बौद्ध तथा जैन ही, अपितु स्वयं वैष्णव, शाक्त, शेव जैसे हिन्दू सम्प्रदायों ने भी अपने-अपने भीतर अनेक मतभेदों को जन्म दे रखा था। इनमें से सबने वेदों को ही अपना अंतिम प्रमाण बना रखा था और उनमें से कतिपय उद्धरण लेकर तथा उन्हें वास्तविक प्रसंगों से पृथक करके वे अपने-अपने मतानुसार उन पर मनमाने अर्थों का प्रारोप करने लगे थे। इसके सिवाय कुछ मतो ने वेदों की भांति ही पुराणों तथा स्मृतियों को भी प्रधानता दे रखी थी। अतएव इनके पारस्परिक मतभेदों के कारण एक को दूसरे के प्रति द्वेष, कलह या प्रतियोगिता के प्रदर्शन के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन मिला करता था. और बहुधा अनेक प्रकार के झगड़े खड़े हो जाते थे ।
२
इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुये वे लिखते हैं- "इधर बौद्ध धर्म का उस समय पूर्ण ह्रास होने लगा था । शंकराचार्य तथा कुमारिल भट्ट जैसे विरोधी प्रचारकों के यत्नों द्वारा वह प्रायः निर्मूल-सा होता जा रहा था । उस समय जैनधर्म तथा शैव और वैष्णव सम्प्रदायों के भीतर भिन्न-भिन्न संगठन हो रहे थे । इस्लाम के अंदर भी सूफी सम्प्रदाय अपना प्रचार करने लगा था । " 3
-
शंकराचार्य के प्रबल प्रहारों से बौद्ध धर्म के तो भारत से पैर ही उखड़ गये। जैन धर्म को भी प्रबल याघात लगा और आगे चल कर
१ डिष्टचारिर्वरंश्च
तपोधनैः २
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥
ㄓ
३ वही, १२६
३० भा० सं० प०, २०
- जै० सा० इति०, ४५८
4
4
,
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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियां १३ उसकी साधना-पद्धति एवं वाह्याचार भी प्रभावित हुये विना न रहे । शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों के अनकरा पर भट्रारक गहियां स्थापित हो गईं। शंकराचार्य के कार्यकलापों का वर्णन करते हुए आचार्य परशुरामजी लिखते हैं -
"शंकराचार्य (सं० ८४५-८७७) ने अपना मुख्य ध्येय बौद्ध तथा जैन जैसे अवैदिक धर्मों का इस देश से बहिष्कार कर अपने धार्मिक समाज में एकता स्थापित करना बना रखा था। इन्होंने अपने मत का मूल आधार श्रुति अर्थात् वैदिक साहित्य को ही स्वीकार किया और उसके प्रतिकुल जान पड़ने वाले मतों का खंडन तथा घोर विरोध किया। उक्त दोनों धर्मों के अनुयायियों को नास्तिक ठहरा कर इन्होंने हिन्दू धर्म के भिन्न-भिन्न प्रचलित संप्रदायों को कटु आलोचना भी की।"१
जब विभिन्न संस्कृतियाँ एक क्षेत्र व एक काल में अनुकूल व प्रतिकूल घनिष्टतम सम्पर्क में गाती हैं तो उनमें परमार न्यूनाधिक प्रभाव पड़ता ही है एवं उनमें परस्पर बहुत कुछ आदान-प्रदान भी होता ही है। जैन धर्म और संस्कृति ने भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में अन्य भारतीय संस्कृतियों को प्रभावित किया है तथा वह भी उनके प्रभावों से अढ़ती नहीं रही। जैनियों के अल्पसंख्यक होने के कारण उन पर यह प्रभाव विशेष देखने में आता है। भट्टारक युग में व्यापक समाज के साथ अपना तालमेल बैठाने के लिए उन्होंने शैव और वैष्णव क्रियानों का अनुकरण किया। राजस्थान के इतिहास में इस प्रकार के कई उदाहरण मिल जायेंगे कि एक ही कूल में जैन और शैव साधना चलती थी। विशेषकर वैदिक संप्रदायों का अद्भुत प्रभाव श्रमण संस्कृति पर पड़ा। इससे जैन समाज का ढांचा बिल्कुल ही बदल गया। एक सवर्ण हिन्दू की तरह जैन भी जातिसिद्ध उच्चता पर विश्वास करने लगे। सामाजिक और वैधानिक मामलों में भी जैनियों ने प्रायः पूरी तरह वैदिकों का अनुकरण किया। उस समय की कुछ मांग ही ऐसी ही थी। भट्टारक पीठों में भी कई दृष्टियों से
'उ०मा० सं० १०, ३४
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व वैदिक पद्धतियों का प्रवेश हुआ। पद्मावती आदि देवियों को काली, दुर्गा या लक्ष्मी का ही रूपान्तर माना जाने लगा।' भट्टारकों की मंत्र-तंत्र साधना पर तांत्रिकों का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है । मंत्र और तंत्र ही एक मात्र प्रात्मरक्षा के उपाय मान लिये गए थे।' भट्टारक लोग मंत्रों और तंत्रों के चमत्कार दिखाकर लोगों को चमत्कृत करने लगे थे तथा इन्हीं माध्यमों से अपने प्रभाव का विस्तार कर रहे थे।३ तांत्रिकों का अन्य धर्मों पर प्रभाव स्पष्ट करते हुए डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं - "तंत्रों का यह प्रभाव केवल ब्राह्मणों पर ही नहीं पड़ा अपितु जैन और बौद्ध सम्प्रदायों पर भी यह प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। वौद्ध धर्म का अन्तिम रूप तो इस देश में तांत्रिक ही रहा ।"
जब भारतवर्ष में मंदिर तोड़े जा रहे थे एवं मूर्तियों खंडित की जा रही थीं, तब प्राय: सभी धर्मों में मूर्ति पूजा विरोधी सम्प्रदाय उठ खड़े हुए थे । कबीर की यह आवाज -
"पाहून पूज हरि मिले, तो मैं पूजू पहार ।
तातें यह चक्की भली, पीस खात संसार ।। युग की आवाज बन रही थी। तब अर्थात् १५ वौं, १६ वीं शती में उक्त जैन सम्प्रदाय में भी एक मूर्ति पूजा विरोधी क्रांति ने जन्म लिया । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में लोकाशाह द्वारा मुर्ति पूजा विरोधी उपदेश प्रारम्भ हुआ, जिसके फलस्वरूप स्थानकवासी सम्प्रदाय की स्थापना हई। यह सम्प्रदाय द दिया नाम से भी पुकारा जाता है। इस सम्प्रदाय में मूर्ति पूजा का विरोध किया गया है। इनके मंदिर नहीं किन्तु स्थानक होते हैं और ये मूर्ति की नहीं किन्तु आगमों की प्रतिष्ठा करते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ४५ आगमों में से कोई
१ भ० सं० प्रस्तावना, १७ २ बु०वि०, छंद १३१६-२२
भ० सं० प्रस्तावना, १५ ४ मा का० ध० साह
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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियां बारह चौदह प्रागमों को वे इस कारण स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनमें मूर्ति पूजा का विधान पाया जाता है।' इसी सम्प्रदाय में से १८ वीं शती के प्रारम्भ में प्राचार्य भिक्ष द्वारा तेरहपंथ की स्थापना हुई। वर्तमान में इस सम्प्रदाय के नवम प्राचार्य तुलसीगणी हैं, जिन्होंने अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन किया है।
दिगम्बर सम्प्रदाय में भी सोलहवीं शती में तारण स्वामी ने एक ऐसे ही पंथ की स्थापना की, जो तारण पंथ कहलाता है। इस पंथ के अनुयायी विशेष रूप से मध्यप्रदेश में पाये जाते हैं। तारण स्वामी का जन्म विक्रम संवत १५०५ के अगहन मास की शुक्ला सप्तमी के दिन किसी पुष्पावती नगरी में हुआ था और इनकी जाति परवार थी। इनके पिता गाढ़ामुरी वासल्ल गोत्र के गढ़ाशाह थे । इनकी माता का नाम विमलश्री देवी' था। ये प्राजन्म ब्रह्मचारी रहे और इनकी वृत्ति अपनी बाल्यावस्था से ही बराबर वैराग्यपरक रही। ये एक प्रतिभाशाली एवं संयमशील पुरुष थे । इनका प्रारम्भिक जीवन सेमरखेड़ी के निर्जन में बीता था तथा वेतवा नदी के तटवर्ती मुंगावली (मध्यप्रदेश) के निकट ग्राम निसई (मल्हारगढ़) में निवास करते हुए इन्होंने चौदह ग्रंथ लिखे। तारण स्वामी के ग्रंथों के देखने से पता चला है कि उनमें मूर्ति पूजा के विरोध और समर्थन में कहीं भी कुछ भी नहीं लिखा गया है। उनके सभी ग्रंथ विशुद्ध आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक एवं आचार सम्बन्धी ग्रन्थ हैं किन्तु उनके अनुयायियों द्वारा निर्मित चैत्यालयों में मूर्तियाँ नहीं हैं। अन्य मंदिरों के समान वेदियाँ तो हैं पर उनमें मतियों के स्थान पर शास्त्र बिराजमान रहते हैं। पता नहीं उक्त सम्प्रदाय में मूर्ति पूजा विरोध कब से और कहां से पाया? यह एक शोध का विषय है। तारण स्वामी पर साहित्यिक और सामाजिक दृष्टि से भी शोध आवश्यक है। उन पर किया गया शोध कार्य हिन्दी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण योगदान होगा।
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- - . १ भा० सं० ज० यो०, ४५ २ तारण पंथ के वर्तमान प्रसिद्ध विद्वान पं० जयकुमार शास्त्री छिदवाड़ा से
सम्पर्क करने पर उन्होंने बताया कि तारण स्वामी की मां का नाम वीरश्री था। 3 यह गांव म. प्र. के सिरोंज नामक नगर से पांच मोल दूर है।
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पंजित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व इन सब बातों का प्रभाव यह हुआ कि सैद्धान्तिक पक्ष के अतिरिक्त बाह्याचार में साधारण जैनियों और हिन्दुओं में बहुत कम अन्तर रह गया। परशुराम चतुर्वेदी के शब्दों में "उनका (जैनियों का) मूख्य ध्येय पूर्ववत् स्थिर न रह सका और विक्रम की 8 वीं, १०वीं शताब्दी तता आकर उनकी साधना के अन्तर्गत विविध बाह्याचारों का समावेश हो गया। समकालीन हिन्दू और बौद्ध पद्धतियों से बे बहुत कुछ प्रभावित हो गये और इन धर्मों के साधारगा अनुयायियों में नहत कम अन्तर दीख पड़ने लगा ।"
उपरोक्त परिस्थितियों में भट्टारका का स्वरूप साधुत्व से अधिक शासकत्व की अोर झुका और अन्त में यह प्रकट रूप से स्वीकार भी किया गया १२ वे अपने को राजगुरु कहलाते थे और राजा के समान ही पालकी, छत्र-चंबर, गादी आदि का उपयोग करते थे। वस्त्रों में भी राजा के योग्य जरी आदि से सुशोभित वस्त्र उपयोग किये जाते थे। कमण्टनु और पिच्छि में सोने-चांदी का उपयोग होने लगा था। यात्रा के समय राजा के समान ही सेवक-सेविकानों और गाड़ी-घोड़ों का इन्तजाम रखा जाता था तथा अपने-अपने अधिकारक्षेत्र का रक्षगा भी उसी आग्रह से किया जाता था। इसी कारणा भट्टारकों का पट्टाभिषेक राज्याभिषेक की तरह बड़ी धूम-धाम से होता था। इसके लिये पर्याप्त धन खर्च किया जाता था। इनके उपदेश से नये-नये सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र आदि स्थापित होने लगे । इन मंदिरों और तीर्थी के व्यय-निर्वाह के लिये धन संग्रह किया जाने लगा। धन संग्रह करने की नई-नई तरकीबें निकाली गई और प्रबंध के लिए कोठियाँ खोल दी गई। बहुत सी कोठियों की मालिकी भी १ उ. भा० सं०प०, ४७ र चन्द्रसुकीर्ति पट्टोधर राजनीति राया मगा रंजी।
बानारसि मध्य विवाद' करी धरी मान मिथ्यातको मनकुं मंजी ।। पालखी छत्र सुखासन राजित भ्राजित दुर्जन मनकु गंजी । हीरजी ब्रह्म के साहिब सद्गुरु नाम लिए भवपातक भंजी ॥२१८||
- भ० सं० २८१ एवं लेखांक ७२५ ३ भ० सं० प्रस्तावना, ५
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पूर्व धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियाँ धीरे-धीरे भट्टारकों और महन्तों के अधिकार में आ गई और अन्त में इसने एक प्रकार से धार्मिक दुकानदारी का रूप धारगा कर लिया।
इस प्रकार भट्टारकों का प्रभुत्व ममाज पर बढ़ता चला गया और समाज इनके शिकंजे में जकड़ता चला गया। मठों, मंदिरों और तीर्थों की व्यवस्था पर भट्टारकों का एकाधिकार हो गया। वे लोग उनकी व्यवस्था में सक्रिय भाग लेने लगे। यहां तक कि मंदिरों को धान में नीली खतीबाड़ी भी करने लगे। कुछ प्राप्त दानपत्र व शिलालेख इसके ऐनिहासिक प्रमागा १२ । प्राध्यात्मिकता का स्थान क्रियाकाण्ड ने ले लिया और प्रवृत्ति में शिथिलाचार उत्तरोतर बढ़ता ही चला गया । धार्मिक मान्यतानों में विकृति प्रागई। साधना के स्थान, आराधना के नाम पर प्राइम्बर और बाहरी क्रियाकाण्ड के स्थल मात्र बन वार रह गाए । मंदिरों में ही जीमन और खेल-कूद होने लगे तथा यहीं पर उठना-बैठना, सोना-रहना और राधा अन्न भगवान को चढ़ाना आदि वीतगगना के विपरीत क्रियाएं होने लगी । सांसारिक क्रियानों में रत और सवस्त्र होते हुए भी भद्रारक लोग अपने को मूनि जाहलाते थे । वे श्रावक संघ पर मनमाना शामन करने लगे। बात-बात पर धावकों से कर वमूल किया जाने लगा। पंडित टोडरमल संघपद का उद्धरण देते हाा लिखते हैं :जिनसे जन्म नहीं हुआ, जिन्होंने मोल नहीं लिया, जिनका कूछ कर्ज देना नहीं है, जिनसे किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी ये (भट्टारक) गृहस्थों को चैल के सामान जोतते हैं, बलात् दान लेते हैं। इस संसार में कोई पूछने वाला भी नहीं है, कोई न्याय करने वाला भी नहीं है, क्या करें ?
किसी में उनका विरोध करने की हिम्मत न थी। कोई कुछ वाहने की हिम्मत करता तो मंदिरों से निकाल दिया जाता, समाज १० सा इति०, ४६६ २ वही, ४८४,४८६ 3 वीरवाणी : टोडरमलांबः, २८८ ४ मो० मा०प्र०, २६६
F
जब उसनाचा
वः, २८८
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व
से बहिष्कृत कर दिया जाता। भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के सांगानेर चातुर्मास के समय अमरचन्द गोदी का एवं उनके पुत्र सिद्धान्त-शास्त्रों के पाठी जोधराज गोदीका को मंदिर से धक्के मारकर मात्र इसलिए निकाल दिया था कि वे अध्यात्मप्रेमी थे और उनके व्याख्यान के बीच में वे उनसे प्रश्न किया करते थे ' । शिथिलाचार पोषक श्रावकाचारों की रचनाएं भी उन्होंने कीं । तदनुसार श्रावकों में भी भ्रष्टाचार का प्रचार हुआ । विक्रम संवत् १४७८ में वासुपूज्य ऋषि ने 'दान शासन' काबा है। भावकों को चाहिए कि वे मुनियों को दूध, दही, छाछ, घी, शाक, भोजन, प्रसन और नई, बिना फटी-टूटी चटाई और नये वस्त्र दें । देवोपासना में भी आडम्बर का प्रवेश हुआ । श्रावकों के लिए धर्म-तत्त्व समझने की रोक लगा दी गई । अध्यात्म-ग्रन्थों के पठन-पाठन का भी निषेध कर दिया गया। उन साधुओं के मुख से जो वचन निकले वही ब्रह्म वाक्य बन गए। मंत्र-तंत्रवाद के घटाटोप में भी जनता को उलझाए रखने का यत्न किया गया ।
उक्त दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण जैन सम्प्रदाय में पं० बनारसीदास (वि० सं० १६४३-१७०० ) के समय तक धार्मिक शिथिलाचार में पर्याप्त वृद्धि हो चुकी थी ।
(क) संवत सोलासं पत्रोत्तरे, कार्तिकमास अमावस कारों ।
कीर्तनरेन्द्र भटारक सोभित, चातुर्मास सांगावति भारी | गोदीकारा उधरो अमरोसुल शास्त्रसिषन्त पढ़ाइयो भारी । बीच ही बीच बखानमै बोलत, मारि निकार दियो दुख भारी | · चन्द्रकवि : अ० क० भूमिका, ५२ (ख) तिनमें अमरा भौसा जाति गोदीका यह ब्योंक कहाति । धन को गरव अधिक तिन घरी जिनवारगी को श्रविनय करो ||३१|| तब लाको भावकनि बिचारि जिनमंदिर तैं दय निकारि ।
२
दुग्ध श्रीघनत काव्यशाक भक्ष्यासानदिकं ।
नवीनमव्ययं दद्यात्पात्राय कटमम्बरम् ।।
- मिध्यात्म खंडन
—
ॐ० सा० इति०, ४६१
T
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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियाँ
आहार-विहार में, धार्मिक क्रियाओं तथा वस्त्रादि के उपयोग में कोई मर्यादा न रह गई थी। साधुजन अपने प्रत्येक शिथिलाचार को 'पापद्धर्म' कहकर अथवा स्वयं को सुधारवादी कहकर ढकते चले जा रहे थे । धार्मिक दृढ़ता (काट्टरता नहीं) का प्रायः प्रभाव होता जा रहा था | विक्रम की १७ वीं शती में पं० बनारसीदाम ने जिस शुद्धाम्नाय का प्रचार किया और जिसे वि० की उन्नीसवीं शती में पं० टोडरमल ने प्रौढ़ता प्रदान की वह इन भट्टारकों के विरोध में ही था।
श्वेताम्बराचार्य महामहोपाध्याय मेघविजय ने वि० सं० १७५७ के लगभग आगरा में रहकर एक 'यक्तिप्रबोध' नामक प्राकृत ग्रंथ स्वोपज्ञ संस्कृत टीका सहिन बनाया था। इसका उदेपा बनारमी मन खण्डन ही था। उसका दूसरा नाम भी 'बनारमी मत खण्डन' रखा है । उसमें लिखा है कि बनारसी मत बालों की दृष्टि में दिगंवरों के भट्टारक भी पूज्य नहीं हैं। जिनके निल-तुष मात्र भी परिग्रह है, वे गुरु नहीं हैं।
धार्मिक शिथिलता और बाहरी प्राइम्बर के विरुद्ध यह सफल क्रांति अध्यात्मपंथ या तेरहपंथ (तेरापंथ) के नाम से जानी जानी है। इसने मठपति भट्टारकों की प्रतिष्ठा का अन्त कर दिया और - -
- 'क० ब० जी० कु०, ७६ २ तम्हा दिगम्बराएं एए भट्टारगा वि सो पुज्जा ।
तिलतूसमेतो जेसि परिगहो गव ते गुरुगो ॥१६॥ ३ तेरापंथ व तेरहपंथ ये दोनों नाम एक ही पंथ के अर्थ में विभिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न स्थानों पर प्रयुक्त हुए हैं। जैसे :(क) १. क है जोय अहो जिन तेरापंथ तेरा है।
- प्रवचनसार भाषा प्रयस्ति २. हे भगवान म्हां तो थांका बचना के अनुसार चला हो तात तेरापंथी हों।
- ज्ञानानन्द श्रावकाचार ३. पूर्व रीति तेरह थीं, तिनकों उटा विपरीत चले, तात तेरापंथ भवै ।
- तेरहपंथ खंडन ४. कपटी तेरापंथ है जिनसो कपट कराहि ।
- मिथ्यात्व खंडन
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृव
उन्हें जड़ से उखाड़ फेंका। श्री परशुराम चतुर्वेदी लिखते हैं, "ऐसे ही समय जैन धर्मावलम्बियों में कुछ व्यक्ति अपने समय के पाखंड और दुनति की आलोचना करने की ओर अग्रसर हुए और उन्होंने अपनी रचनाओं और सदुपदेशों द्वारा सच्चे प्रादर्शों को सच्चे हृदय के साथ अपनाने की शिक्षा देना प्रारम्भ किया। उनका प्रधान उद्देश्य धार्मिक समाज में क्रमशः घुस पड़ीं अनेक बुराइयों की ओर सर्वसाधारण का ध्यान आकृष्ट कर उन्हें दूर करने के लिए उद्यत करना था ।"
उक्त तेरहृपंथ में बाह्याचार की अपेक्षा श्रात्मशुद्धि पर विशेष बल दिया गया तथा बिना ग्रात्मज्ञान के वाह्य क्रियाकाण्ड व्यर्थ माना गया। पूज्य के स्थान पर केवल पंचपरमेष्ठी को मान्य किया । पूजन में शुद्ध जलाभिषेक व प्रासुक द्रव्य को अपनाया । मूर्ति पर किसी प्रकार का लेप या पुष्पारोहण श्रमान्य ठहराया क्योंकि उससे बीतराग दूषण लगता है ।
तेरपंथ की उत्पत्ति के बारे में पं० टोडरमल के समकालीन व प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी भट्टारकीय परम्परा के पोषक पंडित वखतराम साह विक्रम सम्वत् १५२१ में लिखते हैं कि यह पंथ सबसे पहले
(ख) १. लोगन मिलिकै मत उपाय तेरहपंथ नाम अपनायो । - मिध्यात्व खंडन
-
२. या विषे भी तेरहपंथी सो प्रशुद्ध आग्नाय है ।
३. जैन निबन्ध रत्नावली, प्राक्कथन, २६
१ जं० स०] इति०, ४८ ३
- तेरहपंथ खंडन
२ उ० भा० सं० प०, ४७
" ( क ) जिस परिमाणं भूषणमल्लारहरणाद अंगपरिमरं । वारणारसियो बारइ दिगम्बरसमागमारणाए || २०११ - युक्तिप्रबोध
( ख ) केसर जिनपद चरचित्रों, गुरु नमिबो जगसार । प्रथम तजी यह दोर विधि मनमहि गणी असार ।। - मिध्यात्व खंडन
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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएँ और परिस्थितियाँ वि० सं० १६८३ में आगरा में चला'। श्वेताम्बराचार्य मेघविजय (विक्रम की अठारवीं शती) ने वि० सं० १६८० में इसकी उत्पत्ति मानी है। पं० टोडरमल के अनन्य सहयोगी साधर्मी भाई ब. रायमल लिखते हैं कि तेरापंथ तो अनादिनिधन है। जैन शास्त्रानुसार चला आया है । कोई नया पंथ नहीं है ।
वस्तुतः तेरहपंथ जैनियों का आध्यात्मिक मूलमार्ग है किन्तु कालवश अाई हई विकृतियों के विरुद्ध जो प्राध्यात्मिक क्रांति हुई और जिसे तेरहपंथ से पुकारा गया वह पं० बनारसीदास (वि० सं० १६४३-१७००) से प्रारंभ होती है, हालांकि उक्त धारा अपने क्षीरातम रूप में उसके पहिले भी प्रवाहित हो रही थी। बनारसीदास का इतना प्रभाव था कि जो भी व्यक्ति उनके सम्पर्क में आता, उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । व्यापारी लोग व्यापार के लिए प्रागरा याते थे और वहां से आध्यात्मिक रुचि लेकर वापिस जाते थे। इन आध्यात्मिक लोगों की प्रवृत्ति अध्ययन-मनन-चिन्तन और निरन्तर तत्त्वचर्चा करने की रहती थी।
प्रागरा के बाद इसका प्रचार कामां' में हाई । एक पत्र प्राप्त हा है, जो वि० सं० १७४६ में कामां वालों ने सांगानेर के भाइयों के
' प्रथम चल्यो मत प्रागरे, धात्रक मिले कितेक । सौलह से तीयासिए, गही कितू मिलि देक ।।२०।।
- मिथ्यात्व खंडन २ सिरि विक्याम नरनाहा गएहिं सोलस सएहिं बासेहिं । असि उत्तरेहि जायं वागारसि यस्य गयमेयं ॥१८॥
- युक्तिप्रबोध 3 ज्ञानानन्द श्रावकाचार, ११६ ४ किते महाजन प्रागरे, जात करण व्यापार ।
बनि आवै अध्यातमी, लरित नूतन प्राचार ।।२६।। ते मिलिके दिन रात बांचे चरचा करत नित ||२७॥
-मिथ्यात्व खंडन ५ कामां राजस्थान में भरतपुर के पास में है। ६ फिर कामां में चलि परयो, ताहीं के अनुसारि ।।२२।।
-मिथ्यात्व खंडन
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व नाम लिखा है । इसमें लिखा गया है कि हमने इतनी बातें छोड़ दी हैं सो आप भी छोड़ देना- जिन-चरणों में केसर लगाना, बैठ कर पूजन करना, चैत्यालय भंडार रखना, प्रभु को जलौटपर रख कर कलश ढालना, क्षेत्रपाल और नवग्रहों का पूजन करना, मंदिर में जुमा खेलना और पंखे से हवा करना, प्रभु की माला लेना, मंदिर में भोजकों को पाने देना, भोजकों द्वारा बाजे वजवाना, रांधा हुअा अनाज चलाना, मंदिर में जीमन करना, रात्रि को पूजन करना, रथ-यात्रा निकालना, मंदिर में सोना यादि ।
जयपुर के निकट सांगानेर में इसका प्रचार भट्टारक नरेन्द्रकीति के समय में हुआ । भट्टारक नरेन्द्रकीति की उपस्थिति पं० नाथूराम मेगी. तर्क-वित पाद:780 स्थिर करते हैं। जो यूक्तिसंगत प्रतीत होती है। सांगानेर में उक्त तेरहपंथ के प्रचार के आरंभ होने का दिलचस्प वर्णन प्राप्त होता है जिसका उल्लेख आगे किया गया है।
तेरहपंथ के नामकरण के सम्बन्ध में भी विभिन्न अभिप्राय मिलते हैं । बखतराम साह लिखते हैं कि तेरह व्यक्तियों ने मिल कर वह पंथ चलाया अतः इसका नाम तेरहपंथ पड़ गया। उनका कहना है कि सांगानेर में एक अमरचंद गोदीका (अमरा भौंसा ) नामक सेठ थे, उन्हें धन का बहुत घमंड था । उन्होंने जिनवाणी का अविनय
'प्राई सांगानेर, पत्री कामां से लिखी। फागुन चौदसि हेर, सत्रह सौ उनचास सुदी ।।
- म० क० भूमिका, ५२ नोट - यह पत्र लिखने वाले हैं कामां वाले हरिकिसन, चिन्तामरिण, देवीलाल
और जगन्नाथ । सांगानेर के जिन भाइयों के नाम यह पत्र लिखा गया, उनके नाम हैं - मुकुन्द दास, दयानंद, महासिंह, छाजू, काल्ला,
सुन्दर और विहारीलाल । २ भट्टारक आमेर के नरेन्द्रकीति सु नाम | यह पंथ तिनके ममय नयो बल्यो अधधाम ॥२५॥
- मिथ्यात्व खंडन 5 प्र. क. भूमिका (शुद्धिपत्र), ११
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किया था और उन्हें मंदिर से निकाल दिया गया था । तब उन्होंने क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा की कि मैं नया पंथ चलाऊँगा । उनके साथ बारह अध्यात्मी और शामिल हो गए। उनमें एक राजमंत्री भी था | उन्होंने एक नया मंदिर बना लिया। इस तरह एक नया पंथ चला दिया।
इसी बात को चन्द्रकवि इस प्रकार लिखते हैं कि जब सांगानेर में नरेन्द्रकीर्ति भट्टारक का चातुर्मास था तब उनके व्याख्यान के समय अमरचंद गोदीका का पुत्र ( जोधराज ) जो सिद्धान्तशास्त्रों का ज्ञाता था, बीच-बीच में बहुत बोलता था । उसे व्याख्यान में से जूते मार कर निकाल दिया गया था। इससे चिढ़ कर अनादि से चली अन्य तेरह बातों का उत्थापन करके उसने तेरहपंथ चलाया । यद्यपि
१ तिनिमें अमरा भौंसा जाति, गोदीका यह व्योक कहाति । धन को गौरव अधिक तिन पर्यो, जिनवाणी को अविनय करघो ||३१|| तब वाक श्रावनि विचारि, जिन मंदिर ते दियो निकारि ।
जब खाने कोनों क्रोध अनंत, कहीं चले हों नूतन पंथ || ३२ ॥ । लब चे अध्यातम कितेक द्वादश मिले सबै भए एक
नये देहुरो बन्यो और
लोगन मिलिकेमतो उपायों तेरहपंथ नाम ठहरायो । विनि में मिलि नृपमंत्री एक, बांधी नये पंथ की टेक ||३५||
- मिध्यात्व खंडन
संवत् सोलास पचोत्तरे कार्तिक मास अमावस कारी । कीर्तिनरेन्द्र भट्टारक सोभित, चातुर्मास सांगावति धारी । गोदीकारा उपरो भ्रममुत, सास्त्रसिथत पढ़ाइयो भारी बीच ही बीच बसान बोलत, मारि निकार दियो दुख भारी || तदि तेरह बात उथापि धरी, इह आदि अनादि को पंथ निवारय । हिन्दू के मारे मलेच्छ ज्यों रोवत, तसे त्रयोदग़ रोय पुकार्यो । पागररूपां मारि जिनालय से विडारि दिए,
तातें कुभाव चारि न माने गुरु जती करें। झुठो दंभ धरं फिर झूठ ही विवाद करे
छोटे नांहि रीस जानहार कुगती को ||
श्र० क ०
भूमिका, ५२
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तुत्व चन्द्रकवि ने अमरचंद के पुत्र का नाम स्पष्ट रूप से जोधराज नहीं लिखा है, तथापि सिद्धान्तशास्त्रों के विशेष विद्वान् जोधराज गोदीका ने उनके द्वारा लिखित सामनौपदी और पचनसार भाषा दोनों में ही स्वयं को सांगानेर निवासी अमरचंदजी का पुत्र बताया है। उक्त ग्रंथों का निर्माण-काल भी जो श्रमश: वि० संवत् १७२४३ एवं १७२६४ है, भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के समय से मिलता है । 'धर्म सरोवर' ग्रंथ में भी ऐसे ही उल्लेख हैं ।
इस तरह का कठोर व्यवहार भट्टारकों के अनुयायी धावक लोग ही नहीं करते थे किन्तु भट्टारक लोग स्वयं भी उसमें प्रत्यक्ष वे अप्रत्यक्ष रूप से सक्रिय रहते थे। वे ऐसा करने के लिये थावकों को मात्र उकसाते ही नहीं थे वरन् स्पष्ट आदेश तक देते थे। उनके द्वारा लिखित टीका ग्रन्थों में भी इस प्रकार के उल्लेख पाए जाते हैं । सोलहवीं शती के भट्टारक श्रुतसागर सूरि ने फंदकुंदाचार्य के पवित्रतम ग्रंथ 'षट्पाहुड़' (षट्प्राभृत) की टीका करते हुए इस प्रकार की अनर्गल बातें लिखी हैं :
__ "जब ये जिनसूत्र का उल्लंघन कर तब आस्तिकों को चाहिए कि युक्तियुक्त वचनों से इनका निषेध करें, फिर भी यदि ये कदाग्रह
-... ...-. ...-- - ' अमरपूत जिनवर-भगत, बोधराज ऋवि नाम ।
त्रासी सांगानेर को, कारी बाथा सुखधाम ।। २ ता राज सुचन सौं कियो ग्रंथ यह जोध ।
सांगानेर सुधान में हिरदै धापि सुबोध ।। 3 संवत् सत्तरहसौ चौबीस, फागुन बदी तेरम सुभ दीस ।
सुकरवार को पूरन भई, इहै कथा समकित गुग्ण टही ।। ४ सत्रह से छब्बीम सुभ, विक्रम साक प्रमान । __ अरू भादों सुदी पंचमी, पूरन ग्रंथ बखान 1] ५ जोध कवीवर होय बासी मांगानेर को.। अमरपूत जगसोय, वरिगक जात जिनवर भगत ।।
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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएँ और परिस्थितियां न छोड़ें तो समर्थ प्रास्तिक इनके मुंह पर विष्ठा से लिपटे हुए जूते मारें, इसमें जरा भी पाप नहीं है' ।"
स्वयंलिखित 'प्रवचनसार भाषा' के अन्त में जोधराज गोदीका तेरहपंथ की व्याख्या करते हए लिखते हैं :-- सब लोग, सती, क्षेत्रपाल आदि बारहपंथों में भटक रहे हैं परन्तु जोध कवि कहता है कि हे जिनदेव ! उक्त बारहपंथों से अलग अापके द्वारा बताया गया पंथ (मार्ग) ही 'तेरापंथ' है ।
उक्त कथनों के आधार पर यह तो स्पष्ट है कि जयपुर निर्माण के पूर्व जयपुर के समीप सांगानेर में तेरहपंथ का प्रचार पं० टोडरमल के पूर्व अमरचंद भीसा (गोदीका) या उनके पुत्र जोधराज गोदीका द्वारा हो चुका था। वखतराम साह उक्त घटना का सम्बन्ध अमरचंद गोदीका (अमरा भौंसा ) से जोड़ते हैं, तो चन्द्रकवि अमरचंदजी के पुत्र कविवर जोधराज गोदीका से । हो सकता है कि जब उक्त घटना घटित हई तब अमरचंद गोदीका और उनके पुत्र जोधराज गोदीका दोनों ही विद्यमान हों और दोनों से ही उक्त अप्रिय प्रसंग सम्बन्धित रहा हो । किसी ने पिता होने से अमरचंद गोदीका का उल्लेख कर दिया एवं किसी ने अधिक बुद्धिमान, विद्वान् एवं कवि होने से तथा धार्मिक कार्यों में विशेष सक्रिय होने से जोधराज के नाम का उल्लेख किया ।
। यदि जिनसूत्रमुल्लंघते तदाऽऽस्तिकर्युक्तिवचनेन निषेधनीयाः । तथापि यदि
दादाग्रहं न मुञ्चन्ति तदा रामधुरास्तिकरूपानद्भिः गूथलिप्ताभिर्मुरदः ताडनीयाः तत्र पापं नास्ति ।
- पटप्राभृत टीका, ३ २ कोई देवी खेतपाल वीजासनि' मानत है,
___कोई राती पित्र सीतला सौ कहै मेरा है । कोई कहै सांवली, कबीर पद कोई गाय,
केई दादूपंथी होई परे मोह घेरा है ।। कोई ख्वाजं पीर माने, कोई पंधी नानक के,
ई कहै महाबाहु महारुद्र चेरा है । याही बारा पंथ में भरमि रह्यो सबै लोक,
कहै जोध प्रहो जिन तेरापंथ तेरा है ।।
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पंजित टोडरमल : व्यक्तित्व प्रौर कसंव उक्त विश्लेषण से दो प्रकार के मत सामने आते हैं। तेरापंथ के अनुयायी उसकी व्याख्या यह करते रहे कि अनादि से चला पाया शुद्ध जैन अध्यात्म मार्ग ही तेरापंथ है, वह जिनेश्वर का ही पंथ है, उससे भिन्न नहीं। जोधराज के शब्दों में, "हे जिन ! तेरापंथ तेरा है | पं० टोडरमल के अनन्य सहयोगी ब्र० रायमल 'ज्ञानानन्द श्रावकाचार' में लिखते हैं कि "हे भगवान म्हां तो थांका वचना के अनुसार चलां हों तात तेरापंथी हों। ते सिवाय और कुदेबादिक कों म्हां नाहीं सेवे हैं (पृ० १११) तुमही ने सैवी सी तेरापंथी सों म्हां तुम्हारों प्राज्ञाकारी सेवक टों पृ. ११) मो तेरा प्रकार के चारित्र के धारक ऐसे निग्रंथ दिगम्बर गुरु को माने और परिग्रहधारी गुरु को नाहीं माने ताते गुरु अपेक्षा भी तेरापंथी संभवे हैं" (पृ० ११२) । दूसरी ओर भट्टारक पंथी यथास्थितिवादी उसकी अलग व्याख्या करते हैं । पं० बखतराम साह तेरह मनुष्यों के मिलने से इसका नाम तेरापंथ पड़ा, कहते हैं । इसी प्रकार, चन्द्रकवि और पंडित पन्नालाल तेरह बातों को छोड़ देने से तेरहपंथ नाम पड़ा कहते हैं । पंडित पन्नालाल अपने 'तेरहपंथ खण्डन' नामक ग्रंथ में लिखते हैं कि तेरह बातें हटाकर नई रीति चलाने के कारण इसका नाम तेरहपंथ पड़ा । उनके अनुसार वे तेरह बातें' ये हैं :
( १ ) दश दिग्पालों को नहीं मानना । (२) भट्टारकों को गुरु नहीं मानना । ( ३ ) भगवान के चरणों में केसर का लेपन नहीं करना ।
(४) सचित्त फूल भगवान को नहीं चढ़ाना । ' पूर्व रीति तेरह थीं, तिनकों उठा विपरीत चले, ताते तेरापंधी भत्रे । तेरह पूर्व किसी ताका समाधान :दसदिकपाल उधापि' गुरुचरणां नहि लागे । केसरचरणां नहिं धरै पुष्पपूजा फुनि त्याग ।। दीपक मर्चा छोडि मासिका माल न करही । जिन न्हावण ना कर रात्रिपूजा परिहरही ।। जिन शासन देव्या तजी रांध्मो अन्न चहौई नहीं' 1 फल न चढ़ावै हरित २ फुनि बैंठिर पूजा करें नहीं' ।। ये तेरै उर धारि मंथ तेरै उरथपे । जिनशासन सूत्र सिद्धांतमांहिं ला वचन उथप्पे ।
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( ५ ) दीपक से पूजा नहीं करना। ( ६ ) प्रासिका नहीं लेना। (७) फूलमाल नहीं करना । (८) भगवान का अभिषेक (पंचामृत अभिषेक) नहीं करना । (६) रात में पूजन नहीं करना । (१०) शासन देवी को नहीं पूजना । (११) धिा अन्न भगवान को नहीं चढ़ाना। (१२) हरे फलों को नहीं चढ़ाना । (१३) बैठ कर पूजन नहीं करना।
उक्त सन्दर्भ में पं० नाथूराम प्रेमी लिखते हैं, "बहुत संभव है कि ढूंढियों (श्वेताम्बर स्थानकवासियों) में से निकले हुए तेरापंथियों के जैसे निंद्य बतलाने के लिए भट्टारकों के अनुयायी इन्हें तेरापंथी कहने लगे हों गौर धीरे-धीरे उनका "दसा प्र करचा वाइल' पक्का हो गया हो- साथ ही वे स्वयं तेरह से बड़े वीसपंथी कहलाने लगे हों। यह अनुमान इसलिए भी ठीक जान पड़ता है कि इधर के सौ-डेढ़सो वर्ष के ही साहित्य में तेरापंथ के उल्लेख मिलते हैं, पहले के नहीं।
प. नाथूराम प्रेमी का उक्त कथन ठीक नहीं, क्योंकि उसके पहले के दिगम्बर तेरापंथ सम्बन्धी कई उल्लेख प्राप्त हैं । लगभग ३०० वर्ष पूर्व के कविवर जोधराज गोदीका के प्रवचनसार भाषा प्रशस्ति' एवं कामां वालों के सांगानेर बालों को लिखे गए पत्र के उल्लेख किए जा चुके हैं। पं० बखतराम साह ने वि० सं० १६८३ में तथा श्वेताम्बराचार्य मेधविजय ने वि० सं० १६८० में दिगम्बर जैन तेरापंथ की उत्पत्ति मानी है, इनकी चर्चा भी की जा चुकी है । दूसरी
और श्वेताम्बर तेरापंथ की स्थापना ही विक्रम की १६वीं शती के पूर्वार्द्ध में हुई है । इस प्रकार, दिगम्बर तेरहपंथ, श्वेताम्बर तेरापंथ से
' जै० सा• इति०, ४६३ २ (क) जैन सा० इति०, ४१३
(ब) वल्लभ संदेश, १६
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पंधित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व प्राचीन है। अतः अधिक संभावना यही है कि क्रांतिकारी सुधारवादी दिगम्बर तेरापंथियों, जिन्होंने भट्टारकों के विरुद्ध सफल आध्यात्मिक क्रांति की थी, के अनुकरण पर श्वेताम्बर तेरापंथियों ने अपना नाम तेरापंथी रखना ठीक समझा हो ।
तेरापंथ के नामकरण के सम्बन्ध में हुए विचार-विमर्श से सही रूप में यह पता तो नहीं चलता कि इस नामकरग का वास्तविक रहस्य क्या है ? किन्तु यह पता अवश्य चलता है कि तेरापंथ प्राचीन शुद्धाम्नायानुसार जन 44 है एवं उसमे आई हुई विकृतियों के विरुद्ध जो आन्दोलन हुया वह सत्रहवीं शती में प्रारंभ हुआ; तथा भट्टारकीन प्रवृत्ति के यथास्थितिबादी लोग इसे एक नवीन पंथ कह कर आलोचना करते रहे और इसे जैन मार्ग से अलग घोपित करते रहे। तेरापंथ को नया पंथ कहकर उपेक्षा करने वालों के प्रति पं० टोडरमल कहते हैं, "जो अपनी बुद्धि करि नवीन मार्ग पकरै, तो यूक्त नाहीं । जो परम्परा अनादिनिधन जैनधर्म का स्वरूप प्रास्वनिवि लिख्या है, ताकि प्रवृत्ति मेटि बीचि में पापी पुरुषां अन्यथा प्रवृत्ति चलाई, सौ ताकौं परम्परा मार्ग कसे कहिए । बहरि ताकौं छोड़ि पुरातन जैन शास्त्रनिविर्षे जैसा धर्म लिख्या था, तैसें प्रवत, तो ताकी नवीन मार्ग कैमैं कहिए।"
पंडित टोडरमल के पूर्व यह आध्यात्मिक पंथ पांच-सात स्थानों पर फैल चुका था । जगह-जगह इसका जोरदार विरोध भी हो रहा था। भट्रारकों और विषम (बीस ) पंथियों के हाथ भक्ति थी, जिसका वे प्रयोग भी करते थे । मंदिरों से निकलवा देते थे, मारपीट भी करते थे । ज्यों-ज्यों इस क्रांति का दमन किया जा रहा था, त्यों-त्यों यह उतने ही उत्साह से बढ़ भी रही थी। पंडित टोडरमल के
मो० मा० प्र०, ३१५ १ 'बीसपंथ' को 'विषमाथ' के नाम से भी जाना जाता है। इसके २०० वर्ष
पूर्व के उल्लेख प्राप्त हैं। वि० सं० १६२८ में कवियर टेकचन्दजी ने 'तीनलोक मंडल पूजा' की प्रणस्ति में 'विषमपंथ' का उल्लेख किया है ।
- जैन निबन्ध रत्नावली, ३४३
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पूर्व-धानिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियां समय यह संघर्ष अपने चरम बिन्दु पर था । भट्टारकीय प्रवृत्ति के विद्वान अस्तित्व के संघर्ष में लगे हुए थे । वि० सं० १८१८ में, जब पंडित टोडरमल ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'सम्यगजानचन्द्रिका' समाप्त की थी, तब 'तेरहपथ खंडन' नामक पुस्तक जयपुर में ही लिखी गई । इसी प्रकार वि० सं० १८२१ में जब पंडित टोडरमल के निर्देशन में 'इन्द्रध्वज विधान महोत्सव' हो रहा था- जिसमें सारे भारतवर्ष के लाखों जैनी आये थे एवं जिसका विस्तृत वर्णन ज. रायमल द्वारा लिखित 'इन्द्रध्वज विधान महोत्सव आमंत्रण पत्रिका'' में मिलता है - तब इसी जयपुर में पं० बखतराम साह मिथ्यात्व खंडन' नामक ग्रंथ में तेरहपंथ का खंडन बड़ी ही कटुता से कर रहे थे । उन्होंने लिखा है :
"कपटी तेरापंथ है जिनसौं कपट करत"३ उस समय पं० टोडरमल और उनके सहयोगी कई विद्वान् महान ग्रंथों का निर्माण कर रहे थे । सारे भारतवर्ष में तेरापंथ का डंका बजाने वाले साधर्मी भाई व० रायमल, अनेक पुराण-ग्रंथों के जनप्रिय वचनिकाकार पं० दौलत राम कासलीवाल, बीमों न्याय व सिद्धान्त-ग्रंथों के समर्थ टीकाकार पं० जयचंद छाबड़ा आदि विद्वान् पं० टोडरमल के सहयोग से तैयार हार थे । इन सभी विद्वानों ने जनभाषा में रचनाएँ की। उक्त महान् प्रयासों के फलस्वरूप यह पंथ देशव्यापी हो गया और इसके प्रभाव से मठाधीशों की प्रतिष्ठा का एक तरह से अन्त ही हो गया।
' परिशिष्ट १ २ उक्त कथन पूरा इस प्रकार है :--
जैसे बिल्ली ऊँदरा, वैर भाव को संग । तसं बंग प्रगट है, तेरापंथ निसंग ।। बीसपंथ ते निकालकर, प्रगट्यो तेरापंथ । हिन्दुन मैं से ज्यों कढ़यौ, पवन लोक को पंथ ।। हिन्दुलोक की ज्यों किया, यवन न मान लोक । तैसें तेरापंथ भी, किरिया छोडी छोक ।। कपटी तेरापंथ है, जिससौ कपट करत । गिरी पहोड़ी दीप कई, खोटो मत को पंथ ।।
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व
दिगम्बर जैनियों में तेरापंथियों की संख्या ही सर्वाधिक है । ये सारे उत्तर भारत में फैले हुए हैं ।
३०
पंडित टोडरमल के बाद उनके द्वितीय पुत्र पंडित गुमानीराम ने शिथिलाचार दूर करने के उद्देश्य से उनसे भी कठोर कदम उठाए । उन्होंने पूजन-पद्धति में आए बाह्याडम्बर को बहुत कम कर दिया एवं धर्म के नाम पर होने वाले राग-रंग को समाप्तप्रायः करने का यत्न किया। मंदिरों में होने वाले लौकिक कार्यों पर प्रतिबंध लगाया । धर्मायतनों की पवित्रता कायम रखने के लिए उन्होंने एक प्राचार संहिता बनाई। उनके नाम पर एक पंथ चल पड़ा जिसे गुमानपंथ कहा जाता है। इस पंथ का एक मंदिर जयपुर में है जो गुमानपंथ की गतिविधियों का केन्द्र था। इस पंथ के और भी मंदिर जयपुर में और जयपुर के आस-पास के स्थानों में हैं
।
पंडित गुमानीरामजी की बनाई गुमानगंथी आचार संहिता की कुछ बातें निम्नलिखित हैं :
( १ ) सूर्योदय या काफी प्रकाश होने के पहले मंदिरजी की कोई क्रिया न करें ।
( २ ) जो सप्त व्यसन का त्यागी हो, वही श्रीजी' का स्पर्श करे ।
, यह मंदिर घी वालों के रास्ते में स्थित है एवं दीवान भदीचंदजी का मंदिर कहलाता है। इसका निर्माण दीवान रतनचंदजी ने कराया था और अपने भाई के नाम पर इसका नाम प्रचलित क्रिया था ।
गुमानपंथी मंदिर के वर्तमान व्यवस्थापक श्री सरदारमलजी साह के अनुसार गुमानपंथ के मंदिर निम्न स्थानों पर हैं :
जयपुर में बड़े दीवानजी का मंदिर, छोटे दीवानजी का मंदिर, दीवानजी की नसियाँ, मंदिर श्री बुधचंदजी बज, मंदिर श्री बज बगीची ।
जयपुर के अतिरिक्त आमेर, सांगानेर, जगतपुरा, माधोराजपुरा, लाम्बा यदि स्थानों पर भी हैं।
३ भगवान की मूर्ति को श्रीजी भी कहते हैं ।
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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियां (३) जिन-प्रतिमा के चरणों पर चन्दन, केसर आदि चर्चित
न करें। ( ४ ) गंधोदक लगा कर हाथ धोवें । (५) भगवान का पूजन खड़े होकर करें । (६) पूजन में फलों में नारियल और बादाम यादि - सूखे फल
ही चढ़ावें । उन्हें भी साबित न चढ़ावें । (७) रात को जिन प्रतिमा के पास दीपक न जलावें । (८) चमड़े की व ऊनी चीजें मंदिर में न ले जावें । (६) मंदिर में बुहारी देना, पूजा के बर्तन मांजना, बिछायत
विछाना आदि मंदिर का सम्पूर्ण कार्य श्रावक स्वयं
अपने हाथों से करें, माली या नौकर आदि से न करावें । (१०) मंदिरजी की बस्तु लौकिक काम में न लावें।
पंडित गुमानीराम की बताई गई कई बातों का पालन तो प्राय: सभी तेरापंथी मंदिरों में होता है, पर कुछ बातें जो बहुत कठोर थीं वे चल न सकी। बैसे गुमानपंथ का पंथ के नाम से कोई विशेष प्रचार नहीं हुआ है और न ही पंडित गुमानीराम का कोई पंथ चलाने का उद्देश्य ही था। वे तो बाह्याडंबर और हिंसामलक प्रवृत्ति के विरुद्ध थे । उनके विरोधियों ने ही उनके बताए रास्ते को 'गुमानपंथ' कहना प्रारंभ कर दिया था और वे उनमें श्रद्धा रखने वालों को 'गुमानपंथी' कहने लगे थे। ___ इस तरह हम देखते हैं कि पंडितजी के पूर्व एवं समकालीन धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ विपम थीं और अन्य भारतीय धर्मों की भांति जैनधर्म भी कई शास्त्रा-उपशाखाओं में विभक्त था । जिस दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में पंडितजी ने जन्म लिया उसमें भी भट्टारकों का साम्राज्य था और दर्शन का मूल तत्त्व लुप्तप्रायः था। कहीं-कहीं पं० बनारसीदास द्वारा प्रज्वलित अध्यात्मज्योति टिमटिमा रही थी । पंडित टोडरमल ने उसमें तेल ही नहीं दिया अपितु उसे शतगणी करके प्रकाशित किया।
१ भगवान के अभिषेक के जल को गंधोदक कहते हैं।
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राजनीतिक परिस्थिति
ऐतिहासिक दृष्टि से यह काल औरंगजेब का शासनकाल था, जिसमें मुगल सत्ता उतार पर थी। राजस्थान के शासक भी निष्क्रिय थे । यही कारण है कि मुगल साम्राज्य के उस विघटनकाल में भी ये अपनी शक्तियों को संचित और एकत्र करके हिन्दु प्रभुत्व स्थापित न कर पाए । फिर भी तत्कालीन जयपुर नरेश सवाई जयसिंह (शासनकाल–१६६६-१७४३ ई०१२ने स्थिति का लाभ उठाया ! जहोंने मारवाड़ और मेवाड़ के राजाओं के सहयोग से न केवल मुगल सत्ता से आत्मरक्षा की प्रत्युत उनके विघटन का लाभ भी उठाया। इन लोगों ने दिल्ली के शासन के संकट के प्रति अपनी आँख बन्द कर ली। वहाँ होने वाले संघर्षों, षड्यन्त्रों और राजनीतिक हत्याओं से जैसे इनका सरोकार ही नहीं था । एक अोर नादिरशाह दुर्रानी और अहमदशाह अब्दाली जैसे क्रूर आक्रांता लुटेरे दिल्ली को लूटते रहे, तो दूसरी ओर मरहठों और जाटों आदि ने भी कम लुट-पाट नहीं की। उक्त राजात्रयी इस राजनीतिक हलचल और खूनी लुट-खसोट में सम्पूर्ण रूप से तटस्थ-द्रष्टा थी। वे अपने राज्यों की शक्ति, समृद्धि
और व्यवस्था के पुख्ता बनाने में लगे रहे। सवाई जयसिंह पर यह बात पूर्णतः लागू होती है । उन्होंने अपने राज्य के चौमुखी बिकास के लिए बहुत कुछ किया। बर्तमान जयपुर का निर्माण उनकी ही देन है 1 अपने परम्परागत राज्य को आदर्श जन-कल्याणकारी और प्रगतिशील बनाने की दिशा में वे अपने समकालीन देशी-विदेशी शासकों की तुलना में बहुत आगे थे। धर्म-सहिष्णुता और विद्वानों के सम्मान करने में कोई उनकी होड़ नहीं कर सकता था। प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड ने लिखा है :- इस राजा को जैनधर्म के १ रीतिकाव्य की भूमिका, ७ २ राजस्थान का इतिहास, ६३७ 3 भा० इ० एक दृष्टि, ५६२-५६३
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राजनोलिक परिस्थिति सिद्धान्तों एवं इतिहास का अच्छा ज्ञान था और उनकी विद्या-बुद्धि के कारण भी वह जैनियों का काफी सम्मान एवं प्रादर करता था। इम राजा की ज्योतिष-विषयक गवेषणात्रों में भी उसका प्रधान सहायका विद्याधर नामक जैन विद्वान था।
सवाई जर्यामह के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र ईश्वरसिंह (शासनकाल-१७४४-१७५० ई०) राजा हुमा । उन दिनों जयपुर के राजकीय गगन में गृहकलह की काली घटा छाई ठई थी। यद्यपि ईश्वरसिंह एक सज्जन राजा था तथापि गृहशत्रुनों के कुचक में उसका अन्न हुआ और उसका अनुज माधोसिंह (शासनकाल-१७५१-१७६७ ई.) राजा बना।
यद्यपि जयसिंह के राज्यकाल के समान साधांसिंह के राज्यकाल में भी शासन-व्यवस्था में जैनियों का महत्त्वपूरर्ग योगदान एवं प्रभाव रहा, शासन के उच्चपदों पर अधिकांश जैन थे, जैनियों की हिसात्मक संस्कृति जयपुर नगर में स्पष्ट प्रतिविम्बित थी तथा शासकीय यादेश से जीवहिसा, वेश्यावृत्ति एवं मद्यपान निषिद्ध थे तथापि माम्प्रदायिक उपद्रवों की दृष्टि से माधोमिह का शासनकाल अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण रहा। इसमें जैनियों को दो बार साम्प्रदायिक विद्वेष का शिकार होना पड़ा। अपने समस्त उदार आश्वासना के बावजूद भी शासन उन्हें सुरक्षा और न्याय देने में असमर्थ रहा।
१ पनल्स एण्ड एन्टीक्विटीज अफ राजस्थान, २६७ २ राजस्थान का इतिहास, ६५० । वही ४ "और ई नग्र विर्ष सात विसन का प्रभाव है । भावार्थ-ई मग विर्ष कलाल
कसाई वेश्या न पाई है। पर जीव हिसा की भी मनाई है । राजा का नाम माधवसिंह है। ताके राज विषं वर्तमान एते कुविसन दरबार की आज्ञात न.पाईए है । पर जैनी लोग वा समुह बरी है । दरवार के मुतसद्दी सर्व जैनी है । और साहूकार लोग सर्व जनी है । यद्यपि और भी है परि गौणता रूप है। मुरूपता रूप नाही। छह सात वा आठ दस हजार जनी महाजनां का घर पाईए है ।'
- इ. वि. पत्रिका, परिशिष्ट १
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व वि० सं० १८१८ में जिस समय पानीपत के मैदान में मराठा और अफगानों के युद्ध में दिल्ली की टूटती बादशाहत का भाग्य निर्णय हो रहा था, उस समय गाजा माधोसिंह का भूहलगा पुरोहित श्याम तिवाड़ी जयपुर के जैनियों को साम्प्रदायिक द्वेष की ज्वाला में भून रहा था । जैन स्रोतों के अनुसार लगभग अठारह माह तक यह 'श्याम गर्दी' चली, जिसके बाद राजा को सुमति पाई, पश्चाताप हुआ | श्याम तिवाड़ी को अपमानित कर राज्य से निर्वासित किया गया । जैनियों के समाधान के लिए राज्य की ओर से पूरे प्रयत्न किये गए, उनकी स्थिति पूर्ववत् बना देने का प्रयास किया गया।
___ इस घटना का विवरण जयपुर के तत्कालीन इतिहास में नहीं मिलता। ऐसे बिवरण की अपेक्षा उस समय के इतिहास से की भी नहीं जा सकती। फिर भी एक प्रशासकीय आदेशपत्र में जैनियों की क्षतिपूर्ति करने और उनके प्रति सहानुभूति का दृष्टिकोण अपनाने का आदेश दिया गया। इससे उक्त घटना की ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है। यह प्रादेश विक्रम संवत् १८१६ मार्गशीर्ष कृष्णा २
१ संवत् अट्टारह से गये, ऊपरि जकं अठारह भये । तब इक भयो तिवाड़ी श्याम, डिभी अति पाखंड को धाम 11१२८६।। करि प्रयोग राजा घसि बियो, माधवेश नप गुरु पद दियो ।। १२६१॥ दिन कितेक बोते हैं जब, महा उपद्रव कीन्हो त ।।१२६२।।
- बु. वि० २ "संवत् १८१७ के सालि यमाढ़ के महैने एक स्यामराम ब्राह्मण बाके मत का पक्षी पापमुर्ति उत्पन्न भया । राजा माधवसंह का गुर ठाहरपा, ताकरि राजानं बसि कीया पीछ । जिन धर्म सं द्रोह करि या नन के बा सर्व ढुंढाड देश का जिन मंदिर तिनका विधम' कीया । सत्र कू वैसन (वैष्णन) करने का उपाय वीया । ताकरि लाखां जीयां नैं महा घोरामघोर दुख हवा घर महापाप का बंध भया सो एह उपद्रव वरस ड्योढ पर्यत रह्मा ।"
- जीवन पमिका, परिशिष्ट । 3 अकस्मात कोप्यो नृप भारो, दियो दुपहरा देश निकारो। दुपटा घोति धरे द्विज निकस्यो, तिम जुत पापनि लस्त्रि जग विगस्यो ।।१२६६।।
-बु० वि०
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राजनीतिक परिस्थिति
३५
के दिन जयपुर राज्य के तेतीस परगनों के नाम जारी हुअा था । वि० सं० १८२१ में ‘इन्द्रध्वज विधान महोत्सव' के नाम से एक विशाल और वैभवपूर्ण सार्वजनिक जैन महोत्सव कगया गया, जिसमें राज्य की ओर से पूरा समर्थन, सहयोग एवं सहायता प्राप्त हुई ।
राजा माधोसिंह के राज्यकाल में ही वि० सं० १८२३-२४ में एक बार पुनः साम्प्रदायिक उपद्रव भड़के, जिनकी अंतिम परिमानि पं० टोडरमल के निर्मम प्रारणान्त के रूप में हुई।
माधोसिंह के पश्चात् शासन पृथ्वीसिंह (१७६८-१७७७ ई०) के हाथ में पाया। उसके शासनकाल में वि.सं. १८२६ में फिर साम्प्रदायिक उपद्रवमा, जिसने जीनयों को अपार क्षति उठानी पड़ी।
' "हुक्मनामा- सनद करार मिति मंगसिर बदी २ संवत् १८१६ अप्रंच हद
सरकारी में सरावगी वगैरह जैनधर्म साधवा वाला सं धर्म में बालबा को तकरार छो, सो याकों प्राचीन जान ज्यों का त्यों स्थापन करवो फरमायो छ सो माफिक हुक्म श्री हजूर के लिखा छ। बीसपंथ तेरापंथ परगना में देहरा बनायो व देव गुरु शास्त्र आगे पूजे छा जी भांति पूजी । घमं में कोई तरह की अटकाव न राखे । अर माल मालियत वगैरह देवरा को जो ले गया होय सो ताकीद कर दिवाय दीज्यो । केसर वगाह को आगे जहां से पाये छा तिठासू भी दिवावो कीज्यो । मिति सदर"
- टोडरमल जयंती स्मारिका, ६४-६५ + "ए कार्य दरबार की प्राज्ञासू हुवा है । और ए हकम हुवा है जो थाकं पूजाजी
के अधि जो बस्तु पाहिजे सो ही दरबार सूं से जादो । सो ए बाब उचित ही है । ए धर्म राजा का चलाया ही चाल है । राजा की सहाय विना पैसा महंत परम कल्याणरूप कार्य बरणे नाही । पर दोन्यू दिवान रतनचंद वा बालचंद या कार्य वि अग्रेश्वरी है । तातै विशेष प्रभावना होगी ।".... मिति माह बदी ६ सम्वत् १८२१"
-इ० वि पत्रिका, परिशिष्ट ? 3 फुनि भई छब्बीसा के साल, मिले सकल द्विज लघुरविमान । द्विजन बादि बहमेल हजार, बिमा हुकम पाये दरबार । दोरि देहुरा जिन लिए लूटि, मूरति विबन बारी बहु फूष्टि ।।
- बु० वि०
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साहित्यिक परिस्थिति
आलोच्यकाल की साहित्यिक गतिविधियाँ संतोषजनक नहीं थीं। लड़भिड़ कर मुगल सेना और हिन्दू राजे अपनी शक्ति स्लो चुके थे । विशाल राष्ट्रीय कल्पना या उच्च नैतिक पादश की प्रास्था उनमें नहीं थी। यही स्थिति आध्यात्मिक चिंतन और साधना के क्षेत्र में थी। भक्तिकाल के बाद रीतियुग (शुगारकाल) की मूल चेतना शृगार थी। अधिकांश रीति-कावियों के पालम्बन राधा-कृष्ण थे । विशाल भारतीय समाज का ही एक अङ्ग होने से जैन समाज भी इन प्रभावों से अछूता नहीं था । वीतरागता के प्रति प्रतिबद्ध होने के कारण यद्यपि उसकी साधना में शृगार चेतना तो प्रविष्ट नहीं हो सकी तथापि भट्टारकबाद की स्थापना उसमें हो ही गई। शूद्ध शृगार काव्य की रचना के विचार से जैन साहित्य नगण्य-सा है। यद्यपि ऐसे कवि मिलते हैं, जिन्होंने विशुद्ध सािित्यक दृष्टिकोण से शृगार रचनाएँ लिखी हैं तथापि बाद में वे अपनी लौकिक शृगारपरक रचनाओं को नष्ट कर आध्यात्मिक काव्य साधना करने लगे । जैन कवियों ने शृगारमूलक प्रवृत्तियों को कड़ी आलोचना की। उनका कहना था कि क्या सरस्वती के वरदान का यही फल है ? क्या इसका ही नाम काव्य है ? मांस की ग्रंथि कूच कंचन-कलश कहें,
कहें मुख चन्द्र जो सलेषमा को घर है। हाड़ के दशन प्रांहि हीरा मोती कहें तांहि,
मांस के अधर ओंठ कहें विम्बफरु है ।। हाड़ थेभ भूजा कहें कल नाल काम जुधा,
हाड़ ही की थंभा जंधा कहे रंभातरु है । यों ही झूठी जुगति वनावै प्रो कहावें कवि,
एते पै कहैं हमें शारदा का वा है ।।
१ अ. क०, ३०-३१ २ वीरवाणी : कवि बनारसीदास विशेषांक, ४८
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साहित्यिक परिस्थिति
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जब रीतिकाल में वृद्ध कवि भी अपने सफेद बालों को देख कर खेद व्यक्त कर रहे थे' और 'रसिकप्रिया' जैसे श्रृंगार काव्य का निर्माण कर रहे थे तब जैन कवि उन्हें संबोधित कर रहे थे :
बड़ी नीति लघु नीति करत है, बाय सरत बदबोय भरी । फोड़ा आदि फुनगुन
शोणित हाड़ मांस मय मूरत, ता पर रीझत घरी-घरी । ऐसी नारि निरख कर केशव, 'रसिकप्रिया' तुम कहा करी ॥
नारी और 'रसिकप्रिया' विषयक ऐसे ही सशक्त कथन दादूपंथी सुन्दरदासजी ने भी किए हैं। विष्णोई कवि परमानन्ददासजी रियाल भी काव्य में, चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, 'हरि नांव ' चर्चा ही मुख्य मानते हैं, शेष कथन तो केवल 'इन्द्रीरत ग्यान' है ' ।
5
" "केशव" केशन अस करी जस अरिह न कराहि ।
चन्द्रवदन मृगलोचनी, बाबा कहि कहि जाहि ।। ब्रह्मविलास, १८४
(क) रसिक प्रिया रस मंजरी, और सिंगाहि जाति । चतुराई कर बहुत विधि, विषै बनाई अनि ॥ दिषे बनाई अनि लगत विषयनि को प्यारी । जागे मदन प्रचण्ड, सराहें नखशिख नारी ।। ज्यौं रोगी मिष्ठान खाई, रोगह बिस्तारं । सुन्दर यह गति होई, जुती रसिकप्रिया धारें ॥ - सुन्दर ग्रन्थावली द्वितीय खण्ड ३३९
-
(ख) सुन्दर ग्रन्थावली : द्वितीय खण्ड, ४३७-४४० प्रथमखण्ड भूमिका, ८-१०६ कवत छंद सिरळोक । सोभा तोन्मों लोक || कथ इन्द्रीरत ग्यान । परिबी निरफळ जाम्य ।
* हरिजस कथा साखी कहो, परमानन्द हरि नांव को निजपद की नाराति करें,
जैसे वो नीर विषय
- जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और साहित्य
( जम्भवाणी के पाठ संपादन सहित ) : दूसरा भाग, ६५६ व ८६७
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पंडित टोडरमल ; व्यक्तिस्त्र और कर्तृत्व उक्त कथन में उनका उद्देश्य नारी की निन्दा करना नहीं था किन्तु बासना की आग में स्वयं जल रहे मानत्रों को और उसी में न धकेल देने के प्रति सावधान करना था । क्योंकि :
राग उदै जग अंध भयो, सहजै सब लोगन लाज गवाई । सीख विना नर सीखत है, विसनादिक सेवन की सुघराई ।। ता पर और रचें ररा काव्य, कहा कहिए तिनकी निठुराई । अंध असूझन की अंखियान में, भौंकत हैं रज राम दुहाई' ।।
भगवान नेमिनाथ और राजुल के प्रसंग को लेकर शुगार रस की कविताएँ जैन कवियों की भी मिलती हैं पर उनमें मर्यादा का उल्लंघन कहीं भी देखने को नहीं मिलता। ___जैन साहित्य की मूल प्रेरणा धर्म है । जैन साहित्य ही क्या प्रायः सम्पर्ण मध्ययुगीन भारतीय साहित्य धार्मिक भावना से प्रोत-प्रोत है। धर्म से साहित्य का अच्छेद्य सम्बन्ध है । साहित्य को धर्म से पृथक् नही किया जा सकता है। धानिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्य कोटि से अलग नहीं की जा सकती । चाहे जिस काल का साहित्य हो उसमें तत्कालीन अवस्था का चित्र अवश्य अंकित होगा। साहित्य का बहुत बड़ा भाग धर्म पर अवलम्बित है । धार्मिक सिद्धांतों के आधार पर एवं धार्मिक मान्दोलनों के कारण साहित्य के विशिष्ट अङ्गों की उत्पत्ति एवं विकास हुआ है।
विद्वानों के ये कथन जैन साहित्य के अतिरिक्त राजस्थान में उद्भूत अनेक संप्रदायों और उनके कवियों आदि पर भी पूर्णतः लागू हैं। विष्णोई सम्प्रदाय, दादू पंथ, निरंजनी सम्प्रदाय, चरणदासी सम्प्रदाय और इनके कवियों की भी मूल प्रेरणा धर्म और अध्यात्म है। यहाँ इनमें से कतिपय का नामोल्लेख ही किया जा सकता है, यथा :- पदम, १ जन शतक, छन्द ६४ २ हिन्दी साहित्य का भादिकाल, ११ 3 जीवन और साहित्य, ६७ ४ हि सा इति० रसाल, १४ ५ राजस्थानी भाषा और साहित्य, १७२-२६४
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साहित्यिक परिस्थिति ऊदोजी नैण, महाजी गोदारा, वोल्होजी, कैसोजी, सुरजनदासजी पूनिया, परमानन्ददासजी, (बिष्णोई सम्प्रदाय'); बखनाजी, रज्जबजी, बाजिन्दजी, सुन्दरदासजी५, (दादू मंथी'); तुरसीदास, सेवादास, मनोहरदास, भगवानदास, (निरंजनी सम्प्रदाय"); तथा सहजोबाई', दयावाई, (चरणदासी संप्रदाय') आदि ।
जैन साहित्य में मानव हितविधायनी अध्यात्मपरक अनेक बहुमूल्य चर्चाएँ हैं। इन साहित्यकारों ने साहित्य-साधना के माध्यम से धन प्राप्ति का यत्न कभी नहीं किया और न ही उन्हें लोकेषणा आकर्षित कर सकी। ये लोग राजदरबारों और धनिकों की गोष्ठियों से दूर ही रहे, इनकी अपनी अलग आध्यात्मिक गोष्ठियाँ थीं, जिन्हें 'सैली' कहा जाता था। इन सैलियों के सदस्यों द्वारा उस युग में महत्त्वपूर्ण विपुल साहित्य का निर्माण हुआ पर वह् साहित्य शांतरस प्रधान आध्यात्मिक साहित्य है । इसका तात्पर्य यह नहीं कि ये लोग सामाजिक समस्याओं के प्रति उदासीन थे। वे तत्कालीन समाज और उसमें आगत बिकृतियों से पूर्ण परिचित एवं उनके प्रति 1 जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और साहित्य जम्भवाणी के पाठ-सम्पादन
सहित] भाग १-२ ५१२-५२२, ५५८-५७८, ६१६-६३५, ६३६-६८६, ७०१-८२५, तथा ५७-८ बखनाजी की वाणी । रज्जब बानी ४ पंचामृत में संग्रहीत, वाजिन्द की वाणी ५ सुन्दर प्रन्यावली भाग १, २ ६ श्री दादू महाविद्यालय रजत-जयन्ती ग्रंथ ७ (क) मकरन्द, १६३-१७६ (ख) योग प्रवाह में एतद् विषयक निबन्ध (ग) श्री महाराज हरिदासजी की वाणी; (घ) निरंजनी सम्प्रदाय
और संत तुरसीदास निर्रजनी ८ सहजीबाई को वानी । दयाबाई की बानी १० (क) अलवर क्षेत्र का हिन्दी साहित्य (अप्रकाशित) (वि० सं० १७००
से २०००), १३-१८ तथा १६-१८६ (ख) भक्ति सागर
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व सजग थे। इन लोगों ने उनके विरुद्ध सशक्त आन्दोलन चलाए । इन सबमें पद्य साहित्य के क्षेत्र में पंडित बनारसीदास का नाम सबसे पहले नाता है तथा गद्य साहित्य में पंडित टोडरमल अग्रणी रहे।
इस तरह अालोच्यकाल में राजनीतिक और माहित्यिक परिस्थितियां भी उत्साहवर्द्धक नहीं थीं। राजनीतिक अस्थिरता और साहित्यिक शुगारिकता दोनों ही अध्यात्मप्रधान शान्तरसपूर्ण साहित्य के निर्माण के अनुकूल वातावरण प्रदान नहीं करती हैं। इन दोनों के संकेत पंडितजी के साहित्य में मिल जाते हैं। यद्यपि ये संकेत अप्रत्यक्ष रूप में हैं, जैसे क्रोध के प्रकरण में निरंकुश साम्प्रदायिकता का जिक्र इस प्रकार पाता है :- "तहाँ क्रोध का उदय होते पदार्थनि विर्षे अनिष्टपनौ बा ताका बुरा होना चाहै । कोऊ मंदिरादि अचेतन पदार्थ बुरा लागे तब फोरना तोरना इत्यादि रूपकरि बाका बुरा चाहै ।
इसी प्रकार 'भगवान रक्षा करता है' इस मान्यता की समीक्षा करते हए लिखते हैं :- "हम तो प्रत्यक्ष म्लेच्छ मुसलमान आदि प्रभक्त पुरुषनिकरि भक्त पुरुष पीड़ित होते देखि व मंदिरादित्रा कौं विघ्न करते देखि पूछे हैं कि इहां सहाय न करे है सो शक्ति ही नाहीं, कि खबर नाही' | बहुरि अवह देखिए है। म्लेच्छ आय भक्तनि कौं उपद्रव कर हैं, धर्म विध्वंस कर हैं, मूर्ति को विघ्न करै हैं, सो परमेश्वर की ऐसे कार्य का ज्ञान न होय तो सर्वज्ञपनों रहै नाहीं ।”
इस प्रकार पंडितजी के चारों ओर विरुद्ध और संघर्ष का वातावरण था। उस समय राजनीति में अस्थिरता, संप्रदायों में तनाव, साहित्य में शृगार. धर्मक्षेत्र में भट्टारकवाद, आथिक जीवन में विषमता और समाज में रूढ़िवाद – ये सत्र अपनी चरम सीमा पर थे जो कि प्राध्यात्मिक चिन्तन में चट्टान की तरह अड़े थे। उन सबसे पंडितजी को संघर्ष करना था, उन्होंने डट कर किया और प्राणों की बाजी लगा कर किया।
५ मो० मा प्र०, ५६ २ वही, १५७ ३ वही, २५०
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द्वितीय अध्याय
जीवनवृत्त
व्यक्तित्व
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जीवनवृत्त
आचार्यकल्प पंडित टोडरमल के अतिरिक्त इस नाम के धन्य उल्लेख भी मिलते हैं । जैसे एक हैं 'ब्रह्म टोडर' या 'टोडर', जिनका एक भजन 'उठो तेरो मुख देखूं नाभि के नन्दा' राजस्थान के कई जैन शास्त्र-भण्डारों के गुटकों में मिलता है'। एक रामानुज मतानुयायी पंडित टोडरमल भी हुए हैं, जिनकी कुछ पुस्तकें जयपुर राजमहल के पोथीखाने में पाई जाती हैं ।
नाम
इनके नाम का उल्लेख भी कई प्रकार से मिलता है। कहीं 'टोडरमल' और वहीं 'टोडरमल्ल" । कहीं-कहीं 'टोडर' " का भी प्रयोग मिलता है। आदर के साथ आपको लोग 'मल्लजी ६
१
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राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों की ग्रन्थसूची, चतुर्थ भाग ५८२ ६१४, ६२३, ७६७, ७७६ तथा ७७७
१२ ज्ञानसागर, भक्तविलास, भक्तिप्रिया, पदसंग्रह
3 "नर टोडरमलजी सूं मिले, नाना प्रकार के प्रश्न कोए ।"
- जीवन पत्रिका, परिशिष्ट १ * " नाम धर्मो तिन हर्षित होय, टोडरमल कहें सब कोय ।। "
- स० चं० प्र०
* "निजमति अनुसारि अर्थ गहे टोडर ह भाषा बनवाई यातें अर्थ है सगरे ।"
- गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषाटीका प्रशस्ति ६ " यह टीका खरड़ा की नकल उतरी है । मल्लजी कृत पीठबंध आदि संपूर्ण नहीं भई है । मुल को प्रधं सम्पूर्ण प्राय गयी है, परन्तु सोधि घर मल्ल जी कोकरि उतरावणी है।"
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शि० भा० टी० (६० लि०) बम्बई, अन्तिम पृष्ठ
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व या 'मलजी' भी कहा करते थे । इनका वास्तविक नाम 'टोडरमल' ही है। टोडर और टोडरमल्ल तो छन्दानुरोध के कारण लिखे गए हैं पोंकि इनके जालेट पदी शाम होते हैं। इनके नाम के साथ 'पंडित' शब्द का प्रयोग विद्वत्ता के अर्थ में हुअा है । जैन परम्परा में 'पंडित' शब्द का प्रयोग किसी के भी साथ जातिगत अर्थ में नहीं होता है, सर्वत्र पंडित शब्द का प्रयोग विद्वत्ता के अर्थ में ही होता रहा है। आपके नाम के साथ 'आचार्यकल्प' की उपाधि भी लगी मिलती है तथा जैन समाज में आप 'प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमल के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हैं। ये रीतिकाल में अवश्य हए पर इनका सम्बन्ध रीतिकाव्य से दूर का भी नहीं है और न यह उपाधि 'काव्यशास्त्रीय आचार्य' को सूचक है। इनका सम्बन्ध तो उन महान दिगम्बराचार्यों से है, जिन्होंने जैन साहित्य की वृद्धि में अभूतपूर्व योगदान किया है। उनके समान सम्मान देने के लिए इन्हें 'आचार्यकल्प' कहा जाता है। इनका काम जैन आचार्यों से किसी भी प्रकार कम नहीं है, किन्तु जैन परम्परा में प्राचार्यपद' नग्न दिगम्बर साधु को ही प्राप्त होता है, अतः इन्हें प्राचार्य न कहकर 'आचार्यकल्प' कहा गया है। जन्मतिथि ___पंडित टोडरमल की जन्मतिथि के बारे में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है । पंडित चैनसुखदासजी ने उनका जन्म वि० सं० १७६७ (सन् १७४० ईस्वी) लिखा है। जबकि पं० बाथराम प्रेमी और डॉ० कामताप्रसाद जैन के अनुसार वि० सं० १७६३ है। उक्त विद्वानों १ "दक्षिण देस में पांच सात और ग्रंथ ताडपत्रां विष कर्णाटी लिपि मैं लिख्या वहां पधारे हैं, ताफ़ मलजी वां है, बाका यथार्थ व्याख्यान कर है।
- इ. दि० पत्रिका, परिशिष्ट १ २ अनन्तीति ग्रन्थमाला बम्बई एवं सस्ती अस्थमाला दिल्ली से प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक के मुखपृष्ठ पर तथा दि० जन स्वाध्याय मंदिर, सोनगढ़ से प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक के कवर पृष्ठ पर पं. टोडरमल के नाम के
आगे 'आचार्यकल्प' की उपाधि लगी हुई है। ३ वीरवाणी: टोडरमलांक, २६६, २६, २७७ ४ हिज. सा० इति०,७२ ५ हि० ज. सासं० इति०, १८५
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जीवनवृत्त
ने अपने मन की पुष्टि में कोई विचारणीय प्रमाण प्रस्तुन नहीं किए हैं । पं० परमानन्द शास्त्री' और पं० मिलापचंद कटारिया का कहना है कि पंडितजी का जन्म हर हालत में वि० सं० १७६७ से १५-२० वर्ष पूर्व होना चाहिए । ___पंडित टोडरमल ने अपनी जन्मतिथि के बारे में कहीं कुछ नहीं लिखा है, किन्तु गोम्मटसार पूजा की जयमाल में राजा जयसिंह के नाम का उल्लेख अवश्य है तथा गोम्मटसार आदि ग्रन्थों की भाषाटीका बन जाने का भी संकेत है । उक्त प्राधार पर इस रचना एवं भापाटीकायों को सवाई जयसिंह के राज्यकाल में बिनित मानने पर वे रचनाएँ वि० सं० १८०० के पूर्व की माननी होंगी, क्योंकि सवाई जयसिंह का राज्यकाल वि० सं० १८०० तक ही है। यदि उक्त तथ्य को सही माना जाय तो पंडित टोडरमल का जन्म इससे २५-३० वर्ष पूर्व अवश्य मानना होगा, क्योंकि २५-३० वर्ष की उम्र के पूर्व गोम्मदसारादि ग्रन्थों की भाषादीका बना पाना संभव नहीं लगता।
उक्त भाषाटीकाओं को वि०सं० १८०० से पूर्व को मानने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि 'सम्यकज्ञानचंद्रिका प्रशस्ति' में उक्त ग्रन्थों की भाषाटीका वि० सं० १८१८ में समाप्त होने का स्पष्ट उल्लेख है । अतः यह निश्चित है कि गोम्मटसार पूजा वि० सं० १८१८ के बाद की रचना है तथा उक्त पूजा की जयमाल एवं उसमें राजा जयसिंह का उल्लेख प्रामाणिक नहीं लगते। इम पर विस्तृत विचार तीसरे अध्याय में उक्त कृति के अनुशीलन में किया जायगा। ' सन्मति सन्देश : टोडरमल विशेयांवा, ३ २ सन्मति सन्देश : दिसम्बर १६६८, पृ० ५ 1 यह दरगत भये परम्पराम, तिहि मार्ग रची टीका बनाय । भापा रचि टोडरमल्ल' शुद्ध, सुनि रायमल्ल जैनी विशुद्ध ।।१०।। जयपुर जयसिंह महीपराज, तह जिनधर्मी जन बहुत भाज । यह धनी विशद जयमाल जैन, पहिरं परमानंद भव्य चंन ।।११ * संवत्सर अष्टादश युक्त, अष्टादशशत लौकिक युक्त । माघशुक्ल पंचमि दिन होत, भयो ग्रन्थ पूरन उद्योत ।।
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तस्त्र ___दित जैन बड़ा मंदिर तेरापंथियान, जयपुर में प्राप्त भूधरदास के चर्चा-समाधान नामक हस्तलिखित ग्रंथ पर आसोज कृष्णा विक्रम संवत् १८१५ के एक उल्लेख मे पता चलता है कि वि० सं० १८१५ के पूर्व पंडित टोडरमल उक्त ग्रन्थों की साठ हजार एनोक प्रमाण टीका लिख चुके थे एवं महान विद्वान् के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। ऐसा लगता है कि वि० संवत् १८१५ व १८१८ के बीच के तीन वर्ष संशोधनादि कार्य में लगे होंगे। ब्र० रायमल के अनुसार उक्त टीकात्रों को बनाने में तीन वर्ष का समय लगा। इससे सिद्ध होता है कि वि० सं० १८१२ में इन महान ग्रन्थों की टीना का कार्य प्रारम्भ हो गया था।
प्र० राबमल व्यक्तिगत रूप से पाइत टोडरमल के सम्पर्क में सिंघाणा में ही प्राए किन्नु पंडितजी की विद्वत्ता व कीति रो वे कम से कम उससे ३-४ वर्ष पहले परिचित हो चुके थे। वे लिखते हैं :
पीछे केताइक दिन रहि टोइरमल जैपुर के साहूकार का पुत्र ताकै विशेष ज्ञान जानि वासू मिलने के अथि जैपुर नगरि आए । सो इहां बाकू नहीं पाया । अर एक बंसीधर....."ताएं मिले । पीछे वान छोड़ि प्रागरै गए । उहां स्याहगंज विर्ष भूधरमल्ल साहूकार...... यासं मिलि फेरि जैपुर पाछा पाए। पीछे से खावाटी विष सिंघांग ना तहां टोडरमल्लजी एक दिली का बड़ा साहूकार साधर्मी ताके समीप कर्मकार्य के अथि वहां रहै, तहां हम गए अर टोडरमलजी सूं मिले, नाना प्रकार के प्रश्न कीए । ताका उत्तर एक गोमट्टसार नामा ग्रंथ की साखि सं देते भए । ता ग्रंथ की महिमां हम पूर्वे सूरणी थी तासं विशेष देस्त्री। अर टोडरमल्लजी का ज्ञान की महिमा अद्भुत देखी। पीछे उनसूं हम कही - तुम्हार या ग्रंथां का परचे निर्मल भया है । तुम करि याकी भाषा टीका होय तो घणो जीवां का कल्याण होइ......३।"
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१ जीवा पत्रिका, परिशिष्ट १ २ वहीं
३ वही
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श्री दि. जैन मंदिर भदीचंदजी, घी बाला का रास्ता, जयपुर में उपलब्ध साधर्मी भाई क मल द्वारा लिखित 'जीवन पत्रिका'
की मूलप्रनि का एक महर बाग पृष्ठ, जिसमें गोम्मटसारादि ग्रंथों की टीका के निर्माण फी चर्चा है ।
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दुर्जननीरम महि ममहि कलाजेष्टता लूजिक होई हलवावीष्ट लंबादन स्थलम चक्किपेषी मारिषी प्रषिनग्रिपीट मोटी पेड सर्वेग्गसरी परामहोत एकपुरुष #लहण्बनीम स्त्री लएएटिकासहनपुरा कचउथी वा निवरेिलिष तमथेन कौल अपभितप्रवरपतिजीश्रीश्रीटोडरमलजीबाचनाया
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श्री दि० जैन मंदिर (बड़ा बड़ा ), अजमेर में प्राप्त वि० सं० १७६३ में लिपिबद्ध 'सामुद्रिक पुरुष लक्षण' नामक हस्तलिखित ग्रन्थ का अंतिम पृष्ठ
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जीवनवृत्त
इस कथन के आधार पर यह कहा जा मानना है कि रायमल विक्रम संवत् १८१२ में उक्त टीका प्रारंभ होने के ३-४ वर्ष पूर्व अर्थात विक्रम संवत् १८०८-९ से पंडित टोडरमलजी से मिलने के लिए अत्यन्त उत्सूक व प्रयत्नशील थे । नात्पर्य यह कि पंडिनजी तब तक बहुचचित विद्वान हो चुके थे। इस तथ्य की पुष्टि उनको प्रथम कृति
रहस्यपूर्ण चिट्ठी से भी होती है। यह चिट्ठी बि० मंवत् १८११ में लिखी गई थी। उसकी शैली, प्रौहता एवं उममें प्रतिपादिन गंभीर तत्त्वचितन देखवार प्रतीत होता है कि वे उस समय तक बहुत विद्वान् एवं तात्त्विक-वित्रन्त्रक के रूप में प्रतिष्ठिन हो चुके थे । दुर-दूर के लोग उनसे शंका-समाधान किया करते थे।
यातायात-साधनों से विहीन उस युग में सुदूरवर्ती प्रदेशों में उनकी प्रसिद्धि एवं गोम्मटमागदि ग्रन्थों का तलस्पर्शी ज्ञान, उनकी प्रौढ़ता को सिद्ध करता है। वे उस समय ३५-३६ वर्ग मे कम किसी हालत में नहीं रहे होंगे।
अजमेर के बड़े घडे के दिगम्बर जैन मंदिर के शास्य-भण्डार में विs मंवत् ११९३ का एक हस्तलिखित 'सामुद्रिक पुमा लक्षगा' नामक ग्रन्थ है। इसमें लिखा है :- यह ग्रन्थ शनिवार भाद्रपद शुक्ला ४ वि० संवत् १७६३ को जोबनेर में 'पंडितोत्तम पंडिनप्रबर पंडितजी श्री टोडरमलजी' के पढ़ने के लिए लिखा गया है ।
उक्त कथन में पंडित टोडरमल के नाम का सम्मान के साथ उल्लेख है। यदि वह इन्हीं पंडित टोडरमल के बारे में है, तो स्वयंसिद्ध है कि वि. संवत् १७९३ तक वे पंडितोनम व पंडितप्रबर के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। संभावना भी यही है क्योंकि उस समय इतनी प्रसिद्धि प्राप्त कोई अन्य टोडरमल नहीं हा हैं। उक्त स्थिति में पंडित जी का जन्म वि० सं० १७६३ मे कम से कम १७-१८ बर्ष पूर्व का अवश्य मानना होगा। यह वाहना कोई अर्थ नहीं रखता कि 'सामुद्रिक पुरुष लक्षण' ग्रन्थ से इन आध्यात्मिक चि वाले विद्वान् को क्या प्रयोजन ? क्योंकि उनकी रचनाओं में जगह-जगह वैद्यक, ज्योतिष, काव्यशास्त्र आदि के अनेक उल्लेखों के साथ-साथ काम-शास्त्र
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५.०
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व तक के उल्लेख मिलते हैं। उन्होंने काम-विकार का वर्णन करते हुए रस-ग्रन्थों में बरिणत काम की दश दशाओं का व वैद्यकशास्त्रों में रिंगत उबर के भेदों में काम-ज्वर तक की चर्चा की है। 1 अतः सिद्ध है कि उनका अध्ययन सर्वांगीगा था और हो मकता है कि उन्होंने उक्त ग्रंथ का भी अध्ययन किया हो ।
० रायमल ने गोम्मटसार ग्रन्थ की टीका करने की प्रेरणा देते समय कहा था कि "आयु का भरोसा नाहीं'२ एवं इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका में लिखा है कि "और पांच-सात ग्रन्थों की टीका वगायवे का उपाय है सो आयु की अधिकता हूत्रां वर्गीगा ।" ये शब्द ४०-४५ वर्ष से कम उम्र वाले व्यक्ति के लिए कहे जाना संभव नहीं हैं।
___ इन्हीं व० रायमल द्वारा विरचित चर्चा-संग्रह की एक प्रति अलीगंज (जिला ऐटा-उ०प्र०) में प्राप्त हुई है। इस हस्तलिखित प्रति के लिपिकार श्री उजागरदास हैं व इसको उन्होंने अलीगंज में ही मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी, रविवार, वि० संवत् १८५४ को पूर्ण की है - ऐसा ग्रन्थ के अन्त में लिखा है। १५,२०० प्रलोकप्रमाण के इस ग्रन्थ के पृष्ठ १७३ पर पंडित टोडरमल की चर्चा करते हुए उनका निधन ४७ वर्ष की प्रायु पूर्ण करने के उपरांत होना लिखा है। उक्त उल्लेख इस प्रकार है :-- ___"बहुरि बारा हजार त्रिलोकसारजी की टीका वा बारा हजार मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ अनेक शास्त्रों के अनुस्वारि अर प्रात्मांनमासनजी की टीका हजार तीन यां तीना ग्रन्थों की टीका भी टोडरमल्लजी संतालीस बरस की आयु पूर्ण करि परलोक विष गमन की।"
१ मो० मा प्र, ७६ २ जीवन पत्रिका, परिशिष्ट १ । इ० वि० पत्रिका, परिशिष्ट १ ४ घरचा संग्रह अन्य की संख्या करो सुजान ।
एकादश हजार है वै सै ऊपर मान ।।
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निकारातियतामहानापासातमपालमायामयात्रामा माहौसमरमारजीविषयाचबातकामुष्णन चन तानानामबंधक धीमानार्वधावामीणवेधशवधनेदारपाचौलिहातमाटे याहीत घाकानीमयसमहाशापरमारनामहासागोमादस्वामीजी जोयादिनाम भगवानता कानाम। तानाचतालावियनाथकामवतारमयानाताहितीयनामगोप्रमादिमाहा यहगोमरसारनी चलशावली अनुस्वरितक्षामहावप्रतिषननोन नाकापेसाप्रपालीपत्रकापांचवान॥
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रियहगापमारजागशिक्षिपन्याराजमलमहाराजातालानानमत्री चार राहातार मतिमानपाययावायावतारमयाहै पानचंद्राचार्य नौमूलमानाबादसत३५०
समहरापरतायातकादीका करणी भाषामय राजाचारालवलाई लकियत सरिता .....तटीनाटनारल्यवार १८००० सोवलकत्रावकबासाहलाय्यादुराप्रविसबासी
रनगरताविषेने रापच्याकादेहराविषयमानीवर एपबोनसीप्रसिम्पष्टीपायला सादालंकारगणानादिशात्प्रवेगारगामाविकोषनवतानापानानुभवीनअध्यात्मीला
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श्री दि० जैन मंदिर, अलीगंज (जि. एटा-उ० प्र०) में उपलब्ध, विक्रम संवत् १८५८ में लिपिबद्ध
'चर्चा-संग्रह' ग्रंथ की हस्तलिखित प्रति के पद १७३ वा वाई
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सारसी जपणारीसहित गोम हमारायाती गयानी चैवा की संस्कृत टीका के अनुस्वारभाषा वनश्यगाचर हैजाको निधर्मक वनविन रिकहा शकयने शास्त्रान लीटोडरमलजी नितीलीस रसबीम्पायु हिए है। नाम१स्थापना यात्रामा मो च्यवपारशवदास मासाहीमंगालचर एक
हिनार का एमवाल भायामय चनकापर कानामसम्म जान चंद्रा है की
मोचा होती. याम नावाराह तारमा क्षमाया तीन नावा
कानपुरु मही वातविचारिक मंगल पहली निकराचार्य सोयी शा चार्यनिकरचल्याय्यामा नाकारलंघन का ये मा नाममादाय च भेदहेतुक दिए है।। संज्ञाप्रस्तार
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कार के श्रीयादिमध्यप्पे विषै शाहाकी ताह (हिप रिसा ग्रहेतुपारे मोरा नाम
निमत्तज्ञानहेतु परेमकर
तरभ्या साया बाध्यर्थनान
से चा १२ वायारीका जानाम्युवनाश
श्री दि० जैन मंदिर, अन्नीगंज (जि० ऐटा उ० प्र०) में उपलब्ध विक्रम संवत् १८५४ में लिपिवद्ध 'चर्चा - संग्रह' ग्रंथ की हस्तलिखित प्रति के पृष्ठ ६७३ का उत्तरार्द्ध
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५३ उपर्युक्त सभी तथ्यों की गवेषणा के बाद मेरा निश्चित मत है कि पंडित टोडरमल का जन्म वि० संवत् १७७६-७७ में हुआ और मृत्यु समय उनकी आयु ४७ वर्ष की थी। जन्मस्थान
पंडित टोडरमल की जन्मतिथि के समान जन्मस्थान के सम्बन्ध में भी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु व रायमल ने उन्हें जयपुर के साहूकार का पुत्र बताया है' तथा 'शान्तिनाथ पुराण वनिका प्रशस्ति' में पं० सेवारामजी ने उन्हें जयपुर का वासी लिखा है :
"काली रनी होडरमल्ल क्रिपाल ।" अतः यह तो प्रमाणित है कि उनके जीवन का अधिकांश भाग जयपुर में ही बीता । उन्होंने स्वयं लिखा है :
देश हूंढारह माहि महान, नगर सवाई जयपुर जान 1 तामे ताकी रहनौ घनो, थोरो रहनो औठे बनो ।।
उक्त छन्द में पंडितजी ने कुछ समय के लिए जयपुर के बाहर रहना भी स्वीकार किया है जो उनके सिंघाणा प्रवास की ओर इंगित करता है। अ० रायमल ने उनके सिंघाणा निवास की चर्चा अपनी जीवन पत्रिका में स्पष्ट रूप से की है। जहां तक उनके जन्मस्थान का प्रश्न है, वह तो जयपुर में होना संभव नहीं लगता, क्योंकि उस समय जयपुर बसा ही नहीं था। जयपुर का निर्माण वि० संवत् १७८४. में हुआ है। मृत्यु
पंडित टोडरमल की मृत्यु जयपुर में ही हुई। उनके अपूर्ण टीकाग्रन्थ 'पुरुषार्थसियुपाय' की भाषाटीका विक्रम संवत् १७२७ में पूर्ण करनेवाले पंडित दौलतराम कासलीवाल ने उसकी प्रशस्ति में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है,3 पर कब और कसे के संबंध में वे ५ जीवन पत्रिका, परिशिष्ट १ २ सं० चं० प्र० 3 "वे तो परभव • गये, जयपुर नगर मझारि।" .
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पंडित टोवरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व एकदम मौन हैं । वे राजकर्मचारी थे', अतः उन्होंने राजकीय अविवेक से हुई उनकी असामयिक मृत्यू के सम्बन्ध में कुछ भी लिखना ठीक न समझा होगा क्योंकि यह तो संभव नहीं है कि उन्हें उक्त काण्ड की जानकारी ही न हो, जब कि वि० सं० १८२७ में ही पंडिल बस्त्रतराम शाह ने 'बुद्धि विलास समाप्त किया था और उन्होंने उसमें पंडित टोडरमल को दिये गए मृत्युदण्ड का विस्तृत वर्णन किया है । बखतराम शाह के अनुमार कुछ मतांध लोगों द्वारा लगाये गए शिवपिण्डी को उखाड़ने के आरोप के संदर्भ में राजा द्वारा सभी श्रावकों को कैद कर लिया गया था और तेरापंथियों के गुरु, महान धर्मात्मा, महापुरुष, पंडित टोडरमल को मृत्युदण्ड दिया गया था। दृष्टों के भड़काने में लाकर राजा ने उन्हें मात्र प्राणदण्ड ही नहीं दिया बल्कि गंदगी में गड़वा दिया था । यह भी कहा जाता है कि उन्हें हाथी के पैर के नीचे कुचला कर मारा गया था ।
विक्रम की उन्नीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जयपुर में तीन बार साम्प्रदायिक उपद्रव हुए । प्रथम विक्रम संवत् १८१८ में व तृतीय
५ "भृत्य भूप को कुल वणिक, जाको बसयो धाम ।"
-पु० भा० टी प्र. २ "तब ब्राह्मगानु मतो यह किया, लिव उठांन को टौंना दियो ।
तामै सबै श्रावगी कैद, करिके दंड किए नुप फैद' ।।१३०३॥ मक तेरह पंथिनु मैं ध्रमी, हो तो महा जोग्य साहिमी।। कहै खलनि के नृप रिसि नाहि, हति के धर्यो यमुचि थान वाहि ।।१३०४।।"
- बु० वि० पाठान्तर :- १३०३-(१) तामैं सब श्रावनी केंद,
इंड फिगो नप करिक फेद । १३०४. (१) गुरु (२) की (३) भ्रमी
(४) टोडरमल्ल नाम साहिमी (५) ताहि भूप मार्यो पल मांहि
गाइ गौ मद्धि गंदगी तांहि ॥ 3 (क) वीरवाशी : टोडरमलांक, २८५-२८६
(ख) हि. सा. द्वि० ख०, ५७०
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जीवनवृत्त वि० सं० १८२६ में हुआ'। द्वितीय इन दोनों के बीच विक्रम संवत् १८९३ या १८२४ में हुआ था। इसके तिथि सम्बन्धी उल्लेख नहीं मिलते हैं। पंडित टोडरमल का शोचनीय व दुःखद अन्त द्वितीय उपद्रव का ही परिणाम था। इतना तो निश्चित है कि यह उपद्रव राजा माधोसिंह के राज्यकाल में हुआ था । राजा माधोसिंह की मृत्यु तिमि चा ३ ) वर ४ है । उक्त तिथि के बाद पंडितजी की विद्यमानता स्वीकार नहीं की जा सकती है ।
वि० संवत् १८२१ के माघ माह में होने वाले इन्द्रध्वज विधान महोत्सव में पंडित टोडरमलजी उपस्थित थे। 1 अतः वि० संवत् १८२१ के मात्र माह और वि० संवत् १८२४ के चैत्र माह के बीच किसी समय पंडितजी की मृत्यु हुई होगी।
जयपुर के सांगाकों के मंदिर में केशरीसिंह पाटनी सांगाकों का एक हस्तलिखित गुटका है, जिसमें निम्नानुसार उल्लेख मिलता है :
"मिती कार्तिक सुदी ५ ने (को) महादेव की पिडि सहरमांहीं कछु अमारगी उपाडि नाखि तीह परि राजा रोप करि मुरावग धरम्या परि दंड नाख्यो ।”
उक्त उल्लेख के आधार पर उनकी मृत्यु वि० संवत् १८२२-२३ या २४ की कार्तिक सुदी पंचमी के आसपास संभव हो सकती है । पर 'ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवन, बम्बई की तृतीय वार्षिक रिपोर्ट और ग्रन्थसूची तथा प्रशस्ति संग्रह' पृ०७४-७६ पर मुदित है कि त्रिलोकसार की एक प्रति श्रावण कृधरणा ४ वि० संवत् १८२३ की लिखी हुई है (इति श्री त्रिलोकसार भाषा टीका पीठबंध सम्पूर्ण
-- . . .... - ---- -.. ' देखिये प्रस्तुत ग्रंथ, ३४-३५ ५ वीरवारणी : टोडरमलांक, २८५ 3 राजस्थान का इतिहास, ६५० ४ इ० वि० पत्रिका, परिशिष्ट १ ५ वीरवारणी : टोडरमलांक, २८५
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व
संवत् १९२३ का मिती श्रावण बद ४ दिने एषा पुस्तिका लिपीकृत्वा ।), जिसमें निम्नानुसार उल्लेख पाया जाता है :
__"यह टीका खरड़ा की नकल उतरी है। मल्लजी कृत पीठबंध यादि सम्पूर्ण महीं भई है । मूलको अर्थ सम्पूर्ग प्राय गयी है। परन्तु सौधि पर मल्लजी को फरि उतरावणी छै। वीछति होवाके वास्ते जेत खन्दा ही उतार लिया है। सिदिलों और पानी इहीयों उतरवाज्यो मती' । __इसस सिद्ध होता है कि श्रावण कृष्णा ४ वि० सं० १८२३ तक पंडित टोडरमल विद्यमान थे और उसके बाद उन्होंने त्रिलोकसार का संशोधन भी किया। अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पंडित टोडरगल को मृत्यु कार्तिक शुक्ला ५ वि० सं० १८२३ या २४ के बाद दस-पांच दिन के भीतर ही हुई होगी।
परिवार
पंडितजी के पिता का नाम जोगीदास एवं माता का नाम रम्भादेवी था'। ये जाति से खंडेलवाल थे और गोत्र था गोदीका,
१ "रम्भापति स्तुत गुन जनक, जाको जोगीदास । सोई मेरी प्रान है, धारै प्रगट प्रकाश ॥३७।।"
-रा० चं० प्र० २ खण्डेलवाल जाति का इतिहास श्वेताम्बर पति श्रीपाल चन्द्र 'जन सम्प्रदाय शिक्षा' (पृष्ठ ६५६) में इस प्रकार बताते हैं :- खण्डेलानगर में सूर्यवंशी चौहान खुण्डेलगिरि राजा राज्य करता था। उक्त राज्य के अंतर्गत ८४ ठिकाने लगते थे । एक समय वहाँ भयंकर • महामारी का प्रकोप हुना । हजारों लोग काल कवलित होने लगे। वहाँ का राजा दिगम्बर प्राचार्य जिनसेन की शरण में गया और उनके प्रताप से शान्ति हुई । परिणामस्वरूप राजा ने ८४ ठिकाणी के उमगवों गहिन जैन धर्म स्वीकार वार लिया । चण्डला से सम्बन्धित होने से सभी स्त्रपडेलवाल कहलाए । गना का गोत्र शाह रखा गया तथा बाकी लोगों के गोत्र' नाम के अनुसार रखे गए।
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५७
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'थे -
जिसे भौंसा व बड़जात्या भी कहते हैं । इनके वंशज 'ढौलाका' भी कहलाते थे । वे विवाहित थे, लेकिन उनकी पत्नी व ससुराल पक्ष वालों का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनके दो पुत्र हरिचंद और गुमानीराम गुमानीराम उनके ही समान उच्चकोटि के विद्वान् और प्रभावक आध्यात्मिक प्रवक्ता थे । उनके पास बड़े-बड़े विद्वान् भी तत्व का रहस्य समझने प्राते थे । घुमक्कड़ विद्वान् पंडित देवीदास गोधा ने 'सिद्धान्तसार टीका प्रशस्ति' में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है । पंडित टोडरमल की मृत्यु के उपरान्त वे पंडित टोडरमल द्वारा संचालित धार्मिक क्रान्ति के सूत्रधार रहे 1
जैसे - वाणी की। इसी से मिलता-जुलता विवरण पंडित लक्ष्मीचन्दजी लश्कर वालों ने अपने लक्ष्मी विलास में दिया है । वीरवाणी (सन् १९४७-४८ ) में श्री राजमल संधी द्वारा लिखित 'खण्डेलवाल जाति की उत्पत्ति का इतिहास' शीर्षक एक लेखमाला क्रमश: कई अंकों में प्रकाशित हुई है, उसमें भी इससे मिलता-जुलता वर्णन है ।
विभिन्न जातियों की वंशावली को सुरक्षित रखने के लिए अलग-अलग जातियों के अपने भाट, पाटिया, पंडे आदि होते हैं। खण्डेलवाल जाति के भी अपने भाट है । उनके अनुसार गोदीका, भौंसा, बड़जात्या ये तीनों गोत्र एक ही हैं। इनमें आपस में शादी-विवाह भी नहीं होते हैं। इन तीनों गोत्रों के एक ही होने का दिलचस्प विवरण इस प्रकार है :
खण्डेल गिरि के राजा का गोत्र 'शाह' और उनके भाई का गोत्र 'भाई शाह' रखा गया था, जो कि बिगड़ते-बिगड़ते 'भावसा', फिर 'भोसा' हो गया। भाँसा को लोग भैसा कहकर मजाक उड़ाने लगे तब सब ने निर्णय किया कि ये बड़ी जाति के हैं, भैंसा शब्द अच्छा नहीं लगता, अतः उनका गोत्र 'बड़जात्या कर दिया जाय। तब वे बड़जात्या कहलाने लगे । उनमें से कोई किसी की मोद चला गया तो गोद जाने वाले को 'गोबीका' कहने लगे ।
२ ढोलक बैंक है, गोत्र नहीं ।
......तथा लिनिके पीछे टोडरमलजी के बड़े पुत्र हरीचंदजी तिमिते छोटे गुमानीरामजी महाबुद्धिमान वक्ता के लक्षण कूं घारै तिनिके पास फिल् रहस्य सुनि करि कछू जानपना भया । "
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व उनके नाम से एक पंथ भी चला जो गुमान-पंथ के नाम से जाना जाता है । शिक्षा और शिक्षागुरु
वे मेधावी और प्रतिभासम्पन्न थे एवं सदा अध्ययन, मनन, चितन में अपना समय सार्थक करते थे। थोड़ा बहुत समय खाने-खेलने में गया होगा, उसके लिये उन्होंने स्वयं खेद व्यक्त किया है । उनकी शिक्षा जयपुर में ही हुई। स्वयं उन्होंने अपने गुरु का उल्लेख कहीं भी नहीं किया है । अन्यत्र भी स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं हैं।
तत्कालीन समाज में धार्मिक अध्ययन के लिए आज के समान सुव्यवस्थित विद्यालय, महाविद्यालय नहीं चलते थे । लोग स्वयं ही 'सैलियों के माध्यम से तत्त्वज्ञान प्राप्त करते थे । तत्कालीन रामाज में जो आध्यात्मिक चर्चा करने वाली दैनिक गोप्टियां होती थी, उन्हें सैली कहा जाता था। ये सैलियाँ सम्पूर्ण भारतवर्ष में यत्रतत्र थीं। महाकवि बनारसीदास भी आगरा की एक सैली में ही शिक्षित हए थे। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं :
"चीकानेर जैनलेख-संग्रह में अध्यात्मी सम्प्रदाय का उल्लेख भी ध्यान देने योग्य है। बह आगरे के ज्ञानियों की मण्डली थी, जिसे सैली वाहते थे। ज्ञात होता है कि अकबर की 'दीने-इलाही' प्रवृत्ति भी इसी प्रकार की प्राध्यात्मिक खोज का परिणाम थी। बनारस में भी आध्यात्मियों की एक सैली या मण्डली थी। किसी समय राजा टोडरमल के पुत्र गोवर्धनदास इसके मुखिया थे।"
' (क) "तेरापंथिन में भी बररा पच्चीसेक सं गुमानीराम भेद थाप्या है।"
-३० वि०, १२८ (ख) हि० म०वि०, १५% २ "ऐसौ यह मानुष पर्याय, बंधत भयो निज काल गमाय ।"
-स.चं० प्र० ३ (क) अ० क भूमिका, २५
(ख) जैन शोध और समीक्षा, १५१ ४ मध्यकालीन नगरों का सांस्कृतिक अध्ययन : जैन संदेश शोधांक, जून १६५७
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লীল
उपनिषद् काल से ही भारतवर्ष में इस तरह की परिषदों या । स्वाध्याय-मण्डलों का उल्लेख मिलता है। यह आलोच्य युग की सैली भी उन्हीं का विकसित और परिवद्धित रूप जान पड़ता है।
पंडितप्रवर जयचन्द छाबड़ा ने 'सर्वार्थसिद्धि व नका प्रशस्ति' में जयपुर की तेरापंथी सैली में शिक्षित होने की चर्चा इस प्रकार की है :
"निमित्त पाय जयपुर में प्राय, बड़ी जु सैली देखी भाय । गुरणी लोक साधरमी भले, ज्ञानी पंडित बहुते मिले ।। पहले थे बंशीधर नाम, धरै प्रभावन-भाव सुठाम | 'टोडरमल' पंडित मतिखरी, 'गोम्मटसार' वचनिका करी ।। ताकी महिमा सब जन करें, बांच-पड़े बुद्धि बिस्तरें । 'दौलतराम' मुणी अधिकाय, पंडितराय राज में जाय ।। ताकी बुद्धि लस सब खरी, तीन पुरान बनिका करी । 'रायमल्ल' त्यागी गृहबास, 'महाराम' व्रत शील निवास ।। मैं हूँ इनकी संगति ठानि, बुद्धि सारू जिनवारणी जानि । शैली तेरापंथ सुपंथ, तामें बड़े गुणी गुन-ग्रन्ध । तिनकी संगति में कछु बोध, पायो मै अध्यातम सोध ।।
पंडित टोडरमल ने भी जयपुर की सैली में ही शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने बाद में उक्त संली का सफल संचालन भी किया। उनके पूर्व बाबा बंशीधरजी उक्त संली के संचालक थे । वे पूरुषों, महिलाओं और बच्चों को धामिक शिक्षा के साथ-साथ न्याय, व्याकरण, छंद,
, "इन लोगों ने अपने विचारों के अनुयावी राष्ट्रों में परिषदें स्थापित की थीं
और व्रात्य-संघों के सदृश ही इनके भी स्वाध्याय-मण्डल थे, जो वाल्य-संघों से पीछे के नहीं, अपितु पहने' के थे।"
- काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध, ५३
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
अलंकार, काव्य आदि विषय भी पढ़ाते थे । अतः संभावना यही है कि उनके शिक्षागुरु बाबा बंशीधर ही रहे होंगे । उक्त सैलियों में तु निर्वाचित मेला कोई नहीं होता था । प्रायः तत्त्वप्रेमी बराबरी के रूप में रहते थे, किन्तु विद्वान् और प्रामाणिक बक्ता के रूप में कुछ व्यक्तित्व स्वयं उभर आते थे और उनके निर्देश में गोष्ठियाँ संचालित होने लगती थीं । अतः नेतृत्व या गुरु-शिष्य परम्परा सम्बन्धी कोई उल्लेख मिलना संभव नहीं है । जो भी कथन मिलते हैं वे सामान्य रूप से सैलियों के मिलते हैं । यहीं कारण है कि पं० टोडरमल ने व्यक्ति विशेष का गुरु रूप में उल्लेख नहीं किया तथा उनसे ज्ञान लाभ लेने वालों ने भी उनका सीधे गुरु रूप में स्मरण न कर सैली में प्रमुख वक्ता एवं लेखक के रूप में उल्लेख किया है तथा सैली में आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करने के उल्लेख किए हैं । 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार भाषा वज्रनिका प्रशस्ति' में पं० सदासुखदास कासलीवाल लिखते हैं :
६०
गोत कासलीवाल है नाम सदासुख जास | सेली तेरापंथ में करें जुज्ञान अभ्यास ||११३८
गूढ़ तत्वों के तो पं० टोडरमल स्वयंबुद्ध ज्ञाता थे । 'लब्धिसार' व 'क्षपणासार' की संदृष्टियाँ आरम्भ करते हुए वे स्वयं लिखते हैं, "शास्त्र विषै लिख्या नाहीं और बताने वाला मिल्या नाहीं ।"
कन्नड़ भाषा और लिपि का ज्ञान एवं अभ्यास भी उन्होंने स्वयं किया । उसमें प्रध्यापकों के सहयोग की सम्भावना भी नहीं की जा सकती है क्योंकि उस समय उत्तर भारत में कन्नड़ के अध्यापन की
१ ( क ) "अर एक बंसीधर किंचित् संजम का धारक विशेष व्याकरणादि जैनमत के शास्त्रों का पाठी, सौ पचास लड़का- पुरुष वायां जानवें व्याकरण, छन्द, अलंकार काव्य चरचा पढ़े तामूं भिने ।"
- जीवन पत्रिका, परिशिष्ट १ (ख) "अर अब वर्तमान काल विषे बाबा बंसीधरजी व मलजी साहिब ये संलीनि वि मुख्य हैं ।"
- टो० ज० रुमा०, ४
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जीवनवृत्त व्यवस्था दुस्साध्य कार्य था। कन्नड़ एक कटिन लिपि है, द्राविड़ परिवार की सभी लिपियाँ कटिन हैं | उसको किसी की महायता के विना सीखना और भी कठिन था पर उन्होंने उसका अभ्याम कर लिया और साधारण अभ्यारा नहीं - वे कन्नड़ भाषा के ग्रन्धों पर व्याख्यान करते थे एवं उन्हें कन्नड़ लिपि में लिख भी लेते थे । अ० रायमल ने लिखा है, "दक्षिरण देस तूं पांच-सात और ग्रंथ ताड़पत्रां विपै कर्णाटी लिपि में लिख्या इहां पधारे हैं, नाकं मलजी बांचे है, बाका यथार्थ व्याख्यान कर है बा कर्णाटी लिपि मैं लिग्वि लेहैं।" व्यवसाय
उनकी आर्थिक स्थिति साधारण थी। उनको अपनी आजीविका के लिये जयपुर छोड़कर सिंघागा जाना पड़ा था। सिंघारगा जयपुर के पश्चिम में करीब १५० किलोमीटर दूर वर्तमान खेतड़ी प्रोजेक्ट के पास स्थित है। वहाँ भी उनका कोई स्वतंत्र व्यवसाय नहीं था। वे दिल्ली के एक साहुकार के यहाँ कार्य करते थे और निश्चित रूप से वे वहां चार-पांच वर्ष से कम नहीं रहे।
उनका व्यवसाय और आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में कुछ भ्रान्तियाँ प्रचलित है । कहा जाता है कि वे आर्थिक दृष्टि से बहुत सम्पन्न थे । उनको पढ़ाने के लिए बनारम से विद्वान् बुलाया गया था। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उनके अध्ययन की व्यवस्था अमरचंदजी दीवान ने की थी। दीवान अमरचंदजी के काग्गा उनको राज्य में सम्माननीय पद प्राप्त था । इस राजकर्मचारी पद से राज्य और प्रजा के हित के उन्होंने अनेक कार्य किया। उनका प्रखर पाण्डित्य
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-... -
1 इ० वि० पत्रिका. परिशिष्ट ? २ पा से खावाटी विर्ष सिंघाणां नन सहा टोडरमल्लजी एक दिनी का बड़ा राहकार राधिमी ताव सगी' कर्मकार्य के प्रथि वहां रहै, तहां हम गए पर टोडरमलजी सं मिले।" |
.. जीवन पत्रिका, परिशिष्ट १ १ सम्मति सन्देश : टोडरमल विशेषांक, वर्ष १० अंक ५, पृ० ७२ * हि ना० सं• इति०, १८५, १८६ २ (क) वही, १८८ (ख) रहस्यपूर्ण चिट्ठी की भूमिका, ९-१०
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पंडित टोडरमल व्यक्तित्व और कर्तृत्व
राज्य की विद्वत्परिषद् को अखरने लगा और कई बार पराजित होने से वे उन पर द्वेषभाव रखने लगे ।
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-
—
यह बात सम्भव नहीं है कि जिस व्यक्ति को उस युग में जब कि कोई व्यक्ति घर से बाहर जाना पसन्द नहीं करता था और यातायात के समुचित साधन उपलब्ध नहीं थे अपनी अल्पवय में आजीविका । के लिये बाहर जाना पड़ा हो, वह प्रार्थिक दृष्टि से सम्पन्न रहा होगा और वह भी इतना कि उसकी शिक्षा के लिए उसके माता-पिता गर से विधान् बुलाने की स्थिति में हो ।
दूसरे यह भी संभव नहीं कि दीवान अमरचन्दजी ने उनके पढ़ाने की व्यवस्था की हो या उन्हें राज्य में कोई अच्छा पद दिलाया हो क्योंकि पं० टोडरमल के दिवंगत होने तक अमरचन्दजी दीवान पद पर प्रतिष्ठित नहीं हुए थे। पंडितजी के राजकर्मचारी पद से राजा और प्रजा के हित में अनेक कार्य करने की बात निरी कल्पना ही लगती है। न तो लेखक ने इसके संबंध में कोई प्रमारग ही प्रस्तुत किया है और न इस संबंध में अन्य कोई जानकारी उपलब्ध है । राजा की विद्वत्परिषद् में जाने एवं वहाँ वाद-विवाद करने के कोई उल्लेख नहीं मिलते और न यह सब उनकी प्रकृति के अनुकुल ही था ।
अध्ययन और जीवन
!
पंडितजी का अध्ययन विस्तृत और समय में न्याय व्याकरण, छन्द, अलंकार, प्राकृत संस्कृत भाषा के विद्वान हो गए थे अध्यात्म का गहन अभ्यास उन्होंने कर लिया था । ब० रायमल ने उनके विषय में लिखा है :
--
गंभीर था । वे थोड़े ही गणित आदि विषयों एवं तथा जैन - सिद्धान्त और
"ढूंढाड देश विषे सवाई जैपुर नगर ता विषै तेरापंथ्या का देहरा दिवे टोडरमल्लजी बड़े पुण्यवान श्रेष्टी असम्यक दृष्टी न्याय
" मोक्षमार्ग प्रकाशक : अनन्तकीति ग्रन्थमाला बम्बई, भूमिका, २३
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जीवनवृत्त व्याकरण छंद अलंकार गरिणत आदि शास्त्र के पारगामी विशेष तत्वज्ञानी अात्मअनुभवी बड़े अध्यात्मी'.....।'
वे स्वयं लिखते हैं :
"हमारे पूर्व संस्कार ते वा भला होनहार ते जैन शास्त्रनिविर्ष अभ्यास करने का उद्यम होत भया। तात व्याकरण, न्याय, गणित,
आदि उपयोगी ग्रन्थनि का किचित् अभ्यास करि टीकासहित समयमार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, गोमट्टसार, लब्धिमार, त्रिलोकमार, तत्त्वार्थसूत्र इत्यादि शास्त्र पर क्षपणासार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय. अष्टपाहुइ, प्रात्मानुशासन प्रादि शास्त्र पर श्रावक मुनि का प्राचार के प्ररूपक अनेक शास्त्र अर सुस्ठकथा सहित पुराणादि शास्त्र इत्यादि अनेक शास्त्र हैं तिनि विर्षे हमारै बुद्धि अनुमारि अभ्यास बने है !"
जैन दर्शन के साथ-साथ आपको समस्त भारतीय दर्शनों का अध्ययन भी था। मोक्षमार्ग प्रकाशक के पाँचवे अधिकार में प्रयुक्त अनेकों भारतीय दर्शन-ग्रन्थों के उत्तरगण इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी भाषा के तो वे विशेष विद्वान् थे ही, साथ ही कन्नड़ भाषा और लिपि का भी उन्हें अभ्यास था। प्राकृत और संस्कृत के गंभीर ग्रन्थों की टीकाएँ तो उन्होंने जनभाषा में लिखी ही हैं, कन्नड़ ग्रन्थों पर भी उन्होंने जयपुर को जैन सभायों में प्रवचन दिए थे।
गार्हस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी उनकी वृत्ति सात्विक, निरीह एवं साधुता की प्रतीक थी । उनका जीवन प्राध्यात्मिक जीवन था । उनका अध्ययन, मनन, पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिए नहीं, ' देखिये प्रस्तुत ग्रंथ, ५१-५२ २ मो० मा०प्र०, १६-१७ ३ इ. वि. पत्रिका, परिशिष्ट ? ४ "भापाटी का ता उपरि, कीनी टोडरमल्ल । मुनिवत वृत्ति ताकी रहे, वाके मांहि प्रचल्ल ।।"
-पु. भा. टी० प्र०, १२६
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तत्व वरन अपने दोषों को दूर कर जीवन को परम पवित्र बनाने के लिए था। मोक्षमार्ग प्रकाशक में अनेक प्रकार के मिथ्याष्टियों (अज्ञानियों का वर्गान करने के उपरान्त वे लिखते हैं :
"यहां नाना प्रकार मिथ्याहाटीनि वा कथन किया है। याका प्रयोजन यह जानना, जो इन प्रकारनिकौं पहिचानि आपवित्रं ऐसा दोष होय ती ताकौं दूर करि सम्यश्रद्धानी होना। औरतिहो के ऐमे दोष देखि कषायी न होना । जातं अपना भला बुग तो अपने परिगामनि त हो है। औरनिकों तो रुचिवान देखिए, तो किछु उपदेश देय बाका भी भला कीजिए। ताले अपने परिणाम सुधारने का उपाय करना योग्य है।" कार्यक्षेत्र और प्रचार कार्य
प्रात्मस्वरूप की प्राप्ति और आध्यात्मिक तत्त्व-प्रचार ही उनका एकमात्र लक्ष्य था । लौकिक कार्यों में आपकी कोई रुचि न थी। साहित्य निर्मागा तो तत्स्त्र-प्रचार का माध्यम था । यही कारण है कि आप अपने जीवन का अधिकांश समय स्वानभव प्राप्ति के यत्न और जास्त्राध्ययन, मनन, चिन्तन, लेखन, तत्त्वोपदेश एवं तत्सम्बन्धी साहित्य-निर्माण में ही लगाते थे। अपने पाठकों और थोतानों को भी निरन्तर इसी की प्रेरगा दिया करते थे। वे सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की पीठिका में लिखते हैं :__ "परन्तु अभ्यासविर्ष अानसी न होना। देखो, शास्त्राभ्याम की महिमा जाकों होतं परम्परा प्रात्मानभन्ब दशा की प्राप्त होइ । सो मोक्षमार्ग का फल निपज है, मो तो दुर ही तिष्ठौ, तत्काल ही इतने गुरण हो हैं, क्रोधादि कपानि की तो मंदता हो है, पंचेन्द्रियनि की विषय नि विर्षे प्रवृत्ति रुकै है, अति चंचल मन भी एकाग्र हो है, हिसादि पंच पाप न प्रवत्त हैं'......।
। मो. मा० प्र०, ३६२ २ परगासार भाघाटीका, यन्तिम वाक्य ३ मो० मा० प्र०, २६-३० में रहस्यपूर्ण चिट्ठी
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जीवनवृत्त
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यद्यपि उनके जीवन का अधिकांश समय जयपुर और सिंघारणा में ही बीता था तथापि उनके द्वारा अध्यात्म-तत्त्व का प्रचार सुदूरवर्ती क्षेत्रों में भी हुआ था । ' दूर-दूर से लोग उनसे चर्चा करने आते और उनसे अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर अपने को कृतार्थ मानते थे । साधर्मी भाई ब्र० रायमल शाहपुरा से उनसे मिलने सिंघाणा गए तथा उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर तीन वर्ष तक वहीं तत्त्वाभ्यास करते रहे । जो व्यक्ति उनके पास न आ सकते थे, वे पत्र-व्यवहार द्वारा अपनी शंकाओं का समाधान किया करते थे । इस संदर्भ में मुलतान वालों की शंकाओं के समाधान में लिखा गया पत्र अपने आप में एक ग्रन्थ बन गया है । 'शान्तिनाथ पुराण वचनिकाकार' पं० सेवाराम और गंभीर न्याय सिद्धान्त-ग्रन्थों के टीकाकार पं० जयचन्दजी छाबड़ा जैसे कई बड़े-बड़े विद्वान् भी आपके द्वारा सुपंथ में लगे थे एवं कई विद्वानों ने आपसे प्रेरणा पाकर अपना जीवन माँ सरस्वती की सेवा में समर्पित कर दिया था ।
उनकी आत्मसाधना और तत्त्वप्रचार का कार्य सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित था । मुद्रण की सुविधा न होने से तत्सम्बन्धी प्रभाव की पूर्ति हेतु दश- बारह सर्वतनिक कुशल लिपिकार शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ करते रहते थे । पण्डित टोडरमल का व्याख्यान सुनने उनकी
" "देश बुंढारह आदि दे, सम्बोषे बहु देश । रचिरचि ग्रन्थ कठिन किए, टोडरमल्ल महेश ।। "
- श० पु० ब० प्र०
२ प्रदेश-देश का प्रश्न यहां श्रात्रं तिनका समाधान होय उहां पहुंचे" । - जीवन पत्रिका, परिशिष्ट १ 'रहस्यपूर्ण चिट्टी' जिसका विस्तृत परिचय तीसरे श्रध्याय में दिया गया है । * "वासी श्री जयपुर तनों, टोडरमल्ल त्रिपाल ।
विशाल ||
ता प्रसंग को पायकै गयो सुपंथ तिनही को उपदेश लहि, सेवाराम समान । रच्यो ग्रन्थ शुभकीति को बड़े हर्ष अधिकान ।। "
* सर्वार्थसिद्धि यचनिका प्रशस्ति
- शा० पु० ब० प्र०
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पंरित टोडरमल : व्यक्तित्व और करिव शास्त्रसभा में हजार-बारह सौ स्त्री-पुरुष प्रति दिन प्राते थे । बालकबालिकाओं एवं प्रौढ़ पुरुष एवं महिला वर्ग के धार्मिक अध्ययनअध्यापन की पूरी-पूरी व्यवस्था थी। उक्त सभी व्यवस्था की चर्चा अ० रायमल ने विस्तार से की है।
उनका कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष था। उनका प्रचार कार्य ठोस था। यद्यपि उस समय यातायात की कोई सुविधाएँ नहीं थी, तथापि उन्होंने दक्षिण भारत में समुद्र के किनारे तक धवलादि सिद्धान्तशास्त्रों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया था । उक्त संदर्भ में व० रायमल लिखते हैं, "और दोय-च्यार भाई धवल, महाधवल, जयधवल लेने कं दक्षिरग देशविर्षे जनबद्रीनगर वा समुद्र ताईं गये थे।"
बहुत परेशानी उठाने के बाद भी, यहाँ तक कि एक व्यक्ति की जान भी चली गई, उन्हें उक्त शास्त्र प्राप्त करने में सफलता नहीं मिली, किन्तु उन्होंने प्रयास करना नहीं छोड़ा। ब्र० रायमल इसी संदर्भ में आगे लिखते हैं :
"ताते हैं देश में सिद्धान्तां का आगमन हूवा नाहीं । रुपया हजार दोय २०००) पांच-सात प्रादम्यां के जावै आये खरचि पझ्या । एक साधर्मी डालूराम की उहां ही पर्याय पूरी हुई।........... बहुरि या बात के उपाय करने मैं बरस च्यारि पांच लागा। पांच विश्वा पौरू भी उपाय बतॆ है । औरंगाबाद सं सौ कोस पर एक मलयखेड़ा है तहां भी तीन सिद्धान्त बिराज है । ..........."मलयखेड़ा सूं सिद्धान्त मंगायवे का उपाय है सो देखिए ए कार्य वणने विष कठिनता विशेष है" । सम्पर्क और साहचर्य
पण्डित टोडरमल के अद्वितीय सहयोगी थे साधर्मी भाई ख० रायमल जिन्होंने अपना जीवन तत्त्वाभ्यास और तत्त्वप्रचार के लिए ही समर्पित कर दिया था। उनकी प्रेरणा से ही पं० टोडरमल ने ' जीवन पत्रिका, परिशिष्ट १ २ इ० वि० पत्रिका, परिशिष्ट १
" वही
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Marksvitte रानमा सरिया यादमा दियाकाबहोतपतिजाराईजहा सलील तिहासुधारसुधाइपचाई नयाग्रयांकाअवतारया अदारके अनिष्टकालावध पञ्चसादिरमहारकासपीपसमविशेषमया एगोमटझारथकावचनांपावसदर Malla
करच सपहलीथा तापीछेबुधिकानदाकरिावसाहतवचनारहियानफेरि मायाकाउयोतिभया बरवामान कालविष धर्मकानिमित्त तिमाही । ... वर्तमानमा आमाहतुदि० संवर आवागमधाम सालिईश्वनरजाका
१२२३MBy: प्रवाशाईगर वाजिनधर्ममा लापनल्या सोसिदेशकाधमाधुलोचकोंचातीलिपीताकानकलइहालिपिyarany आकावासमा रहे दिला आगरकार राजहानाबादी शेजावासादर औरगाबाद H
Cumanite देपुरतीकामरि जसलामा लगानरपतिंचालिसी लोनिविपर स्वत : विभागाला दिलीपराआदिनाक समस्तजनमायायायसवाई जयपुरमीगमनकनिश्री Eas) काय यांची हानेदवासद थाकैवानंदकाचाही धर्मकरीचकहा अEL: आय एक विश्वासवाई नयधरनविषईजरजासहरकेबारेंगधकोमपरमातीमगर HAR NRH निकठिाहरीर पूजाकीरचनाकाप्रारभतापामवादिरसंहाहाने लगाह चौमहिमा
नवा नयाराजामावियरकाशरमहलातकाररागानेवासकायापाजिनश्चमकारकरियानकवासtharteey कमलकापाकामिनभावनाविप्रकायासर्वकंचमनं कनिकासापकीयाकानाघरजावान महावास
नधारमया मायापकावधनपाएपपश्वरगोटपपरियामा फातिमधर्ममा अतिशय
कास
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श्री दि० जैन मंदिर भदीचंदजी, पी वालों का रास्ता, जयपुर में उपलब्ध, साधर्मी भाई ० रायमल द्वारा लिन्धित 'जीवन पत्रिका' व
'इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका' को मूल प्रति का क्रमश: अंतिम व प्रथम पृष्ठ
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कष गोम्मटसारादि ग्रन्थों की टीका बनाई थी | जब ये दोनों "मल्ल" (टोडरमल और रायमल) तत्त्वप्रचार के अखाड़े में उतरकर आए तो फिर और मल्लों की आवश्यकता ही नहीं रही थी ।
इन दोनों महानुभावों ने मात्र ग्रन्थों की रचनाएँ ही नहीं की, वरन उन्हें पढ़ाया, उन पर प्रवचन दिए, उनकी बहस सी प्रतिलिपियाँ वाला और जह. हा सावता ससझी, पहुंचाई। इस प्रकार उन्होंने सर्वत्र आध्यात्मिक वातावरण बना दिया।
सिंघारणा से जयपुर लौटने के बाद तत्कालीन जयपुर नरेश माधोसिंह के दीवान रतनचंद और बालचंद छाबड़ा उनके सम्पर्क में
आए। वे उनकी दैनिक सभा के श्रोता थे । पं० टोडरमल के सान्निध्य में वर्तमान में राजस्थान की राजधानी गुलाबी नगर जयपुर में वि० सं० १८२१ में 'इन्द्रध्वज विधान महोत्सव' नामक विशाल उत्सव का सफल संचालन दीवान रतनचंदजी एवं दीवान बालचंदजी छाबड़ा ने ही किया था । दीवान रतनचंदजी की पंडित टोडरमलजी के प्रति
१ "रायभरून साधर्मी एक, धर्म सधैया सहित विवेक । सो नाना विधि प्रेरक भयो, तब यहु उत्तम कारज थयो ।"
- स. चं० प्र० २ "दासी श्री जयपुर तनों, टोडरमल्ल किपाल ।
पुनि ताके तट दूसरो रायमल्ल बुधराज । जुगल मल्ल जब ये जुरे, और मल्ल किह काज ।।"
- शा. पु०व०प्र० 3 "सभाविध गोमट्टसारजी का व्याख्यान होय है।"........"एह व्याख्यान टोडरमल्लजी कर हैं।"
- ६० वि० पत्रिका, परिशिष्ट १ "तहां गोम्मटसारादि च्या ग्रंथा कू सोधि याकी बहोत प्रति उतराई, जहाँ सैली छौं तहाँ-तहाँ सुधाई-सुषाई पधराई ।"
- इ. वि. पत्रिका, परिशिष्ट १ . ५ "पर दोन्यू दीवान रतनचंद व बालचंद या कार्य विष अग्रेसरी हैं ।"
- इ० वि० पत्रिका, परिशिष्ट १
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जीवनवृत्त
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अपार श्रद्धा थी । उन्होंने पंडित टोडरमल की मृत्यु के उपरान्त उनके अपूर्ण टीका ग्रन्थ 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय भाषाटीका' को पूर्ण करने का आग्रह पंडित दौलतराम कासलीवाल, जयपुर से किया। उन्हीं की प्रेरणा के फलस्वरूप पंडित दौलतराम कासलीवाल ने उक्त टीका को विक्रम संवत् १८२७ में पूर्ण किया ।
दीवान रतनचंद और बालचंद छाबड़ा के अतिरिक्त उदासीन श्रावक महाराम श्रोसवाल, अजबराय त्रिलोकचंद पाटनी, त्रिलोकचंद सौगाणी, नयनचंद पाटनी आदि पंडित टोडरमल के सक्रिय सहयोगी एवं उनकी दैनिक सभा के श्रोता थे ।
प्रमेयरत्नमाला, प्राप्तमीमांसा, समयसार, श्रष्टपाहुड़, सर्वार्थसिद्धि आदि अनेकों गंभीर न्याय और सिद्धान्तग्रन्थों के सफल टीकाकार पंडितप्रवर जयचंद छाबड़ा; आदिपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण यदि अनेक पुराणों के लोकप्रिय वचनिकाकार पंडित दौलतराम कासलीवाल, गुमानपंथ के संस्थापक पं० गुमानीराम तथा श्रत्यन्त उत्साही और घुमक्कड़ विद्वान् पं० देवीदास गोधा ने पंडित टोडरमल की संगति से लाभ उठाया था ।
१ " श्रानन्द सुत तिनको सखा, नाम जु दौलतगम 1 तासूं रतन दीवान ने कही प्रीति घर एह । करिए टीका पूरणा, उर घरि धर्म
सनेह || "
- पु० भा० टी० प्र०
२ "सो टोडरमलजी के श्रोता विशेष बुद्धिमान दीवान रतनचंदजी, अजबरायजी, त्रिलोकचंदजी पाटनी, महारामजी विशेष चर्चावान घोसान मिवान उदासीन तथा त्रिलोकचंदजी सौगाणी, भयनचंदजी पाटनी इत्यादि
- सिद्धान्तसार संग्रह बचनका प्रशस्ति
......
= सर्वार्थसिद्धि बचनिका प्रशस्ति
* सिद्धान्तसार संग्रह यवनिका प्रशस्ति
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व्यक्तित्व पंडित टोडरमल गंभीर प्रकृति के प्राध्यात्मिक महापुरुष थे । वे स्वभाव से सरल. संसार से उदास, धुन के धनी, निरभिमानी, विवेकी, अध्ययनशील. प्रतिभावान, वाद्याडम्बर-बिरोधी, हतवद्धानी, क्रांतिकारी, सिद्धान्तों की कीमत पर कभी न झुकने वाले, प्रात्मानुभवी, लोकप्रिय प्रवचनकार, सिद्धान्त-ग्रन्थों के सफल टीकाकार एवं परोपकारी महामानव थे।
उनका जीवन प्राध्यात्मिक था। वे अपने दैनिक पत्र-व्यवहार में भी लोगों को प्राध्यात्मिक प्रेरणाएँ दिया करते थे। मुलतान की चिट्ठी में लिख गए निम्नलिखित बाक्य उनके जीवन के प्रतिबिम्ब हैं :
"इहां जिथा संभव प्रानन्द है, तुम्हारे चिदानन्दघन के अनुभव से सहजानन्द की वृद्धि चाहिजे।" ___इस बात का उन्हें बहुत दुःख था कि वर्तमान में प्राध्यात्मिक रसिक विरले ही है। अध्यात्म की चर्चा करने वालों से उन्हें सहज अनुराग था । वे व्यर्थ की लौकिक चर्चायों से युक्त पत्र-व्यवहार करना पसन्द नहीं करते थे, पर अध्यात्म और पागम की चर्चा उन्हें वहत प्रिय थी। अतः इस प्रकार के पात्रों को पाकर उन्हें प्रसन्नता होती थी और अपने स्नेहियों को इस प्रकार के पत्र देने के लिए प्रेरणा भी दिया करते थे, किन्तु सर्वोपरि प्रधानता आत्मानुभव को ही देते थे। अतः वे अपने पत्रों में बार-बार यह प्रेरणा देना आवश्यक समझते थे कि "पर निरन्तर स्वरूपानुभब में रहना ।" स्वरूपानुभव के बाद द्वितीय वरीयता देते हुए बे लिखते हैं, “तुम अध्यात्म तथा प्रागम ग्रन्थों का अभ्यास रखना ।
. "अबार वर्तमान काल में अध्यातम का रसिक बहुत थोड़े हैं। धन्य हैं ले स्वात्मानुभव की वार्ता भी कर हैं।"
- रहस्यपूर्ण चिट्ठी २ "और अध्यातम मागम की चर्चाभिन पत्र तो सीत्र-शीत्र देवो करी । गिलाग कभी होगा पर होगा।"
- रहस्यपुर चिट्ठी
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व्यक्तित्व
अध्ययन और ध्यान यही उनकी साधना थी। निरन्तर आध्यात्मिक अध्ययन, चिन्तन, वन के फलस्वरूप में हारमल की अपेक्षा 'मैं जीय हूँ' की अनुभूति उनमें अधिक प्रबल हो उठी थी। यही कारण है कि जब वे सम्यग्ज्ञानचंद्रिका प्रशस्ति में अपना परिचय देने लगे तो सहज ही लिखा गया :___में तो जीव-द्रव्य हूँ। मेरा स्वरूप तो चेतना (ज्ञानदर्शन) है । में अनादि से ही कर्मकलंक-मल से मैला है। कर्मों के निमित्त से मुझमें राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है। राग-द्वेष मेरे स्वभाव में नहीं हैं । राग-द्वेष के निमित्त से दुष्ट की संगति के समान इस शरीर का संग हो गया है। मैं तो रागादि और शरीर दोनों से ही भिन्न ज्ञान-स्वभावी जीव तत्त्व है। रागादि भावों के निमित्त से कर्म बंध और कर्मोदय के निमित्त से रागादि भाव होते हैं। इस प्रकार इनका यंत्रवत चक्र चल रहा है। इसी चक्र में मैं मनुष्य हो गया है। निज पद ( परमात्म पद ) प्राप्ति का उपाय यदि बन सकता है तो इस मनुष्य पर्याय में ही बन सकता है।
मैं एक आत्मा और शरीर के अनेक पुद्गल स्कंध मिल कर एक असमान जाति पर्याय का रूप बन गया है, जिसे मनुष्य कहते हैं। इस मनुष्य पर्याय में जो जानने-देखने वाला ज्ञानांश है, वह में है। मैं अनादि अनन्त एक अमतिक अनन्त गुणों से युक्त, जीव-द्रश्य है। कर्मोदय का निमित्त पाकर मुझमें रागादिक दुःखदायी भावों की
१ मैं हैं जीव-द्रव्य नित्य चेतना स्वरूप मेयों,
लग्यो है अनादि तै कलंबा कर्म मल को । ताहि को निमित्त पाय रागादिक भाव भये,
भयो है मारीर को मिलाप जसे खल को ।। रागादिक भावनि को पायके निमित्त पुनि,
होत कर्म बंघ ऐसौ है बनाव जैसे कल को। ऐसे ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग,
बने तो बनें यहां उपाव निज थल को ॥३६।।
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पंडित टोडरमल : यक्तित्व और कतरण उत्पत्ति होती है। ये रागादिक भाव मेरे स्वभाव भाव नहीं हैं, ये तो . प्रौपाधिक भाव है, यदि ये नष्ट हो जावें तो मैं पूर्ण परमात्मा ही हूँ' ।
प्रतिभा के धनी और प्रात्मसाधना-सम्पन्न होने पर भी उन्हें अभिमान छू भी नहीं गया था। अपनी रचनामों के कर्तृत्व के संबंध में वे लिखते हैं :
बोलना, लिखना तो जड़ (पुद्गल) की क्रिया है । पाँचों इन्द्रियाँ और मन भी पुद्गल के ही बने हुए हैं। इनसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि मैं तो चेतन द्रव्य आत्मा हूँ और ये जड़ पुद्गल हैं, अतः मैं इनका कर्ता कैसे हो सकता हूँ ?
बोलने के भावरूप राग और बोलने में निमित्त की अपेक्षा से कारण-कार्य सम्बन्ध है, अतः जगत को इनकी भिन्नता भासित नहीं होती है। इनमें भिन्नता तो विवेक की प्रास्त्र से ही दिखाई देती है और सारा जगत विवेक के बिना अंधा हो रहा है।
वे आगे लिखते हैं . . लत टीका ग्रन्थों का मात्र मैं ही कर्ता नहीं है, क्योंकि इनकी रचना तो कागजरूप पुद्गल-स्कन्धों पर स्याही के परमाणुओं के बिखरने से हुई है। मैंने तो मात्र इसे जाना है और मुझे उक्त ग्रन्थों की टीका करने का राग भी हुआ है। अतः इसकी रचना में ज्ञानांश और रागांश तो मेरा है, बाकी सब पुगल + मैं प्रातम अरू पुद्गल खंद्य, मिलक भयों परस्पर बंघ ।
सो असमान जाति पाप, उपज्यो मानुष नाम कहाय ।।३८॥ तिस पर्याय वि जो कोय, देखन-जानन हारो सोय । मैं हूं जीव-द्रव्य गुण भूप, एक अनादि अनन्त अरूप ।।४२।। कर्म उदय को कारण पाय, रागादिक हो हैं दुःखदाय ।
ते मेरे प्रौपाधिक भान, इनिकों विनर्स मैं शिवराय ।।४३।। २ वचनादिक लिखनादिवा क्रिया, वर्गादिक अरू इन्द्रिय हिया। मे सब हैं पुद्गल के खेल, इनमें नाहि हमारो मेल ||४४।।
-स० च०प्र० । रागादिक वचनादिक घना, इनके कारण कारिज' पना। तातै भिन्न न देख्मो कोय, बिनु विवेक जग अंधा होय ॥४५॥
-स.१० प्र०
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व्यक्तित्व
७३ (जड़) की परिणति है । यह शास्त्र तो एक पुद्गल का पिण्ड मात्र है, फिर भी इसमें श्रुतज्ञान निबद्ध है ।
वे विनम्र थे, पर दीन नहीं । स्वाभिमान उनमें कूट-कूट कर भरा था। विद्वानों का धनवानों के सामने झुकना उन्हें कदापि स्वीकार न था । 'सम्यग्यज्ञानचंद्रिका की पीठिका में धन के पक्षपाती को लक्ष्य करके वे कहते हैं :
"तुमने कहा कि धनवानों के निकट पंडित पाकर रहते हैं सो लोभी पंडित हो और अविवेकी धनवान हो वहाँ ऐसा होता है । शास्त्राभ्यास वालों की तो इन्द्रादिक भी सेवा करते हैं । यहाँ भी बड़े-बड़े महन्त पुरुष दास हति देख जाते है, इसलिए शास्त्राभ्यास वालों से धनवानों को महन्त म जान ।'
वे सरल स्वभाव के साधू पुरुष थे । पंडित दौलतराम कासलीवाल ने उनको मुनिवरवत वृत्ति लिखा है । वे लोकेषणा से दूर रहनेवाले लोकोत्तर महापुरुष थे। उन्होंने साहित्य का निर्माण लोक-बड़ाई और ग्राथिक लाभ के लिए नहीं किया था। यह कार्य उनकी परोपकार वृत्ति का सहज परिणाम था। मोक्षमार्ग प्रकाशक के प्रारंभ में वे स्वयं लिखते हैं :- "बहुरि इहाँ जो में यहु ग्रन्थ बनाऊं है सो कषायनि तें अपना मान बधाबनेकौं वा लोभ साधने कों वा यश होने कौं वा अपनो पद्धति राखने की नाहीं बनाऊँ हूँ ।"...." इस समय विर्षे मंदज्ञानवान जीव वहत देखिये हैं तिनिका भला होने के प्रथि धर्मबुद्धि तैं यह भाषामय ग्रन्थ वनाऊँ है।"
__ अपने विषय के अधिकारी एवं अद्वितीय विद्वान् और सबके द्वारा सम्मानित होने पर भी 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' जैसी महान टीका , "ज्ञान राग तो मेरी मिल्यो, लिखनौ करनी तनु को मिल्यो ।
कामज ममि अक्षर आकार, लिखिया अर्थ प्रकाशन हार ।। ऐसौ पुस्तक भयो महान, जातें जानें अर्थ सुजान । यद्यपि गहु पुगल को खंद, है तथापि श्रुतज्ञान निबंध ।।"
-सं० चं. प्र. २ "मुनियत वृत्ति बाकी रही, ताक माहि अचल्ल ।" -पु. भा. टी०प्र० 3 मो० भा० प्र०, २६
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पंडित टोडरमल, : व्यक्तित्व और कर्तृत्व लिखने के उपरान्त वे लिखते हैं – “विशेष ज्ञानवान पुरूषनि का प्रत्यक्ष संयोग है नाहीं, सात परोक्ष ही तिनिसो विनती करों हों कि मैं मंदबुद्धि हों, विशेष ज्ञानरहित हों, अविवेकी हों, शब्द, न्याय, गणित, धार्मिक प्रादि ग्रन्थनि का विशेष अभ्यास मेरे नाहीं है तातै शक्तिहीन हों तथापि धर्मानुराग के वशते टीका करने का विचार किया है सो या विर्षे जहां चूक होई अन्यथा अर्थ होई तहाँ-तहाँ मो ऊपरि क्षमाकरि तिस अन्यथा अर्थ को दुरिकरि यथार्थ अर्थ लिखना, ऐसी विनती करि जो चूक होइगी ताकै शुद्ध होने का उपाय कीया है।"
इसी प्रकार रहस्यपूर्ण चिट्ठी में गूढ़ और गंभीर शंकाओं का समूचित समाधान करने के उपरान्त लिखते हैं :- "पर मेरी तो इतनी बदि नाड़ीं।" तथ' मोम्मटमार टीका की प्रस्तावना में वे लिखते हैं :- "ऐसे यह टीका बनेगी ता विर्षे जहां चूक जानों तहां बुधजन संवारि शुद्ध करियो छमस्थ के ज्ञान सावर्ण हो है, तातें चूक भी परे । जैसे जाको थोरा मूझे पर वह कहीं विषम मार्ग विर्षे स्खलित होई तो बहुत सूझने वाला बाकी हास्य न करै।"
__पंडितजी द्वारा रचित मौलिक ग्रन्थों और टीकाओं में उनकी प्रतिभा के दर्शन सर्वत्र होते हैं। उनकी प्रतिभा के सम्बन्ध में उनके सम्पर्क में आने वाले समकालीन विद्वानों ने स्पप्ट उल्लेख किए हैं । ब्र० रायमल लिखते हैं - "अर टोडरमलजी के ज्ञान की महिमा अद्भुत देखी । ऐसे महन्तबुद्धि का धारक ईकाल विर्षे होना दुर्लभ है।' पंडित देवीदास गोधा ने उन्हें महाबुद्धिमान लिखा है । पंडितप्रबर जयचंदजी ने भी उनकी प्रतिभा को सराहा है |
तत्कालीन जैन समाज में जैन सिद्धान्त के कथन में उनका प्रमाणिकता प्रसिद्ध थी। विवादस्थ विषयों में उनके द्वारा प्रतिपादित
५ स. चं० पी० २ जीवन पत्रिका, परिशिष्ट १ ३ इ० मि. पत्रिका, परिशिष्ट १ ४ सिद्धान्तसार संग्रह भाषा बचनिका । सर्वार्थसिद्धि भाषा बननिका, प्रशस्ति
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व्यक्तित्व
७५
वस्तुस्वरूप प्रमाणिक माना जाता था। श्री दि० जैन बड़ा मंदिर तेरापंथयान, जयपुर में वि० संवत् १८१५ की लिखित भूधरकृत 'चरचा समाधान' ग्रन्थ की एक प्रति प्राप्त हुई है, जिसमें उनकी प्रमाणिकता के सम्बन्ध में निम्नानुसार उल्लेख है :
"यह चरचा समाधान ग्रंथ भूधरमल्लजी आगरा मध्ये बनाया । सु एक सो अड़तीस १३८ प्रश्न का उत्तर है या ग्रन्थ विषै । सु सवाई जयपुर विर्षे टोडरमल्लजी नं बाच्या । सु प्रश्न बीस-तीस का उत्तर तो ग्रामनाय मिलता है । अबसेष प्रश्न का उत्तर आमनाय मिलता नाही । सु बुधजन कुं यह ग्रन्थ बांचि ग्रर भरम नही खाना औरां मूल ग्रंथां स मिलाय लेगा। सु भूधरमल्लजी बीच टोडरमल्लजी विशेष ग्याता है । जिनींने गोमदुसारजी वा त्रिलोकसारजी वा लब्धिसारजी वा क्षिपणासारजी संपूर्ण खोल्या अर ताकी भाषा साठि हजार ६०,००० बचनका बनाई अर और भी ग्रन्थ धना देख्या । सु इहां ईका बचन प्रमान है यामै सन्देह नाहीं । ...."
अपनी विद्वत्ता और प्रामाणिकता के आधार पर वे तेरापंथियों के गुरु कहलाते थे । उनके रामकालीन प्रमुख प्रतिद्वंद्वी विद्वान पंडित बखतराम शाह तक ने उनको धर्मात्मा और तेरापंथियों का गुरु लिखा है' ।
इस प्रकार पंडित टोडरमल का जीवन चिंतन और साहित्यभावना के लिये समर्पित जीवन है । केवल अपने कठिन परिश्रम एवं प्रतिभा के बल पर ही उन्होंने अगाध विद्वत्ता प्राप्त की व उसे बांटा भी दिल खोलकर | अतः तत्कालीन धार्मिक समाज में उनकी विद्वत्ता स्व की धाक थी ।
जगत के सभी भौतिक द्वन्द्वों से दूर रहने वाले एवं निरन्तर आत्मसाधना व साहित्यसाधना रत इस महामानव को जीवन की मध्यवय में ही साम्प्रदायिक विद्वेष का शिकार होकर जीवन से हाथ धोना पड़ा ।
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गुर हथिन को धग, लोहरमल्ल नाग माहिमी
- ० वि०, १५.३
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श्री दि. जैन बड़ा मंदिर तेरा पंथियान, जयपुर में प्राप्त, विक्रम संवत् १८१५ में
लिखित, 'चर्चा समाधान' नामक हस्तलिखित ग्रंथ का अंतिम पृष्ठ
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तृतीय अध्याय
रचनाएँ और उनका वर्गीकरण रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
पद्य साहित्य
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रचनाएँ और उनका वर्गीकरण पंडित टोडरमल प्राध्यात्मिक माधक थे। उन्होंने जैन दर्शन और सिद्धान्तों का गहन अध्ययन ही नहीं किया, अपितु उसे तत्कालीन जनभाषा में लिखा भी है। इसमें उनका मुख्य उद्देश्य अपने दार्शनिक चिन्तन को जनमाधारण तक पहुंचाना था । पंडितजी ने प्राचीन जैन ग्रंथों की विस्तृत, गहन परन्तु मुबोध भाषा टीकाएँ लिखीं। इन भाषा टीकानों में कई विषयों पर बहुत ही मौलिक बिचार मिलते हैं, जो उनके स्वतंत्र चिन्तन के परिमगाम थे। बाद में इन्हीं विचारों के अाधार पर उन्होंने कतिपय मौलिक ग्रंथों की रचना भी की।
अभी तक पंडित टोडरमल की कुल ११ रचनाएं ही प्राप्त थीं। उनके नाम कालक्रम से निम्नलिखित हैं :
(१) रहस्यपूर्ण चिट्ठी (वि० सं० १८११) (२) गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषाटीका । (३) गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषाटीका
। सम्यग्ज्ञानचंद्रिका (४) अर्थसंदृष्टि अधिकार ।
(वि०सं० १८१८) (५) लब्धिसार भाषाटीका
क्षपणासार भाषाटीका (७) गोम्मटसार पूजा (वि० सं० १८१५-१८१८) (८) त्रिलोकसार भाषाटीका (वि०सं० १८१५-१८२३) (६) मोक्षमार्ग प्रकाशक [अपूर्ण] (वि० सं० १८१८-१८२३-२४) (१०) प्रात्मानुशासन भाषाटीका (वि.सं. १८१८-१८२३) (११) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय भाषाटीका [अपूर्ण]
(वि०सं० १८२१-१८२७) ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बई में प्राप्त त्रिलोकसार में एक २० पृष्ठीय 'समोस रगा रचना वर्णन' नामक रचना और प्राप्त हुई है, जो कालक्रम में त्रिलोकसार भाषाटीका के बाद आती है ।
इनमें से सात तो टीका ग्रंथ हैं और पांच मौलिक रचनाएँ हैं ।
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कत्तस्य उनकी रचनाओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है :(१) मौलिक रचनाएँ (२) व्याख्यात्मक टीकाएँ
मौलिक रचनाएं गद्य और पद्य दोनों रूपों में हैं। गद्य रचनाएँ चार शैलियों में मिलती हैं :
(क) वर्णनात्मक शैली (ख) पत्रात्मक शैली (ग) यंत्र-रचनात्मक (चार्ट) शैली (घ) विवेचनात्मक शैली
वर्णनात्मक शैली में समोसरगा आदि का सरल भाषा में सीधा वर्णन है । पंडितजी के पास जिज्ञासु लोग दूर-दूर से अपनी शंकाएँ भेजते थे, उनके समाधान में वह जो कुछ लिखते थे, वह लेखन पत्रात्मक शैली के अंतर्गत आता है । इसमें तर्क और अनुभूति का सुन्दर समन्बय है। शानी में एक बहुत बड़पूर्ण है।६ रटों का यह पत्र 'रहस्यपूर्ण बिट्टी' के नाम से प्रसिद्ध है। यंत्र-रचनात्मक शैली में चाटों द्वारा विषय को स्पष्ट किया गया है। 'अर्थसंदृष्टि अधिकार' इसी प्रकार की रचना है । विवेचनात्मक शैली में सैद्धान्तिक विषयों को प्रश्नोत्तर पद्धति में विस्तृत विवेचन करके युक्ति व उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है। 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' इस श्रेणी में आता है ।
पद्यात्मक रचनाएँ दो रूपों में उपलब्ध हैं :(क) भक्तिपरक (ख) प्रशस्तिपरक
भक्तिपरक रचनाओं में गोम्मटसार पूजा एवं ग्रंथों के आदि, मध्य और अन्त में प्राप्त फुटकर पद्यात्मक रचनाएँ हैं। ग्रंथों के अन्त में लिखी गई परिचयात्मक प्रशस्तियां प्रशस्तिपरक श्रेणी में आती हैं ।
पं० टोडरमल की व्याख्यात्मक टीकाएँ दो रूपों में पाई जाती हैं :(क) संस्कृत ग्रंथों की टीकाएँ (ख) प्राकृत ग्रंथों की टीकाएँ
संस्कृत ग्रंथों की टीकाएँ आत्मानुशासन भाषाटीका और पुरुषार्थसिद्ध युपाय भाषाटीका है। प्राकृत ग्रंथों में गोम्मदसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार-क्षपणासार और त्रिलोकसार हैं, जिनकी भाषाटीकाएँ उन्होंने लिखी हैं।
उपर्युक्त वर्गीकरण इस चार्ट द्वारा समझा जा सकता है :
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पंडित टोडरमल कृत रचनाएँ
मौलिक ग्रन्थ
टीका ग्रन्थ
गद्य
पट्टा
सस्कृन
प्राकृत
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-
भक्तिरिक
आत्मानुशासन भाषादीका वर्णनात्मक यन्त्र रचनात्मक
भक्तिरक
प्रशस्तिपरक पुरुषार्थसिद्धयुपाय भापाटीका समोमरण वर्णन अर्थगं हष्टि अधिकार
प्रशस्तियाँ
। मोम्मदसार जीवकाण्ड भगाटीका
सम्बन्जाननद्रिका ) गोम्मटमार कर्मकाण्ड भरपाटीका पत्रात्मक विवननात्मक
नधिमार. भाषाटीका गोम्मदगार पूजा फुटकर मंगलाचरण
क्षपणामार मापारीका रहस्यपूर्ण चिट्ठी मोक्षमार्ग प्रकाशक
के मद में प्लान पद
त्रिलोकमार भापाटीका
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
रहस्यपूर्ण चिट्ठी
यह पत्रशैली में लिखी गई सोलह पाठों की छोटी सी रचना है । इसमें सैद्धान्तिक प्रश्नों का तर्कसम्मत समाधान प्रस्तुत किया गया है । इम चिट्टी का महत्त्व इस बात में है कि यह दो मौ बीस वर्ष पूर्व लिखित एक ऐसी चिट्टी है, जिसमें आध्यात्मिक अनुभूति का वर्गान है । यह मोक्षमार्ग प्रकाशक के साथ तो कई बार प्रकाशित हो चुकी है', स्वतंत्र रूप से भो इसका प्रकाशन हुअा है | दोडरमल जयंती स्मारिका में भी यह अविकल रूप से छपी है । इस पर सौराष्ट्र के आध्यात्मिक संत कानजी स्वामी ने कई बार आध्यात्मिक प्रवचन दिए जो कि अध्यात्म संदेश' नाम से हिन्दी और गुजराती में प्रकाशित हो चुके हैं। ----- .... ' मोक्षमार्ग प्रकाशक के निम्नलिखित संस्करणों में प्रकाशित :(क) सस्ती ग्रंथमाला, नया मंदिर, धरमपुरा, दिल्ली के पांच संस्करणों
में - ६५०० (ख) आचार्यकल्प पंडित टोडरमल ग्नंथमाला, ए-४, बापूनगर, जयपुर-४
के प्रथम संस्करण में -- ३३०० (ग) श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, मोनगढ़ के प्रथम व द्वितीय
संस्करणों में - १८००० २ (क) दिगम्बर जैन पुस्तकालय, कापड़िया भवन, मुरत
(स्त्र) कर्तव्य प्रबोध कार्यालय, खुरई 3 टो. ज. रमा०, २६१ ४ प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमल ग्रंथमाला, ए-४ वागूनगर, जयपुर-४ ५ श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
५३
इसका नाम अधिकांश विद्वानों ने 'रहस्थपूर्ण चिट्ठी' ही माना है किन्तु कहीं-कहीं इसका नाम 'आध्यात्मिक पत्रिका' और 'आध्यात्मिक पत्र' भी मिलता है । दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत से प्रकाशित संस्करणों में थावरगा पृष्ठ पर 'रहस्यपूर्ण चिट्टी' नाम है पर भीतर मुखपृष्ठ पर रहस्यपूर्ण चिट्टी अर्थात् आध्यात्मिक पत्रिका' नाम भी मिलता है। पंडित परमानन्द ने अपने प्रकाशनों' में 'रहस्यपूर्ण चिट्टी' ही नाम दिया है । डॉ लालबहादुर शास्त्री ने इसका उल्लेख 'आध्यात्मिक पत्र' नाम से किया है परंतु उन्होंने इसकी प्रसिद्धि 'रहस्यपूर्ण चिट्टी' नाम से स्वीकार की है।
पंडित टोडरमल ने स्वयं इस रचना का कोई नामकरण नहीं किया है क्योंकि उनकी दृष्टि में यह तो एक सामान्य है, कोई कृति नहीं । परन्तु विषय की गंभीरता और शैली की प्रांता की दृष्टि से इसका महत्त्व किसी कृति से कम नहीं है । लेखक की ओर से नाम के सम्बन्ध में कोई निर्देश न होने से लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न नामों से इसे पुकारने लगे । अत्यधिक प्रसिद्धि के कारण हमने इसे 'रहस्यपूर्ण चिट्ठी' नाम से ही अभिहित किया है ।
इस रचना का प्रेरणा-स्रोत मुलतान निवासी भाई खानचंद, गंगाधर, श्रीपाल और सिद्धारथदास का वह पत्र है, जिसमें उन्होंने कुछ सैद्धान्तिक और अनुभवजन्य प्रश्नों के उत्तर जानना चाहे थे और जिसके उत्तर में यह रहस्यपूर्ण चिट्ठी लिखी गई। विट्टी के प्रारम्भ में इसकी चर्चा की गई है । मुलतान नगर के पाकिस्तान में चले जाने से वहां के जैन वन्धु देश के बंटवारे के समय मन् १६४७ ई० में जयपुर आ गए थे। वे अपने साथ कई जिन प्रतिमाएं एवं शास्त्र-भंडार भी लाए थे । उन्होंने आदर्शनगर, जयपुर में एक दि० जैन मंदिर बनाया है, उसमें रहस्यपूर्ण चिट्टी की एक बहुत प्राचीन प्रति प्राप्त है, जिसे बे मूल प्रति कहते हैं । उक्त प्रति की प्राचीनता असंदिग्ध होने पर भी उसके मूल प्रति होने के टोन व स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं होते |
" मो० मा० प्र० के अन्त में प्रकाि
२ मो० मा० प्र० मथुरा प्रस्तावना, ४३
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व
तत्त्वजिज्ञासु अध्यात्मप्रेमी मुमुक्षु भाइयों की शंकाओं का समाधान करना ही इस रचना का मूल उद्देश्य रहा है । यह रहस्यपूर्ण चिट्टी फाल्गुन कृष्णा ५ वि० सं० १८११ को लिखी गई थी, जैसा कि उसके अन्त में स्पष्ट उल्लेख है ।
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यह सम्पूर्ण रचना पत्रशैली में लिखी गई है। अतः चिट्ठी का प्रारम्भ तत्कालीन समाज में लिखे जाने वाले पत्रों की पद्धति से होता है । इसमें सामान्य शिष्टाचार के उपरान्त श्रात्मानुभव करने की प्रेरणा देते हुए आगम और अध्यात्म चर्चा से गर्भित पत्र देते रहने का आग्रह किया गया है। तदुपरान्त पूछे गये प्रश्नों का उत्तर आगम, युक्ति और उदाहरणों द्वारा दिया गया है ।
सर्वप्रथम अनुभव का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। उसके उपरान्त श्रात्मानुभव के सम्बन्ध में उठने वाले प्रत्यक्ष-परोक्ष, सविकल्पकनिविकल्पक सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर दिये गए हैं । अन्त में लिखा है कि विशेष कहाँ तक लिखें, जो बात जानते हैं, सो लिखने में आती नहीं, मिलने पर कुछ कहा जा सकता है, पर मिला सम्भव नहीं है। अतः समयसारादि ग्रध्यात्मशास्त्र व गोम्मटसारादि शास्त्रों का अध्ययन करना और स्वरूपानन्द में मग्न रहने का यत्न करना । इस प्रकार अलौकिक औपचारिकता के साथ चिट्ठी समाप्त हो जाती है। इसमें पंडित टोडरमल की प्राध्यात्मिक रुचि के दर्शन सर्वत्र होते हैं |
शैली के क्षेत्र में दो मो बीस वर्ष पूर्व का यह अभिनव प्रयोग है । शैली सहज, सरल और बोधगम्य है । विषय की प्रामाणिकता के लिए आवश्यक यागम प्रमाण', विपयों को पुष्ट करने के लिए समुचित तर्क तथा गम्भीर विषय पाठकों के गले उतारने के लिए लोकप्रचलित उदाहरण यथाप्रसंग प्रस्तुत किये गए हैं । शुभाशुभ परिणाम के काल में सम्यकत्व की उत्पत्ति सिद्ध करते हुए वे लिखते हैं:
पद्मनंदि पंचविशतिका, वृत्रयचक्र, समयसार नाटक तत्त्वार्थसूत्र, तर्कशास्त्र, अष्टसहस्त्री, गोम्मटसार, समयसार श्रात्मख्याति भादि आगम ग्रंथों के उद्धरण रहस्यपूर्ण चिट्ठी में दिये गए हैं।
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
"जैसे कोई गुमास्ता साहू के कार्यविप प्रवते है, उस कार्य को अपना भी कहै है, हर्ष-विषाद को भी पावै है, तिम कार्य विष प्रवर्तते अपनी गौर साहू की गई नौं नाहीं गिरे हैं, परन्तु अन्तरंग श्रद्धान ऐसा है कि यह मेरा कारज नाहीं । ऐमा कार्य करता गुमास्ता साहूकार है, परन्तु वह साहू के धन चुराय अपना मान तो गुमास्ता चोर हो कहिए। तैमें कर्मोदयजनित शुभाशुभ रूप कार्य को करता हुना तद्रूप परिशमै, तथापि अंतरंग ऐसा श्रद्धान है कि यह कार्य मेरा माहीं । जो शरीराश्रित व्रत संयम को भी अपना माने तो मिथ्यादृष्टि होय' ।" सम्यग्ज्ञानचंद्रिका
'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' पंडित टोडरमल के गम्भीर अध्ययन का परिणाम है। यह ३४०६ पृष्ठों का एक महान् ग्रंथ है जिसमें करणानुयोग के गम्भीर ग्रंथों को सरल, सुबोध एवं देशभाषा में समझाने का सफल प्रयत्न किया गया है । इसमें गणित के माध्यम से विषय स्पष्ट किया गया है। विषय को स्पष्ट करने के लिए यथास्थान सैकड़ों चार्ट्स जोड़े गए हैं तथा एक 'अर्थसहष्टि अधिकार' नाम से अलग अधिकार लिखा गया है। इसमें उनका अगाध पाण्डित्य और अद्भुत कार्यक्षमता प्रगट हुई है। यह टीकाग्रंथ अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। उस समय सारे भारतवर्ष में चलने वाली प्रसिद्ध 'सैलियों' में इसका स्वाध्याय होता था। आज भी बिद्वद् समाज में इसका पूर्ण समादर है। इसकी महिमा के सम्बन्ध में ब्र० रायमल ने लिखा है :___ ताका नाम राम्यज्ञानचंद्रका है। ताकी महिमां वचन अगोचर है, जो कोई जिनधर्म की महिमा पर केवलग्यान को महिमां जाणी चाहाँ ती या सिद्धांत का अनूभवन करी । घगी कहिबा ऋरि कहा।
यह महाग्रंथ जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित हो चुका है । इसके आधार पर बनाई गई संक्षिप्त टीकाएँ भी । मो० मा प्र०, ५०५ देखिए प्ररतुल संध, पृ० ५२
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व र कर्तृत्व
प्रकाशित हो चुकी हैं। इसकी पीठिका का पूर्वार्द्ध अलग पंडित भागचंद छाजेड़ के 'सत्तास्वरूप के साथ भी प्रकाशित हो चुका है' ।
गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार श्रौर क्षपणासार की भाषाटीकाएँ पंडित टोडरमल ने अलग-अलग बनाई थीं, किन्तु उक्त चारों टीकाओं को परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित एवं परस्पर एक का अध्ययन दूसरे के अध्ययन में सहायक जान कर उक्त चारों टीकाओं को मिलाकर उन्होंने एक कर दिया तथा उसका नाम 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' रख दिया। इसका उल्लेख उन्होंने प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से किया है तथा पीठिका में उक्त नारों ग्रंथों की टीका मिला कर एक कर देने के सम्बन्ध में उन्होंने सयुक्ति समर्थ कार प्रस्तुत किए हैं।
इन चारों ग्रंथों की भाषाठीकायों का एक नाम 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' रख दिए जाने के अनन्तर भी इनके नाम पृथक्-पृथक् – गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषाटीका, गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषाटीका एवं लब्धिसार-क्षपरणासार भापाटीका भी चलते रहे । कारण कि इतने विशाल ग्रंथ न तो एक साथ छापे ही गए एवं न ही हस्तलिखित प्रतियों में एक साथ लिखे गए और न शास्त्र-भंडारों में रखे गए, तथा मूल ग्रंथों के नाम अपने आप में अधिक लोकप्रिय होने से उन्हें लोग उन्हीं नामों के आगे 'भाषादीका' शब्द लगा कर ही प्रयोग में लाते रहे । श्रतः 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' वास्तविक नाम होने पर भी प्रयोग में कम आया ।
१ प्रकाशक : श्री दि० जैन मुमुक्षु मण्डल, सनावद ( म०प्र०)
' या विधि गोम्मटसार लब्बिसार ग्रन्थनि को, भित्र-भित भापाटीका कीनी अर्थ गायकं । भूमिक परस्पर सहाय देयो, जानें एक करि दई हम चिनकी मिलाइकें ॥ सम्यग्ज्ञान चद्रिका पर्यो है याको नाम, सोई होत है सफन ज्ञानानन्द जाजायकें 1 कलिकाल रजनी में अर्थ को प्रकाश करें, यात निजकाज की इष्ट भाव भायक ||३०||
3 ० चं० पी०, ५०
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रचनात्रों का परिचयात्मक अनुशीलन
७ पंडित टोडरमल ने पूर्ण सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की पीठिका एक साथ लिखी और वह स्वभावतः प्रथम ग्रंथ गोम्मटमार जीवकाण्ड भाषाटीका के आरम्भ में लिखी व छापी गईं, अतः लोग उसे 'गोम्मटसार भाषाटीका पीठिका' ही कहते रहे । इसी प्रकार लब्धिसार भापाटीका के साथ ही क्षपणासार भाषाटीका लिखी गई, जिसे उन्होंने स्वयं 'क्षपणासार गभित लब्धिसार भाषाटीका' कहा, वे छपी भी इसी रूप में, अतः वे अकेले 'लब्धिसार भाषाटीका' नाम से चल पड़ीं । लब्धिसारक्षपणासार भाषाटीका, सम्यग्ज्ञानचंद्रिका का अंतिम भाग था, अतः ग्रंथ की अंतिम ६३ छन्दों वाली प्रशस्ति सहज ही उसके अंत में लिखी गई। अतः उक्त प्रशस्ति को 'लधिसार भापाटीका प्रशस्ति' भी कहा व लिखा जाता रहा।
ऐसी स्थिति में हम उक्त पीठिका व सर्वात की वृहद् प्रशस्ति को सम्यग्ज्ञानचंद्रिका पीठिका व प्रशस्ति कहना सही मानते हैं तथा हमने उक्त पीठिका व प्रशस्ति का प्रयोग इसी नाम से किया है। किन्तु पंडितजी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसारक्षपणासार की भापाटोकानों की छोटी-छोटी प्रशस्तियाँ भी लिखी हैं, जिन्हें हमने गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषाटीका प्रशस्ति प्रादि कहना उपयुक्त समझा है तथा संदर्भो में भी पृष्ठ संख्या देन की सुविधा को ध्यान में रखते हुए गोम्मटसार भाषाटीका आदि नामों का ही यथास्थान प्रयोग किया है । सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की प्रादि से अंत तक लगातार पृष्ठ संख्या न होने से ऐसा करना आवश्यक हो गया।
गोम्मटसार जैन समाज का एक बहुत ही सप्रसिद्ध सिद्धान्त-ग्रंथ है जो जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड नाम के दो बड़े भागों में विभक्त है । वे भाग एक प्रकार से अलग-अलग ग्रंथ समझे जाते हैं, वे अलग-अलग मुद्रित भी हुए हैं। जीवकाण्ड की अधिकार संख्या २२ और गाथा संख्या ७३३ है और कर्मकाण्ड की अधिकार संख्या ६ एवं गाथा संख्या ६७२ है । इस समूने ग्रंथ का दूसरा नाम 'पंचसंग्रह भी है',
१ पु जै० वा सू० प्रस्तावना, ६८
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व क्योंकि इसमें निम्नलिखित पांच बातों का वर्णन है :
१. बंध २. बध्यमान, ३. बंधस्वामी, ४. बंधहेत,
५. बंधभेद । सम्यग्ज्ञानचंद्रिका प्रशस्ति में पंडित टोडरमल ने दोनों नामों का उल्लेख इस प्रकार किया है :
"बंधकादि संग्रह से नाम पंचसंग्रह है,
अथवा गोम्मटसार नाम को प्रकाश है।" इसके आगे का भाग लब्धिसार-क्षपणासार है, उसकी गाथा संख्या ६५३ है।
इन ग्रंथों का निर्माण राजा चामुण्डराय की प्रेरणा से उनके पठनार्थ हुन्ना था। वे गंगवंशी राजा राजमल्ल के प्रधान मंत्री एवं मेनापति थे। उन्होंने श्रवणबेलगोला में बाहलि की सुप्रसिद्ध विशाल और अनुपम मूर्ति का निर्माण कराया था। चामुण्डराय का दूसरा नाम गोम्मटराय भीथा, अतः इस ग्रंथ का नाम गोम्मटसार पड़ा। यह महाग्रंथ जैन परीक्षाबोड़ों के पाठ्यक्रम में निर्धारित है और समस्त जैन महाविद्यालयों में नियमित रूप से पढ़ाया जाता है ।
इस गोम्मटसार ग्रंथ पर मुख्यत: चार टीकाएँ उपलब्ध हैं। एक है-- अभयचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका 'मंदप्रबोधिना' जो जीवकाण्ड की गाथा ३८३ तक ही पाई जाती है । दूसरी केशब बरगी की संस्कृत मिश्रित कन्नड़ी टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' है जो सम्पूर्ण गोम्मटसार पर विस्तृत टीका है और जिसमें 'मंदप्रबोधिका' का पूरा अनुसरण क्रिया गया है। तीसरी है -- नेमिचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' जो पिछली दोनों टीकात्रों का पूरा-पूग अनुसरण करती हुई सम्पूर्ण गोम्मटसार पर यथेष्ट विस्तार के साथ लिखी गई है,
और चौथी है पंडित टोडरमल को हिन्दी टीका सम्यग्ज्ञानत्रंद्रिका' जिस में संस्कृत टीका के विषय को खूब स्पष्ट किया है और जिसके
पु० जं वा० सू० प्रस्तावना, ६६
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन अाधार पर हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठी के अनुवादों का निर्माण हुया है।
कन्नड़ी और संस्कृत टीकाओं का एक ही नाम (जीवतत्त्वप्रदीपिका) होने, मूलग्रंथकर्ता तथा संस्कृत टीकाकार का भी एक ही नाम (नेमिचंद्र) होने, कर्मकाण्ड की गाथा नं. ६७२ के अस्पष्ट उल्लेख पर से चामुण्डराय को कन्नड़ी टीका का कर्ता समझे जाने और संस्कृत टीका के 'धित्वाकर्णाटकी वृत्ति' पद्य को द्वितीय चरण में 'वरिणश्रीकेशवैः कृतां' की जगह कुछ प्रतियों में 'बरिणश्री केशवः कृति' पाठ उपलब्ध होने आदि कारणों से पिछले अनेक विद्वानों को, जिनमें पंडित दोइरमल भी शामिल हैं, संस्कृत टीका के वार्ता के विषय में भ्रम रहा है और उसके फलस्वरूप उन्होंने उसका कर्ता केशव वर्णी लिख दिया है। इस फैले भ्रम को डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने तीनों टीकानों और गद्य-पद्यात्मक प्रशस्तियों की तुलना द्वारा 'अनकान्त' में प्रकाशित एक लेख में स्पष्ट किया है।
पंडित टोडरमल मे सम्यग्ज्ञानचंद्रिका, जीवतत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका के आधार पर बनाई है। इस बात का स्पष्ट उल्लेख उन्होंने पीठिका में किया है । जीवतत्वप्रदीपिका, गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड पर पूरी है, पर लब्धिसार-क्षपणासार पर गाथा नं० १९१ के प्रागे नहीं है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य माधवचंद्र ऋविद्य के द्वारा रचित एक संस्कृत 'क्षपणासार'
१ हिन्दी अनुवाद जीवकाण्ड पर पंडित ग्वबचंद का, कर्मकाण्ड पर पक्षित
मनोहरलाल का; अंग्रेजी अनुवाद जौवकाण्ड पर मिस्टर जे. एल. जनी का, कर्मकाण्ड पर न. शीतलप्रसार तथा बाबू अजितप्रसाद का, और मराठी अनुवाद गांधी नेमचंद धानचंद का है। लब्धिसार-क्षगरपातार पर भी
पं० मनोहरलाल का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुमा है । २ पु० ज० बा० सू०, प्रस्तावना, ८८-८९ 3 वही, ६ ४ अनेकान्त वर्ष ४, फिरण १, पृ० ११३-१२० ५ स. चं० पी०, ५
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परित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व नामक ग्रंथ है । लब्धिसार-क्षपणासार की आगे की टोका पंडित टोडरमल ने उसके आधार पर बनाई है, जिसका उल्लेख उन्होंने लब्धिसार टीका के प्रारम्भ में तथा सम्यग्ज्ञानचंद्रिका प्रशस्ति में किया है।
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका यद्यपि जीवतत्त्वप्रदीपिका का अनुसरण करती है तथापि उससे पूरी तरह बंधी हुई नहीं है। जहाँ कहीं चंद्रिकाकार को इष्ट हुग्रा और उन्होंने आवश्यक समझा. वहाँ विषय विस्तृत किया है । सहज बोधगम्य विषय को संकुचित भी किया है तथा
आवश्यक समझा तो अन्य ग्रंथों के अाधार पर विषय का विश्लेषण भी किया है । वे मात्र अनुवादक नहीं हैं, वरन् व्याख्याकार हैं । पंडितजी ने अपनी स्थिति को पीठिका में स्पष्ट कर दिया है।
पं० टोडरमल को सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की रचना की प्रेरणा ब्र रायमल से प्राप्त हुई । उन्होंने स्वयं लिखा है :
"रायमल्ल साधर्मी एक, धरःम सधैया सहित विवेक ।
सौ नाना विधि प्रेरक भयो, तब यह उत्तम कारज थयो' ।।" ब्र० रायमल ने उन्हें मात्र प्रेरणा ही नहीं दी वरन् पुर्ण सहयोग दिया। जब तक उक्त टीका का निर्माण कार्य चलता रहा तब तक वे पंडितजी के साथ ही रहे । पंडित टोडरमल का स्वयं का विचार भी टीका लिखने का था पर अ० रायमल की प्रेरणा से यह महान् कार्य द्रुतगति से हया और अल्पकाल में ही सम्पन्न हो गया। उक्त संदर्भ में अ० रायमल अपनी जीवन पत्रिका में लिखते हैं :
पीछे उनसं हम कही तुम्हारे यां ग्रंथांका पर निर्मल भया है, तुम करि याकी भाषाटीका होय तो घरां जीवां का कल्याण होइ.........."तात तुम या ग्रंथ की टीका करने का उपाय शीघ्र करो,
१ "बहरि जो यह सम्बन्जानचंद्रिका नामा भापाटीका करिए है तिहिं वि संस्कृत टीका तं कहीं अर्थ प्रगट करने के अथि वा कहीं प्रसंगरूप वा कहीं अन्य ग्रंथ अनुसारि लेई अधिवा भी कथन करियना । हार कहीं अर्थ स्पष्ट न प्रतिभासेगा तो न्युन कपन होइगा ऐसा जानना ।" . रा. चं० पी०, १५ २ स० ० प्र०
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रखनानों का परिचयात्मक अनुशीलन अायु का भरोसा है नांहीं । ... पूर्व भी याकी टोका करने का इनका मनोर्थ था ही, पीछे हमारं कहने करि वियप मनोर्थ भया, तव शुभ दिन मुहूर्त विष टीका करने का प्रारम्भ सिंधारणां नन विर्ष भया, सो चै तो टीका वणवते गए हम वांचते गए।"
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की रचना का उद्देश्य स्वपर-हित ही रहा है । स्वहित का प्राशय उपयोग की पवित्रता एवं ज्ञानवृद्धि से है । सामान्य जिज्ञासू जनों को तत्त्वज्ञान की प्राप्ति सहज एवं सरलता से हो सके, यह परहित का भाव है। सम्मान, यश, धनादि की प्राप्ति का कोई योजल इतकी चना भी नहीं था। मुल ग्रंथ तो प्राकृत भाषा में हैं और उनकी प्राचीन टीका संस्कृत और कन्नड़ में हैं । जिन लोगों को संस्कृत, प्राकृत और कन्नड़ का ज्ञान नहीं है, उनके हित को लक्ष्य में रख कर इस टीका की रचना हुई है। इस बात को सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की पीठिका एवं प्रशस्ति में पंडित टोडरमल ने स्पष्ट किया है 1
सम्यग्ज्ञान चंद्रिका माघ शुक्ला पंचमी. वि० सं० १८१८ में बनकर तैयार हुई थी, जैसा कि प्रशस्ति में लिखा है :
"संवत्सर अप्टादश युक्त, अष्टादश शत लौकिक युक्त।
माघ शुक्ल पंचमि दिन होत, भयो ग्रंथ पूरन उद्योत ।।" किन्तु अन्य उल्लेख ऐसे भी प्राप्त हुए हैं कि यह टीका वि० सं० १८१५ में बन चुकी थी । दि० जैन बड़ा मंदिर तेरापंथियान, जयपुर में प्राप्त भूधरदास के 'चर्चा समाधान' नामक हस्तलिखित ग्रन्थ पर
आसोज कृष्णा ५ वि० सं० १२१५ का लिखित एक उल्लेख प्राप्त हुआ है, जिसमें लिखा है कि पंडित टोडरमल ने गोम्मटसार आदि ग्रन्थों की साठ हजार श्लोक प्रमाण टीका बनाई है। इससे प्रतीत
१ परिशिष्ट १ २ स. चं० पी०,३
स. चं० प्र०, छन्द १६-२००२१ ४ देखिए प्रस्तुत ग्रंथ, ७६
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पंडित टोडरमल ; व्यक्तित्व और कर्तृस्य होता है कि सम्यग्ज्ञानचंद्रिका अपने मूल रूप में तो विक्रम संवत् १८१५ में तैयार हो चुकी थी, शेष तीन वर्ष लो उसके संशोधनादि कार्य में लगे । ब्र० रायमल के कथनानुसार तीन वर्ष उसके निर्माण में भी लगे थे, अतः उसका निर्माण कार्य का प्रारम्भ वि० सं० १५१२ में हो गया होगा, किन्तु वह पूर्ण रूप से संशोधित होकर माघ शुक्ला पंचमी, वि० सं० १८१८ को ही तैयार हुई है ।
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की रचना तो सिंघारगा में हो चुकी थी, पर इसका संशोधनादि कार्य जयपुर में ही हुआ । व० रायमल ने इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख किया है 'तव शुभ दिन मुहूर्त घिर्ष टीका करने का प्रारम्भ सिंघारणां नग्र विषे भया, सोवै तो टीका वणावते गए हम वांचते गए । ............."पीछे सवाई जैपुर आए। तहां गोमटसारादि च्यारौं ग्रन्धा के सोधि याकी बहोत प्रति उतराई। जहां सैली छी तहां सुधाइ सुधाइ पधराई । अस यां ग्रंथां का अवतार भया ।"
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका का परिमागग ब्र० रायमन ने इक्यावन हजार श्लोक प्रमाण लिखा है, जिसमें गोमटमार जीबकाण्ड और गोम्मटसार कर्मकाण्ड की भाषार्टीका अड़तीस हजार एलोक प्रमाण एवं लब्धिसार:-क्षपणासार. की भाषाटीका तेरह हजार श्लोक प्रमाण हैं। इस परिमारग में 'अर्थसंदृष्टि अधिकार' की संदृष्टियाँ नहीं पाती हैं, वे अलग हैं । टोकानों के बीच-बीच में पाई अंकसंदृष्टियों भी इसमें नहीं आती हैं, वे भी पृथक हैं । इकहत्तर पृष्ठ की पीठिका भी अलग है। संदृष्टियाँ पीटिका आदि सब मिला कर शास्त्राकार तीनहजार चारसौनी पृष्ठों में यह टीका प्रकाशित हुई है।
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१ सिंघाणा नगर जयपुर से पश्चिम में करीव १५० कि० मी० दुर वर्तमान
खेतड़ी प्रोजेक्ट के पास है। २ जीवन पत्रिका, परिशिष्ट ? . एक लोक बसीम अशरों का माना जाता है। * जीवन पत्रिका, परिशिष्ट १
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६३
रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
___ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका के प्रारम्भ में पीठिका है, जिसमें वयं-विषय का पूरा परिचय दिया गया है। पीठिका के प्रारम्भ में ग्रंथ-रचना का प्रयोजन और उपयोगिता. टीकाकार की अपनी स्थिति और मर्यादा, टीका की प्रामाग्गिकता आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। सम्पूर्ण भापाटीका में प्रयुक्त गगिन की मागान्य जानकारी भी पीठिका में प्रस्तुत की गई है।
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की प्रशस्ति में, जो कि लब्धिमार भापाटीका के अन्त में दी गई है, वर्ण्य-विषय का परिचय संक्षेप में इस प्रकार दिया गया है :
करि पोठबंध जीवकाण्ड भाषा कोनी,
ताम गुगास्थान आदि दोयबीस अधिकार है। प्रकृतिसमुत्कीर्तन आदि नवग्रंथान को, - समुदाय कर्मकापड़ ताकी भाषा मार है । ऐसे अनुक्रम मेनी पीछे लीम्यो इनही की,
गंदृष्टिानि को स्वरूप जहां अर्थ भार है। पूरन गोम्मटसार भाषा टीका भई,
याको अवगाहै भव्य पावै भव पार है ।।२८।। समकित उपशम क्षायिक को है बग्वान,
पीछे देण-मकान चरित्र को यवान है । उपशम आपक ए श्रेणी दोए तिनहूं को,
कोयौ है बखान ताको जाने गुणवान है। सयोग अयोगी जिन सिद्धन को वर्णन कर,
लब्धिमार ग्रंथ भयो पूरन प्रमान हैं। इसकी संदृष्टि को लिग्नि के स्वरूप,
ताकी संपूरन भाषा टीका भायो ज्ञान है ।।२६।।
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पंडित टोडरमल व्यक्तित्व र कर्तृत्व
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका को हम निम्नलिखित चार महाअधिकारों में विभक्त पाते हैं :
:
६४
(१) गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषाटीका महाअधिकार (२) गोम्मटसार कर्मकाण्ड भापाटीका महाअधिकार (३) अर्थसंदृष्टि महाअधिकार
(४) लब्धिसार-क्षपणासार भाषाटीका महाग्रधिकार
सर्वप्रथम गोम्मटसार ग्रंथ की टीका की गई है । गोम्मटसार ग्रंथ में दो महाअधिकार हैं - ( १ ) जीवकाण्ड और ( २ ) कर्मकाण्ड | जीवकाण्ड के अन्तर्गत निम्नलिखित बाईस अधिकार हैं, जिनमें प्रत्येक में अपने-अपने नामानुसार विषयों का विस्तृत वर्णन है :
—
( १ ) गुणस्थान अधिकार
( २ ) जीवसमास अधिकार
( ३ ) पर्याप्त अधिकार
( ४ ) प्राण अधिकार
( ५ ) संज्ञा अधिकार
( ६ ) गतिमार्गरणा अधिकार ( ७ ) इन्द्रियमार्गणा अधिकार (८) काय मार्गणा अधिकार ( 2 ) योगमार्गरणा अधिकार (१०) वेदमार्गणा अधिकार (११) कषायमार्गणा अधिकार (१२) ज्ञानमार्गणा अधिकार (१३) संयममार्गणा अधिकार (१४) दर्शनमार्गणा अधिकार (१५) लेण्यामार्गणा अधिकार (१६) भव्यमार्गणा अधिकार ( १७ ) सम्यक्त्वमार्गणा अधिकार
I
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
(१८) संज्ञा मार्गा अधिकार (१६) आहारमार्गणा अधिकार ( २० ) उपयोग अधिकार
(२१) श्रोधादेणयोगप्ररूपणा प्ररूपण अधिकार (२२) यालाप अधिकार
कर्मकाण्ड महाअधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित नौ अधिकार हैं, इनमें भी अपने-अपने नामानुसार त्रिषयों का बहुत विस्तार में वर्णन है :
( १ ) प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकार
( २ ) बन्धोदयसत्व श्रधिकार
(३)
( ४ ) त्रिचूलिका अधिकार (५) स्थानसमुत्कीर्तन अधिकार (६) प्रत्यय अधिकार
( 3 ) भावचूलिका अधिकार
(८) त्रिकरणचूलिका अधिकार
(a) कर्मस्थितिरचना अधिकार
६५.
विशेष सत्तारूपसत्वस्थान अधिकार
इस कर्मकाण्ड महाअधिकार में आठ प्रकार के कर्म, उनकी एक सी प्रड़तालीस प्रकृतियाँ, कर्मबन्ध की प्रक्रिया बन्ध के भेद, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेश का विस्तार से वर्णन किया गया है । कर्मों के बन्ध, उदय, सत्व अबन्ध, अनुदय, असत्व बन्ध व्युच्छत्ति, उदय व्युच्छत्ति एवं सत्व व्यच्छत्ति आदि का अनेक प्रकार से विस्तृत वर्णन है ।
गोम्मटसार जीवकाण्ड कर्मकाण्ड के अन्त में इन्हीं के परिशिष्ट रूप में अर्थसंदृष्टि महाअधिकार है जिसमें रेखाचित्रों (चा) के के द्वारा गोम्मटसार जीवकाण्ड और गोम्मटसार कर्मकाण्ड में लाए गूढ़ विषयों को स्पष्ट किया गया है ।
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व लब्धिसार-क्षपरगसार महाअधिकार के भी दो विभाग हैं :(१) लब्धिसार भापाटीका अधिकार (२) क्षपणासार भाषाटीका अधिकार
लब्धिसार भाषाटीका अधिकार में सम्यक्त्व का और क्षपणागार भाषाठीका अधिकार में चारित्र सम्बन्धी विशेष वर्णन है ।
लब्धिसार भाषाटीका अधिकार में दर्शन-मोह के उपशम व क्षपण तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्तिकाल में होने वाली पांच लब्धियों (क्षयोपशमलब्धि, देशनालब्धि, विद्धिलब्धि, प्रायोग्यलब्धि, करणालब्धि) का विस्तार से वर्णन है। विशेषकर करणलब्धि के भेद अधःकरण, अगुपकरण, अनवृत्तिकरण का वर्णन करते हुए अनेक चार्टो द्वारा परिणामों (भावों) के तारतम्य का विस्तृत वर्णन है । सम्यग्दर्शन के भेद -- उपशम सम्यग्दर्शन, क्षयोपशम सम्यग्दर्शन : और क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा इनके भी अंतर्गत प्रभेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है ।
इसी प्रकार क्षपणासार भापाटीका अधिकार में चारित्र-मोह के उपशम व क्षरण का विस्तृत विवेचन है; तथा देशचारित्र ब सकलचारित्र, उपशमधेगगी व क्षारकथेरगी, मयोग केवली व अयोग केवली अादि का भी वर्णन है । अंगीकाल में होने वाले अधःकरण. अपूर्वकरण और अनित्ति करगा परिणामों के तारतम्य को बहुत बारीकी से गांगत द्वारा समझाया गया है । अन्त में लब्धिसार और क्षपणामार के विषय को मंदृष्टियों द्वारा स्पास्ट किया गया है ।
बसे तो प्रत्येक महाधिकार के अन्त में उपसंहारात्मक छोटीछोटी प्रशस्तियों दी गई हैं किन्तु सर्वान्त में सट छन्दों की विस्तृत . प्रशस्ति दी गई है, जिसमें ग्रंथ सम्बन्धी चर्चा ही अधिक की गई है, लेखक के सम्बन्ध में बहुत कम लिखा गया है। जो कुछ लिया गया है वह आध्यात्मिक दृष्टिकोण से लिखा गया है। उसमें उनके आध्यात्मिक जीवन की झलक तो मिल जाती है किन्तु भौतिक जीवन की जानकारी न के बराबर प्राप्त होती है।
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रचमानों का परिचयात्मक अनुशीलन
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका विवेचनात्मक गद्यशैली में लिखो गई है। प्रारंभ में इकहत्तर पाट की पीटिका है । अाज नबीन शैली में मंगादित ग्रंथों में प्रस्तावना ना बड़ा महत्त्व माना जाना है। गली के क्षेत्र में दो सौ बीस वर्ष पूर्व निम्मी गई सम्यग्ज्ञानद्रिका पीटिका अनिव. भूमिका का प्राभिक रूप है। सम्यग्जान चंद्रिका की पीठिया. भूमिका का आद्म रूप होने पर भी इसमें प्रौड़ता पाई जाती है। हल्कापन कहीं भी देखने को नहीं मिलता। इसके पढ़ने में ग्रंथ ना पूरा हार्द स्नुल जाता है एवं इस गढ़ ग्रंथ के पढ़ने में आने वाली पाठक की समस्त काटेनाइयां दूर हो जाती है । हिन्दी आत्मकथा-साहित्य में जो महत्त्व महाकवि बनारसीदास के 'पाईकथानक को प्राप्त है, वही महत्त्व हिन्दी भूमिका-साहित्य में 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' की पीटिका का है।
विषय को गरिगत के माध्यम से समझाया गया है । विषय को स्पष्ट करने के लिए संप्टियों के चार्टस नैयार किये गए हैं। संदृष्टियों का प्रयोग यथास्थान तो किया ही गया है, मात्र में एक मंप्टि अधिकार अलग से भी निरखा गया है ।
गोम्मटसार पूजा ___'गोम्मटसार पूजा' ६० टोडरमल की एक मात्र प्राप्त पद्यकृति है। इसमें उन्होंने गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड व लब्धिसार और क्षपरणासार नामक महान मिद्धान्त-ग्रंथों के प्रति अपनी भक्ति-भावना व्यक्त की है । यह ५७ छन्दों की छोटी मी कृति है, जिसमें ४५ छन्द संस्कृत भाषा में एवं १२ छन्द हिन्दी भाषा में हैं। इस में पूजा के अष्टक और प्रत्येक पूजा के अर्घ' मम्बन्धी छन्द सम्वन भाषा में लिख गए हैं तथा जयमाल हिन्दी भाषा में है ।
यह कृति प्रकाशित हो चुकी है। पंडित कमलकुमार शास्त्री व फूलचंद 'पुष्पेन्दु' खुरई ने इसके संस्कृत छन्दों का हिन्दी भाषा में
१ जलादि अष्ट द्रव्य के समुदाय को अर्थ कहा जाता है । २ भारतीय जैन सिद्धान्त प्रवाशिनी संस्था, श्याम बाजार, कलकत्ता
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__पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व पद्यानुवाद भी किया है । वह भी मन के साथ प्रकाशित हो चुका है । इसकी प्राचीन इस्तलिखित प्रतिलिपियाँ भी प्राप्त है ।।
यद्यपि इसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड के अतिरिक्त लब्धिसार और क्षपरणासार की भी स्तुति है, उन्हें भी अर्घ दिए गए हैं और गोम्मटमार के मूलस्रोत घबन्न, जयध बन गवं महाधवल की भी चर्चा है, कुन्दकुन्दाचार्य देव को भी याद किया गया है. तथापि मुख्य रूप से गोम्मटशार पर लक्ष्य रहा है। अतः इसका नाम 'गोम्मटसार पूजा' ही उपयुक्त है। यह नाम लेखक को भी इष्ट है एवं समाज में प्रचलित भी यहीं है।
सम्यम्ज्ञानचन्द्रिका में पंडित टोडरमल ने जिन महान ग्रंथों की भाषाटीका लिखी हैं, उन्हीं के प्रति अन्तर में उठी भक्ति-भावना ही इस रचना की प्रेरक रही है तथा उनके प्रति भक्तिभाव प्रकट करना ही इसका उद्देश्य रहा है। ऐसा लगता है कि इसकी रचना मम्यग्ज्ञानचंद्रिका की रचना के उपरान्त हुई होगी। जन सम्यग्ज्ञानचंद्रिका समाप्त हुई तो पंदित टोडरमल को बहुत प्रसन्नता हुई थी, जिसका उल्लेन उन्होंने म्बयं किया है । उत्त, प्रसन्नता के उपलक्ष्य में उन ग्रंथों की पूजा का उत्सव किया गया होगा और उस निमित्त इस पूजा का निर्माण हुआ लगता है। सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की समाप्ति माघ शुक्ला ५ वि मं० १८१८ को हुई है, अत: उसी समय इसका रचनाकाल माना जा सकता है । यदि और पले की इस रचना को माने तो वि० सं० १८१५ तक पहुंचा जा सकता है क्योंकि तब तक सम्यग्ज्ञानचंद्रिका तैयार हो चुकी थी। पूजा की जय माल में इस टीका के लिये जाने का रपष्ट उल्लेख है।किल्लु साथ ही राजा जयसिंह के नाग का भी उल्लेख है जिसरो संशय उम्पन्न होता है कि
१ श्री कुन्थुसागर स्वाध्याय सदन, रई २ "प्रारंभी प्रणा गयौ, शास्त्र सुखद प्रासाद । प्रब भये हम कृतकृत्य दर, पायो अति आमाद ।।"
... T० ० प्र० । गोम्मटसार पूजा, १२
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
यदि जयसिंह के राज्यकाल में इसकी रचना हुई मानें तो फिर विक्रम संवत् १५०० के पूर्व की रचना मानना होगा क्योंकि राजा जयसिंह का राज्यकाल विक्रम संवत् १८०० तक ही रहा है और उसके पूर्व सम्यग्ज्ञानचंद्रिका का निर्माण मानना होगा, जब कि 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका प्रशस्ति' में विक्रम संवत् १८१८ में बनने का स्पष्ट उल्लेख है । बारीकी से अध्ययन करने पर यह संशय उत्पन्न होता है कि क्या पूजा की जयमाल पंडित टोडरमल की ही बनाई हुई है ? शंका के कारण निम्नानुसार हैं :
EE
( क ) पूर्ण पूजा संस्कृत में है, फिर जयमाल हिन्दी में क्यों ? पूजा के समान जयमाल भी संस्कृत में होनी चाहिए थी ।
(ख) “भाषा रचि टोडरमल शुद्ध, सुनि रायमल्ल जैनी विशुद्ध" क्या यह पंक्ति स्वयं पंडित टोडरमल लिख सकते थे, जिसमें स्वयं रचित भापाटीका को शुद्ध कहा गया हो, जब कि उन्होंने अपनी अन्य कृतियों में सर्वत्र लघुता प्रगट की है ?
(ग) राजा जयसिंह के राज्यकाल में न लिखी जाकर भी क्या पंडित टोडरमल द्वारा जयसिंह के नाम का उल्लेख किया जा सकता था ?
ऐसा लगता है या तो पंडित टोडरमल ने इसकी जयमाल लिखी हो न हो या फिर खो गई हो और बाद में किसी धर्मप्रेमी बंधु ने पूजा में जयमाल का प्रभाव देख कर स्वयं बना दी हो, और उसमें उक्त दोषों का ध्यान न रखा जा सका हो । जयमाल की रचना भी उनके स्तर के अनुरूप नहीं लगती ।
इसका रचनाकाल सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की रचना के उपरान्त ही माना जा सकता है । इसकी रचना जयपुर में ही हुई है क्योंकि सम्यग्ज्ञानचंद्रिका का अंतिम निर्मारण जयपुर में ही हुआ था ।
1 राजस्थान का इतिहास, ६३७
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व र कर्तृत्व
यह एक पूजा है, यतः इसमें वर्ण्य विषय को मुख्यता नहीं है । सर्वप्रथम स्थापना का बन्द है, जिसमें गोम्मटसार की भक्तिपूर्वक हृदय में स्थापना की गई है । तदुपरान्त जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अर्ध से अर्चा की गई है । उसके बाद गोम्मटसार जीवकाण्ड के प्रत्येक अधिकार में वरिणत विषय का संकेत देते हुए प्रत्येक अधिकार को अर्घ समर्पित किये गए हैं। तदनन्तर गोम्मटसार कर्मकाण्डगत प्रत्येक अधिकार को भी इसी प्रकार व समर्पित हैं । उक्त अर्थों के अन्त में एक अर्ध लब्धिसार-क्षपणासार को दिया गया है ।
१००
इसके बाद जयमाल प्रारंभ होती है। जयमाल में पंचपरमेष्ठी, चवीस तीर्थंकर व गणधर देव को नमस्कार करके गोम्मटसार शास्त्र में afa far का संक्षिप्त एवं संकेतात्मक वर्णन है। उसके बाद आदि शास्त्रकर्त्ता आचार्य कुन्दकुन्द एवं धवलादि शास्त्रों के सार को लेकर गोम्मटसार बनाने वाले आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती को स्मरण कर पंडित टोडरमल द्वारा भाषाटीका बनाने की चर्चा है |
जैनियों की पूजन - प्रणाली की एक निश्चित पद्धति है, उसी में इस पूजा की भी रचना हुई है । प्रारम्भ में स्थापना, उसके बाद जलादि अष्टद्रव्यों से पूजन, उसके बाद आवश्यक अर्ध और अन्त में जयमाल होती है, जिसमें पूज्य के गुरणों का स्तवन होता है । इस पूजन में इसी परम्परागत शैली का अनुकरण है ।
त्रिलोकसार भाषाटीका
'त्रिलोकसार' आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा रचित ग्रंथ है। इसमें तीनों लोकों (उद्ध, मध्य अध: ) का विस्तृत वर्णन है । इस ग्रंथ पर पंडित टोडरमल ने सरल, सुबोध भाषा में भाषाटीका लिखी है, जो हिन्दी साहित्य प्रसारक कार्यालय हीराबाग, बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है। इसकी दो सौ वर्ष से भी अधिक प्राचीन कई हस्तलिखित प्रतिलिपियाँ प्राप्त हैं। यह करणानुयोग का ग्रंथ है । इसको समझने के लिए गणित का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है । अतः यह ग्रंथ प्रायः विद्वानों के अध्ययन का ही विषय बना रहा ।
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NEET पर
काल
रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
इस टीका का नाम पंडित टोडरमल ने कुछ नहीं दिया। पंडित परमानन्द शास्त्री इसे भी सम्यग्ज्ञानचंद्रिका में सम्मिलित मानते हैं, पर ग्रंथकार ने स्पष्ट रूप से कई स्थानों पर लिखा है कि 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटमार कर्मकाण्ड, नविध सार और क्षपणासार को टीका का नाम है | कहीं भी त्रिलोकमार के नाम का उल्लेख नहीं किया है। लब्धिसार-क्षपणासार भापाटीका समाप्त करते हुए लिखा है, "इति श्रीमत् लब्धिसार बा क्षपणासार साहित गोम्मटसार शास्त्र की सम्यग्ज्ञानचंद्रिका भाषाटीका सम्पूर्ण ।' प्रतः यह तो निश्चित ही है कि त्रिलोकसार भाषाटोका' सम्यम्ज्ञानचंद्रिका का अंग नहीं है।
हिन्दी साहित्य प्रसारक कार्यालय, गिरगांव, बम्बई से प्रकाशित त्रिलोकसार के मुखपृष्ठ पर 'भाषा बचनिका' शब्द का उल्लेख है किन्तु उन्होंने इस नाम का उल्लेख किए ग्राधार पर किया है इसका पता नहीं चलता है, जब कि उन्हीं के द्वारा प्रकाशित इस ग्रंथ की
' मो० मा०प्र० प्रस्तावना, २८ ३. श्रीमत् लब्धिसार वा क्षपणासार सहित श्रुत गोमटसार ।
ताकी सम्यग्ज्ञानचंद्रिका भाषामय टीका विस्तार 11 प्रारंभी पूरन हुई, भए समस्त मंगलाचार । सफल मनोरथ भयो हमारो, पायो ज्ञानानन्द अपार ।।१।। या विधि गोम्मटसार लब्धिसार ग्रंथनि की,
भिन्न भिन्न भाषाटीका कौनी अर्थ गायकै । इनिक परस्पर सहायकपनौ देख्यो,
___ तातै एक करि दाई हम लिनका मिलाइक ।। सम्माज्ञानचंद्रिका धयों है पाको नाम,
सोई होत है सफल ज्ञानानन्द उपजाम के। कलिकाल रजनी में अर्थ को प्रकाश कर., यात निज काज कीजं इप्ट भाव भावकं ।।३०।।
- स. चं० प्र० १ श्री दि. जैन बड़ा मंदिर तेरापंथियान, जयपुर में प्राप्त ललिखित प्रति
(वि० सं० १८५०), पृ. २८५
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4
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पंजिन टोडरमल : व्यक्ति और कर्तत्व भूमिका' (पौठिका) तथा अंतिम प्रशस्ति में 'भाषाटीका' शब्द मिलता है । अतः इसका सही नाम त्रिलोकसार भाषाटीका ही है ।
त्रिलोकसार मूल ग्रंथ प्राकृत भाषा में गाथाबद्ध है, जिसमें १०१८ गाथाएँ हैं । इसकी संस्कृत टीका प्राचार्य माधवचंद्र त्रैविद्य के द्वारा बनाई गई थी३ । इसके आधार पर ही इस भाषाटीका का निर्माण हुन्ना है। इस टीका का निर्माण टीकाकार की अन्तःप्रेरणा एवं ब्र० रायमल को प्रेरणा से हुआ है। स्वपर-हित, धर्मानुराग तथा करुणाबुद्धि ही अन्तःप्रेरणा की प्रेरक रही है। संस्कृत, प्राकृत भाषा ज्ञान से रहित मन्दबुद्धि जिज्ञासु जीवों को श्रिलोक संबंधी ज्ञान प्राप्ति की सुविधा प्रदान करना ही इसका मुख्य उद्देश्य रहा है ।
त्रिलोकसार भाषाटीका' की रचना सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की रचना के उपरान्त ही हुई क्योंकि पंडित टोडरमलजी ने सम्यग्ज्ञानचंद्रिका का उल्लेख त्रिलोकसार भाषाटीका के परिशिष्ट में क्रिया है। वे लिखते हैं. 'बहुरि अलौकिक गरिगत अपेक्षा गरिणतनि की संदृष्टि
१ "इस श्रीमत् त्रिलोकसार नाम शास्त्र के मूत्र नेमिचन्द्र नामा सिद्धान्तचक्रवर्ती
करि विरचित हैं । तिनकी संस्कृत टीका की अनुसार लेई इस भाषाटीका विष अर्थ लिखोगा ।" २ "ग्रंथ त्रिलोकसार की भाषाटीका पूरन भई प्रमान ।
याके जाने जानतु हैं सत्र नाना माप लोक संस्थान ।।" 3 पु० ज० वा० गुरु, ६२ ४ "प्रथ' मंगलाचरण करि श्रीमान ग्रिलोकसार नाम शास्त्र की भाषाढीका कगिए है । अव संरकृत टीका अनुसार लिए मूल प्लास्त्र का अर्थ लिखिये ।"
- त्रिलोकमार, १ ५ "नहां प्रागन गग करि मेरे ऐसी इच्छा भई जो शारन का अर्थ भाषा रूप अक्षरनि करि लिखिए तो इस क्षेत्र काल विप मंदबुद्धि प्रने हैं, तिनका भी कल्याण होई ।"
- बिलोकसार पी० 'जीवन' पत्रिका, परिगिष्ट १ ७ त्रिलोकसार, १
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रखनानों का परिचयात्मक अनुशीलन • वा संकलनादि की संदृष्टि का वर्णन गोम्मटसार शास्त्र की भाषाटीका' विर्षे संदृष्टि अधिकार कीया है तहां लिखी है, सो तहां तें जाननी ।'
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका टीका विक्रम संवत् १८१८ में समाप्त हुई पर उसका निर्माण कार्ग तो वि० सं० १८१५ में हो चुका था। शेष तीन वर्ष तक तो इसका संशोधनादि कार्य चलता रहा । इसी बीच त्रिलोकसार भाषाटीका भी बन चुकी थी। दि० जैन वड़ा मंदिर तेरापंथियान, जयपुर में प्राप्त प्रासोज कृष्णा ५ वि० सं० १८१५ में लिखित भूधरदास के 'चर्चा समाधान' नामक हस्तलिखित ग्रंथ पर प्राप्त उल्लेख में त्रिलोकासार भाषाटीका लिखे जाने की भी चर्चा है । सम्यग्ज्ञानचंद्रिका को पीठिका में त्रिलोकसार भाषाटोका की पीठिका लिखी जा चुकने का भी उल्लेख है। वि० सं० १८२१ के पूर्व लिखी जाने की बात तो माघ शुक्ला ५ विक्रम संवत् १८२१ में लिखित व० रायमल की 'इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका' के उल्लेखों से सिद्ध है ही किन्तु इसका संशोधनादि कार्य वि० सं० १८२३ तक चलता रहा, जैसा कि श्रावण कृष्णा वि० सं० १५२३ की चंदेरी में लिखी त्रिलोकसार को प्रति के निम्नलिखित उल्लेख से स्पष्ट है :
__ "यह टीका खरड़ा की नकल उतरी है। मल्लजी कृत पीठबंध आदि सम्पूर्ण नहीं भई है । मुल को अर्थ सम्पूर्ग प्राय गयो है । परन्तु साधि पर मल्न जी को फरि उत्तरावगी छ । वी छनि होवा के वास्ते जेते खरड़ा ही उतार लिया है । तिहिस्यों पीर परती घहींस्यौं उतरवाज्यो मती।"
उक्त विश्लेषगा रे यह निष्कर्ष निकलता है कि इसकी रचना (रफ कापी) तो विक्रम संवत् १८१५ में हो चुकी थी किन्तु इसका संशोधनादि कार्य वि० सं० १८२३ तक चलता रहा।
१ नोम्मटसार भापाटीका सम्यग्ज्ञानचंद्रिका का ही एक अंग है। ३ त्रि भाटी० परिशिष्ट, २१ ३ देखिए प्रस्तुत ग्रंथ, ७६ * स० चं० पी०, ६१
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पंजित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व त्रिलोकसार भाषाटीका की रचना सिंघाणा में हो चुकी थी पर इसका संशोधनादिकार्य जयपूर में ही हुमा । न. रायमल ने इस संबंध में अपनी जीवन पलिक- में सात उलेम किया है । ग्रिलोकसार भापाटीका का परिमाण ब्र० रायमल द्वारा चौदह हजार श्लोक प्रमारा बताया गया है ।
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका के समान इसके प्रारंभ में भी पीटिका लिखी गई है। इसमें रचना का प्रयोजन, उद्देश्य एवं ग्रंथकार ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए वक्ता-थोता की योग्यता और ग्रंथ की प्रामाणिकाता पर विचार किया है। ग्रंथारम्भ मंगलाचरणापूर्वक किया गया है । ग्रंथ के नामानुसार इसमें तीन लोक की रचना का विस्तार से वर्णन किया गया है। यह एक तरह से जैन दर्शन सम्बन्धी भूगोल का ग्रंथ है। इसमें गणित के माध्यम से तीन लोक की रचना को समझाया गया है। अतः प्रारम्भ में गणित के ज्ञान की आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए आवश्यक गणित को विस्तार से समझाया गया है। सर्वप्रथम परिकर्माप्टक का स्वरूप समझाते हुए उसके निम्न पाठ अंगों को स्पष्ट किया है :- (१) संकलन, (२) व्यकलन, (३) गुणाकार, (४) भागहार, (५) वर्ग, (६) वर्गमूल, (७) धन, और (८) घनमूल । उसके बाद त्रैराशिक धेशीव्यवहार, सबंधारा, क्षेत्रमिति (रेखागरिंगत) आदि का वर्णन किया है। इसके बाद ग्रंथ का मूल विषय प्रारम्भ होता है । इसके छः अधिकार हैं :--
(१) लोक सामान्य अधिकार (२) भवनबासी लोक अधिकार (३) व्यंतर लोक अधिकार (४) ज्योतिर्लोक अधिकार (५) बमानिक लोक अधिकार (६) मनुष्यतिर्यग्लोक अधिकार
परिशिष्ट
२ वही
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
१०५ लोक सामान्य अधिकार में तीनों लोकों का सामान्य वर्णन करके अधोलोक का विस्तार से बर्णन किया गया है । अधोलोक के वर्णन में सातों नरकों की रचना; उनके बिल, बिलों की संख्या; उनके पटल, पटलों की संख्या तथा नारकियों के दुःख, स्थिति यादि का वर्णन किया गया है।
भवनवासी लोक अधिकार में भवनवासी देवों के निवास, पाय, उनके भेद-प्रभेदों आदि का विस्तार से वर्णन है ।
व्यंतर लोक अधिकार में व्यंतर जाति के देवों के भेद-प्रभेद, निवास, आयु, स्वभाव अादि का विस्तृत वर्णन है ।
गम्पोतिर्लो- राधिसर में योनिमी नेत्रों के भेद-प्रभेद, उनके विमान, स्थान, आयु प्रादि का विस्तृत विवेचन है।
वैमानिक लोक अधिकार में वैमानिक देवों के निवास स्थान ऊर्धलोक का वर्णन है - जिसमें सोलह स्वर्ग, नव बेयक, नव अनुदिशा, पंच पंचोत्तर विमानों का एवं उनमें रहने वाले इन्द्र, अमिन्द्र, देवदेवांगनाओं की स्थिति, लेश्या, सुख, ऊंचाई, वैभव आदि का विस्तृत वर्णन है।
मनुष्यतिर्यग्लोक अधिकार में मध्यलोक वा वर्गन है – जिसमें जम्बूद्वीप आदि द्वीपों और लवणसमुद्र आदि समुद्रों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत प्रादि सात क्षेत्र, हिमवन् आदि छः पर्वत, पद्म आदि छ: तालाब. गंगा-सिंधू ग्रादि चौदह नदियों, सुमेरू पर्वत, विजयाई पर्वत, आर्य खंड, म्लेच्छ खंड आदि का विस्तृत वर्णन है। इसी प्रकार धातकी खण्ड आदि द्वीपों का भी विस्तार से वर्णन है । तदनन्तर भरत क्षेत्र में अवपिरणी कालोत्पन्न चौदह कुलकर, चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण, नत्र बलभद्र आदि के नाम, समय प्रादि का एवं अकृत्रिम जिन चैत्यालयों का तथा नन्दीश्वर हीप में स्थित जिन चैत्यालयों एवं जिन विम्बों आदि का भी विस्तृत वर्णन है।
अन्त में प्रशस्तिपूर्वक ग्रंथ समाप्त होता है ।
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्य और कर्तृत्व यह टोका भी सम्यग्ज्ञानचंद्रिका के समान विवेचनात्मक गद्यशैली में लिखी गई है । उसके समान इसके प्रारंभ में भी पाठिका है, जो कि प्राधुनिक भूमिका का ही पूर्व प है । यद्यपि यह टीका संस्कृत टीका के अनुकरण पर लिखी गई है तथापि यह मात्र अनुवाद ही नहीं है, किन्तु गूढ़ विषयों को स्पष्टता के लिए यथास्थान समुचित विस्तार किया गया है । आवश्यकतानुसार विषय का रांकोच भी किया गया है, जैसा कि टीकाकार ने स्वयं स्वीकार किया है । रचनाशली सरल, सुबोध एवं प्रवाहमयी है ।
समोसरण वर्णन
तीर्थंकर भगवान को धर्मसभा का वर्णन करने वाली यह रचना अब तक अज्ञात थी। श्री ऐलका पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बई में एक त्रिलोकसार टीका की प्रति प्राप्त हई है 1 यह प्रति मार्गशीर्ष कृष्णा १३ वि० सं० १८३३ की लिखी हुई है । इसे रायमल्लजी ने चंदेरी में लिपिकार वैद्य फैजुल्लाखों द्वारा लिखाया था । प्रति के अन्त में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है । 'समोसरमा वर्णन' नामक यह रचना त्रिलोकसार की इसी प्रति के अन्त में प्राप्त हुई है। अभी तक इसका प्रकाशन नहीं हुअा है ।
पंडित टोडरमन ने इसके नाम के रूप में 'समोराररण' और 'समवसरणा' दोनों शब्दों का प्रयोग किया है । ग्रंथ के प्रारंभ और अन्त में 'समोसरग' शब्द का प्रयोग है तथा मंगलाचरण के दोहा में 'समवसरण' का । तीर्थकर भगवान की धर्मसभा के लिए दोनों ही
१ "तिनकी संस्कृत टीका का अनुसार लई इस भाषा टीका विष अर्थ लिखौंगा ।
कहीं कोई अर्थ न भासंगा, ताकी न लिम्घौगा। कहीं समझाने के अर्थ बधाय करि लिग्तीगा ।"
- नि. भा. टी. परिणिप्ट २ वि भा० टी हस्तलिखित प्रति, ३१६
- ऐलक पन्नालाल दि जैन सरस्वती भवन, बम्बई । वहीं, ३२७ ४ "असरण सरन जिनेस को, समवसरन शुभ यान"
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रचनात्रों का परिचयात्मक अनुशालिन
१०७ मामों का प्रयोग शास्त्रों में मिलता है तथा समाज में भी दोनों ही नाम प्रचलित हैं। आदि और अन्त में 'समोसरग' शब्द का प्रयोग होने से हमने इस कृति के नाम के रूप में उसका ही प्रयोग उचित समझा है। हमें जो एक मात्र प्रति प्राप्त हुई है, उसमें 'समोसरग' के 'ण' के स्थान पर एकाध स्थान पर 'न' का प्रयोग भी मिला है, किन्तु अधिकांश स्थानों पर 'ण' का ही प्रयोग है । अतः हमने 'रण' को ही ग्रहण किया है।
यह रचना त्रिलोकसार के अन्त में लिखी हुई अवश्य प्राप्त हुई है पर यह त्रिलोकसार ग्रंथ का अंग नहीं है। यह एक स्वतंत्र रचना है । इसका प्राधार भी निलोकसार ग्रंथ नहीं है। इसका प्राधार 'धर्म संग्रह श्रावकाचार, आदि पुराण, हरिवंश पुराण, और त्रिलोक प्रज्ञप्ति' हैं । ग्रंथ के प्रारंभ में ग्रंथकार ने इस तथ्य को स्पष्ट स्वीकार किया है।
_ 'समोसरण वर्णन लिखने की प्रेरणा पंडित टोडरमल को त्रिलोवासार भाषाटीका में वरिंगत अकृत्रिम जिन चैत्यालयों के वर्णन से प्राप्त हुई । अकृत्रिम जिन चैत्यालयों में अरहन्त प्रतिमाएं रहती हैं, ये एक तरह से समोसरण के ही प्रतिरूप हैं। उनके वर्णन के समय पंडित टोडरमल को यह विचार पाया कि धरहन्त को साक्षात् धर्मसभा समोसरण का भी वर्णन करना चाहिए। इसका उद्देश्य अरहन्त भगवान की धर्मसभा समोसरण की रचना का सामान्य ज्ञान जनसाधारण को देना है। इसकी रचना त्रिलोकसार भाषाटीका के बाद ही हुई है । अतः विक्रम सम्बत् १८१८ मे वि. सं. १८२४ के बीच ही इसका रचनाकाल रहा है।
इसमें तीर्थंकर भगवान की धर्मसभा का वर्णन किया गया है । जैन परिभाषा में तीर्थंकर भगवान की धर्मसभा को 'समोसरण' या
1 "माग धर्मसंग्रह श्रावकाचार वा प्रादि पुराग्ग वा हरिवंश पुराण, वा त्रिलोक प्रज्ञप्ति या के अनुसारि समोसरणा का वर्णन करिए है | सु हे भव्य तंजानि।" २ मि. भा. टी. हस्तलिखित प्रति, ३१६
- ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन, बम्बई
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृव
'समवशरण' कहते हैं | इसकी रचना इन्द्र की प्राज्ञा से कुबेर करता है और इसमें देव, मनुष्य, स्त्री, पुरुष, पशु-पक्षी यादि सभी के बैठने की पूरी-पूरी व्यवस्था रहती है। भगवान की दिव्यवाणी सुनने का लाभ सभी प्राणियों को समान भाव से प्राप्त होता है। अतिशययुक्त भगवान की वाणी को सभी अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं ।
ग्रंथ का आरंभ मंगलाचरण रूप दोहा से किया गया है. जिसमें इष्ट देव का स्मरण कर 'समोसरण वर्णन' के लिखने की प्रतिज्ञा की गई है। यह वन दो भागों में विभक्त है :
( १ ) समोसरर वर्णन (२) विहार वर्णन
समोसा वर्णन में समोसरप का विस्तार, लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, द्वार, सोपान, मानस्तम्भ, कोट, खाइयाँ, उपवन, बावड़ी, नृत्यशालायें. सभा भवन और अष्ट प्रातिहार्य तथा समोसरण में विद्यमान अतिशयों का विस्तृत वर्णन है ।
विहार वर्णन में तीर्थकर भगवान के बिहार (गमन), समोसरा के विघटन मार्ग की स्वच्छता, निष्कंटकता, अनेक अतिशययुक्तता, बिहार का कारण आदि का वर्णन है ।
ग्रंथ की समाप्ति से बिहार सहित समोसरण का वर्णन सम्पूर्णम्' वाक्य द्वारा की गई है ।
यह रचना वर्णनात्मक गद्यशैली में लिखी गई है। आज के वर्णनात्मक निबंधों का यह करीब २१० वर्ष पुराना रूप है। अपने प्रारंभिक रूप में होने पर भी इसमें शिथिलता और अव्यवस्था नहीं पाई जाती है । प्रत्येक वस्तु का बारीकी से वर्णन किया गया है, फिर भी प्रवाह में रुकावट नहीं आई है । भाषा सहज, सरल एवं प्रवाहमयी है । किसी भी वर्णनात्मक निबंध की विशेषता इस बात में है कि जिसका वन किया जा रहा हो, उसका मित्र पाठक के ध्यान में या जावे | यह रचना इस कसौटी पर खरी उतरती है ।
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रचनाप्नों का परिचयात्मक अनुशीलन
मोक्षमार्ग प्रकाशक
मोक्षमार्ग प्रवाशक पंडित टोडरमल का एक महत्वपुर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ का अाधार कोईएका अर्थ न होकर सम्पूर्ण जन माहित्य है। यह सम्पूर्ण जैन सिद्धान्त को अपने में समेट लेने का एक सार्थक प्रयत्न था पर खेद है कि यह मंथराज पुर्ण न हो सका । अन्यथा यह कहने में संकोच न होता कि यदि सम्पूर्ण जैन वाङमय कहीं एक जगह मरल, मुबोध और जनभाषा में देखना हो तो मोक्षमार्ग प्रकाशक को देख लीजिए। अपूर्ण होने पर भी यह अपनी अपुर्वला के लिये प्रसिद्ध है। यह एक अत्यन्त लोकप्रिय ग्रंथ है जिसके कई संस्करण निकल चुके हैं',
प्रकाशक
प्रकाशन तिथि
भाषा
प्रतियां
(क) बा ज्ञानचंदजी जैन, वि० सं० १९५४ अजभाषा १०००
लाहौर (स्त्र) जैनग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, सन् १६११६५
बम्बई (ग) वायु पन्नालाल चौधरी, वी. नि. वाराणसी
सं० २४५१ (घ) अनन्तकीति ग्रंथमाला, वी. नि. बम्बई
सं २४६३ (१) सस्ती ग्रंथमाला,
दिल्ली (प) सस्ती ग्रंथमाला,
१००० दिल्ली (छ) सस्ती ग्रंथमाला,
२३०० दिल्ली (ज) सस्ती ग्रंधमाला, सन् १९६५ ई.
२२०० दिल्ली
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-.-.
..
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पंडित टोडरमल व्यक्तित्व और कत्व
एवं खड़ी बोली में इसके अनुवाद भी कई बार प्रकाशित हो चुके हैं ' । यह उर्दू में भी छप चुका है। गुजराती और मराठी में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। समूचे समाज में यह स्वाध्याय और प्रवचन का लोकप्रिय ग्रंथ है। इसकी मूल प्रति भी उपलब्ध है एवं उसके फोटोप्रिन्ट करा लिए गए हैं जो जयपुर, बम्बई, दिल्ली और सोनगढ़ में सुरक्षित हैं। इस पर स्वतंत्र प्रवचनात्मक व्याख्याएँ भी मिलती हैं ।
७
E
प्रकाशक
१ (क) भा०दि० जैन संघ, मथुरा
( स ) थी दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़
(ग) श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़
ㄜ दाताराम चैरिटेबिल ट्रस्ट, १५८३, दरीबा कलां, देहली
प्रकाशन तिथि
3 (क) श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़
बी० नि० सं०
२००५
वि० सं०
२०२३
वि० सं०
२०२६
वि० सं० २०२७
भाषा प्रतिय
५ वही
६ श्री दि० जैन सीमंधर जिनालय, जवेरी बाजार, बम्बई
खड़ी बोली
נו
נה
उर्दू
गुजराती
(ख) महावीर ब्र० श्राश्रम, कारंजा
मराठी
४ श्री दि० जैन मंदिर दीवान भद्रीचंदजी, घी वालों का रास्ता जयपुर
७ श्री दि० जैन मुमुक्षु मंडल, श्री दि० जैन मंदिर, धर्मपुरा, देहली
थी दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़
१०००
११०००
७०००
१०००
६७००
१०००
● प्राध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी द्वारा किये गए प्रवचन, 'मोक्षमार्ग प्रकाशक की किरणें' नाम से दो भागों में दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ से हिन्दी व गुजराती में कई बार प्रकाशित हो चुके हैं ।
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रचनाओं का परिचयात्मक मनुशीलन
ग्रंथ के नाम के सम्बन्ध में विद्वानों में दो मत हैं :(१) मोक्षमार्ग प्रकाश (२) मोक्षामार्ग प्रकाशक
प्रथम मत मानने वाले द्वा लालबहादुर शास्त्री हैं। उन्होंने अपने मत की पुष्टि में निम्नलिखित तर्क दिये हैं। :
(१) पंडित टोडरमल ने स्वयं मंगलाचरण के बाद ग्रंथ की उत्थानिका में इसका नाम –'मोक्षमार्ग प्रकाश' स्वीकार किया है जैसा कि उनकी इम पंक्ति से सपाट है :
"अथ मोक्षमार्ग प्रकाश नाम शास्त्र का उदय हो है"
(२) १८० वि० में जयपुर निवासी पंडित जयचंद्र ने काशी निवासी वृन्दाबनदास को एक पत्र में उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रध का नाम 'मोक्षमार्ग प्रकाश लिखा है।
(३) इस नाम बाले अन्य ग्रंथों में भी 'प्रकाश' शब्द देखा मया है। 'प्रकाशक' नहीं । योगीन्द्रदेव कृत 'परमात्म प्रकाश' इसका उदाहरणा है।
डॉ० शास्त्री के उक्त कथन विशेष महत्त्वपूर्ण और साधार प्रतीत नहीं होते । मोक्षमार्ग प्रकाशक की मूल प्रति में 'प्रकाशक' शब्द पाया गया है, 'प्रकाश' नहीं । उक्त पंक्ति इस प्रकार है :
"अथ मोक्षमार्ग प्रकाशक नाम मास्त्र का उदय हो है।"
जहाँ तक पंडित जयचंद के पत्र की बात है, जिसमें 'मोक्षमाग प्रकाश दिया है - उस पत्र के संदर्भ का उल्लेख डॉ० शास्त्री ने नहीं किया है, लेकिन वह श्री नाथूराम प्रेमी द्वारा संपादित 'वृन्दावन बिलास' के अन्त में दिया गया पत्र प्रतीत होता है । श्री नाथूराम प्रेमी द्वारा प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहीं 'मोक्षमार्ग प्रकाश', कहीं 'मोक्षमार्ग प्रकाशक दोनों ही शब्दों का प्रयोग किया गया है।
१ मो० मा प्रा मथुरा, भूमिका, ४ र उक्त पृष्ठ की मूल प्रति का ब्लाक अधिकांश प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशकों में
छपा है । यहाँ भी संलग्न है।
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may.A4.
FANA
दिनमानो, सादिमनपालालादिमा
मिन "समाजसतानि परराजमार्गका नामलासमा परिसराला स्मासिसमालायरियानवयास nिes सायनमस्कानमंत्र सारशलमा पत्र
माकपणे असादा नमक
स तनिक मलमल
लामाधान मलायायायनिक अभिनिमाकारलीकविमलाकि अर्थि भावाविषयक काय साया
समस्कारवान नमस्काशीय मे काम पनि जिमय निकाससमरिवारिदमनेपदमनात्या निधार्मीका रजिससाधन पारशनिकालाय अननसतानियमानमयो । तानकारतीय गायोंय सहित समसामरिमनियापनविनका साट वाहिनि सामान्यपशानुलोम नानी सीमामा भारदे HARरिनिराकुल परमानंदसेन भवेत्। वामगारान:
वियोगको सरससम्मान समारसमसाममि मुकदेवाधिस:
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पंडित टोडरमलजी के स्वयं के हाथ से लिखे हुए 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' दा प्रथम पृष्ठ
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रचनात्रों का परिचयात्मक अनुशीलन डॉ. शास्त्री ने प्रेमीजी द्वारा लिखिन उक्त नामों को स्वयं भ्रमात्मक सिद्ध किया है।
'परमात्म प्रकाश' से मोक्षमार्ग प्रकाशक का दुर का भी सम्बन्ध नहीं है, अतः उसके नाम का अाधार पर उगना नाम मा जाना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता।
पंडित बंशीधरजी ने उनत ग्रंथ का नाम मोक्षमार्ग प्रकाशक' ही लिखा है। समाज में भी प्रचलित नाम 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' ही है । इसके प्रकाशित संस्करणों में अधिकांश में 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' नाम ही दिया गया है, पर किसी-किसी ने की नाही माझमा कानाकी ने दिया है । जैसे श्री नाथूराम प्रेमी ने मुखपाट पर मोक्षमार्ग प्रकाश नाम दिया है, पर भीतर राधियों में मोक्षमार्ग प्रकाशक दिया हुआ है। इसी प्रकार पं० रामप्रसाद शास्त्री ने कवर पर पर मोक्षमार्ग प्रकाशक और अन्दर भी संधियों में कई स्थानों पर मोक्षमार्ग प्रकाशक नाम दे रखा है. पर अन्दर मुखपृष्ठ पर मोक्षमार्ग प्रकाण नाम दिया है । इसमें पता चलता है कि उक्त विद्वानों का लक्ष्य ग्रन्थ के नाम की ओर नहीं गया, अन्यथा एक ही संस्करण में कहीं मोक्षमार्ग प्रकाशक और कहीं मोक्षमार्ग प्रकाश देखने को नहीं मिलता।
पंडित परमानन्द शास्त्री ने गत संस्वारगों में मोक्षमार्ग प्रकाश नाम दिया था, पर अंतिम संस्करण में उन्होंने मात्र सुधार ही नहीं किया बरन् भूमिका में सिद्ध किया है कि ग्रन्थ का नाम मोक्ष मार्ग प्रकाशक ही है, मोक्षमार्ग प्रकाश नहीं। उन्होंने अपने मन की पूष्टि में मूल प्रति का अाधार प्रस्तुत किया है ।
पंडित टोडरमल के अनन्य सहयोगी साधर्मी भाई ब्र० गयमन ने इन्द्रध्वज विधान महान्सब पत्रिका की मूल प्रति में उक्त ग्रन्थ का उल्लेख करते हुए ग्रन्थ का नाम 'मोक्षमार्ग प्रकाशक ही लिखा है।
-- ---. .-.' मा० मा० प्र० गथुरा, भूमिका, ४ २ प्रात्मानुशासन, प्रस्तावना, १० 4 थी दि. जैन मंदिर भदीचन्दजी जयपुर में प्राप्त, परिशिष्ट १
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पंडिस टोडरमल : व्यक्तित्व और कतरव पंडित टोडरमल ने स्वयं मूल प्रति में कई बार 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' शब्द का स्पष्ट उल्लेख किया है। तथा ग्रन्थ के नाम की सार्थकता सिद्ध करते हए इसका नाम अनेक तर्क और उदाहरणों से 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' ही सिद्ध किया है।
प्रकाशक का प्रकाश हो जाना किसी लिपिकार की भूल (पैनस्लिप) का परिणाम लगता है, जिससे यह भ्रम चल पड़ा। प्रकाश और प्रकाशक मोटे तौर पर एकार्थवाची होने से किसी ने इस पर विशेष ध्यान भी नहीं दिया। वस्तुतः ग्रंथ का नाम 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' ही है और यही ग्रंथकार को इष्ट है।
पंडितजी ने भूल प्रति में 'मोक्षमार्ग' शब्द का मोक्षमारगे' लिखा है, किन्तु अत्यधिक प्रचलित होने से हमने सर्वत्र मोक्षमार्ग' ही रखा है।
इस ग्रन्थ का निर्माण ग्रन्थकार की अन्तःप्रेरणा का परिणाम है । अल्पबुद्धि वाले जिज्ञासु जीवों के प्रति धर्मानुराग ही अन्तःप्रेरणा का प्रेरक रहा है । ग्रन्थ निर्माण के मूल में कोई लौकिक आकांक्षा नहीं थी। धन, यश और सम्मान की चाह तथा नया पंथ चलाने का मोह भी इसका प्रेरक नहीं था; किन्तु जिनको न्याय, व्याकरगा, नय और प्रमाण का ज्ञान नहीं है और जो महान शास्त्रों के अर्थ समझने में सक्षम नहीं हैं, उनके लिये जनभाषा में सुबोध ग्रन्थ बनाने के पवित्र उद्देश्य से ही इस ग्रन्थ का निर्माण हुना है ।
१ (क) "अथ मोक्षमार्ग प्रकाशक नामा शास्त्र लिख्यते ।"
- देखिए प्रस्तुत ग्रंथ, ११२ (ख) प्रत्येक अधिकार के अन्त में पंडितजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक नाम का
ही उल्लेख किया है। २ मो० मा०प्र०, २७ २६ ३ देखिए प्रस्तुत ग्रंथ, ११२ ४ मो मा० प्र०, २६
५ वही
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रचनात्रों का परिचयात्मक अनुशौसाः
यह ग्रन्थ अपूर्ण है, अतः ग्रन्थों के अन्त में लिखी जाने वाली प्रशस्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए इसके रचनाकाल का उल्लेख अन्तःसाक्ष्य में तो प्राप्त होता नहीं है, पर माधर्मी भाई ब्रत रायमल ने वि० सं० १८२१ में लिम्बी गई इन्द्रध्वज विधान महोत्मव पत्रिका में यह लिखा है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक बीस हजार श्लोक प्रमाण तैयार हो चुका है । इममें इतना सिद्ध होता है कि वि० म० १८२१ में वर्तमान प्राप्त मोक्षमार्ग प्रकाशक तैयार हो चुका था । यह भी निश्चित है कि वि० सं० १८१८ लकतोपंडितजी गोम्मटसारादि ग्रन्थों की टीका सम्यग्ज्ञानचंद्रिका के निर्माण में व्यस्त थे, इसलिए इसका प्रारम्भ वि० सं० १८१८ के बाद ही हुआ होगा | अतः इसका रचनाकाल वि० सं० १८१८ से १८२१ नक ही होना चाहिए । वैसे भी पंडितजी का अस्तित्व ही वि० मं० १८२३-२४ के बाद सिद्ध नहीं होता है, अतः यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इसका निर्माण वि० सं० १८१८ से विसं १८२३-२४ के बीच में ही हुआ होगा।
मोक्षमार्ग प्रकाशक की रचना जयपुर में ही हई क्योंकि इसकी रचना सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका (वि० सं० १८१८) के समाप्त होने के उपरान्त हुई है। उक्त समय में पंडितजी जयपुर में ही रहे हैं। इनके कहीं बाहर जाने का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होना ।
प्राप्त मोक्षमार्ग प्रकाशक अपूर्ण है। करीब पांच मी पृष्ठों में नौ अधिकार हैं। प्रारंभ के आठ अधिकार तो पूर्ण हो गए, किन्तु नौवाँ अधिकार अपूर्ण है। इस अधिकार में जिस प्रकार विषय (सम्यग्दर्शन) उठाया गया है, उसके अनुरूप इसमें कुछ भी नहीं कहा जा सका है। सम्यग्दर्शन के आठ अंग और पच्चीम दोषों के नाम मात्र गिनाए जा सके हैं। उनका मांगोपांग विवेचन नहीं हो पाया है। जहाँ विषय छूटा है वहाँ विवेच्य-प्रकरगा भी अधूरा रह गया है.
' परिशिष्ट १
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याध्यामिक तमाम मातनिकितादिक मनमसिनो माता HETANT मनुमा समाहित को माता विनोहरबाहीमध्यरत रनिनि गतिविना नहोला मान मकवाकार हो
MAnml SEN intent ५ प्रतिकिलोवारस्पतिनिधिविनाव लिलम मलकाकामा शाखामा सानिaara
सिमसिमका हक परधना मतमाएसम्म के Aaplaनिकायमा HRसमलिकही लोकानोबा
बादरकरवाशदिमागम के विकासाला परत
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पंडित टोडरमलजी के स्वयं के हाथ से निलं हुए 'मोक्षमार्ग प्रका' का अतिम पृष्ट
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रचनामों का परिचयात्मक अनुशीलन यहाँ तथा कि अंतिम पृष्ठ का अंतिम शब्द' 'बहुरि' भी 'बहु' लिखा जाकर अधूरा छूट गया है । इस अधिकार का उपसंहार, जैसा कि प्रत्येक अधिकार के अंत में पाया जाता है, लिखे जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
मोक्षमार्ग प्रवाशय श्री हस्तलिखित मूल प्रति देखने पर यह प्रतीत हुया कि मोक्षमार्ग प्रकाशक के अधिकारों के क्रम एवं वर्गीकरण के संबंध में 'डितजी पुनर्विचार करना चाहते थे क्योंकि तीसरे अधिकार तक तो ने अधिकार अन्त होने पर स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि प्रथम, द्वितीय व तृतीय अधिकार समाप्त हुआ, किन्तु चौथे अधिकार से यह क्रम गड़बड़ा गया है । चौथे के अन्त में लिखा है 'छठा अधिकार समाप्त हुआ। गांचवें अधिकार के अन्त में कुछ लिखा ब कटा हुआ है । पता नहीं चलता कि क्या लिखा है एवं वहाँ अधिकार शब्द का प्रयोग नहीं है। छठे अधिकार के अन्त में छठा लिखने को जगह छोड़ी गई है। उसकी जगह ६ का अंक लिखा हुआ है । सान और पाठय अधिकार के अन्त का विवरगा म्पष्ट होने पर भी उनमें अधिकार संस्था नहीं दी गई है एवं उसके लिए स्थान खाली छोड़ा गया है।
सातवें अधिकार के अन्त में आशीर्वादात्मक मंगलमुचक वाक्य 'तुम्हारा काल्यारण होगा' एवं पाठवें के प्रारंभ में मंगलाचरण नहीं है, जब कि प्रत्येक अधिकार के प्रारंभ में मंगलाचरगा एवं अन्त में मंगलसूचक वाक्य पाये जाते है । इससे ऐमा प्रतीत होता है कि शायद वे इन दोनों को गका अधिकार में ही रखना चाहते थे । इनका विषय भी मिलता-जुलता सा ही है। सातवें अधिकार में निश्चय-व्यवहार की कथनशैली से अपरिचित निश्चयाभासी, व्यवहागभासी एवम् उभवाभासी अज्ञानियों का वर्णन है, तो आठवें अधिकार में चागे अनुयोगों की कथनशैली से अपरिचित जीवों की चर्चा है; किन्तु 'अधिकार समाप्त हया' शब्द का सातवें व आठत्र दोनों में स्पष्ट उल्लेख है, इससे उक्त संभावना कुछ कमजोर अवश्य हो जानी है।
१ देखिए प्रस्तुत ग्रंथ, ११६
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कत्व
ग्रंथ के प्रारंभ में प्रथम पृष्ठ पर अधिकार का नम्बर तथा नाम जैसे 'पीठबंध प्ररूपक प्रथम अधिकार' नहीं लिखा है, जैसा कि प्रथम अधिकार के अन्त में लिखा गया है । ॐ नमः सिद्धं ॥ श्रथ मोक्षमार्ग प्रकाशक नामा शास्त्र लिख्यते ||" लिखकर मंगलाचरण आरंभ कर दिया गया है । अन्य अधिकारों के प्रारम्भ में भी अधिकार निदेश व नामकरण नहीं किया गया है।
११५
उक्त विवरण से किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंच पाना संभव नहीं है, किन्तु इतना ग्रवश्य कहा जा सकता है कि इन सब का निर्णय उन्होंने दूसरे दौर ( संशोधन ) के लिए छोड़ रखा था, जिसको बे कर नहीं पाए । यहाँ हमने अधिकारों का त्रिभागीकरण, नाम व क्रम प्रचलित परम्परा के अनुसार ही रखना उचित समझा है ।
अपूर्ण नांव अधिकार को पूर्ण करने के बाद उसके आगे और भी कई अधिकार लिखने की उनकी योजना थी। न मालूम पंडित टोडरमल के मस्तिष्क में कितने अधिकार प्रच्छन्न थे ? प्राप्त
अधिकारों में लेखक ने बारह स्थानों पर ऐसे संकेत दिए हैं कि इस विषय पर आगे यथास्थान विस्तार से प्रकाश डाला जायगा । उक्त
" मोक्षमार्ग प्रकाशक, सस्ती ग्रंथमाला, दिल्ली :
(१) सो अनि सवति का विशेष श्रागे कर्म अधिकार विप लिखेंगे तहाँ जानना । पृ० ४४
(२) सर्वज्ञ वीतराग अर्हन्त देव हैं। वाह्य अभ्यन्तर परिग्रह रहित नियंत्र गुरु हैं । सो इनिका वर्णन इस ग्रंथ विषै भागें विशेष लिखेगे सो जानना । पृ० १६६
(३) सात सम्यकुश्रद्धान का स्वरूप यहू नाहीं । साँचा स्वरूप है, मी वगै बन करेंगे सो जानना । ० २३१
(४) यो द्रव्यलिंगी मूर्ति के शास्त्राभ्यास होते भी मिथ्याज्ञान कहा, असंयत सम्रष्टि के विषयादिरूप जानना ताकों सम्यग्ज्ञान का। तातें यहु स्वरूप नाहीं, साँचा स्वरूप या कहेंगे सो जानना । पृ० २३१
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रसनानों का परिचयात्मक अनुशीलन संकेतों और प्रतिपादित विषय के आधार पर प्रतीत होता है कि यदि यह महाग्रन्थ निर्विघ्न समाप्त हो गया होता तो पांच हजार पृष्ठों से कम नहीं होता और उसमें मोक्षमार्ग के मूलाधार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र का विस्तृत विवेचन होता। उनके अन्तर में क्या था, वे इसमें क्या लिखना चाहते थे, यह तो वे ही जान, पर प्राप्त प्रथ के आधार पर हम यह सकते हैं कि उसकी संभावित रूपरेखा कुछ ऐसी होती :-- (५) प्रर उनका मत के अनुमारि गृहस्थादिक के महायत प्रादि बिना
अंगीकार किए भी सम्यग्चारित्र हो है, तानै यह स्वरूप नाहीं । सांचा स्वरूप अन्य है, सो आग कहेगे । पृ० २२१
(६) साँचा जिन धर्म का स्वहा याग कहै हैं। पृ० २४६
(७) ज्ञानी के भी मोह के उद्यते रागादिक हो हैं । यह सत्य, परन्तु बुद्धि
पूर्वक रागादिक हाने नाहीं । गो विशेष वर्णन ग्रामें करेंगे । १० ३०४
(८) बहुरि भरतादिक मम्प्रदृष्टीनि के विषय-कषानि की प्रवृत्ति जैस
हो है, तो भी विशेष प्रागें कहेंगे । पृ० ३०४
(६) अंतरंग कपाय शक्ति घट विशुद्धता भए निजंग हो है । सो इसका
प्रगट स्वरूप याग निरूपण करंगे, तहां जानना । पृ० ३४१ (१०) अर फल लागै है मो अभिप्राय वि वासना है, ताका फल लाग है । सो
इनका विशेष व्याम्यान नागें करगे, तहां स्वरूप नीके भासेगा । १० ३४६ (११) याज्ञा अनुसारि हुवा देण्यांदेखी साधन कर है। तात याकं निश्चय
व्यवहार मोक्षमार्ग न भया । श्रा, निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग का
निरूपण करेंगे, ताका साधन भए ही मोक्षमार्ग होगा । पृ. ३७५ (१२) तैसें सोई आत्मा याम उदय निमित्त के वश त बन्ध होने के कारण नि
वि भी प्रवत है, बिश्य मेवनादि कार्य वा क्रोधादि कार्य कर है, तथापि तिस श्रद्धान का वाकै नाग न ही है। इसका विशेष निर्णय आगं करेंगे । पृ० ४७४
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१२२
काशी निवासी कविवर वृन्दावनदास को लिखे पत्र में पंडित जयचन्द्र ने वि० सं० १८८० में भी मोक्षमार्ग प्रकाशक के अपूर्ण होने की चर्चा की है एवं मोक्षमार्ग प्रकाशक को पूर्ण करने के उनके अनुरोध को स्वीकार करने में ग्रममर्थता व्यक्त की है।
अतः यह तो निश्चित है कि वर्तमान प्राप्त मोक्षमार्ग प्रकाशक अपूर्ण है, पर प्रश्न यह रह जाता है कि इसके आगे मोक्षमार्ग प्रकाशक लिखा गया या नहीं ? इसके आकार के सम्बन्ध में साधर्मी भाई ० रायमल ने अपनी इन्द्रध्वज विधान महोत्सब पत्रिका में वि० सं० १०२१ में इसे बीस हजार श्लोक प्रमाण लिखा है तथा इन्होंने ही अपने चर्चा संग्रह ग्रंथ में इसके बारह हजार श्लोक प्रमाण होने का उल्लेख किया है ।
पंडित टोडरमल व्यक्तित्व और कर्तृत्व
:
ब्र० रायमल पंडित टोडरमल के अनन्य सहयोगी एवं नित्य निकट सम्पर्क में रहने वाले व्यक्ति थे। उनके द्वारा लिखे गए उक्त उल्लेखों को परस्पर विरोधी उल्लेख कह कर ग्रप्रमाणित घोषित कर देना अनुसंधान के महत्त्वपूर्ण सूत्र की उपेक्षा करना होगा । गंभीरता से विचार करने पर ऐसा लगता है कि बारह हजार श्लोक प्रमाण वाला उल्लेख तो प्राप्त मोक्षमार्ग प्रकाशक के संबंध में है, क्योंकि प्राप्त मोक्षमार्ग प्रकाशक है भी इतना ही, किन्तु बीस हजार श्लोक प्रमाण वाला उल्लेख उसके अप्राप्तांश की ओर संकेत करता है ।
पंडितजी की स्थिति वि० सं० १८२३-२४ तक मानी जाती है । अतः वि० सं० २०२१ के बाद भी इराका सृजन हुआ होगा । जिस प्रकार इसका प्रारम्भ हुआ है और इसका वर्तमान जो प्राप्त स्वरूप है,
ว
..
"और लिया कि टोडरमलजी कृत मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ पूरण भया नाहीं, ताकी पुरा करना योग्य है । सो कोई एक मूल ग्रंथ की भाषा होय तो हम पूरण करें। उनकी बुद्धि बड़ी थी । यातें बिना मूल ग्रंथ के प्राय उनने किया। हमारी एती बुद्धि नाहीं, कैसें पूरा करें।"
- वृन्दावन विलास १३२
परिशिष्ट १
3 देखिए प्रस्तुत ग्रंथ ५२
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रचनाम्रों का परिचयात्मक अनुशीलन
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उसके अनुसार आठ अधिकार मात्र भूमिका हैं । यह तो नहीं कहा जा सकता है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक पूर्ण हो गया होगा पर अनुमान ऐसा है कि इससे आगे कुछ न कुछ अवश्य रखा गया था, जो कि आज उपलब्ध नहीं है ।
मेरा अनुमान है कि इस ग्रंथ का अप्राप्तांश उनके अन्य सामान के साथ तत्कालीन सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया होगा और यदि उनका जब्ती का सामान राज्यकोष में सुरक्षित होगा तो निश्चित ही बाकी का मोक्षमार्ग प्रकाशक भी उसमें होना चाहिए ।
वर्तमान प्राप्त मोक्षमार्ग प्रकाशक नौ विभागों में विभक्त है । विभागों के नामकरण में भी दो रूप देखने में आते हैं - अधिकार और अध्याय । डॉ॰ लालबहादुर शास्त्री ने उनके द्वारा अनुवादित एवं संपादित तथा भा० दि० जैन संघ, मथुरा से प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक में अध्याय शब्द का प्रयोग किया है जब कि अन्य सभी प्रकाशनों में अधिकार शब्द का प्रयोग मिलता है । पंडित टोडरमल की मूल प्रति में भी अधिकार शब्द ही मिलता है तथा अन्य हस्तलिखित प्रतियों में भी अधिकार शब्द का प्रयोग हुआ है । डॉ० लालबहादुर शास्त्री ने यह परिवर्तन किस आधार पर किया है, इस संबंध में उन्होंने कोई उल्लेख नहीं किया है । ग्रंथकार ने प्रत्येक अधिकार के अन्त में तो 'अधिकार' शब्द का स्पष्ट प्रयोग किया ही है, किन्तु प्रकरणवशात् बीच में भी इस प्रकार के उल्लेख किए हैं। जैसे "सो इन सवनि का विशेष आगे कर्म अधिकार विषै लिखेंगे तहाँ जानना । " डॉ० लालबहादुर शास्त्री ने भी प्रकरण के बीच में प्राप्त उल्लेखों में
१ वीरवाणी : टोडरमलांक २०-२१
२ मो०
१० मा० प्र०
(क) सस्ती ग्रंथमाला, दिल्ली
( ख ) अनन्तकीर्ति ग्रंथमाला, बम्बई
(ग) श्री दि० जेन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़
(घ) श्री टोडरमल ग्रंथमाला, जयपुर
मो० मा० प्र०, ४४
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
अधिकार शब्द का प्रयोग किया है । अतः अधिकार शब्द ही सर्वमान्य एवं ग्रंथकार को इष्ट है ।
'सं
आलोच्य ग्रंथ के प्रारम्भ में मंगलमय वीतराग - विज्ञान को नमस्कार किया है, तदुपरान्त पंचपरमेष्ठी को आठवें अधिकार को छोड़ कर प्रत्येक अधिकार का प्रारम्भ दोहा से किया गया है। ग्रंथ का आरम्भ मंगलाचरण रूप दो दोहीं से हुआ है पर या प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ में एक-एक दोहा है । प्रारम्भिक दोहों में वर्ण्य विषय का संकेत दे दिया गया है। सातवें के अतिरिक्त प्रत्येक अधिकार के अन्त में 'तुम्हारा कल्याण होगा' के मृदुल सम्बोधन में पाठकों को मंगल आशीर्वाद दिया गया है। ग्रंथ के सर्व अधिकारों का विषयानुसार स्वाभाविक विकास हुआ है ।
२
ग्रंथ का नाम मोक्षमार्ग प्रकाशक है, अतः इसमें मोक्षमार्ग का प्रतिपादन अपेक्षित है - पर मुक्ति बंधन-सापेक्ष है, अतः इसके प्रारम्भ में बंधन (संसार) की स्थिति और कारणों पर विचार किया गया है । आरम्भ के सात अधिकारों में यही विवेचना है। ग्राव अधिकार में जिनवाणी का मर्म समझाने के लिए उसके समझाने की विधि का सांगोपांग वर्णन है | नवम् अधिकार में मोक्षमार्ग का कथन प्रारम्भ हुआ है ।
प्रथम अधिकार ग्रंथ की पीटिका है। इसमें मंगलाचरणोपरान्त, मंगलाचरण में जिन्हें स्मरण किया गया है, उन पंचपरमेष्ठियों का स्वरूप उनके पूज्यत्व का कारण मंगलाचरण का हेतु, ग्रंथ की प्रामाणिकता और ग्रंथ निर्माण हेतु पर विचार किया गया है । तदुपरान्त बांचने-सुनने योग्य शास्त्र के स्वरूप तथा वक्ता और श्रोता के स्वरूप पर भी विचार किया गया है । अन्त में मोक्षमार्ग प्रकाशक के निर्माण और नाम की सार्थकता सिद्ध की गई है ।
" जो परमपद में स्थित हों, उन्हें परमेष्ठी कहते हैं । ये पांच होते हैं - अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु ।
* दुखों से छूटने के उपाय को मोक्षमार्ग कहते हैं ।
मो० मा० प्र०, ३०
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रचनाओं का परिचपात्मक अनुशीलन
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दुसरे अधिकार में मंसार अवस्था का वर्णन है। आत्मा के माय क्रमों का बंधन, उनका अनादित्व एवं प्रात्मा में भिन्नत्व तथा कमाँ के घानिकर्म अघानिकर्म, ट्रम्पकम, गावकर्म अादि भदों पर विचार किया गया है। नगरान्न नवीन बंध, बंध के भेद व उनके कारगगों पर भी प्रकाश दाना गया है। अन्त में क्षामिक ज्ञान (अर्द्धविकसिन ज्ञान ) की पराधीन प्रवृति एवं अष्ट कर्मोदयजन्य ज. बरपा विस्तारमान किया है ।
तीसरे अधिकार में गांसारिक दुःख, दुःखों के मूल कारणमिथ्यात्व', अज्ञान, प्रसंयम ; कषायजन्य जीव की प्रवृत्ति और उनमे निवृत्ति के उपाय का वर्णन है। तदुपरान्त एकेन्द्रियादिव जीवों के चतुर्गति भ्रमग संबंधी दुखों का विस्तृत विवेचन कर उनसे छूटने का उपाय बताया गया है । अंत में सर्वदुःख रहित गित दगा का स्वरूप बताकर उममें सर्वगुख सम्पन्नता सिद्ध की गई है ।
चौथे अधिकार में अनादिकालीन मियादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र का वर्णन है। इन्हीं के अंतर्गत मोक्षमार्ग के प्रयोजनभुत-अप्रयोजन भूत का विवेक एवं मोह-राग-द्वेष रूप प्रवृनि का विस्तृत विवेचन किया गया है ।।
पाँचवें अधिकार में गृहीत मिथ्यात्व का विस्तृत वर्णन किया है। इसके अंतर्गत विविध मतों की समीक्षा की गई है – जिममें सर्वव्यापी अद्वैतग्रह्म, मृष्टि-कर्ताबाद, अवतारवाद, यज्ञ में पशु-हिमा, भक्तियोग, ज्ञानयोग, मुस्लिममत, सांध्यमत, नैयायिकमत, वैशेषिकमान, मीमांस कमत, जैमिनीयगत, योद्धमत, चार्वाकमत की समीक्षा की गई है तथा उक्त मतों और जैनमत के बीच तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
अन्य मतों के प्राचीनतम महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के आधार पर जनमत की प्राचीनता और ममोचीनता सिद्ध की गई है । बदनन्तर जैनियों के अंतर्गत सम्प्रदाय श्वेताम्बरमत पर विचार करते हुए स्त्रीमुक्ति, शूद्रमुक्ति,
१ वस्तु स्वरूप के सम्बन्ध में उल्टी मान्यता को मिश्यारव कहते हैं ।
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पंडित टोरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व सवस्त्रमुक्ति, केवली-कवलाहार-निहार, ढूंढकमत, मूर्तिपूजा, मुंहपत्ति ग्रादि विषयों पर युक्तिपूर्वक विचार किया गया है ।
छठे अधिकार में भी गृहीत मिथ्यात्व के ही अन्तर्गत कुदेव, कुगुरु, बुधर्म का स्वरूप बता कर उनकी उपासना का प्रतिषेध किया गया है। साथ ही गणगौर, शीतला, भूतप्रेतादि ध्यंतर, सूर्यचन्द्र शनिश्चरादिग्रह, पीर-गम्बर, गाय आदि पशू, अग्नि, जलाद के पूजत्व पर विचार किया गया है एवं क्षेत्रपाल, पदावती आदि एवं यक्ष-यक्षिका की पूजा-उपासना आदि का सयुक्तिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है और इनके पूजत्व का निराकरण किया गया है।
सातवें अधिकार में सुक्ष्म मिथ्यात्व का वर्णन किया गया है, जो नाम मात्र के दिगम्बर जैनियों के साथ-साथ जिन अाज्ञा को मानने वाले दिगम्बर जैनियों में भी पाया जाता है क्योंकि वे जिनागम का मर्म नहीं समझ पाते। ये भी एक प्रकार से गृहीत मिथ्यादृष्टि ही है । यद्यपि इनके जैनेतर कुगुरु आदि के सम्पर्क का प्रश्न पैदा नहीं होता तथापि ये अपने स्वयं के अज्ञान ब गलतियों तथा दि० जैन वेषधारी तथावथित अज्ञानी गुमनों एवं उनके द्वारा लिखित शास्त्रों के माध्यम से अपनी विपरीत मान्यताओं की पुष्टि करते रहते हैं।
पंडित टोडरमल ने इन मिथ्यादृष्टियों का चार भागों में वर्गीकरण क्रिया है :
(१) निश्चयाभासी मिथ्यावृष्टि (२) 'व्यवहाराभासी मिथ्याष्टि (३) उभयाभामी मिश्यादृष्टि (४) सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यारिट
निश्चयाभासी मिथ्यावृष्टि का विवेचन करते हा निश्चयाभासी जीव की प्रवृत्ति का विस्तार से वर्णन किया है एवं प्रात्मा को शुद्धता समझे बिना प्रात्मा को शुद्ध मान कर स्वच्छन्द होने का निषेध किया है।
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
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व्यवहाराभासी मिध्यादृष्टि का वर्णन करते हुए कुल अपेक्षा धर्म मानने एवं विचाररहित आज्ञानुसारिता का निषेध कर परीक्षाप्रधानी होने का समर्थन किया है। साथ ही व्यवहाराभामो जीव की प्रवृत्ति बताने हुए विषय कषाय की प्राशा से की जाने वाली अन्त देव, शास्त्र और गुरु की अंध भक्ति का निषेध किया है तथा व्यवहाराभासी जैनी सप्त तत्त्वों के समझने में क्या-क्या भूल करता है, उनका विस्तार से वर्गान किया है। वह सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति के लिए भी बीसी-कैसी प्रविचारित प्रवृत्तियाँ करता है. इसका भी दिग्दर्शन कराया है।
उभयाभासी मिथ्यादृष्टियों की स्थिति का चित्रण करते हुए निश्चयनय और व्यवहारनय का बहुत गंभीर तर्कसंगत एवं विस्तृत विवेचन किया है तथा निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग का भी विशेष स्पष्टीकरण किया गया है ।
सम्यक्त्व के सन्मुख मिध्यादृष्टियों के वर्णन में वस्तु स्वरूप को समझने की पद्धति का विस्तृत विवेचन करने के उपरान्त सम्यक्व की प्राप्ति में होने वाली क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करालब्धि, इन पाँच लब्धियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है ।
उक्त अधिकार के अन्त में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जो मिथ्यादृष्टियों में पाये जाने वाले दोषों का वर्णन किया है, वह दूसरों के दोषों को देखकर निन्दा करने के लिये नहीं, बरन् उस प्रकार के दोष यदि अपने में हों, तो उनसे बचने के लिये किया गया है ।
अधिकार में उपदेश के स्वरूप पर विचार किया गया है। समग्र जैन साहित्य विषय-भेद की दृष्टि से चार अनुयोगों में विभक्त है, जिनके नाम हैं- प्रथमानुयोग करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग | प्रत्येक अनुयोग की अपनी कथनशैली अलग-अलग है । कथनशैली का ज्ञान हुए बिना जैन साहित्य का मर्म समझ में नहीं आ सकता । अतः इस अधिकार में अनुयोगों का विषय और उनकी प्रतिपादन शैली का विस्तृत विवेचन किया गया है। प्रत्येक अनुयोग
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गटिस गोरगत : व्यक्तित्व और कर्सत्व
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का अपना अलग-अलग प्रयोजन होता है, उसे समझे बिना व्यर्थ की शंकाएँ और विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। उनका निराकरण करने के लिये प्रत्येक अनुयोग का अलग प्रयोजन इम में स्पष्ट किया गया है । प्रत्येक अनुयोग की कथनशंली में संभावित दीप-कल्पनानों को स्वयं उठा-उठा कर उनका सयुक्तिक निराकरण किया गया है तथा अपेक्षाज्ञान के अभाव में जिनागम में दिखाई देने वाले परस्पर विरोध का समुचित समाधान किया गया है । अन्त में अनुयोगों के अभ्यामक्रम पर विचार करते हुए ग्रागम अभ्यास की प्रेरणा दी गई है तथा अध्यात्म शास्त्रों के अभ्यास की विशेष प्रेरणा दी गई है, क्योंकि वस्तु स्वरूप का मर्म तो अध्यात्म शास्त्रों में ही है। अध्यात्म शास्त्र पढ़ने का निषेध करने सम्बन्धी अनेक तर्कों को स्वयं उठा-उठाकर उनका निराकरण किया गया है । '
नौवें अधिकार में मोक्षमार्ग का स्वरूप प्रारम्भ हुया है। इसमें सांसारिक सुख की अमारता एवं मोक्ष सुख की वास्तविकता पर विचार करने के उपरान्त 'मोक्ष की प्राप्ति पुरुषार्थ से ही संभव है', इस तथ्य को विस्तार से अनेक तर्को द्वारा समझाया गया है एवं मुक्ति प्राप्ति के लिये पर के सहयोग की अपेक्षा छोड़ कर स्वयं पुरुषार्थ करने की प्रेरणा दी गई है। तदुपरान्त मोक्षमार्ग का स्वरूप
आरम्भ करने के साथ ही लक्षण और लक्षणाभास पर भी विचार किया गया है। मोक्षमार्ग के प्रथम अंग सम्यग्दर्शन की परिभाषा, उसमें आए विभिन्न पदों की विस्तृत व्याख्या एवं उसमें उठने बाली शंकाओं का समाधान करने के माथ ही विभिन्न अनुयोगों में दी गई सम्यग्दर्शन की विभिन्न परिभाषाओं पर विस्तारपूर्वक विचार करते हुए उनमें समन्वय स्थापित किया गया है। सम्यग्दर्शन में जिन प्रयोजनभूत तत्त्वों की श्रद्धा यावश्यक है, उनकी संख्या ग्रादि के संबंध में भी सयुक्तिक विस्तृत विवेचन किया गया है । तत्पश्चात् सम्यग्दर्शन के भेद व उनके स्वरूप पर विचार करने के उपरान्त सम्यग्दर्शन के आठ अंग और पच्चीस दोषों का वर्णन प्रारम्भ किया था, किन्तु एक पृष्ठ भी न लिख पाए और ग्रंथ अधूरा रह गया।
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशासन
१२६
यह ग्रंथ विवेचनात्मक गद्यशैली में लिखा गया है। प्रश्नोत्तरों द्वारा विषय को बहुत गहराई से स्पष्ट किया गया है। इसका प्रतिपाद्य एक गंभीर विषय है, पर जिस विषय को उठाया है उसके सम्बन्ध में उठने वाली प्रत्येक शंका का समाधान प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। प्रतिपादन शैली में मनोवैज्ञानिवता एवं मौलिकता पाई जाती है। प्रथम शंका के समाधान में द्वितीय शंका की उत्थानिका निहित रहती है। ग्रंथ को पढ़ते समय पाठक के हृदय में जो प्रश्न उपस्थित होता है उसे हम अगली पंक्ति में लिखा पाते हैं । ग्रंथ पढ़ते समय पाठक को आगे पढ़ने की उत्सुकता बराबर बनी रहती है।
_वाक्य रचना संक्षिप्त और विषय प्रतिपादन शैली ताकिक एवं गंभीर है। व्यर्थ का विस्तार उसमें नहीं है, पर विस्तार के संकोच में कोई विषय अस्पष्ट नहीं रहा है। लेखक विषय का यथोचित विवेचन करता हना आगे बढ़ने के लिये सर्वत्र ही आतुर रहा है । जहाँ कहीं विषय का विस्तार भी हुया है वहीं उत्तरोतर नवीनता आती गई है। वह विषय-विस्तार सांगोपांग विषय-विवेचना की प्रेरणा से ही हुआ है। जिस विषय को उन्होंने छुना उसमें 'क्यों' का प्रश्नवाचक समाप्त हो गया है। शैली ऐसी अद्भुत है कि एक अपरिचित विषय भी सहज हृदयंगम हो जाता है ।
विषय को स्पष्ट करने के लिए समुचित उदाहरणों का समावेश है । कई उदाहरण तो सांगरूपक के समान कई अधिकारों तक चलते हैं। जैसे रोगी और वैद्य का उदाहरण द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम अधिकार के प्रारम्भ में आया है । अपनी बात पाठक के हृदय में उतारने के लिए पर्याप्त आगम प्रमाण, सैकड़ों तर्क तथा जैनाजैन
मो० मा० प्र०, ३१ २ वही, ६५ ३ वही, १०६ ४ वही, १३७
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१३०
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और फर्सत्व दर्शनों और ग्रंथों के अनेक कथन व उद्धरण प्रस्तुत किये गए हैं । ऐसा लगता है वे जिस विषय का विवेचन करते हैं उसके सम्बन्ध में असंख्य ऊहापोह उनके मानस में हिलोरें लेने लगते हैं तथा वस्तु की गहराई में 1 मोक्षमार्ग प्रशाशक, सस्ती ग्रन्थमाला दिल्ली :
नाम ग्रंथ या दर्शन
पृष्ठ संख्या
नाम ग्रंथ या दर्शन
पृष्ठ संख्या
वैक्षिक
२०. गीता १५०,११,३६६ २०८ २१. अवतारवाद २०८,२०६ २२. योगशास्त्र
१६७ १३८ २३. योगवशिष्ठ १३८ २४. शृंगारशतक
१३८ २५. नीतिशतक १४८,१६३ २६. दक्षिणामूर्ति सहस्त्रनाम २०३
१४, २७. वंशम्पायन सहस्त्रनाम २०४ १४. २८. महिम्निस्तोत्र (दुर्वासाकृत)२०४ ... २६. रुद्रयामल तन्त्र २०५
(भयानी सहस्त्रनाम)
२८२
१. ऋग्वेद २. यजुर्वेद ३. छान्दोग्योपनिषद् ४. मुण्डकोपनिषद् ५. कठोपनिषद् ६. विष्णु पुराण ७. वायु पुराण ८. मत्स्य पुराण ६. ब्रह्म पुराण १०. गणेश पुराण . ११. प्रभास पुराण १२. नगर पुराण
(भवावतार रहस्य) १३. काशी खण्ड १४. मनुस्मृति १५. महाभारत १६. हनुमन्नाटक १७. दशावतार चरित्र १८. व्यास सूत्र १६. भागवत
१८१
१८५
१८८
२०६,२०७
भारतीय दर्शन २०७
३०. वेदान्त ३१. सांख्य
३२. न्याय २०५ ३३. वैशेषिक २१० ३४. मीमांसा २०४ ३५, जैमिनीय २०६ ३६, चार्वाक
२०५ इस्लाम १६३,१६४ ३७. कुरान शरीफ
१६२
१६६
१०
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रचनामों का परिचयात्मक अनुशीलन उतरते ही अनुभूति लेखनी में उतरने लगती है। वे विषय को पूरा स्प। गा रहे हैं : पार नहीं बिलय को अस्पष्ट छोड़ना पड़ा है वहाँ उल्लेख कर दिया गया है कि उसे आगे विस्तार से स्पष्ट करेंगे।
नाम ग्रंथ या दर्शन
पृष्ठ संख्या
नाम ग्रंथ या दर्शन
पृष्ठ संख्या
२६१,२६५, ५६. ज्ञानार्णव
३६६
बौद्ध ग्रंथ
५२, परमात्मप्रकाश
२६९ ३८, अभिधर्म कोष १६४ ५३. श्रावकाचार(योगीन्द्रदेव) ३५०
५४. गोम्मटसार ३१६,३९७ श्वेताम्बर जैन ग्रंथ
जीवकांड ३६. प्राचारांग सूत्र
५५. गोम्मटसार टोका ३६४ ४०. भगवती सूत्र
५६. लब्धिसार ३८५,३८६ ४१. उत्तराध्ययन सूत्र
५७. रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३६३ ४२. बृहकाल्प सूत्र
५८. वृहत्स्वयंभू स्तोत्र ४३, उपदेशसिद्धान्त रत्नमाला
३१४,४४१
६०. धर्म परीक्षा ४४. संघपट्ट
२६५ ४५. ढारी पंय
६१. सूक्ति मुक्तावली
६२. प्रात्मानुशासन २४,८१ दिगम्बर जैन ग्रंथ ४६. षट् पाहड़ २६२,२६६-६८ ६३. तत्त्वार्थ मूत्र ३१०,३२६ २६३,२७५,४३१
३३८,३८३ ४७. पंचास्तिकाय
३२६ ६४. समयसार कलश २८६,२८७ ४८. प्रवचनसार
३०३,३०४-५ ४६. रयरासार
२७७ ६५. पद्मनन्दि पच्चीसी २९५ ५०. धवल
३८७ ६६. पुरुषार्थसिदयुपाय ३७२ ५१. जयश्वल
३८८ ६७. पाहुइ दोहा २४,२५ १ मो० मा० प्र०, ४४, ११६, २३१, २४६, ३०४, ३४१, ३४६, ३७८, ४७४
२३२
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व प्रौर कवि
आत्मानुशासन भाषाटीका
'आत्मानुशासन' शान्त रस प्रधान अत्यन्त लोकप्रिय रचना है। यह संस्कृत भाषा में छन्दोबद्ध है। इसमें पन्द्रह प्रकार के विभिन्न छन्दों में २६६ पद्य हैं । यह नीति-शास्त्रीय सुभाषित ग्रंथ है। इसमें विभिन्न विषयों पर मार्मिक विचार प्रस्तुत किये गए हैं । इसकी तुलना हम मत हरि के वैराग्यशतक और नीतिशतक से कर सकते है । संस्कृत साहित्य में जो स्थान भर्तृहरि के वैराग्यशतक और नीतिशतक का है, जैन संस्कृत साहित्य में वही स्थान यात्मानुशासन का है । इस ग्रन्थ पर पंडित टोडरमल ने भाषाटीका लिखी है, जो प्रकाशित हो चुकी है। इसके आधार पर परवर्ती विद्वानों ने अनेक टीकाएं लिखी हैं, जिनमें से एक ब्र० जीवराज गौतमचन्द्र द्वारा मराठी भाषा में लिखी गई है, जो कि पंडित टोडरमल की टीका का अनुवाद मात्र है'। एक हिन्दी टीका पं० बंशीधर शोलापूर ने भी लिखी है, जो कि जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई से १६ फरवरी सन् १९१६ ई० को प्रकाशित हुई है। सन् १९६१ ई० में एक विस्तृत प्रस्तावना व संस्कृत टीका सहित एक टीका प्रो० ए० एन० उपाध्ये, प्रो० हीरालाल जैन एवं बालचन्द सिद्धान्तशास्त्री के सम्पादकत्व में जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर से प्रकाशित हुई है। उक्त सभी उत्तरकालीन टीकाएँ पंडित टोडरमल की टीका से प्रभावित हैं। प्रात्मानुशासन की एक टीका अंग्रेजी में भी प्रकाशित हुई है, जिसके लेखक हैं श्री जे० एल० जनी ।
इस दीका का नाम 'यात्मानुशासन भाषाटीका' है। पंडित टोडरमल ने जितने भी ग्रन्थों की टीकाएँ लिखी हैं, उन सभी ग्रन्थों के नाम के आगे 'भाषाटीका' लगा कर ही उसका नाम रखा है। एक सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका का अवश्य अलग नाम दिया है, किन्तु उसके अंतर्गत जिन चार ग्रन्थों की टोकाएँ लिखी हैं, उनके अलग-अलग नाम इसी प्रकार दिए है-जैसे गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषाटीका,
१ प्रास्मानुशासन गोलापुर, सन् १९६१ ३०, प्रस्तावना, ३३ १ प्र. वी. काश्मीरीलाल जैन सब्जीमंडी, दिल्ली, सन् १९५६ ई.
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रचनाप्नों का परिचयात्मक अनुशीलन
१३३ गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषाटीका आदि। अत: इस दीका का नाम भी 'पात्मानुशासन भाषाटीका' ही उन्हें अभीष्ट था । परवर्ती सभी विद्वानों ने इसी नाम का प्रयोग किया है। समाज में भी यही नाम प्रचलित है। हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों में भी 'भाघाटीका' शब्द का ही प्रयोग हुआ है।
प्रात्मानुशासन ग्रन्थ के कर्ता प्राचार्य गुरणभद्र (नवीं शताब्दी) हैं जो महापुराण के कर्ता भगवज्जिनसेनाचार्य के शिष्य हैं तथा जिन्होंने अपने गुरु के आकस्मिक निधन के पश्चात् अधुरे महापुराण को पूर्ण किया। गुणभद्राचार्य ने इस बैराग्योत्पादक ग्रन्थ की रचना अपने विषय-विमोहित गुरुभाई लोकसेन मुनि के संबोधनार्थ की थी, जैसा कि इसकी संस्कृत टीका और हिन्दी टीका के प्रारम्भ में क्रमशः प्राचार्य प्रभाचन्द्र और पंडित टोडरमल ने लिखा है।
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श्री दि० जैन बड़ा मंदिर, जयपुर एवं श्री दि. जैन मंदिर प्रादर्शनगर, जयपुर में प्राप्त प्रतियाँ । १ (क) जैनेन्द्र सिद्धान्त शब्दकोष, २५५ (ख) सोहे जिनशासन में प्रात्मानुशासन श्रुत,
जाकी दुःखहारी सुखकारी सांची शासना । जाको मुगभद्र करता, गुणभद्र जाकी जानि, भव्य गुणधारी भव्य करत उपासना ।।
___-या. भा० टी०, मंगलाचरण ३ "बृहदश्रमभ्रातुकिसेनस्य विपयव्यामुग्घबुद्धेः संबोधनव्यानसर्वसत्वोपकारक
सम्मानमुपदर्शवितुंकामो गुणभद्रदेवो निविघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिक फलमभिलषन्निष्टदेवज्ञाविशेषं नमस्कुगियो लक्ष्मीत्याचाह"।
- आत्मानुभासन, १ ४ "अथ श्री गुणभद्र नामा मुनि अपना धर्मभाई लोकसेन मुनि विषय विमोहित
भया ताका संवोधन तिस करि सर्व जीवनिकों उपकारी जो भला मार्ग ताका उपदेश देने का अभिलाणी होत संता निर्विघ्न शास्त्र की सम्पूर्गाता आदि अनेफ फलकी बांछा करता हुया प्रगने इष्टदेव को नमस्कार करता संता प्रथम ही लक्ष्मी इत्यादि सूत्र कहे हैं।"
- प्रा. भा. टी. १
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१३४
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व इस अन्य पर प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने तेरहवीं शती में एक संस्कृत टीका लिखी जो सन् १९६१ ई० में जीवराज ग्रन्धमाला, शोलापुर से प्रकाशित हुई है। इसकी भाषाटीका लिखते समय पंडित टोडरमल के सामने उक्त संस्कृत टीका थी, पर उन्होंने उसका विशेष सहारा नहीं लिया है । जो स्पष्टता पंडित टोडरमल की भाषाटीका में है वह उक्त संस्कृत टीका में नहीं है। भाषाटीका की एक विशेषता यह है कि उसमें अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए जहाँ आवश्यक समझा गया है वहाँ भावार्थ भी दिया है । दोनों के कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं :
पापाद् दुःखं धर्मात्सुखमिति सर्वजनसुप्रसिद्धमिदम् ।
तस्माद्विहाय मां च तु सुखर्धी राम् ।।६।। संस्कृत टीका - एवंविधः शिष्यो गुरूपदेशात्सुखाथितया
धर्मोपार्जनार्थमेव प्रवर्तताम् । यतः - पापादित्यादि ।
इति एवम् । चरतु अनुतिष्ठतु ||८||' भाषा टीका -- पाप तें दुःख ही है । धर्म त सुख हो है । ऐसें यहु
वचन सर्व जननि विर्षे भली प्रकार प्रसिद्ध हैं । सर्व ही ऐसें मान हैं वा कहैं हैं । तात सुख का अर्थी है, जाकौं सुख चाहिए सो पाप को छोड़ि सदा काल धर्म . प्राचरौं । भावार्थ - पाप का फल दुःख अर धर्म का फल सुख, ऐसे हम ही नाहीं कहैं हैं, सर्व ही कहैं हैं। तातं जो
सुख चाहिये है तो पाप को छोड़ि धर्म कार्य करो।' अंधादयं महानन्धो विषयान्धीकृतेक्षणः । चक्षुषान्धो न जानाति विषयान्धो न केनचित् ।।३५।।
१ आत्मानुशासन शोलापुर, ८ र आ. भा. टी०, ६ .
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रचनाओं का परिचना मागोजन संस्कृत टीका - विषयव्यामुग्धस्य पुत्रवधाद्यकृत्यप्रवृत्ती कारणमाह
अन्धादित्यादि । विषयान्धीकृतेक्षणः अनन्धानि अन्धानि कृतानि अन्धीकृतानि, विषयैः अन्धीकृतानि
ईक्षणानि इन्द्रियारिग यस्य ।।३५॥ भाषा टीका -- विषयनि करि अन्ध किये हैं- सम्यग्ज्ञान रूपी नेत्र
जाका ऐसा यहु जीव है सो अन्ध से भी महाअंध है । इहाँ हेतु कहैं हैं। अंध है सो तौ नेत्रनि ही करि नाहीं जान है पर विषय करि अंध है सो काह कर भी न जाने है। मावार्थ - अंध पुरुष के तो नेवनि ही करि नाही सूझे है। मन करि विचारना काना करि सुनना इत्यादि ज्ञान तो वाक पाइए है । बहुरि जो विषयवासना ऋरि अंध भया है ताक काहू द्वार ज्ञान न होइ सके है । यदि नेत्रनि विर्षे दुःख हो तो नेत्रनि करि न दीस, तो मन करि विचार, भास, सीख देने वाला सुनाव इत्यादि ज्ञान होने के कारन बने परन्तु विषयवासना करि ऐसा अंध होइ काह को गिने नाहीं । तातें अंध होना निषिद्ध है। तिस ने भी विषयनि
करि अंध होना अति निषिद्ध जानना।' शुद्धधविवर्धन्ते सतामपि न संपदः ।
न हि स्वच्छाम्बुभिः पूरः कदाचिदपि सिन्धवः ।।४५।। संस्कृत टोका - ननु निरबद्यवृत्त्या अर्थोपार्जनं कृत्वा संपदां वृद्धि
विधाय सुखानुभक्नं करियामीति वदन्तं प्रत्याहशुद्धरित्यादि । शुद्धः निरवद्यः । स्वच्छाम्बुभिः निर्मलजलैः । सिन्धवः नद्यः ॥४५॥
'प्रात्मानुशासन शोलापुर, ३६ २ प्रा० भाटी०, ३७ 3 मात्मानुशासन शोलापुर, ४५
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तस्व भाषा टीका - अहो प्राणी ! न्याय के आचरण करि उपाा जो
धन ताहू करि उत्तम पुरुषनि हू के सुख संपदा नाहीं बढ़े है। जैसे निर्मल जल करि कदाचित् भी समुद्र नाही पूर्ण होवे है। भायार्थ - अयोग्य आचरण तो सर्वधा त्याज्य ही है । अर योग्य आचरण करि उपाळ जो धन ताहू करि विशेष संपदा की वृद्धि नाहीं। जैसे कदाचित् हू निर्मल जल करि समुद्र नाहीं पूर्ण होय है । तातें न्यायोपाजित धन हूँ की तृष्णा तजि सर्वथा
निःपरिग्रही होहु ।' शरीरमपि पुष्यन्ति सेवन्ते विषयानपि ।
नास्त्यही दुष्करं नृणां विषाद्वान्छन्ति जीवितुम् ।।१६६॥ संस्कृत टीका - एवंविधं शरीरं पोषयित्वा कि कुर्वन्तीत्याह -
शरीरमित्यादि । पुष्णन्ति पोषयन्ति ॥१६६।। भाषा टीका .. अहो लोको ! मूर्ख जीव कहा कहा न करें। शरीर
ऑ तो पोरे, अर विषयनि रोवै । मूर्खनि . कछू विवेक नाहीं, विष ने जिया चाहैं। अविवेकीनि . पाप का भय नाही, अर विचार नाहीं । बिना विचारें न करने योग्य होय सो कार्य करें। भावार्थ - जो पण्डित विवेकी हैं ते शरीर अधिक प्रेम न करें। नाना प्रकार की सामग्री करि याहि न पोषै, पर विषयनि जन सेवें । अर जे मूढ़ जन हैं ते शरीर । अधिक पोष, अर विषयनि कू सेवे, न करिव योग्य कार्य की संका न करें। जो विषयनि कै सेवें हैं ते विष खाय जीया चाहे हैं ।।
१ आ. भा. टी, ४८ २ प्रात्मानुशासन शोलापुर, १८७-८% 3 आभा० टी०, २२०
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रचनामों का परिचयात्मक अनुशीलन
शिरःस्थं भारमुत्तार्य स्कन्धे कृत्वा सुयत्नतः ।
शरीरस्थेन भारेग अज्ञानी मन्यते सुखम् ॥२०६।। संस्कृत टीका - प्रेक्षावतामुद्वेगः कर्तुं मनुचित इत्याह ।।२०६।।' भाषा टीका - जैसे कोऊ शिर का बोझ उतारि कांधे धरि सुख
मान है, तैसें जगत के जीव रोग का भार उतारि शरीर के भार करि सुख माने हैं। भावार्थ - जगत के जीव रोग गए, शरीर रहे सुख मान हैं । अर ज्ञानी जीव शरीर का सम्बन्ध ही रोग जाने हैं। तातै शरीर जाय तो विषाद नाहीं । जैसा शिर का भार तैसा ही कांधे का भार । जैसे रोग
का दुख तैसा ही देह धारण का दुख है ।। उक्त संस्कृत टीका की अस्पष्टता एवं भाषाटीका के प्रभाव की पूर्ति पंडित टोडरमल की भापाटीका से हुई। इस टीका में पंडित टोडरमल की अगाध विद्वत्ता की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है ।
आत्मानुशासन भाषाटीका लिखने की प्रेरणा उन्हें अपने अन्तर से ही प्राप्त हुई है । अन्तःप्रेरणा का प्रेरक मिथ्या भ्रम में फंसे हुए जीवों के उपकार की भाबना रही है। इस टीका को देशभाषा में लिखने का उद्देश्य मंदबुद्धि जीवों को भी इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का अर्थ समझाना रहा है, जैसा कि उन्होंने मंगलाचरगा के छन्द में दिया है ।
'भात्मानुशासन शोलापुर, १६४ २ प्रा. भा० टी०, २२७ । ऐसे सार शास्त्रनको प्रकाशे अथं जीवन कौं ।
बन उपकार नाशै मिथ्यानम वासना ।। तातं देशभाषा करि अयं को प्रकाशकरे । जात मंद बुद्धि हू के होवे अर्थ भासना ।।१।।
-प्रा० भा० टी०,१
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पंडिस टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व अात्मानुशासन भाषाढीका सम्पूर्ण प्राप्त है, पर उसके अन्त में ग्रंथ के अन्त में लिखी जाने वाली टीकाकार को प्रशस्ति उपलब्ध नहीं है। हो सकता है प्रशस्ति लिखी ही न गई हो । अतः इस ग्रंथ में तो रचनाकाल सम्बन्धी कोई उल्लेख है नहीं, अन्यत्र भी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। अ० रायमल द्वारा विक्रम संवत् १५२१ में लिखी गई इन्द्रध्या विधान महोत्सब त्रिकी इस रचना की चर्चा नहीं है. जब कि अन्य रचनाओं के विस्तार से उल्लेख उक्त पत्रिका में हैं। अतः प्रतीत होता है कि यह रचना कम से कम उस समय तक पूर्ण नहीं हुई थी। __हो सकता है यह रचना वि० सं० १८१८ में सम्यग्ज्ञानचंद्रिका के समाप्त होने के बाद प्रारंभ कर दी हो । लगता है इसका नारंभ और मोक्षमार्ग प्रकाशक का प्रारंभ करीब-करीब साथ-साथ हुआ होगा। मोक्षमार्ग प्रकाशक के प्रथम अधिकार में वर्णित वक्ता-श्रोता के लक्षणों में इसके प्रारंभिक श्लोकों के उद्धरण ही नहीं दिये गए, वरन् उनके आधार पर विस्तृत विवेचन भी किया गया है। यह भी प्रतीत होता है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक के छठवें अधिकार तक आतेअाते यह टीका समाप्त हो गई होगी क्योंकि छठवें अधिकार में बरिणत साधुओं के शिथिलाचार पर इस ग्रन्थ में वरिणत शिथिलाचार की स्पष्ट छाप है । वि० संवत् १८२४ के पूर्व तो इसकी समाप्ति माननी ही होगी क्योंकि उसके बाद तो पंडित टोडरमल का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता।
__ यदि इस टीका का उपरोक्त रचनाकाल सही है तो निश्चित रूप से इसकी रचना जयपुर में ही हुई होगी क्योंकि उक्त काल में पंडित टोडरमलजी की उपस्थिति जयपुर में ही सिद्ध होती है । उनके अन्यत्र जाने का कोई उल्लेख नहीं है ।
प्रात्मानुशासन सुभाषित साहित्य है, अतः इसमें किसी एक विषय का क्रमबद्ध वर्णन न होकर बहुत से उपयोगी विषयों का वर्णन है । इसके वर्ण्य-विषय के सम्बन्ध में डॉ० हीरालाल जैन और प्रा० ने० उपाध्ये लिखते हैं :
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
E
गुरण भी हैं,
I
"इसमें सिद्धान्त भी हैं और आचार भी । काव्य के और दृष्टान्तों द्वारा सुगम्य सूक्तियां भी कोई विषय इतनी दूर तक नहीं लाना गया कि वह पाठक को थका दे। थोड़े में बहुत कुछ उपदेश दे दिया गया है, और वह भी ऐसी सुन्दर शैली में कि विषय एकदम हृदयंगम हो जाय और उसके वाचक शब्द भी स्मृति पर चिपक जावें । मुनियों और गृहस्थों, स्त्रियों और पुरुषों, बाल और वृद्ध, साहित्यकों और साधारण पाठकों को यह रचना समान रूप से रुचिकर और हितकारी होने की क्षमता रखती है। यही कारण है कि जैन समाज में शताब्दियों से इसका सुप्रचार रहा है। इस पर अधिक टीका टिप्पणी नहीं लिखी गई, इसका कारण उसकी सरलता है । उसमें जटिलता नहीं है । भारतीय सुभाषित साहित्य में आत्मानुशासन गरणनीय है - इस विशेषता के साथ कि उसमें श्रृंगाररस का विकार नहीं है' ।
आत्मानुशासन भाषाटीका का आरंभ मंगलाचरण स्वरूप काव्य से हुआ है, जिसमें देव-शास्त्र-गुरु के मंगल स्मरण के साथ-साथ आत्मानुशासन ग्रंथ और उसके ग्रंथकर्त्ता का परिचयात्मक स्मरण किया गया है । पश्चात् ग्रंथ निर्माण का हेतु बताया गया है । तदनन्तर मूलग्रंथ की भाषाटीका आरंभ होती है ।
संसार के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं, यतः उक्त प्रयोजन की सिद्धि के लिए इस ग्रंथ में आत्मस्वरूप की शिक्षा दी गई है। साथ ही साथ सावधान भी किया है कि कडुब श्रौषधि के समान यह उपदेश सुनने में कुछ कटु लग सकता है, परन्तु परिणाम हितकर ही होगा ।
इसका विषय अध्यायों में विभक्त नहीं है और न ही ऐसा करना संभव भी है, क्योंकि इसमें अनेक विषय जहाँ-तहाँ श्रा गये हैं । इसमें सिद्धान्त, न्याय, नीति, वैराग्य प्रादि की चर्चाएँ यत्र तत्र सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं। इसमें सम्यग्दर्शन का स्वरूप एवं उसके भेद, सुख-दुःख
आत्मानुशासन शोलापुर, सम्पादकीय, vii
१
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व का विवेक, दैब और पुरुषार्थ, जीवन और मरण, पुण्य-पाप, शत्रुमित्र की पहिचान, दुर्बुद्धि और सुबुद्धि में अन्तर, तृष्णा की स्थिति, कुटुम्बीजनों का स्वार्थीपन, संसार को नश्वरता, धनादि की निरर्थकता, जीवन की क्षणभंगरता. मनष्य पर्याय की दूर्लभता, लक्ष्मी की चंचलता, स्श्रीराम की निन्दा, सत्संगति की महिमा, ज्ञानाराधना की महत्ता, मन की ममता व उसका नियंत्रण, कषाय विजय की आवश्यकता, प्रात्मा और उसकी कर्मबद्ध अवस्था, मोह की महिमा, कामी की दुरवस्था, विषय-सेवन की निरर्थकता, सच्चे तपस्वी का स्वरूप, साधुओं की असाधुता, सत्साधु की प्रशंसा और असत्साधु की गहीं, याचकनिन्दा, अयाचक प्रशंसा, बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति का स्वरूप आदि विषयों का वैराग्य रसोत्पादक तर्कसंगत आध्यात्मिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
अन्त में प्रात्मानुशासन का फल बताते हुए ग्रंथ समाप्त हुआ है ।
आत्मानुशासन भाषाटीका विवेचनात्मक गद्यशैली में लिखी गई है। भाषा सरल व सुबोध है। अावश्यक विस्तार कहीं नहीं है। संक्षेप में अपनी बात कह कर टीकाकार आगे बढ़ते चले गए हैं । आगे बढ़ने की धुन में प्रभाचन्द्र की संस्कृत टीका के ममान विषय अस्पष्ट कहीं भी नहीं रहा है। जहाँ श्रावश्यकता समझी गई है, विषय विस्तार से भी स्पष्ट किया गया है । प्रत्येक लोक के पूर्व में उत्थानिका दी गई है। श्लोक के बाद पहले मुल श्लोक का सामान्यार्थ दिया गया है, बाद में भावार्थ लिख कर उसके अभिप्राय को स्पष्ट किया गया है। भावार्थ स्पष्टता के अनुरोध से ही लिखे गए हैं । जहाँ विषय को स्पष्ट देखा वहाँ भावार्थ नहीं लिखा है। सामान्यार्थ लिख कर ही आगे बढ़ गए हैं। उदाहरण के लिए प्रलोक नं० १,१३,७६,८० एवं ८७ देखे जा सकते हैं । यावश्यकतानुसार अन्य ग्रंथों के उदाहरण देकर भी विषय को स्पष्ट किया गया है । एलोक नं० १११ एवं १४१ में विषय की पुष्टि के लिए 'उक्त च' लिख कर ग्रंथान्तरों के उद्धरमा दिये गए हैं।
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रचमानों का परिचयारमक अनुशीलन पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषाटीका
_ 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' आचार्य अमृतचंद्रा (११वीं शती) का अत्यन्त लोकप्रिय ग्राध्यात्मिक ग्रंथ है, जिसमें श्रावकों के प्राचार का वर्णन है । यह ग्रंथ समस्त जैन परीक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रम में निर्धारित है और नियमित चलने वाले सभी जैन बिद्यालयों में पढाया जाता है । इस ग्रंथ पर पंडित टोडरमल ने सरल, सुबोध भाषा में भाषाटीका लिखी है जो कि उनके असमय में कालकलवित हो जाने से पूर्ण नहीं हो सकी । उसे पं० दौलतराम कासलीवाल ने पूर्ण किया । यह दीका
प्राचार्य अमृतचंद्र परम प्राध्यात्मिक संत, रससिद्ध कवि एवं सफस टीकाकार थे । उन्होंने कुंदकुंदाचार्य के प्राकृत भाषा में लिखे गए समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय नामक महान् ग्रन्धों पर. संस्कृत भाषा में अध्यात्मरस से योनप्रोत बेजोड़ टीकाएँ लिखी हैं। समयसार टीका (प्रात्मख्याति) के बीच-बीच में लिखे २७८ श्लोक जिन्हें 'समयसार कलमा' कहा जाता है, अपने ग्राम में अभूतपूर्व है। उन्होंने प्राचार्य गृपिच्छ उमास्वामी के महाशास्त्र तत्त्वार्थसुत्र (मोक्षशास्त्र) को आधार बना कर 'तत्त्वार्थसार' नामक एक ग्रंथ भी लिखा है। दिगम्बर प्राचार्य-परम्परा में
उन्हें महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । २ अमृतचंद्र मुनीन्द्रकृत, ग्रंथ थावकाचार ।
नध्यातम रूपी महा, प्राछिन्द जु सार ॥१।। पुरुषारय की सिद्धि को, जामैं परम उपाय । जाहि सुनत भव भ्रम भिटे, प्रातमतत्त्व लक्षाय ||२१॥ भाषाटोका ता उपरि, कीनी टोडरमल्ल ।। मुनिवत वृत्ति ताकी रही, वाके माहि अनल्ल ||३|| बे तो परभव कं गये, जयपुर मगर मझारि । सब साधर्मिन तव कियो, मन में यहै विवारि ||४|| ग्रंथ महा उपदेशमय, परम ध्यान को मूल । टीका पूरन होय तो, मिटै जीव की भूल ||५||
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पंडित टोडरमल : व्यक्तिरण और कसंत्व प्रकाशित हो चुकी है। तथा इसका अनुवाद खड़ी बोली में दि जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ से प्रकाशित हुआ है। पंडितजी की भाषाटीका के साधार पर परवर्ती विद्वानों ने अनेक टीकाएँ लिखी हैं जिनमें भूधर मिश्र, नाथूराम प्रेमी, उग्रसेन जैन, बाबू सूरजभान वकील, पं० मक्खनलालजी शास्त्री की प्रमुख हैं। उक्त टीकाकारों में से बहुतों ने यह बात भूमिका में स्वीकार भी की है । बाबू उनसेन जैन ने तो यहाँ तक लिखा है कि "पंडित टोडरमलजी की टीका को मैंने रोहतक जैन मंदिर सराय मुहल्ला की शास्त्र सभा में नवम्बर १९२६ से फरवरी १६३० तक पढ़ कर सुनाया । उस समय इस ग्रंथ
सामिन में मुख्य है, रतनचंद दीवान । पिरथीस्यंघ नरेश के, श्रद्धावान सुथान ।।६।। तिनिकै यति रुचि धर्मस्मी, सामिनि सौं प्रीति । देव शास्त्र गुरु की सदा, उर में महा प्रतीति ।।७।। प्रानंद सुत तिनको सखा, नाम जु दौलतराम । भृत्य भूप को कुल परिणक, जाकी बसवै धाम ||८|| कछुयक गुरु परतापत, फोनों ग्रंथ अभ्यास । लगन लगी जिनधर्म सू, जिनदासनि को दास ||६|| तासू रतन दीवान नें, कही प्रीति परि एह । करिए टीका पूरणा, उर धरि धर्म सनेह ॥१०॥ तब टीका पूरन करी, भाषा रूप निघाम ।
कुशल होय बहु संघ को, लहे जीव निज ज्ञान ॥११॥ १ प्रकाशक : मुंशी मोतीलाल शाह, जयपुर २ वि० सं० १९७१ में शाहगंज, आगरा में लिखित 3 प्रकाशक : श्रीमदराजचन्द्र शास्त्रमाला, अगास प्रकाशक : सह-कमेटी, दि. जैन मंदिर सराय मुहल्ला, रोहतक
प्रकाशक : बाबू सूरजभान वकील ६ प्रकाशक : भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
१४३ को पढ़ कर जैन सिद्धान्त के रहस्य का बड़ा भारी प्रभाव मेरे तथा सभासदों के चित्त पर पड़ा । जिस दिन सभा में यह ग्रंथ समाप्त हुआ तो श्रोतागरण को नियम प्रतिज्ञा दिलाते हुए मैंने स्वयं यह नियम किया कि मैं इस ग्रंथ की टीका को आजकल की सरल और साधारण भाषा में रूपान्तर करने का प्रयत्न करूँगा।"
उत्तरवर्ती टीकाकारों ने पंडित टोडरमल की टीका का खड़ी बोली में अनुवाद मात्र कर दिया है । वे उसमें कुछ विशेषता नहीं ला पाये हैं । नये प्रमेय को तो किसी ने उठाया ही नहीं : जहा ऐरा। प्रयत्न किया है, विषय और अस्पष्ट हो गया है।
_इस टीका का नाम 'पुरुषार्थसिद्धयूपाय भाषाटीका' है, जैसा कि इस अपूर्ण टीका को पूर्ण करने वाले पंडित दौलतराम कासलीवाल ने लिखा है :-"भाषादीका ता उपरि, कीनी टोडरमल्ल ।।" यह टीका पंडित टोडरमल ने मुल ग्रंथ के आधार पर ही लिखी है । इस टीका से पहले की और कोई टीका उपलब्ध नहीं है और न ही ऐसे उल्लेख प्राप्त हैं कि इसके पूर्व कोई टीका बनी थी।
इस टीका ग्रंथ के अपूर्ण रह जाने से ग्रंथ के अन्त में लिखी जाने वाली प्रशस्ति पंडित टोडरमल द्वारा तो लिखी नहीं जा सकी । अतः अन्त:साक्ष्य के आधार पर तो इसके प्रेरणास्रोत का पता चलना संभव नहीं है, पर ख० रायमल ने लिखा है कि पंडित टोडरमल का विचार पाँच-सात ग्रंथों की टीका लिखने का और है । इससे यह प्रतीत होता है कि इस टीका का निर्माण कार्य उनकी अन्तःप्रेरणा का ही परिणाम था, किन्तु अधूरी टीका को पूर्ण करने की प्रेरणा पंडित दौलतराम कासलीवाल को दीवान रतनचन्दजी ने अवश्य दी, जैसा कि ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति में पंडित दौलतराम ने स्पष्ट लिखा है :
' पुरुषार्थसियुपाय, दि० जैन मंदिर, सराय मुहल्ला, रोहतक, प्रस्तावना, १६ २ पु. भा. टी० प्र०, १२६ 3 इ० वि० पत्रिका, परिशिष्ट १
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. पंरित टोडरमल : व्यक्तित्व और करिव "तासू रतन दीवान नें, कही प्रीति धरि एह ।
करिए दीका पूरणा, उर धरि धर्म सनेह ।।" इस भाषाटीका के निर्माण का एकमात्र उद्देश्य प्रज्ञानी जीवों की आत्मा के सम्बन्ध में हई अनादिकालीन भूल मिटाना और आत्मज्ञान प्राप्ति का सहज साधन उपलब्ध कराना है, जैसा कि ग्रंथ की प्रशस्ति से स्पष्ट है।
पंडित दौलतराम कासलीवाल ने यह टीका मार्गशीर्ष शुक्ला २ वि० सं० १८२७ को समाप्त की। इसका प्रारम्भ निश्चित रूप से वि० सं० १८२४ के पहिले हो चुका था, क्योंकि इसे प्रारम्भ पंडित टोडरमल ने किया और उनकी उपस्थिति वि० सं० १५२४ के बाद सिद्ध नहीं होती। वि० सं० १८२१ में हुए इन्द्रध्वज विधान महोत्सव की पत्रिका में ब्र० रायमल ने पण्डित टोडरमल द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषाटीका, गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषाटीका, लब्धिसार-क्षपरणासार भाषाटीका, त्रिलोकसार भाषाटीका का और मोक्षमार्ग प्रकाशक का तो उल्लेख किया, पर इसका उल्लेख नहीं किया। अतः यह भाषाटीका वि० सं० १९२१ के बाद आरम्भ हुई प्रतीत होती है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक का सातवाँ अधिकार समाप्त करने के बाद तत्काल इस टीका का प्रारम्भ हो गया लगता है, क्योंकि मोक्षमार्ग प्रकाशक के पूरे सातवें अधिकार को पंडित टोडरमल ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय के मंगलाचरण में चार लाइनों में लिपिबद्ध कर दिया है । मंगलाचरण के रूप में उक्त छन्द की कोई उपयोगिता नहीं लगती, किन्तु सातवा अधिकार लिखने के उपरान्त उनके मस्तिष्क में बह विषय छा रहा था। वे उसे इस टीका के प्रारम्भ में रखने का
- ५ पु. भा. टी. प्रशास्ति, १२६ २ अट्ठारह सौ ऊपर संवत सत्ताईस । मास मंगसिर ऋतु शिशिर सुदि दोयज रजनीश।।
- पु. भा. टी० प्रशस्ति, १२६
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलम
१४५ लोभ संवरण नहीं कर सके । मोक्षमार्ग प्रकाशक की रचना और पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषाटीका की रचना साथ-साथ चल रही थी। मोक्षमार्ग प्रकाशक के नौवें अधिकार में सम्यग्दर्शन के विश्लेषण पर पुरुषार्थसिद्धयुपाय की व्याख्याएँ छाई हुई हैं । दुर्भाग्यवश दोनों ही ग्रंथ अपूर्ण रह गए।
पंडित दौलतराम ने पंडितजी का अवसान जयपुर में बताया है व उनकी अधुरी पुरुषार्थ सिद्धपाय भाषाको दीवाना तान दजी की प्रेरणा से जयपुर में ही पूर्ण करने की चर्चा की है । अत: इस ग्रंथ की रचना जयपुर में ही हुई है ।
___ ग्रन्थ का प्रारम्भ मंगलाचरण से हुआ है। मंगलाचरण में देव-शास्त्र-गुरु को स्मरण कर निश्चय और व्यवहार का स्वरूप न जानने वाले अज्ञानियों एवं निश्चय-व्यवहार वा स्वरूप जानने वाले शानियों की चर्चा एक छन्द में की गई है। तदुपरान्त मूल ग्रन्थ की भाषाटीका प्रारम्भ होती है, जिसका विभाजन इस प्रकार है :
(१) उत्थानिका (२) सम्यग्दर्शन अधिकार
मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें अधिकार में निश्चयाभासी, व्यवहारभासी उभयाभासी एवं सम्यक्त्व के सम्मुख मिश्याष्टियों का विस्तृत वर्णन है एवं निश्चय-व्यवहार के सही स्वरूप को समझ कर मात्मा के शुद्ध स्वरूप को पहिचानने की प्रेरणा दी गई है। पुरुषार्थसिद्युपाय भाषाटीका में मंगलाचरण का छन्द निम्नानुसार है :
कोऊ नय निश्चय से आत्मा को शुद्ध मान, भये हैं सुछन्द न पिछाने निज शुद्धता। कोक व्यवहार दान, शील, तप, भाष को ही, प्रातम को हित जान, छोड़त न मुद्धता । कोऊ व्यबहार नय निश्चय के मारग को, भिन्न-भिन्न पहिचान कर निज उद्धता । जब जाने निश्चय के भेद व्यवहार सब, कारण है उपचार माने सब बुद्धता ॥1
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परित टोडरमल : वयक्तित्व और कतत्व (३) सम्यग्ज्ञान अधिकार (४) सम्यक्चारित्र अधिकार (देशचारित्र) (५) सल्लेखना अधिकार (६) अतिचार अधिकार (७) सकलचारित्र अधिकार
उत्थानिका में मंगलाचरणोपरान्त निश्चय-व्यवहार के विषय को लिया गया है। पंडित टोइरमल ने भाषाटीका में उक्त विषय को विस्तार से स्पष्ट किया है। जो बात मूल ग्रन्थ में नहीं है, उसे अन्य ग्रन्थों के आधार एवं युक्तियों से स्पष्ट किया गया है । तत्पश्चात् बक्ता कैसा होना चाहिए, किस योग्यता का श्रोता उपदेश का पात्र है। उपदेश का क्रम क्या है, आदि बातों की चर्चा की गई है। तदनन्तर ग्रन्थ का प्रारम्भ होता है ।
सम्यग्दर्शन गधिसार में सम्मादाम का स्वरूप एवं उसके आठ अंगों का वर्णन है। भाषाटीका में सम्यग्दर्शन की परिभाषा के अंतर्गत आने वाले सात तत्त्वों का विस्तृत वर्णन है।
सम्यग्ज्ञान अधिकार में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप बताते हा मूल में न होते हुए भी भाषाटीकाकार ने प्रमाण, प्रमाण के भेद - प्रत्यक्ष, परोक्ष (स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम); नय एवं नय के भेदों को स्पष्ट किया है। इसके अनन्तर सम्यग्ज्ञान सम्बन्धी कारणकार्य-विधान एवं सम्यग्ज्ञान के अंगों पर विचार किया गया है ।
सम्यक्चारित्र अधिकार में देशचारित्र (थावक के बारह व्रत) का विस्तृत वर्णन है । अहिंसागुव्रत के संदर्भ में अहिंसा का बहुत सूक्ष्म, गंभीर और विस्तृत विवेचन किया गया है । अहिंसा और हिंसा सम्बन्धी वर्णन में उन्हें अनेक पक्षों से देखा गया है और उनके सम्बन्ध में उठने वाले विविध पक्षों और प्रश्नों का तर्कसंगत समाधान प्रस्तुत किया गया है । अहिसा की परिभाषा भी अन्तरंग पक्ष को लक्ष्य में लेकर की गई है एवं असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह को
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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
१४७ हिंसा के रूप में सिद्ध किया गया है । सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह को अहिंसा के रूपान्तर के रूप में देखा गया है । अहिंसा के स्वरूप पर विचार करते हुए रात्रिभोजन, अनछना पानी काम में लेने आदि हिंसामूलक क्रियाओं पर तर्कसंगत प्रकाश डाला गया है । इस अधिकार की संक्षिप्त रूपरेखा निम्नलिखित चार्ट द्वारा समझी जा सकती है :
श्रावक के बारह व्रत
पांच प्रगत
तीन गुणवत
चार शिक्षाबत
दिग्द्रत
देशवत अनधंदण्डवत
अहिंसागुन्नत सत्यागुबत प्रचीर्याग्गुव्रत ब्रह्मचर्याणुगत परिग्रह
परिमाणाणुनत
- - सामायिकवत प्रोषधोपवासयत भोगोपभोग अतिथिसंविभागवत
परिमाणवत सल्लेखमा अधिकार में समाधिमरग का वर्णन है। सल्लेखना समाधिमरण को कहते हैं। जब कोई भी व्रती जीव अपना मरण समय निकट जान लेता है तब वह शान्ति से प्रात्मध्यानपूर्वक बिना आकुलता के मरण स्वीकार कर लेता है, यही समाधिमरण है। इस अधिकार में समाधिमरण की विधि विस्तार से बताई गई है, जिसमें कषायों की शांति पर विशेष बल दिया गया है। कुछ लोग सल्लेखना को आत्मघात के रूप में देखते हैं । इसमें सल्लेखना और प्रात्मघात का भेद स्पष्ट किया गया है तथा सल्लेखना की आवश्यकता और उपयोगिता पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
अतिचार अधिकार में सम्यग्दर्शन, श्रावक के बारह व्रतों एवं सल्लेखना के अतिचारों का वर्णन है । प्रत्येक के पांच-पांच अतिचार बताये गए हैं । इस प्रकार कुल ७० अतिचारों का वर्णन है।
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पंजित टोडरमल : व्यक्तित्व मौर कर्तृत्व __सकलचारित्र अधिकार में मुनिधर्म के स्वरूप का वर्णन है। इसमें मुनियों के षट् आवश्यक, बारह तप, तीन गुप्ति, पांच समिति, दश धर्म, बारह भावना और बाईस परीषहों का विस्तृत वर्णन है । 'रत्नत्रय ही मुक्ति का कारण है और रत्नत्रय मुक्ति का ही कारण है' - इस तथ्य को भी भूक्ष्मता से स्पष्ट किया है ।
अन्त में प्रशस्तिपूर्वक ग्रन्थ समाप्त हुआ है।
यह भाषाटीका विवेचनात्मक गद्यशैली में लिखी गई है। यथास्थान विषय की स्पष्टता के अनुरोध से विषय विस्तार किया गया है, किन्तु अनावश्यक विस्तार कहीं भी देखने को नहीं मिलता। मुल में आए पारिभाषिक शब्दों की परिभाषाएँ दी गई हैं तथा उनके भेद-प्रभेदों को विस्तार से समझाया गया है। जैसे मूल श्लोक में निश्चय और व्यवहार शब्द आये । उन्हें स्पष्ट करने के लिए निश्चयव्यवहार की परिभाषा, उनके भेद एवं कथनपद्धति को स्पष्ट किया गया है तथा विषय के बीच उठने वाले प्रश्नों को स्वयं उठा-उठाकर समाधान किया गया है। मूल पाठ का समुचित अर्थ लिख कर सर्वत्र भावार्थ में विषय को विशेष रूप से स्पष्ट किया गया है। प्रत्येक मूल प्रलोक की उत्थानिका दी गई है तथा आवश्यकतानुसार सुक्ष्म विषय को उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट किया गया है । जैसे :___ "यहाँ प्रश्न उपजे - जो जीव के भाव महा सूक्ष्म रुप तिनकी खबरि जड़ पुद्गल की कैसे होय । बिना खबर कैसे पुण्य-पाप रूप होय परनमें हैं। तिसका उनर - जैसे मंत्रसाधक पुरुष बैठा हुन्या छान मंत्र को जप है, उस मंत्र के निमित्त करि इसके बिना ही कीए किसी को पीड़ा उपज है, कोऊ प्राणान्त होय है, किसी का भला होय है, कोऊ विडम्बना रूप परनमें है, ऐसी उस मंत्र में शक्ति है जिसका निमित्त पाइ चेतन-अचेतन पदार्थ प्राप ही अनेक अवस्था की धरै हैं । तैसें अज्ञानी जीव अपने अंतरंग विष विभाव भावनि परनमें है, उन भावनि का निमित्त पाइ इसको बिना ही कीए कोऊ पुद्गल पुण्यरूप परनमें कोऊ पापरूप परनमें" ।
टीका सरल, सुबोध एवं संक्षिप्त शैली में लिखी गई है।
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पद्य साहित्य
पंडित टोडरमल का पद्य साहित्य दो रूपों में पाया जाता है । एक तो है गोम्मटसार पूजा स्वतंत्र कृति, दूसरे हैं टीका ग्रन्थों एवं मौलिक ग्रन्थों के मंगलाचरण एवं प्रशस्तियाँ । गद्य साहित्य की अपेक्षा पद्य साहित्य कम है। उन्होंने स्वयं लिखा है कि कविता करना मेरा काम नहीं है। फिर भी उनका जो भी पद्य साहित्य प्राप्त है, उसमें काव्यात्मक गुरणों की कमी नहीं । उन्होंने पद्य साहित्य में संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओं को माध्यम बनाया है। उनका पद्य साहित्य निम्नलिखित रूप में उपलब्ध है :
मंगलाचरण प्रशस्ति योग
नाम ग्रन्थ
छन्द
१. सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका २. गोम्मटसार जीवकाण्ड भापाटीका ३. गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषाटीका ४, लब्धिसार-क्षपणासार भाषाटीका | ५. त्रिलोकसार भाषाटीका ६. अर्थसंदृष्टि अधिकार ७. पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषाटीका ८. प्रात्मानुशासन भाषाटीका ६. मोक्षमार्ग प्रकाशक १०. समोसरण वर्णन
' त्रि० भा० टी०, भूमिका, १
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तुत्व
उपर्युक्त प्रकार, मंगलाचरण व प्रशस्ति पद्यों की संख्या १६४ है । गोम्मटसार पूजा की छन्द संख्या ५७ अलग से है । इस प्रकार कुल मिला कर २२१ छन्द होते हैं । गोम्मटसार पूजा के ४५ छन्द संस्कृत में १२ बन्द हिन्दी में हैं । लब्धिसार-क्षपणासार की प्रशस्ति के २ छन्द एवं अर्थसंदृष्टि अधिकार के ४ छन्द संस्कृत में हैं। शेष सभी हिन्दी में हैं । छन्दों का नामानुसार विवरण इस प्रकार है:
१५०
हिन्दी छन्द - दोहा ६५, सोरठा १ चौपाई ३५, कवित्त ४, सवैया २०० ग्रडिल्ल ३ पद्धरि १२
संस्कृत छन्द - ५१
गोम्मटसार पूजा में गोम्मटसार शास्त्र के प्रति भक्ति-भाव प्रदर्शित किया गया है, जिसका वर्णन उक्त कृति के परिचयात्मक अनुशीलन में किया जा चुका है । इसकी भाषा सरल, सुबोध संस्कृत है पर जयमाल हिन्दी में है । छन्द रचना निर्दोष एवं सहज है । प्रथम छन्द इस प्रकार है :
ज्ञानानन्दमयः शुद्धः, येनात्मा भवति ध्रुवम् । गोम्मटसार शास्त्रं तद् भक्त्या संस्थापयाम्यहम् || पुष्प का छन्द भी द्रष्टव्य है :
पुष्पैः सुगन्धे: शुभवर्णवद्भिः,
चैतन्यभावस्य विभासनाय ।
तत्त्वार्थ- बोधामृत हेतुभूतम्,
गोम्मटसारं प्रयजे सुशास्त्रम् ॥
जयमाल के प्रारम्भिक छन्द में गोम्मटसार को अपार समुद्र बताया गया है जिसमें बिचार रूपी रत्न भरे हुए हैं, जिन्हें गाथारूपी मजबूत धागों में पिरो कर हार बना भाग्यवान भव्य जीव प्रफुल्लित होकर पहनते हैं | छन्द इस प्रकार है :
यह गोम्मटसारं उदधि अपारं,
रतन विशालं मंत्र घने
गाथा दृढ़ धागे गुहे सभागे,
पहिरे भवि जन हिय माने ||
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ॐ गोल
nockr 7
पञ्च साहित्य
विभिन्न मंगलाचरणों में भी कवि ने देव-शास्त्र-गुरु के प्रति भक्तिभाव प्रकट किया है। उनकी भक्ति निष्काम है। उनका कहना है कि बील राग भगवान का भक्त भिखारी नहीं होता। उनके अनुसार मंगलाचरण में किये गए गुण स्तवन का हेतु यह है :- "सहाय कराबन की, दुःख द्यावने की जो इच्छा है, सो कपायमय है, तत्काल वि4 वा आगामी काल विर्षे दुःख दायक है । तातं ऐसी इच्छा कू छोरि हम तो एक वीतराग विशेष ज्ञान होने के अर्थी होइ अरहतादिक कौं नमस्कारादिरूप मंगल किया है।"
उनकी यदि कोई मांग है तो वह है एक मात्र स्वयं भगवान बनने की । वे सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की प्रशस्ति में अपनी भक्ति का कारण इस प्रकार व्यक्त करते हैं :
अरहंत सिद्ध मूरि उपाध्याय साधु सर्व गर्थ के प्रवाशी मालीक उपकारी है । तिनको स्वरूप जानि रागते भई है भक्ति, ताले काय कौं नमाय स्तुति उचारी है ।। धन्य धन्य तुम ही तें सब काज भयो, कर जोरि बारंबार बंदना हमारी है । मंगल कल्याण सूख ऐसो चाहत है,
होहु मेरी ऐसी दशा जैसी तुम धारी है ।। वे अच्छी तरह जानते हैं कि भगवान् किमी का अच्छा बुरा नहीं करता, करे तो वह भगवान् नहीं । सभी मंसारी जीवों के सुख-दुःख, जीवन-मरण उनके अच्छे-बुरे कार्यों (शुभाशुभ कर्मों) का फल है । प्रतः उनकी भक्ति सहज श्रद्धा का परिणाम है, किसी प्रकार की आमा-आकांक्षा का फल नहीं ।
"
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१ मो० मा० प्र०, १४ २ स० चा प्र०, सन्द ६३ 3 मो० मा० प्र०.३३१-२२
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पंडित टोडरमस : क्यक्तिस्व और कर्तृत्व __ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका प्रशस्ति में ग्रंथ की निविघ्न समाप्ति पर प्रसन्नता व्यक्त कर कवि ग्रंथ के कर्तृत्व सम्बन्धी अभिन्न (निश्चय) व भिन्न (व्यवहार) षट्कारक स्पष्ट करता है । तदुपरान्त जिनागम के प्रथम श्रुतस्कंध की परम्परा बताता है एवं सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की रचना की चर्चा करता है।
संक्षेप में पद्यों में ही टीका में वर्णित विषयों की तालिका दे दी गई है । अज्ञान और प्रमादजन्य दोषों के प्रति क्षमा याचना करते हुए कवि यह स्पष्ट करता है कि गलतियाँ होने के भय से यदि ग्रंथ रचनाएँ नहीं की जावेगी तो फिर साहित्य निर्माण का पंथ ही समाप्त हो जायगा, क्योंकि सर्वज्ञता प्राप्ति के पूर्व तो गलती होना सभी से संभव है । हाँ, कषाय और मनगढ़ात कल्पना से उनके द्वारा कुछ नहीं लिखा गया है, यह बात उन्होंने स्पष्ट कर दी है।
इसके बाद उन्होंने अपनी चर्चा की है। उन्होंने अपना लौकिक परिचय कम और आध्यात्मिक परिचय अधिक दिया है। तदनन्तर अपने शास्त्राभ्यास की चर्चा के साथ व० रायमल की प्रेरणा से इस टीका की रचना करने का उल्लेख किया है। अन्त में उक्त शास्त्र के अभ्यास करने, पढ़ने-पढ़ाने की प्रेरणा देते हुए शास्त्राम्यास का शुभ फल बताया है।
उनके पद्यों में विषय की उपादेयता, स्वानुभूति की महत्ता, जिन और जिनसिद्धान्त परम्परा का महत्त्व आदि बातों का रुचिपूर्ण शैली में अलंकृत वर्णन है । जैसे :अनुप्रास -
दोष दहन गुन गहन घन, अरि करि हरि अरिहंत । स्वानुभूति रमनी रमन, जगनायक जयवंत ।। सिद्ध, सूद्ध, साधित सहज, स्वरस सूधारस धार । समयसार सिव सर्वगत, नमत होहु सुखकार || जैनीवानी विविध विधि, बरनत विश्व प्रमान । स्यात्पद मुद्रित अहित हर, करहु सकल कल्यान ।।
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पद्य साहित्य
गोमूत्रिकाबंध व चित्रालंकार -
मैं नमों नगन जैन जन ज्ञान ध्यान धन लीन । मैन मान बिन दान घन एन हीन वन छीन ||
इसे गौमूत्रका में इस प्रकार रखेंगे :
मैं
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चित्र के रूप में इस प्रकार रखा जायगा :
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१५.३
इसका अर्थ है - मैं ज्ञान और ध्यान रूपी धन में लीन रहने वाले, काम और श्रभिमान से रहित, मेघ के समान धर्मोपदेश की वर्षा करने वाले, पाप रहित, क्षीणकाय नग्न दिगम्बर जैन साधुओं को नमस्कार करता हूँ ।
sara से देखने पर उक्त छन्द में अनुप्रास, यमक आदि अलंकार भी खोजे जा सकते हैं ।
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श्लेष
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रूपक
बंदौ ज्ञानानन्दकर, नेमिचन्द गुरु कन्द | माधव बंदित विमल पद, पुन्य पयोनिधि नन्द ||
उक्त छन्द में 'नेमिचन्द' का अर्थ बाईसवें तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथ एवं गोम्मटसारादि ग्रन्थों के कर्त्ता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तवर्ती है तथा 'माधव' का अर्थ श्रीकृष्ण तथा प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य यात्रायें माधवचन्द्र त्रैविद्य है ।
इसी प्रकार का एक छन्द अर्थसंदृष्टि अधिकार में संस्कृत का भी मिलता है, जो कि इस प्रकार है :
उपमा
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और करव
पंख संग्रह सिद्धस्तं, त्रिलोकीसार दीपकं । वस्तुतस्तानि मिचमुज्वनं ॥
1xxx
मौक्तिक रत्नसूत्र में पोय, गूंथ्या ग्रन्थ हार सम सोय | संस्कृत संदृष्टिनि को ज्ञान, नहि जिनके ते बाल समान ।। वाह्न सम यह सुगम उपाव, या करि सफल करौ निज भाव | मेघवत अक्षर रहित दिव्य ध्वनि करि ।
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आप अर्थमय शब्द जुत ग्रंथ उदधि गम्भीर | यवगा ही जानिए याकी महिमा धीर ॥ कलिकाल रजनी में अर्थ को प्रकाश करें । रमो शास्त्र श्राराम मह सीख लेहु यह मानि ।। मेघवत् अक्षर रहित दिव्य ध्वनि करि । धर्मामृत हरै है ।।
बरसाय भवताप
मूल ग्रन्थ गोम्मटसार की तुलना 'गिरनार से एवं सम्यग्ज्ञानचंद्रिका टीका की तुलना 'वाहन' से करते हुए कवि ने एक लम्बा रूपक बाँधा है :
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पद्य साहित्य . नेमिचन्द जिन शुभ पद धारि ।
जैसे तीर्थ कियो गिरिनारि ।। तैसे नेमिचन्द मुनिराम ।
__ ग्रंथ कियो है तरण उपाय || देशनि में सुप्रसिद्ध महान ।
पूज्य भयो है यात्रा थान ।। यामै गमन करै जो कोय ।
उच्चपना पावत है सोय ।। गमन करन कौं गली समान ।
कर्नाटक दीका अमलान ।। ताकौं अनुसरती शुभ भई।
टीका सुन्दर संस्कृत भई ।। केशब बरणी बुद्धि निधान ।
संस्कृत टीकाकार सुजान ।। मार्ग कियौ तिहि जुत विस्तार ।
जहँ स्थूलनि को भी संचार ।। हमहू करिक तहाँ प्रवेश।
पायो तारन कारन देश ।। चितवन करि अर्थन को सार ।
असे कीन्हों बहुरि विचारि ।। संस्कृत संदृष्टिनि को ज्ञान ।
लहि जिनके ते बाल समान ।। गमन करन कौं अति तरफरें ।
बल विन् नाहि पनि की धरं ।। तिनि जीवनि की गमन उपाय ।
भाषाटीका दई बनाय ।। वाहन सम यह सुगम उपाव ।
या कमि सफल करौ निज भाव ।।
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१४६
पंबित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्रास्त्र स्वानुभूति पर उन्होंने सर्वत्र जोर दिया है। यह बात उनके प्रतीकों में भी मिलती है . महां परमरगत रूप से अरहन्त, सिद्ध भगवान के लिए "शिव रमनी रमन' लिखा जाता रहा है, वहाँ वे 'स्वानुभूति रमनी रमन' लिखते हैं।
__ इस प्रकार उनका पद्य साहित्य यद्यपि सीमित है, तथापि जो भी है वह उनके कवि हृदय को व्यक्त करता है।
उनके समग्र साहित्य का अनुशीलन करने के उपरान्त हम देखते हैं कि उनका सम्पूर्ण साहित्य करीब एक लाख श्लोक प्रमाण विशाल परिमारण में है तथा वह मौलिक और टोकाएँ, गद्य और पद्य सभी रूपों में उपलब्ध है । सभी साहित्य देशभाषा में है, मात्र कुछ संस्कृत छंदों को छोड़ कर । उनकी रचनाएँ वर्णनात्मक, व्याख्यात्मक, विवेचनात्मक, यंत्र-रचनात्मक एवं पत्रशैली में हैं। विविध रूपों में प्राप्त होने पर भी उनका प्रतिपाद्य आध्यात्मिक तत्त्वविवेचन ही है । उनके मौलिक ग्रन्थ तो उनके स्वतन्त्र तत्त्वचितन को प्रतिफलित करते ही हैं, उनके टीकाग्रंथ भी मात्र अनुवाद नहीं हैं, उनका चिंतक वहाँ भी जागत है और उन्होंने अपने इस स्वातन्त्र्य का स्पष्ट उल्लेख भी किया है।
प्रतिभात्रों का लीक पर चलना कठिन होता है, पर ऐसी प्रतिभाएं बहुत कम होती हैं जो लीक छोड़ कर चलें और भटक न जायें। पंडित टोडरमल भी उन्हीं में से एक हैं जो लीक छोड़ कर चले, पर भटके नहीं।
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चतुर्थ अध्याय
वर्ण्य विषय और दार्शनिक विचार
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वर्य विषय और दार्शनिक विचार
जैन मान्यता के अनुसार यद्यपि परम ब्रह्म (वस्तुस्वरूप) के समान उसका प्रतिपादक शब्द ब्रह्म (थत) भी अनादि निधन है; तथापि कालवश (पर्यायापेक्षा) उराका उत्पाद और विनाश भी होता है। वर्तमान में पालोच्य माहित्य से सम्बन्धित पूर्व परम्परागत जैन साहित्य में प्राचार्य धरसेन के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा रचित 'षट्खण्डागम' सर्वाधिक प्राचीन रचना है। इसकी रचना का काल ईस्वी की द्वितीय शताब्दी सिद्ध होता है २ षटखण्डागम में सूत्ररूप से जीव द्वारा कर्म बंध और उससे उत्पन्न होने वाले नाना जीव-परिणामों का बड़ी व्यवस्था, सूक्ष्मता और विस्तार से विवेचन किया गया है । षट्खण्डागम की टीकाएँ क्रमशः कुन्दकुन्द, शामकुण्ड, तुम्बुलूर, समन्तभद्र और बप्पदेव ने बनाई - ऐसे उल्लेख हैं, पर ये टीकाएँ अप्राप्त हैं। उसके अन्तिम टीकाकार हैं- वीरसेनाचार्य, जिन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध टीका 'धवला' की रचना शक सं० ७३८ तदनुसार ई० सन् ८१६ कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को पूरी की ।
धरसेनाचार्य के समय के लगभग एक और प्राचार्य गुणाघर हुए जिन्होंने 'कषायमाभृत' की रचना की। इस पर भी वीरसेनाचार्य ने अपूर्ण टीका लिखी जिसे उनके निधनोपरान्त उनके शिष्य आचार्य जिनसेन ने पूर्ण की, वह 'जयधवला' के नाम से प्रसिद्ध है।
घटखण्डागम के प्रथम तीन खण्डों में जीव के कर्तृत्व की अपेक्षा से और अन्तिम तीन खण्डों में कर्म प्रकृतियों के स्वरूप की अपेक्षा से
, मो० मा० प्र०, १ २ भा० सं० जै यो०, ७४ ३ वही, ७५-७६ ४ वही, १२
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१६.
पंडित टोबरमल व्यक्तित्व और तत्व विवेचन हना है । इसी विभाग को लक्ष्य में रख कर आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य गोम्मटसार ग्रन्थ की रचना की और उसको दो भागों में जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड में विभाजित किया । गोम्मटसार में षट्खण्डागम का पूर्ण निचोड़ पा गया है'।
सिद्धान्तचक्रवर्ती प्राचार्य नेमिचन्द्र द्वारा रचित दो महाग्रन्थ और हैं, जिनके नाम हैं लब्धिसार और क्षपणासार । इन्हीं गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार व क्षपरणासार ग्रन्थों पर आगे चलकर वि० सं० १८१५ में पं० टोडरमल ने 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' नामक भाषाटीका की है, जो कि प्रथम श्रुतस्कंध परम्परा में पाती है। प्रथम श्रुतस्कंध परम्परा में जीव और कर्म के संयोग से उत्पन्न आत्मा की संसार-अवस्था का, गुरास्थान, मार्गणास्थान आदि का वर्णन होता है। यह कथन पर्यायाथिक नय की प्रधानता से होता है। इस नय को अशुद्ध द्रव्याथिक न. श्री रहते हैं पर इसे हो रयाग की भाषा में अशुद्ध निश्चय नय या व्यवहार नय कहा जाता है ।
द्वितीय श्रुतस्कंध में शुद्धात्मा का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। इसमें शुद्ध निश्चय नय का कथन है । इसे द्रव्याथिक नय भी कहते हैं । '
द्वितीय श्रुतस्कंध की उत्पत्ति कुन्दकुन्दाचार्य से होती है। उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय और अष्टपाड़ आदि ग्रन्थों की रचना की है । कुन्दकुन्दाचार्यदेव को दिगम्बर परम्परा में भगवान महावीर और इन्द्रभूति गौतम गरणधर के बाद तृतीय स्थान के रूप में स्मरण किया जाता है :
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दायो, जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ।।
. भा० सं० ज० यो०, ७९-८० २ स. चं० प्र०
समयसार, उपोद्घात्, १०
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वर्ण्य-विषय और दार्शनिक विचार
प्रत्येक दिगम्बर जैन उक्त छंद को शास्त्राध्ययन प्रारम्भ करते समय प्रति दिन बोलते हैं । कुन्दकुन्दत्रयी ५ पर प्राचार्य अमृतचन्द्र ने गम्भीर टीकाएं लिखी हैं। उक्त ग्रन्थों पर प्राचार्य जयसेन की भी संस्कृत भाषा में टीकाएं उपलब्ध हैं।
पं० टोडरमल ने दोनों श्रुतस्कंधों का गम्भीर अध्ययन किया तथा दोनों प्रकार के ग्रन्थों की टीकाएं लिखने का उपक्रम किया था। उन्होंने पो मौलिक प्राथों में जो दोनों पररात्रों में विवेचित विषयों का विस्तृत व गम्भीर विवेचन किया है। इस अध्याय में उक्त दोनों श्रुतस्कंध परम्परागों के परिप्रेक्ष्य में पं० टोडरमल के दार्शनिक एवं अन्य विचारों का अध्ययन प्रस्तुत करेंगे।
पं० टोडरमल ने कहीं भी यह दावा नहीं किया है कि उन्होंने कुछ नया क्रिया है । उनका उद्देश्य तो वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित आत्महितकारी वस्तस्वरूप जनसाधारण तक पहुँचाना था। अत: उनके स्वर में वे तथ्य अधिक मुखरित हुए हैं जिनके कारण सामान्यजन आत्महितकारी वस्तुस्वरूप समझने के लिए नालायित और प्रयत्नशील रहते हुए भी कहीं न कहीं उलझ कर रह जाते हैं । वे कौन से स्थल हैं तथा वे किस प्रकार की भूलें हैं जो वस्तु के समझने में बाधक बनती हैं, उन्हें उन्होंने खोज-खोजकर निकाला है। उनके कारणों की खोज की है। उनका वर्गीकरण किया, विश्लेषण किया एवं उन भूलों से बचने के उपायों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने उन भूलों को दो भागों में विभाजित किया है :(१) निश्चय और व्यवहार सम्बन्धी अज्ञान के कारण होने
वाली भूलें। (२) चारों अनुयोगों के कथन-पद्धति सम्बन्धी अज्ञान के
कारण होने वाली भूले | इनके संबंध में जैन दर्शन में वरिणत मूलतत्त्वों के संदर्भ में यथास्थान विचार करेंगे।
१ समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय को कुन्दकुन्दत्रयी कहा जाता है।
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१६२
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व जैन दर्शन में छः द्रव्यों के समुदाय को विश्व कहते हैं और वे छ: द्रव्य है - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । जीब को छोड़ कर बाकी पाँच द्रव्य अजीव हैं । इस तरह सारा जगत् चिद्धिदात्मक है। जीव द्रव्य अनन्त हैं और पुद्गल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुरणे हैं। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं, काल द्रव्य असंख्यात हैं । ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा को जीव द्रव्य कहते हैं । जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ग पाया जाय वह पुद्गल है। जितना भी इन्द्रिय के माध्यम से दृश्यमान जगत् है, वह सब पुद्गल ही है। स्वयं चलते हए जीव और पुद्गलों को गमन में जो सहकारी (निमित्त) कारण है, वह धर्म द्रव्य है और गतिपूर्वक स्थिति करने वाले जीव और पुद्गलों की स्थिति में जो सहकारी (निमित्त) कारण है, वह अधर्म द्रव्य है। समस्त द्रव्यों के अवगाहन में निमित्त प्राकाश द्रव्य और परिवर्तन में निमित्त काल द्रव्य है।
जीव व पुद्गल (कर्म, शरीर) अनादिकाल से एकमेक हो रहे हैं। ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म (पुद्गल कर्म) के उदय में जीव के मोहराग-द्वेष (भाव कर्म) होते हैं और मोह-राग-द्वेष होने पर प्रात्मा से द्रव्य कमों का सम्बन्ध होता है, उसके फलस्वरूप देहादि की स्थिति बनती रहती है और आत्मा दुःखी हना करता है। जीव की इस दुःखावस्था का नाम ही संसार है और दुःखों से मुक्त हो जाने का नाम है मोक्ष । दुःखों से छूटने के उपाय को कहते हैं मोक्षमार्ग।
प्रत्येक संसारी जीव दुःखी है और दुःखों से छूटना भी चाहता है, पर उसे सच्चा मोक्षमार्ग ज्ञात न होने से वह छूट नहीं पाता है। उक्त मोक्षमार्ग बतलाने का प्रयत्न ही समस्त जैनागम में किया गया है।
१ पंचास्तिकाय, गाथा १२४ २ तत्त्वार्थसूत्र, प्र०५ सू०६ ३ व्यसंग्रह, गाथा २२ ४ तत्त्वार्थसूत्र, प० २ सू० ५-६ ५ वही, प्र०५ सू० २३ ' (फ) द्रश्यसंग्रह, गाथा १७ से २१
(ख) प्रवचनसार, गाथा १३३-३४
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वय-विषय और चाशनिक विचार
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्त्तारित्र की एकता ही मोक्ष का मार्ग है। मोक्षमार्ग एवं उसके अन्तर्गत आने वाले सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यश्चारित्र एवं सम्यग्दर्शनादि के भी अन्तर्गत आने वाले जीवादि सप्त तत्व एवं देव, शास्त्र. गुरु आदि की परिभाषाएँ जैनागम में यथास्था निजय-व्यवहार नरागलं हार यनयोगों की पद्धति में अपनी-अपनी शैली के अनुसार विभिन्न प्रकार से दी गई हैं, अतः साधारण पाठक उनमें परस्पर विरोध-सा अनुभव करता है, उनके सही मर्म को नहीं समझ पाता है तथा भ्रम से अपने मन में अन्यथा कल्पना कर लेता है या संशयात्मक स्थिति में रहकर तत्त्व के प्रति अश्रद्धालू हो जाता है। इस तथ्य को पं० टोडरमल ने अनुभव किया था और उसे उन्होंने अपने ग्रन्थों में साकार रूप दिया एवं सही मार्गदर्शन करने का सफल प्रयास किया है । सम्यग्दर्शन
जीवादि तत्त्वार्थों का सच्चा श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। | सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है । आत्म श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन की उक्त तीन परिभाषाएँ विभिन्न प्राचार्यों ने विभिन्न स्थानों पर की हैं। ऊपर से देखने में वे परस्पर विरुद्ध नजर आती हैं पर उनमें कोई विरोध नहीं है । पं० टोडरमल ने सम्यग्दर्शन की विभिन्न परिभाषाओं का स्पष्टीकरा करते हुए उनमें समन्वय स्थापित किया है ।
सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिए जीवादि सात तत्त्वों और देब, शास्त्र, गुरु का सच्चा श्रद्धान, ज्ञान एवं प्रात्मानुभूति अत्यन्त प्रावश्यक हैं। सप्त तत्त्व और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिस पैनी दृष्टि की आवश्यकता है, वाह्य वृत्ति में ही सन्तुष्ट १ तत्वार्थसूत्र, प्र० १ ० १ २ बही, म १ सू० २ ३ रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ०१ श्लोक ४ ४ पुरुषार्थसिड्युपाय, पलोक २१६ ५ मो. मा० प्र०,४७७-७८
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१६४
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
रहने वाले व्यवहाराभासी जीव उसका प्रयोग तो करते नहीं, किन्तु शास्त्रों में लिखों जीवादि की परिभाषाएँ रट लेते हैं, दूसरों को सुना भी देते हैं, तदनुसार उपदेश देवर व्याख्याता भी बन जाते हैं, पर उनके मर्म को नहीं जान पाते, अतः वे सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।
जैन शास्त्रों में जीव, नीलग्राम
र निर्जरा कर जीव और प्रजीव
ही विशेष हैं ।
मोक्ष से सप्त तव कहे गये हैं । सामान्य रूप से दो ही तत्त्व हैं, ग्राम्रवादिक तो जीवन्यजीव के इनका सच्चा स्वरूप क्या है और पं० टोडरमल के अनुसार अज्ञानी जीव इनके जानने में क्या-क्या और कैसी-कैसी भूलें करता है, उनका संक्षेप में पृथक्-पृथक् विवेचन अपेक्षित है ।
3
जीव और प्रजीव तत्व
ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा को जीव तत्त्व कहते हैं। जिनमें ज्ञान नहीं है, ऐसे पुद्गलादि द्रव्य अजीव तत्त्व हैं । जीव और शरीरादि अजीव अनादि से संयोग रूप से संबंधित हैं, अतः यह आत्मा इन्हें भिन्नभिन्न नहीं पहिचान पाता, यही अज्ञान है | शरीरादि राजीव से भिन्न ज्ञानस्वभावी आत्मा को पहिचान को भेदविज्ञान कहते हैं । जीवप्रजीव को जानने के अनेक प्रयत्न करने के उपरान्त भी भेदविज्ञान क्यों नहीं हो पाता ? पं० टोडरमल ने इसके पाँच कारण बताए हैं :
-
(१) जैन शास्त्रों में वरिंगत जीव और अजीव के भेद-प्रभेदों को तो जान लेते हैं, पर अध्यात्म शास्त्रों में कथित भेदविज्ञान के कारण एवं वीतराग दशा होने के कारण रूप कथन को नहीं पहिचान राते हैं ।
(२) यदि कदाचित् प्रसंगवश जानना हो भी जाय तो उन्हें शास्त्रानुसार जान लेते हैं, उनकी परस्पर भिन्नता नहीं पहिचान पाते । शरीर अलग है. श्रात्मा अलग है; ऐसा मानने पर भी शरीर के कार्य को और प्रारमा के कार्य को भिन्न भिन्न नहीं जान पाते हैं ।
१ तत्त्वार्थ सूत्र, अ० १ सू० ४
द्रव्यसंग्रह, गाथा २८-२६
3 मो० मा० प्र०, २३०
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वर्ण्य-विषय और दार्शनिक विचार
(३) कभी-कभी शास्त्रानुसार बात तो ठीक करते हैं किन्तु उसका भाव उनके ध्यान में नहीं आता है। आत्मा की बात इस तरह करते हैं जैसे बे स्वयं प्रारमा न होकर कोई और हों। प्रात्मा शुद्ध है. बुद्ध है, ऐसा बोलते हैं, पर 'मैं शुद्ध-बुद्ध हुँ', ऐसी प्रति उनें नहीं हो पाती।
(४) शरीरादि से आत्मा को भिन्न भी कहते हैं. पर बात ऐसे करते हैं जैसे किसी और से और वो भिन्न बता रहे हों, इनका उमसे कोई सम्बन्ध ही न हो। ऐसा अनुभव नहीं करते कि मैं आत्मा हूँ, शरीर मुझ से भिन्न है।
(५) शरीर और आत्मा के संयोगकाल में दोनों में कुछ क्रियाएँ एक दूसरे के निमित्त से होती हैं, उन्हें दोनों के संयोग से उत्पन्न हुई मानते हैं । ऐसा नहीं जान पाते कि यह त्रिया जीब की है, शरीर इसमें निमित्त है; और यह श्रिया शरीर की है, जीव इसमें निमित्त है।
प्ररीर से भिन्न प्रात्मा की प्रतीति एवं अनुभूति ही जीव और अजीव तत्त्व सम्बन्धी सच्चा ज्ञान है। इसे पाना बहुत आवश्यक है, अन्यथा दुःखों से मुक्ति सम्भव नहीं है।
कर्म - अजीव के अन्तर्गत जिन पाँच द्रव्यों का वर्णन किया गया है, उनमें से पुद्गल के अन्तर्गत बाईस प्रकार की वर्गरगाएं होती हैं। उन में एक कारण वर्गणा भी होती है, जो जीव के मोहराग-द्वेष भावों का निमित्त पाकर कर्म रूप परिग्गमित हो जाती है और उसका सम्बन्ध मोही-रागी-द्वेषी यात्मा से होता रहता है । वे कर्म पाठ प्रकार के होते हैं - ज्ञानाबरगा, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायू, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनके भी अवान्तर एक सौ अड़तालीस भेद होते हैं।
ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय में प्रात्मा मोह-राग-द्वेष आदि विकारी भाव करता है और मोह-राग ईष भावों के होने पर प्रात्मा
-
-. . -
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१ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा 5,२२
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तुत्व के साथ ज्ञानावरणादि कर्मों का न होता है । इस तरह यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि यह प्रात्मा स्वयं आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ कर मोह-राग-द्वेष भावों का अभाव कर कर्मों से सम्बन्ध को विच्छेद नहीं कर देता है ।
आत्मा के मोह-राग-द्वेष भावों से कम-बंध और वार्म के उदय से आत्मा में मोह-राग-द्वेष भावों की उत्पत्ति, इस प्रकार की संगति होने पर भी प्रात्मा और कर्म दो भिन्न-भिन्न तत्त्व होने के कारण केवल अपने-अपने परिणामों को ही निष्पन्न करते हैं, परस्पर एक-दूसरे के परिणामों को नहीं; इनका परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं । वह निमित्त-नमित्तिक सम्बन्ध भी सहज रूप से बन रहा है, उनमें कोई अन्य कारण नहीं है । दोनों में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने पर भी दोनों द्रव्यों में कार्योत्पत्ति स्वयमेव अपने कारण से ही होती है ।
शास्त्रों में कहीं-कहीं कर्म की मुख्यता से व्यवहार कथन किया जाता है, उसका सही मर्म न समझ पाने के कारण बहुत से जीव हताश हो जाते हैं अथवा अपने द्वारा किये गए बुरे कार्यों को कर्म के नाम पर मढ़ने लगते हैं । ऐसे लोगों को सावधान करते हुए पुरुषार्थ की प्रेरणा पं० टोडरमल इस प्रकार देते हैं :--
"अर तत्त्व निर्णय न करने विष कोई कर्म वा दोष है नाहीं तेरा (प्रात्मा का) ही दोष है, अर तूं ग्राप तो महन्त रह्या चाहै पर अपना दोष कर्मादिक के लगावै, सो जिन आज्ञा मान तो ऐसी अनीति सम्भव नाहीं" ।
' मो. मा० प्र०, ४४ २ पु० भा० टी०, ३ मो० मा० प्र०, ३४ ४ वही, ४३ ५ बही, ४५.८
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ror विषय और वार्शनिक विश्वार
प्रास्त्रय तस्व
आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोह-राग-द्वेष भावों के निमित्त से कर्मों का आना ( कार्मारण बर्गेरणा का ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिमित होना) प्रस्रव है । इसके दो भेद होते हैं - द्रव्यास्त्रव और भावास्रव । आत्मा के जिन मोह-राग-द्वेष रूप भावों के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्म आते हैं, उन भावों को भावास्रव या जीवास्रव कहते हैं और जो कर्म श्राते हैं उन्हें द्रव्यासव या अजीवासव कहते हैं" । आस्रवों के भेद या कारण मिध्यात्व, अविरति कषाय और योग माने गए हैं । अज्ञानी आत्मा प्रास्रव तत्त्व के समझने में भी भूल करता है और वह यह कि वह कमस्त्रव से बचने के लिए बाह्य क्रिया पर तो दृष्टि रखता है. पर अन्तर में उठने वाले मोह-राग-द्वेप भावों से बचने का उपाय नहीं करता। पं० टोडरमल के शब्दों में :
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"राग-द्वेष मोह रूप जे आसव भाव हैं, तिनका तौ नाश करने की चिन्ता नाहीं अर बाह्य क्रिया वा बाह्य निमित्त मेटने का उपाय सो तिनके पेटे गाव मिटला नाही" ।
बंध तत्व
श्रात्मप्रदेशों के साथ कर्माशुत्रों का दूध-पानी की तरह एकमेक हो जाना बंध है। इसके भी दो भेद हैं- द्रव्यबंध और भावबंध | आत्मा के जिन शुभाशुभ बिकारी भावों के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों का बंध होता है उन भावों को भावबंध कहते हैं और ज्ञानावरणादि कर्मों का बंध होना द्रव्यबंध है |
बंध के चार भेद हैं - प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध | इनका विस्तृत विवेचन जैन शास्त्रों में किया गया है ।
" द्रव्यसंग्रह, गाथा २८-२६
२ समयसार, गाथा १६४ | आचार्य उमास्वामी में प्रमाद को भी प्रसव का भेद माना है । तस्वार्धसूत्र ०५ सू० १
9 मो०मा० प्र०, ३३३
* द्रव्यसंग्रह, गाया ३२ तत्वार्थसूत्र ०८
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
शुभ भावों से पुष्यबंध होता है और अशुभ भावों से पापबंध" । बंध चाहे पाप का ही या पुण्य का, वह है तो आखिर बंध ही, उससे आत्मा बंधता ही है, मुक्त नहीं होता । पुण्य को सोने की बेड़ी एवं पाप को लोहे की बेड़ी बताया गया है । बेड़ी बंधन का ही रूप है, चाहे वह सोने (पुण्य) की हो, चाहे लोहे (पाप) की । इस संबंध में डॉ० हीरालाल जैन लिखते हैं :
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"यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि और ग ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ कर्मबंध उत्पन्न करती हैं। हाँ, उनमें से प्रथम प्रकार का कर्मबंध जीव के अनुभवन में अनुकुल व सुखदायी और दूसरा प्रतिकूल व दुःखदायी सिद्ध होता है । इसीलिए पुण्य और पाप दोनों को शरीर को बाँधने वाली बेड़ियों की उपमा दी गई है । पाप रूप बेड़ियाँ लोहे की हैं; और पुण्य रूप बेड़ियाँ स्वर्ण की, जो अलंकारों का रूप धारण कर प्रिय लगती हैं। जीव के इन पुण्य और पाप रूप परिणामों को शुभ व अशुभ भी कहा गया है। ये दोनों ही संसारभ्रमण में कारणीभूत हैं, भले ही पुण्य जीव को स्वर्गीय शुभ गतियों में ले जाकर सुखानुभव कराये अथवा पाप नरकादि व पशु योनियों में ले जाकर दुःखदायी हो। इन दोनों शुभाशुभ परिणामों से पृथक् जो जीव की शुद्धावस्था मानी गई है, वही कर्मबंध से छुड़ा कर मोक्ष गति को प्राप्त कराने वाली है ।"
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पुण्योदय से लौकिक भोगों की प्राप्ति होती है, अतः लौकिक भोगों का अभिलापी प्राणी पुण्यबंध को भला और पापबंध को बुरा मान लेता है। अथवा पुण्यबंध के कारण रूप जो शुभ भाव हैं, उन्हें मोक्ष का कारण मान लेता है । जो बंध के कारण हैं - चाहे वे पुण्यबंध के ही कारण क्यों न हों, उन्हें मुक्ति के कारण मान लेना ही बंध तत्व संबंधी अज्ञान है ।
' तत्त्वार्थ सूत्र श्र० ६ सू० ३
२ समयसार, गाथा १४६
3 भा० सं० जं० गो०, २३३
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वण्य-विषय और दार्शनिक विचार
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संबर तस्व
ग्रानव का रुकना संवर है। यह भी दो प्रकार का होता है - द्रव्यसंबर और भावसंबर। जो आत्मा का परिणाम कर्म के प्रास्रव को रोकने में हेतु है वह परिणाम भावसंवर है और कर्मों का आगमन रुक जाना द्रव्यसंवर है । यह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है 3 | गृप्ति तीन प्रकार की होती हैंमनोगुप्ति, बचनगप्ति और कायगप्ति । समिति पाँच प्रकार की होती हैं - ईवा समिति, भाषा गमिलि, एषणा समिति, प्रादाननिक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापना समिति । धर्म दस प्रकार के होते हैं - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम प्रार्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम प्राकिचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य । अनप्रेक्षा बारह प्रकार की होती हैं - अनित्य, अशरण, संमार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, पासव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । परीपहजय बाईस प्रकार के होते हैं - क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमसक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणास्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और प्रदर्शन, ये वाईस परीषह हैं। इन्हें जीतना परीपहजय कहलाता है । चारित्र पाँच प्रकार का होता है - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात । इन सत्र का वर्णन जैन दर्शन में विस्तार से मिलता है।
इन सब के सम्बन्ध में यह अज्ञानी प्रास्मा वाह्य दृष्टि से ही विचार करता है, अन्तर में प्रवेश नहीं करता है। अन्तरंग में धर्मरूप स्वयं तो परिणमित होता नहीं है, पाप के भय और पुण्य के लोभ में वाह्य प्रवृत्ति को रोकने की चेष्टा करता रहता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए पं० टोडरमल कहते हैं :
' तत्त्वार्थसूत्र, अ० ६ सू. १ २ द्रव्यसंग्रह, गाथा ३४ ३ (क) सत्त्वार्थसूत्र, ग्रह सू०२
(स) द्रव्यसंग्रह, गाथा ३५
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पंडित टोडरमल: व्यक्तित्व और कर्तृत्व "बहुरि बैधादिक के भयते वा स्वर्ग मोक्ष की चाहत, क्रोधादि न कर है, सो यहाँ क्रोधादि करने का अभिप्राय तो गया नाहीं। जैसे कोई राजादिक के मयत या महतपना का लोभते पर-स्त्री न सेव है तौ बाकौं त्यागी न कहिए। तैसे ही यह क्रोधादि का त्यागी नाहीं। तो कैसे त्यागी होय ? पदार्थ अनिष्ट-इष्ट भासै क्रोधादि हो है। जब तत्त्वज्ञान के अभ्यासतें कोई इष्ट-अनिष्ट न भासें तब स्वयमेव ही क्रोधादि न उपजै, तब सांचा धर्म हो है।” निर्जरा तस्व
आत्मा से बंधे कर्मों का झड़ना निर्जरा है । इसके भी दो भेद हैं - द्रष्यनिर्जरा और भावनिर्जरा । आत्मा के जो भाव कर्म भरने में हेतु हैं, बे भाव ही भावनिर्जरा है और कर्मों का झड़ना द्रव्यनिर्जरा है। निर्जरा तप द्वारा होती है । तप दो प्रकार का होता है - अन्तरंग तप और बहिरंग तप । तप का सही रूप नहीं समझ पाने से जनसाधारण की दृष्टि अंतरंग तय की ओर न जाकर वाझ अनशनादि तपों की ओर ही जाती है और उनका भी वे सही स्वरूप समझ नहीं पाते हैं; तथा भूख, प्यास, गर्मी, सर्दी आदि के दुःखों को सहने का नाम ही तष मान लेते हैं।
इच्छाओं के अभाव का नाम तप है, इस पर ध्यान नहीं जाता और तप के नाम पर बाह्म क्रियाकाण्ड में उलझे रह कर निर्जरा मान लेते हैं। उक्त संदर्भ में पंडित टोडरमल लिखते हैं :
"जो बाह्य दुःख सहना ही निर्जरा का कारण होय तो तिथंचादि (पशु) भी भूख तृषादि सहैं है ।''........
उपवासादि के स्वरूप को भी सही नहीं समझते हैं। कषायों, भोगों और भोजन के त्यागने का नाम उपवास है, किन्तु मात्र भोजन
१ मो० मा०प्र०, ३३५-३६ २ द्रव्यसंग्रह, गाधा ३६
तस्वार्थसूत्र, अ०६ सू०३ ४ मो० मा० प्र०, ३३८ ५. दही, ३३७
वही, ३४०
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वयं-विषय और दार्शनिक विचार
१७१ के त्यागने को ही उपवास मान लिया जाता है, परिणामों में भोगों की इच्छा तथा कषायों की ज्वाला कितनी ही प्रज्वलित क्यों न रहे, इस पर ध्यान नहीं देते ।
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कषायों के अभाव में परिणामों की शुद्धता ही वास्तविक तप है और उससे ही निर्जरा होती है । मोक्ष तस्व
प्रात्मा का कर्मबंधन से पूर्णतः मुक्त हो जाना मोक्ष है। यह भी दो प्रकार का होता है-द्रव्यमोक्ष और भावमोक्ष । प्रात्मा के जो शुद्ध भाव कर्मबंधन से मुक्त होने में हेतु होते हैं वे भाव ही भावमोक्ष हैं और आत्मा का द्रव्य कर्मों से मुक्त हो जाना द्रव्यमोक्ष है' | प्रात्मा की सिद्ध दशा का नाम ही मोक्ष है । सिद्ध दशा अनन्त ग्रानन्दरूप है। वह आनन्द अतीन्द्रिय ग्रानन्द है। उस अलौकिक आनन्द की तुलना लौकिक इन्द्रियजन्य ग्रानाद ये नहीं की जाती है, पर संसारी आत्मा को उक्त अतीन्द्रिय अानन्द का स्वाद तो कभी प्राप्त हुआ नहीं, अतः उस प्रानन्द की कल्पना भी वह इस लौकिक इन्द्रियजन्य आनन्द से करता है, निराकुलता रूप मोक्ष दशा को पहिचान नहीं पाता। पंडित टोडरमलजी लिखते हैं :___"स्वर्ग विर्षे सुख है, तिनितें अनन्त गुरगों मोश्न विर्ष मुख है। सो इस गुणकार विर्षे स्वर्ग-मोक्ष सुख को पा जाति जान है। तहाँ स्वर्ग विष तौ विषयादि सामग्रीजनिन मुख हो है, ताकी जाति याकौं भासे है पर मोक्ष विर्षे विषयादि सामग्री है नाहीं, लो बहाँ का सुख की जाति याकौं भास तौ नाहीं परन्तु स्वर्ग तें भी मोक्ष को उत्तम, महापुरुष काहै हैं, तातें यह भी उत्तम ही मान है। जैसे कोऊ गान का स्वरूप न पहिचानै परन्तु सर्व सभा के सराहैं, तातं आप भी सराहै है । तैसे यह मोक्ष कौं उत्तम मान है।"
' ब्रम्पसंग्रह, गाथा ३७ २ मो० मा०प्र०, ३४२
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पंडित टोरर मत : व्यक्तित्व और कर्तृत्व पुण्य-पाप
पुण्य और पाप दोनों प्रात्मा की बिकारी अन्तवृत्तियाँ हैं। देव पूजा, गुरु उपासना, दया, दान आदि के प्रशस्त परिणाम पुण्य-भाव कहलाते हैं और इनका फल लौकिक अनुकूलता की प्राप्ति है। हिंसा, भूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह-संग्रह आदि के भाव पाप-भाब हैं और इनका फल लौकिक प्रतिकूलताएँ हैं । जीवादि सप्त तत्त्वों में पुण्य और पाप मिला कर नव तत्त्व भी कहे गए हैं । जहाँ तत्त्वों की संख्या सात बताई गई है, वहाँ पुण्य-पाप को प्रास्रव-बंध में सम्मिलित कर लिया गया है। वस्तुतः ये प्रास्रव और बंध के ही भेद हैं। इस तथ्य को निम्न चार्ट द्वारा समझा जा सकता है :
पुण्य
पुग्याधय
पाय
पुण्यूबंध
पापाव
पान
सामान्यजन पुण्य को भला और पाप को बुरा मानते हैं, क्योंकि पुण्य से मनुष्य व देव गति की प्राप्ति होती है और पाप से नरक और तिर्यंच गति वी। वे यह नहीं समझते कि चारों गतियों संसार हैं, संसार दुःखरूप है, तथा पुण्य और पाप दोनों संसार के ही कारण हैं अतः संसार में प्रवेश कराने वाले पुण्य या पाप भले कैसे हो सकते हैं ? पुण्य बंध रूप है और प्रात्मा का हित मोक्ष (अबंध) दशा प्राप्ति में है। प्रतः पुण्य रूप शुभ कार्य भी मुक्ति के मार्ग में हेय ही हैं। इतना अवश्य है कि पाप-भाव की अपेक्षा पुण्य-भाव को भला कहा गया है, किन्तु मोक्षमार्ग में उसका स्थान अभावात्मक ही है । ' समयसार, गाथा १३ २ वही, १४५
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T
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वर्ण्य विषय और दार्शनिक विचार
देव
१७३
जो वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हों, वे सच्चे देव हैं । जो जन्म भरण, राग-द्वेषादि अठारह दोषों से रहित हो, वे वीतराग हैं । तीन लोक व तीन काल के समस्त पदार्थों को एक समय में स्पष्ट जानें, वे सर्वज्ञ कहलाते हैं तथा आत्महित (मोक्षमार्ग) का उपदेश देने वाले हितोपदेशी कहे जाते हैं ' ।
अरहंत और सिद्ध परमेष्ठी सच्चे देव (भगवान्) हैं । जैन मान्यता में भगवान् अलग नहीं होते। जो भी आत्मा प्रात्मोन्मुखी पुरुषार्थ कर सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र की पूर्णता को प्राप्त कर वीतरागी हो अपने ज्ञान का पूर्ण विकास कर लेता है, वही परमात्मा वन जाता है 1
इस विश्व में प्रनन्त जीवादि पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता में परिपूर्ण भिन्न-भिन्न अनादि अनन्त हैं । प्रत्येक पदार्थ अपने में होने वाले परिमन का स्वयं कर्त्ता हर्त्ता है। यह सम्पूर्ण जगत अनादि अनन्त है, इसे किसी ने भी नहीं बनाया है और न इसे कोई नष्ट ही कर सकता है । एक द्रव्य का कर्त्ता दूसरे द्रव्य को मानना द्रव्य की स्वतन्त्रता को खण्डित करना है। यद्यपि निमित्तादिक की अपेक्षा व्यवहार से एक द्रव्य का कर्त्ता दूसरे द्रव्य को कहा जाता है, तथापि परमार्थतः एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता हर्त्ता नहीं है ।
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सच्चे देव का सही स्वरूप नहीं जानने वाले भक्तों को लक्ष्य करके पं० टोडरमल कहते हैं तिनि अरहंतन को स्वर्ग-मोक्ष का दाता, दीन दयाल, अधम उधारक, पतितपावन मानें हैं, सो अन्यमती कर्तृत्व बुद्धि ईश्वर कौं जैसें मानें हैं, तसे बहु श्ररहंत कौं मानें है। ऐसा नाहीं जानें है - फल तो अपने परिणामनि का लागे है, अरहंत तिनिकों निमित्त मात्र है, तार्त उपचार करि ये विशेषरण सम्भव है ।
वस्तुतः भगवान् जगत का ज्ञाता दृष्टा मात्र है, कर्ता-धर्ता नहीं ।
१ रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अ० १ श्लोक ५-८
२ मो० मा० प्र०, ७५,१२८,१२६,१६०,१६१
३ द्रव्यसंग्रह, गाथा
४ मो०मा०प्र०, ३२५
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१७४
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व
आत्महितकारी तत्त्वोपदेश करने वाली, जीवों को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में ले जाने वाली, पूर्वापर विरोध से रहित सच्चे देव की वाणी को सच्चा शास्त्र कहते हैं। सच्चे देव वीतरागी और पूर्णज्ञानी होते हैं, अतः उनकी वाणी भी वीतरागता की पोषक और पूर्णता की ओर ले जाने वाली होती है।
सच्चे शास्त्र के सम्बन्ध में सबसे अधिक विचारणीय बात यह है कि सर्वज्ञ परमात्मा भगवान महावीर को हुए २५०० वर्ष हो गए हैं, उनके बाद आज तक की परम्परा में शास्त्रों की प्रामाणिकता किस आधार पर मानी जा सकती है ? क्या उसमें इतने लम्बे काल में विकृति सम्भव नहीं है ? उक्त प्रश्न पर पंडित टोडरमल ने विस्तार से विचार किया है । जैन शास्त्रों की प्रामाणिकता पर विचार करते हुए कालवश पाई हुई विकृतियों को उन्होंने निःसंकोच स्वीकार किया है, किन्तु साथ-साथ मूलतत्त्वों के वर्णन की प्रामाणिकता को सयुक्ति संस्थापित किया है । वे लिखते हैं :
"ऐसे विरोध लिए कथन कालदोष नै भए हैं। इस काल विर्षे प्रत्यक्षज्ञानी वा बहुश्रुतनि का तो अभाव भया अर स्तोकबुद्धि ग्रन्थ करने के अधिकारी भए । तिनकै भ्रम से कोई अर्थ अन्यथा भास ताको तैसें लिखें अथवा इस काल विर्षे कई जनमत विर्षे भी कषायी भए हैं सौ तिनमें कोई कारगा पाय अन्यथा लिख्या है। ऐसे अन्यथा कथन भया है, तात जैन शास्त्रनि विर्षे विरोध भासने लागा ।"
यदि अप्रयोजनभूत पदार्थों में कहीं कोई अन्यथा कथन प्रा भी गया हो तो उससे पात्मा के हित-अहित से कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों में विकृति पाने की कोई सम्भावना नहीं है १ रत्नकरण्ड भ्यानकाचार, अ० १ श्लोक : २ मो० मा० प्र०, १५-२० 3 वही, ४४५ ४ वही, ४४५
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पण्य-विषय और दार्शनिक विचार
१७५
और यदि कदाचित् हो भा जाये तो उसके निराकरण की प्रक्रिया भी स्वतः सक्रिय है । अतः मूल बातों की प्रामाणिकता असंदिग्ध ही है ।
जैन दर्शन में गुरुत्व की कल्पना कलादिक की अपेक्षा से नहीं है किन्तु दर्शन, ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा से है। यदि गुरु के स्वरूप को समझने में गलती हुई तो सर्वत्र गलतियों सम्भव हैं, क्योंकि ज्ञान का मूल तो गुरु ही है । अतः पंडित टोडरमल ने इसके सम्बन्ध में बहुत सावधान किया है। गुमता के अभाव में अपने को गुरु मानने वालों के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया है । कुल की अपेक्षा अपने को गुरु मानने वालों को लक्ष्य में करके वे कहते हैं :--
"जो उच्च कुल विर्षे उपजि हीन पाचरन कर तो वाकौं उच्च कैसे मानिए 1 जो कुल विषं उपजनेही ते उच्चपना र है, तो मांसभक्षणादि किए भी त्राको उच्च ही मानौं सो वन नाहीं।....."ताते धर्म पद्धति विषं कुल अपेक्षा महतपना नाहीं सम्भव है ।"
इसी प्रकार पट्ट पर बैठने, ऊँचा नाम रखने, विभिन्न प्रकार से भेष बनाने का नाम भी गुरुपना नहीं है। इनके कारग्गों का विश्लेषगा करते हुए पंडित टोडरमल लिखते हैं :___ "शास्त्रनि विषं तो मार्ग कठिन निरूपण किया सो तो सधै नाहीं पर अपना ऊँचा नाम धराएं बिना लोक मानें नाहीं, इस अभिप्राय तें यति, मुनि, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, भट्टारक, संन्यासी, योगी, तपस्वी,नग्न इत्यादि नाम तो ऊंचा धरावे हैं पर इनिका आचारनिकों नाहीं साधि सके हैं तातें इच्छानसारि नाना भेष बनावें हैं । बहुरि केई अपनी इच्छानुसारि ही तौ नवीन नाम धरावे हैं अर इच्छानुसारि ही भेष बनावै हैं । ऐसे अनेक भेष धारने ने गुरुपनौं मानै हैं, सो यहु मिथ्या है। ' मो. मा० प्र०, १९-२० २ वहीं, २५८ 3 वहीं, २५८-५९ । वहीं, २६१-६२
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व मुरुनामधारी लोगों को लक्ष्य करके वे आगे लिखते हैं :
"जो शीत उगादि सहे न जाते थे, लज्जा न टूट थी, तो पाग, जामा इत्यादि प्रवृत्तिरूप वस्त्रादिक त्याग काहे कों किया ? उनको छोरि ऐसे स्वांग बनावने में कौन धर्म का अंग भया । गृहस्थान कौं ठिगने के अथि ऐसे भेष जाननें । जो गृहस्थ सारिखा अपना स्वांग रान तो गृहस्थ कसे ठिगावै ? पर याकौं उन करि ग्राजीविका वा धनादिक वा मानादिक का प्रयोजन साधना, तानै ऐ स्वांग बना है। जगत भोला, तिस स्वांग को देखि लिंगावै अर धर्म भया माने ।' भक्ति
प्रात्मीय सद्गुरगों में अनुराग को भक्ति कहते हैं। आत्मीय गुणों का चरम विकास पंचपरमेष्ठियों में पाया जाता है। अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साध, ये पांच पंचपरमेष्ठी कहे जाते हैं । अतः इस के प्रति अनुराग ही भक्ति हुई। पंचपरमेष्ठियों में अरहंत और सिद्ध देव हैं; एवं प्राचार्य, उपाध्याय और माधु गुरुयों में आते हैं। इनके द्वारा निमित जिनागम ही शास्त्र है। अतः प्रकारान्तर से यह भी वाह सकते हैं कि देव-गुरु-शास्त्र के प्रति अनुराग ही भक्ति है । अनुराग राग का ही भेद है, यह वीतरागता का कारण नहीं हो सकता है । वीतरागता शुद्ध भाव रूप है और राग शुभाशुभ भाव रूप । देवगुरु-शास्त्र के प्रति भक्ति शुभ राग है. अतः शुभ भाव रूप है।
जैन दर्शन में भक्ति को मुक्ति का कारण न मान कर पूण्य बंध का कारण माना गया है, क्योंकि वह राग का है. और राग बंध का कारग है, मुक्ति का नहीं । अतः जैन दर्शन में ज्ञानी आत्मा का लक्ष्य भक्ति नहीं है, किन्तु तीन राग से बचने के लिए एवं विषय-भोगों के प्रति होने वाले राग मे बचने के लिए ज्ञानी जन भी भक्ति में लगते हैं। अज्ञानी जन भक्ति को मुक्ति का कारण जानते हैं, अतः उसमें तीव्रता से लगते देखे जाते हैं। १ मो० मा प्र०, २६१ २ पंचास्तिकाय संग्रह, समयव्याख्या टीका, गाथा १३६
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वण्म-विषय और दार्शनिक विचार
१७७ पंडित टोडरमल वीतरागी सर्वज्ञ देव, प्रात्मानुभवी निर्ग्रन्थ गुरु एवं बीतरागता की पोषक सरस्वती के परम भक्त थे, किन्तु भक्ति के क्षेत्र में अन्ध श्रद्धा उन्हें स्वीकार न थी। वे लिखते हैं :- .
"केई जीव भक्ति की मुक्ति का कारण जानि तहाँ अति अनुगगी होय प्रवत्त हैं सो अन्यमती जैसे भक्ति से मुक्ति माने है नैसे याकें भी श्रद्धान भया । सो भक्ति तौ रागरूप है। राग ते बन्ध है । तातं मोक्ष का कारण नाहीं । जय राग का कालावै.
स
नी पापानुराग होय, साते अशुभ राग छोड़ने कौं ज्ञानी भक्ति विर्षे प्रवर्ने है१ बा मोक्षमार्ग कौं बाह्य निमित्तमात्र जाने हैं। परन्तु यहाँ ही उपादेयपना मानि संतुष्ट न हो है, शुद्धोपयोग का उद्यमी रहै है।"
जैन मान्यतानुसार भगवान् किमी का अच्छा-बुरा नहीं करते हैं और न ही किसी को कुछ देते-लेते हैं। भक्ति मुक्ति का कारण तो है ही नहीं, किन्तु लौकिक लाभ (भोग मामग्री, धनादि की प्राप्ति, शन नाश आदि) की प्राप्ति की इच्छा से की गई भक्ति से पूण्य भी नहीं बंधता अपितु पापबंध होता है, क्योंकि वस्तुतः वह भगवान् की भक्ति रूप शुभ भाव न हो कर भोगों को चाह रूपी अशुभ भाव है ।
भक्ति के नाम पर होने वाली नृत्य, गीत आदि रागवर्द्धक क्रियायों का भक्ति में कोई स्थान नहीं है । उक्त संदर्भ में बे लिखते है:
"बहुरि भक्तयादि कार्यनि विर्षे हिंसादिक पाप बधाव वा गीत नृत्य गानादिक वा इष्ट भोजनादिक वा अन्य सामग्रीनि करि विषयनि कौं पोष, कुतूहल प्रमादादि रूप प्रवर्ते । तहाँ पाप तो बहुत उपजावं अर धर्म का किटू साधन नाही, तहाँ धर्म माने सौ सब कुधर्म है।" बैच और पुरुषार्थ ___ देव भाग्य को कहते हैं । पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्म ही भाग्य है व वर्तमान में किये गए प्रयत्न को पुरुषार्थ कहा जाता है । इस प्रकार दैव पूर्वनियोजित है और पुरुषार्थ इचेष्टित । अबुद्धिपूर्वक हुए कार्यो ५ मो० मा प्र०, ३२६ २ वहीं, ३२५-३२६, ४२६ ३ वही, २७५-७६
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१७८
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कल्य
में देव को मुख्यता दी गई है और बुद्धिपूर्वक किए जाने वाले कार्यों में पौरुष प्रधान है' । उपदेश सदा बुद्धिपूर्वक किए जाने वाले कार्यों के लिए ही दिया जाता है। अतः पंडित टोडरमल ने अपने साहित्य में सर्वत्र पुरुषार्थं को प्रधानता दी है। उन्होंने कार्योत्पत्ति में काललब्धि, होनहार एवं कर्म की उपशमादि अवस्थाओं को यथास्थान स्वीकार करते हुए पुरुषार्थ पर जोर दिया है। उपदेश का महत्त्व भी मात्र प्रेरणा तक ही सीमित है, कार्यसिद्धि पुरुषार्थ पर ही निर्भर करती है । पुरुषार्थी को अन्य साधन स्वयमेव मिलते हैं, किन्तु पुरुषार्थ का विवेकपूर्वक सही दिशा में होना अति आवश्यक है ।
पंडित टोडरमल के साहित्य में पुरुषार्थ को प्रमुखता प्राप्त है, पर पुरुषार्थ की व्याख्या उनके अनुसार लौकिक मान्यता से हट कर है । लौकिक जनों में पुरुषार्थ प्रायः उन प्रयत्नों को समझा जाता है, जिनका प्रयोग व्यक्ति लौकिक उपलब्धियों के लिए करता है, पर लौकिक उपलब्धियाँ पुरुष प्रयत्नसापेक्ष हैं हो कब ? यदि लौकिक उपलब्धियाँ पुरुष प्रयत्नसापेक्ष हो, तो फिर जो जितना श्रम करे उसे उतना मिलना चाहिए, किन्तु वस्तुस्थिति बहुलता से इसके विपरीत देखी जाती है । श्रतः शरीर-मन-वाणी, सौंदर्य, आरोग्य तथा धन-धान्य, स्त्री-पुत्रादि, सभी वस्तुएँ देवकृत हैं। वर्तमान में आत्मा तो मात्र इनकी उपलब्धि के लिए राग-द्वेष रूप विकल्प मात्र करता है । इनके सम्पादन में इसका कोई अधिकार नहीं है ।
वर्तमान जीवन में जो भी लौकिक उपलब्धियाँ होती हैं. वे पूर्व नियोजित देव के अनुकूल होती हैं, तथा भावी भाग्य की रचना का श्राधार श्रात्मा का वर्तमान पुरुषार्थ है । आत्मा का पुरुषार्थ यदि पाप में प्रवर्तित होता है तो उसके निमित्त से पापकर्म का संचय होता है और यदि पुष्य में वर्तन करता है तो पुण्यकर्म संचित होता है। यही पुण्य-पाप कर्म श्रात्मा का देव या भाग्य कहलाता है ।
जड़ कर्मों के निमित्त से समस्त लौकिक सुख-दुःख की प्राप्ति सम्भव होती है, किन्तु श्रात्मा के प्राधीन शाश्वत आनन्द की प्राप्ति १ प्राप्तमीमांसा, श्लोक ६१
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वायं-विषय और दार्शनिक विचार
१७६ न तो पाप-पुण्य के पुरुषार्थ से होता है और न उनके द्वार। संचित कर्मों से अर्थात् भाग्य से । उसकी उपलब्धि तो एक मात्र ज्ञानानन्द स्वभावी प्रात्मस्वरूप के प्रति सचेष्ट सम्यक पुरुषार्थ से ही होती है और इसी : आत्मसन्मुख पुरुषार्थ को पंडित टोडरमल ने सच्चा पुरुषार्थ माना है तथा आत्महित रूप कार्य की सिद्धि में इसे ही प्रधान स्थान दिया है । निमित्त-उपावान
कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है । कार्य की उत्पादक सामग्री को ही कारणा कहते हैं। कारण दो प्रकार के होते हैं - उपादान कारण और निमित्त कारण । जो स्वयं कार्यरूप परिणमित हो, उसे उपादान कारण कहते हैं । जो स्वयं कार्यरूप परिरामित न हो, परन्तु कार्य की उत्पत्ति में अनुकुल होने का आरोप जिस पर पा सके उसे निमित्त कारग कहते हैं । घट रूप कार्य का मिट्टी उपादान कारण है और चक्र, दण्ड एवं कुम्हार निमित्त कारण हैं।
किसी एक पदार्थ में जब कोई कार्य निष्पन्न होता है तो वहाँ दूसरा पदार्थ भी नियम से विद्यमान होता है जो उस कार्य को उत्पन्न भी नहीं करता, उसमें योग भी नहीं देता, किन्तु उस कार्य की उत्पत्ति के साथ अपनी अनुकूलता रखता है। वस्तुस्थिति के इस नियम को उपादान-निमित्त, सम्बन्ध कहते हैं।
जिस पदार्थ में कार्य निष्पन्न होता है उसे उपादान और उस कार्य को उपादेय अथवा नैमित्तिक कहते हैं तथा संयोगी इतर पदार्थ को निमित्त कहते हैं। एक पदार्थ को ही उपादान की अपेक्षा कथन करने पर उपादेय और निमित्त की अपेक्षा कथन करने पर नैमित्तिक कहा जाता है । निमित्त-उपादान की स्वतन्त्र स्थिति तथा उनका अनिवार्य सहचर - ये दो इसमें मुलभूत तथ्य हैं, जिनमें से एक को भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है । निमित्त को बलपूर्वक कार्य के समीप
१ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २१७ २ जैनतत्त्व मीमांसा, ६० । उपादान-निभिस्त संवाद, दोहा ३
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१८०
क रनार अविवार हतार लाना पड़ता हो, ऐसा नहीं है किन्तु जब किसी पदार्थ में कार्य सम्पन्न होता है तो तदनुकूल निमित्त सहज रहता है और उस कार्य का उससे नैमित्तिक-निमित्त सम्बन्ध भी सहज होता है। निमित्त बलपूर्वक उसमें हस्तक्षेप या सहयोग करता हो, ऐसा भी नहीं है। उक्त तथ्य का पंडित टोडरमल ने कई स्थानों पर विभिन्न संदर्भो में उल्लेख किया है । आत्मा में मोह-राग-द्वेष रूप विकागेत्पत्ति, तथा कर्मोदय एवं वाह्य अनुकूल प्रतिकूल सामग्री की उपस्थिति के संदर्भ में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को वे इस प्रकार स्पष्ट करते है : .
"इहाँ कोऊ प्रश्न करें कि कर्म तो जड़ है किछू बलवान नाही, तिनि करि जीव के स्वभाव का घात होना वा बाह्य सामग्री का मिलना कैसे संभवै ? ताका समाधान - जो कर्म पाप कर्ता होय उद्यम करि जीव के स्वभाव को घात, बाह्य सामग्री की मिलावै तब काम के चेतनपनौं भी चाहिए और बलवानपनौं भी चाहिए सो तो है नाही, सहज ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है । जब उन कर्मनि का उदयकाल होय तिस काल विर्षे आप ही आत्मा स्वभावरूप न परिशमै, विभावरूप परिणमै........ 'ब्रहरि जैसे सूर्य का उदय का काल विर्ष चकवा चकवीनि का संयोग होय तहाँ रात्रि विषं किसी नै द्वेषबुद्धि तें जोरावरि करि जुदे किए नाहीं। दिवम विष काहू ने करुणाबुद्धि ल्याय करि मिलाए नाहीं । सूर्य उदय का निमित्त पाय प्रापही मिले हैं अर सूर्यास्त का निमित्त पाय पाप ही बिछुरे हैं, ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बनि रहा है। तैसे ही कर्म का भी निमित्त-नैमित्तिक भाव जानना' ।"
उपादान निमित्त का सही ज्ञान न होने पर व्यक्ति अपने द्वारा कृत कार्यों (अपराधों) का कर्तत्व निमित्त पर थोप कर स्वयं निर्दोष बना रहना चाहता है, पर जैसे चोर स्वयंकृत चोरी का आरोप चाँदनी रात के नाम पर मढ़ कर दंड-मुक्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार प्रात्मा भी अपने द्वारा कृत मोह-राग-द्रूष भावों का कर्तृत्व कर्मों पर थोप कर दुःख मुक्त नहीं हो सकता है । उक्त स्थिति में स्वदोषदर्शन और प्रात्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति की प्रोर दृष्टि भी नहीं जाती है। १ मो० मा० प्र०, ३७
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वयं-विषय और दार्शनिक विचार
सम्यग्ज्ञान
जीवादि सप्त तत्त्वों का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है । परस्पर विरुद्ध अनेक कोटि को स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे - वह सीप है या चांदी ? विपरीत एक कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं । जैसे – सीप को चाँदी जान लेना । 'यह क्या है ? या 'कुछ है' केवल इतना अरुचि और अनिर्णयपूर्वक जानने को अनध्यवसाय कहते हैं। जैसे - आत्मा कुछ होगा।
जीवादि सप्त तत्त्वों का विस्तृत वर्णन जैन शास्त्रों में किया गया है। जैन शास्त्रों का वस्तुस्वरूप के कथन करने का अपना एक तरीका है, उसे जाने बिना उनका मर्म नहीं समझा जा सकता है । समस्त जिनागम में निश्चय व्यवहार रूप कथन है | निश्चय और व्यवहार ये दो नय के भेद हैं। जैनागम का रहस्य जानने के लिए इनका स्वरूप जानना अत्यन्त यावश्यक है। इनके सही स्वरूप को न समझ पाने के कारण अनेक प्रकार की भ्रान्तियां उत्पन्न हो जाती हैं, जिनका विस्तृत वर्णन पंडित टोडरमल ने किया है। निश्चय और व्यवहार नय
निश्चय नय भूतार्थ है, सत्यार्थ है, क्योंकि वह वस्तु के सत्य (शुद्ध) स्वरूप का उद्घाटन करता है। व्यवहार नय अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, क्योंकि वह वस्तु के असत्य (संयोगी, अशुद्ध) स्वरूप का कथन करता है | जैसे - जीव व देह एक हैं, यह कथन व्यवहार नय का है और जीव व देह एक नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं, यह कथन निश्चय नय का है । यहाँ जीव और शरीर के संयोग को देख कर ' पुम्यामिड्युपाय, श्लोक ३५ * न्यायदीपिका, २ ३ मो० मा० प्र०, २८३ ४ (क) समयसार, गामा ११ (ख) समयसार, ग्रामख्याति टीका, गाथा ११
(ग) पुरुषार्थसिझ्युपाय, श्लोक ५ १ मुमयसार, गाथा २७
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पंडित टोडरमस : व्यक्तित्व मौर कर्तृत्व उन्हें एक कहा गया है, अतः यह व्यवहार कथन हया तथा जीव और शरीर एक क्षेत्र में रहने पर भी वे बस्तुतः भिन्न ही हैं, अत: यह असंयोगी कथन होने से निश्चय कथन हगा। व्यवहार नय को निषेध्य और निश्चय नय को निषेधक कहा गया है । पंचाध्यायीकार पंडित राजमलजी पांडे लिखते हैं :___न्यवहार नय स्वयं ही मिथ्या उपदेश देता है, अतः मिथ्या है और इसी से वह प्रतिषेध्य है। इसीलिए व्यवहार नय पर दृष्टि रखने वाला मिथ्या दृष्टि माना गया है। तथा निश्चय नय स्वयं भूतार्थ हाने से समीचीन है और इसका विषय निर्विकल्पक या वचन अगोचर के समान अनुभवगम्य है, अथवा जो निश्चय दृष्टि वाला है वहीं सम्यम्हाष्टि है और वही कार्यकारी है। अतः निश्चय नब उपादेय है किन्तु उसके सिवाय अन्य नयवाद उपादेय नहीं हैं।"
कुन्दकुन्दाचार्य देव ने निश्चय नय से जाने हुए जीवादि सप्त तत्त्वों को सम्यग्दर्शन कहा है और निश्चय नय का पाश्रय लेने वाले मुनिवरों को ही निर्वाण प्राप्त होना बताया है। व्यवहार नय का कथन अज्ञानी जीवों को समझाने के लिए किया गया है । जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना समझाना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना निश्चय का उपदेश नम्भव नहीं है. अत: जिनवाणी में व्यवहार का कथन पाया है । म्लेच्छ को समझाने के लिए भले ही म्लेच्छ भाषा का आश्रय लेना पड़े पर म्लेच्छ हो जाना तो ठीक नहीं, उसी प्रकार निश्चय का प्रतिपादक होने से भले व्यवहार से कथन हो पर उसका अनुकरण करना तो ठीक नहीं । निश्चय-व्यवहार की उक्त स्थिति को पंडित टोडरमल ने विस्तार से
१ समयसार, गाथा २७२ २ पंचाध्यायी, अ० १ श्लोक ६२८-३० 3 समयसार, गाथा १३ ४ नहीं, २७२ ५ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ६
समयसार, आत्मख्याति टीका, २०-२१
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वर्य-विषय और शानिक विचार
१८३ सहज व सरल भाषा में जन-जन तक पहुँचाया है । उनके विश्लेषण का संक्षिप्त सार इस प्रकार है :
सच्चे निरूपण को निश्चय और उपचरित निरूपण को व्यवहार कहते हैं । एक ही द्रव्य के भाव को उस रूप हो कहना निश्चय नय है और उपचार से उक्त द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भाव स्वरूप कहना व्यवहार नय है । जैसे-मिट्टी के घड़े को मिट्टी का कहना निश्चय नय का कथन है और धी का संयोग देखकर घी का घड़ा कहना व्यवहार नय का कथन है | जिस द्रव्य की जो परिगाति हो, उसे उस ही की कहने वाला निश्चय नय है और उसे ही अन्य द्रव्य की कहने वाला व्यवहार नय है | व्यवहार नय स्वद्न्य को, परद्रव्य को व उनके भावों को व कारण कार्यादिक को किसी को किसी में मिला कर निरूपण करता है तथा निश्चय नय उन्हीं को यथावत निरूपण करता है, किसी को किमी में नहीं मिलाता है' । अतः निश्चय नय सत्यार्थ और व्यवहार नय असत्यार्थ है ।
वस्तुतः निश्चय नय और व्यवहार नय दस्तु के भेद न होकर समझने और कथन करने की शैली के भेद हैं। जैसे - एक खादी की टोपी है । टोपी तो एक ही है, पर उसका कथन दो प्रकार से हो सकता है
और प्रायः होता भी है। यह टोपी किसकी है ? इस प्रश्न के दो उत्तर सम्भव हैं, स्वादी को और नेताजी की । इन दोनों उत्तरों में कौन सा उत्तर सही है ? वस्तुतः टोपी तो खादी की ही है किन्तु इसे नेताजी पहनते हैं, अतः संयोग देखकर नेताजी की भी कही जा सकती है। टोपी को खादी की कहना निश्चय नय का कथन है और नेताजी की कहना व्यवहार नय का।
यदि इसी तथ्य को मोक्षमार्ग को ध्यान में रख कर देखें तो इस प्रकार कहा जावेगा – मोक्षमार्ग दो नहीं हैं, मोक्षमार्ग का कथन
M.
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'मो. मा०प्र०, ३६५-३७८ २ वही, ३६६ ३ वही, ३६७ ४ वही, ३६८ ५ वही, ३६६
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१८४
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कत्त्व दो प्रकार से है । जहाँ सच्चे मोक्षमार्ग को मोक्षमार्ग कहा जाय वह निश्चय मोक्षमार्ग है और जो मोक्षमार्ग नहीं है किन्तु मोक्षमार्ग का सहचारी या निमित्त है, उसे मोक्षमार्ग कहना व्यवहार मोक्षमार्ग है |
बस्तुस्वरूप के सही ज्ञान के लिए यह आवश्यक है कि हम निश्चय नय के कथन को सही जान कर उसका श्रद्वान करें और व्यवहार नय के द्वारा किये गए कथन को प्रयोजनबश किया गया उपचरित कथन जान कर उसका श्रद्वान छोड़ें ।
व्यवहार नय असत्यार्थ और हेय है फिर भी उसे जैन शास्त्रों में स्थान प्राप्त है, क्योंकि व्यवहार स्वयं सत्य नहीं है फिर भी सत्य की प्रतीति और अनुभूति में निमित्त है । प्रारम्भिक भूमिका में व्यवहार की उपयोगिता है क्योंकि वह निश्चय का प्रतिपादक है । जैसे - हिमालय पर्वत से निकल कर बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली सैकड़ों मील लम्बी गंगा नदी की लम्बाई तो ऋया चौड़ाई को भी आँख से नहीं देखा जा सकता है । अत: उसकी लम्बाई-चौड़ाई और बहाव के मोड़ों को जानने के लिए हमे नक्शे का सहारा सना पड़ता है । पर जो गंगा नक्शे में है वह वास्तविक नहीं है, उससे तो मात्र गंगा को समझा जा सकता है, उससे कोई पथिक प्यास नहीं बूझा सकता है, प्यास बुझाने के लिए असली गंगा के किनारे ही जाना होगा । उसी प्रकार व्यवहार द्वारा कथित वचन नक्शे की गंगा के समान हैं । उनसे समझा जा सकता है पर उनके आश्रय स पात्मानुभूति प्राप्त नहीं की जा सकती है । प्रात्मानुभूति प्राप्त करने के लिए निश्चय नय के विषय भूत शूद्धात्मा का ही साथ लेना आवश्यक है । अतः व्यवहार नय तो मात्र जानने (समभने) के लिए प्रयोजनवान है।
व्यवहार नय मात्र दूसरों को ही समझाने के लिए ही उपयोगी नहीं वरन जन तक स्वयं निश्चय नय द्वारा वरिणत वस्तु को न पहिचान सके तब तक व्यवहार द्वारा वस्तु को स्वयं समझना भी उपयोगी है। व्यवहार को उपचार मात्र मान कर उसके द्वारा मुलभूत वस्तु का ' मो० मा० प्र०, ३६५-३६ २ वही, ३६८-३६६
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धर्म्य-विषय और वाशनिक विचार
१५५ निर्णय करना उपयोगी है । व्यवहार को निश्चय के समान सत्य समझ लेना उपयुक्त नहीं है | जैनाभास ___बहुत से लोग जैन कुल में उत्पन्न होते हैं, जैन धर्म की वाह्य श्रद्धा रखते हैं तथा जैन शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन भी करते हैं, फिर भी जैन दर्शन का मर्म नहीं समझ पाने से तत्त्व से अढ़ते रह जाते हैं एवं उनके जीवन में अनेक बिसंगतियां उत्पन्न हो जाती है । वे सब जैनाभास हैं।
नय (निश्चय नय और व्यवहार नय) सम्बन्धी प्रज्ञान के कारण भ्रम में पड़े जैनाभासों को पंडित टोडरमल ने तीन भागों में विभाजित किया है :
(१) निश्चयाभासी (२) व्यवहाराभासी (३) उभयाभासी
आत्मा के शुद्ध स्वरूप को समझे बिना आत्मा को सर्वथा शुद्ध मानने बाले स्वच्छन्द निश्चयाभासी हैं । व्यवहार व्रत, शील, संयमादि रूप शुभ भाबों में आत्मा का हित मान कर उनमें ही लीन रहने वाले मोहमग्न व्यवहारभासी हैं । निश्चय-व्यवहार के सही स्वरूप को समझे विना ही दोनों को एकसा सत्य मान कर चलने वाले उभयाभासी हैं । उक्त भेदों में से निश्चयाभासी और व्यवहाराभासी जीवों की
५ मो० मा० प्र०, ३७२ २ वही, २८३ 5 कोज नय निपचय से आतमा को शुद्ध मान,
___ ये हैं सुदृछन्द न पियाने निज शुद्धता । कोऊ व्यवहार दान, शील, लप, भाव की ही,
प्रातम को हित जान, छांइत न मुद्धता । को व्यवहार नय निश्चय के मारग को,
भिन्न भिन्न पहिचान कर निज उद्धता । जब जान निश्चय के भेद व्यवहार सब, कारण व उपचार माने तब बुद्रता ।।
-- पु. भा. टी०, मंगलाचरण, छन्द ५
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१८६
पंचित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व चर्चा प्राचार्य अमृतचन्द्र ने पंचास्तिकाय संग्रह की 'समयव्याख्या' नामक संस्कृत टीका में की है, किन्तु बहुत संक्षेप में । उभयाभासी की चर्चा तो वहाँ भी नहीं है। यह तो पंडितजी की मौलिक देन है। जिस प्रकार विस्तृत, स्पष्ट और मनोवैज्ञानिक विवेचन पंडित । टोडरमल ने इन सब का किया है, वैसा अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता । उक्त भेदों का पृथक्-पृथक् विवेत्रन अपेक्षित है । निश्चयामासी
निश्चय नय वस्तु के शुद्ध स्वरूप का कथन करता है, अतः निश्चय नय की अपेक्षा से शास्त्रों में प्रात्मा को शुद्ध-बुद्ध, निरंजन, एक, कहा गया है। वहाँ शुद्ध-बुद्ध, निरंजन और एक शब्द अपने विशिष्ट अर्थ को लिये हु हैं ! यह सब कथन अात्म-स्वभाव को लक्ष्य करके किया गया है। उक्त कथन का ठीक-ठीक भाव समझे बिना वर्तमान में प्रगट रागी-द्वेषी होते हुए भी अपने को शुद्ध (वीतरागी) एवं अल्पज्ञानी होकर भी बूद्ध (केवलज्ञानी) मानने वाले जीव निश्चयाभासी हैं। जब दे अपने को शुद्ध-बुद्ध कल्पित कर लेते हैं तो स्वच्छन्द हो जाते हैं, बाह्य सदाचार का निषेध करने लगते हैं। कहते हैं - शास्त्राभ्यास निरर्थक है, द्रव्यादि के विचार बिकल्प हैं, तपश्चरगा करना व्यर्थ क्लेश है, जतादि बंधन हैं और पूजनादि शुभ कार्य बंध के कारण है।
जिनवाणी में निश्चय नय की अपेक्षा से उक्त कथन आते हैं, पर वे शुभोपयोग और वाह्य क्रियाकाण्ड को ही मोक्ष का कारण मानने वाले और शुद्धोपयोग को नहीं पहिचानने वालों को लक्ष्य में रख कर किये गए हैं। इस सम्बन्ध में पंडित टोडरमल लिखते हैं :
"जे जीव शुभोपयोग कौं मोक्ष का कारण मानि उपादेय माने हैं. शुद्धोपयोग की नाही पहिचान हैं, तिनिकों शुभ-अशुभ दोउनि कौं अशुद्धला की अपेक्षा वा बंध कारण की अपेक्षा समान दिखाए हैं, बहुरि शुभ-अशुभनि का परस्पर विचार कीजिए, तौ शुभ भावनि विर्षे १ पंचास्तिकाय संग्रह, १६१-३६६ २ मो० मा० प्र०, २६३-२६४
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वर्ण्य-विषय और वार्शनिक विचार
१८७
कषाय मंद हो है, तातै बंध हीन हो है। अशुभ भावनि विर्षे कषाय तीन हो है, तातें बंध बहुत हो है। ऐसे विचार किए अशुभ की अपेक्षा सिद्धान्त विषे शुभ कौं भला भी कहिए है। जैसे रोग तो थोरा व बहुत बुरा ही है। परन्तु बहुत रोग की अपेक्षा श्रोरा रोग की भला भी कहिए।"
जिमवारणी में सर्वत्र निश्चय नय की अपेक्षा से कथन करते हुए व्रत, शील, संयमादि वाह्य प्रवत्ति और शुभ भाव को बंध का कारण बता कर आत्मज्ञान और प्रात्मध्यान में प्रवृत्ति करने की प्रेरणा दी गई है, क्योंकि वस्तुतः मुक्ति का कारण एक मात्र शूद्वोपयोग ही है। साथ ही स्पन्न होने और शुभ सा में जाने का भी सर्वत्र निषेध किया गया है। निश्चयाभासी जीव प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप को तो पहिचान नहीं पाते एवं अध्यात्म शास्त्रों में निश्चय नय की प्रधानता से किये गए कथनों को पकड़ कर शुभ भावों एवं वाद्याचार का निषेध कर स्वच्छन्द हो जाते हैं। व्यवहाराभासी
व्यवहार नय वस्तु के शुद्ध स्वरूप का कथन न करके संयोगी कथन करता है । जैनागम में व्यवहार नय की मुख्यता से बहुत सा कथन है जो सब का सब प्रयोजन विशेष से किया गया है। उक्त कथन का प्रयोजन पहिचाने बिना बाह्य व्यवहार साधन में ही धर्म को कल्पना कर लेने वाले व्यवहाराभासी हैं। व्यवहाराभासी जैनियों को प्रवृत्तियाँ अनेक प्रकार की देखी जाती हैं।
कुछ लोग कुल अपेक्षा धर्म मानते हैं । जैन धर्म का स्वरूप जानने का प्रयत्न न करके जैन कुल में उत्पन्न हुए हैं, अतः कुलानुकूल प्राचरण करते हैं और अपने को जैन मान लेते हैं, किन्तु धर्म का कुल से कोई सम्बन्ध नहीं है। हो सकता है उनका आचरण जैन धर्मानकल हो पर उन्होंने उसे जैन दर्शन के मर्म को समझ कर स्वीकार नहीं किया है, किन्तु कुलक्रम में चली आई प्रवृत्ति को १ मो० मा० प्र०, ३०१
२ वहीं, ३१४
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१५८
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व कुलीनता के अर्थ में अपनाया है। इस सम्मान में पं. मन्द लिखते हैं :
_"जो साँचा भी धर्म को कुलाचार जानि प्रवत है, तो वाकौं धर्मात्मा न कहिए । जाते सर्व कुल के उस आचरण को छोड़ें, तो आप भी छोड़ि दे। बहरि जो वह आचरराव करै है, सो कूल का भय करि कर है। किछ धर्म बुद्धित नाहीं कर है, तातै वह धर्मात्मा नाहीं । तात विवाहादि कुल सम्बन्धी कार्यनि विषं ती कुल नाम का विचार करना और धर्म सम्बन्धी कार्य विर्षे कुल का विचार न करना' ।"
हम जैन हैं, अतः जैनशास्त्रों में जो लिखा है उसे ही सत्य मानते हैं और उनको ही प्राज्ञा में चलते हैं। ऐसा मानने वाले प्राज्ञानुसारी जैनाभास हैं । बिना परीक्षा किए एवं विना हिताहित का विचार किए कोरी प्राज्ञाकारिता गुलाम मार्ग है।
धर्म परम्परा नहीं, स्वपरीक्षित साधना है। पंडित टोडरमल बिना परीक्षण सत्य को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं, वे परीक्षाप्रधानी हैं। 'बाबा बाक्यं प्रमाणम्' उन्हें स्वीकार नहीं है । वे परीक्षोपरान्त प्राज्ञा को स्वीकार करना उपयुक्त मानते हैं । वे स्पष्ट कहते हैं :
"ताते परीक्षा करि जिन वचननि क्रौं सत्यपनी पहिचानि जिन आज्ञा माननी योग्य है। बिना परीक्षा किए सत्य असत्य' का निर्णय कैसे होय ?"
धार्मिक अंधविश्वास उन्हें पसंद नहीं। तर्क की तुला पर जो हल्का सिद्ध हो वह उन्हें मान्य नहीं है और वह किसी भी सत्यान्वेयो को मान्य नहीं हो सकता।
प्राजीविका, मान, बड़ाई आदि लौकिक प्रयोजन सिद्ध करने के लिए धर्म साधन करने वाले व्यक्ति भी धर्म के मर्म को समझने में असमर्थ रहते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि तत्त्व को गहराई में न जाकर अपने लौकिक स्वार्थ सिद्धि की ओर रहती है। धर्मात्मा के लौकिक
१ मो० मा० प्र०, ३१५ ३ वही, ३१६
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वर्ण्य विषय और दार्शनिक विचार
१५६
कार्य सहज ही सधें तो सधैं, पर उनके लक्ष्य से धर्म साधन करना ठीक नहीं है । उक्त सम्बन्ध में पंडित टोडरमल ने लिखा है :
"जो आप तो किछू श्राजीविका आदि का प्रयोजन विचारि धर्म नाही साधे है, ग्रापक धर्मात्मा जानि केई स्वयमेव भोजन उपकारादि करें हैं, तो किछू दोष है नाहीं । बहुरि जो आप ही भोजनादिक का प्रयोजन विचारि धर्म साधं है, तो पापी है ही ।अर आप ही आजीविका आदि का प्रयोजन बिचारि बाह्य धर्म साधन करें, जहाँ भोजनादिक उपकार कोई न करे, तहाँ संक्लेश करें, याचना करें उपाय करें वा धर्म साधना विषे शिथिल होय जाय, सो पापी ही जानना ।"
कुल परम्परा, देखादेखी, प्राज्ञानुसारी एवं लोभादि के अभिप्राय से धर्म साधना करने वाले व्यवहाराभासी जीवों की प्रवृत्ति का पंडित टोडरमल ने बड़ा ही मार्मिक चित्र खींचा है :
" तहाँ केई जीव कुल प्रवृत्ति कार वा देख्यां देखी लोभादि का अभिप्राय करि धर्म साधे है, तिनिक तो धर्मेदृष्टि नाहीं । जो भक्ति करें हैं तो चित्त तो कहीं है, दृष्टि फिर्या करें है। अर मुखतें पाठादि करें हैं वा नमस्कारादि करें हैं। परन्तु यहु ठीक नाहीं मैं कौन हूँ, किसकी स्तुति करूँ हूँ, किस प्रयोजन के अर्थि स्तुति करूँ हूँ, पाठ विषे कहा अर्थ है, सो किछु ठीक नाहीं । बहुरि कदाचित् कुदेवादिक की भी सेवा करने लगि जाय । तहाँ सुदेव, सुगुरु, सुशास्त्रादि वा कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रादि विषै विशेष पहिचान नाहीं । बहुरि जो दान दे है, तौ पात्र अपात्र का विचार रहित जैसे अपनी प्रशंसा होय तैसे दान दे है । बहुरि तप करें है तो भूखा रहने करि महंतपनी होय सो कार्य करें है । परिणामनि की पहिचान नाहीं । बहुरि बतादिक धारें है, तहाँ बाह्य क्रिया ऊपर दृष्टि हैं । सो भी कोई सांची क्रिया करें है। कोई झूठी करे है। अर अंतरंग रागादि भाव पाइए है, तिनिका विचारही नाहीं वा बाह्य भी रागादि पोषने का साधन करें है । बहुरि पूजा प्रभावना आदि कार्य करें है । तहाँ जैसे लोक विखें बड़ाई होय वा विषय कषाय
' मो० मा० प्र०, ३२२
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१९०
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व पोपे जाय, तसे कार्य कर है । बहुरि हिमादिक निपजाबै है । सो ए कार्य तो अपना वा अन्य जीवनि का परिणाम सुधारने के अथि कहे हैं। बहरि तहाँ किंचित हिसादिक भी निपज है, तो थोरा अपराध होय, गुण बहुत होय सो कार्य करना का ह्या है। सो परिणामनि की पहचान नाहीं । अर यहाँ अपराध केता लाग है, गुगा केता हो है, मो नफा-टोटा का ज्ञान नाही का विधि-विधि का ज्ञान नाहीं । बहरि शास्त्राभ्यास कर है। तहाँ पद्धति रूप प्रवत है। जो वां है तो औरनि को सुनाय दे हैं । जो पढ़े है तो आप पढ़ि जाय है। सन है तौं कहै है सो सुनि ले है । जो शास्त्राभ्यास का प्रयोजन हैं, ताकौं अाप अन्तरंग विर्ष नाहीं अवधारे है । इत्यादि धर्मकार्यनि का मर्म को नाहीं पहिचाने । केईक तो कूल विषं जैसे बड़े प्रवर्ते, तैसें हमी भी करना अथवा और करै हैं, तसे हमकौं भी करना का ऐसे किए हमारा लोभादिक की सिद्धि होगी, इत्यादि बिचार लिएं अभूतार्थ धर्म कौं साधे हैं।" उभयाभासी
ये वे लोग हैं जिनकी समझ में निश्चय-व्यवहार का सच्चा स्वरूप तो पाया नहीं है,पर सोचते हैं कि जैन दर्शन में दोनों नयों का उल्लेख है, अतः हमें दोनों मयों को ही स्वीकार करना चाहिए | निश्चय-व्यबहार का सही ज्ञान न होने से निश्चयामामी के समान निश्चय नय को और व्यवहाराभासी के समान व्यवहार नय को स्वीकार कर लेते हैं। यद्यपि बिना अपेक्षा समझे इस प्रकार स्वीकार करने में दोनों नयों में परस्पर विरोध स्पष्ट प्रतीत होता है, तथापि करें क्या? इनकी मानसिक स्थिति का चित्रण पंडित टोडरमल ने इस प्रकार किया है:
"यद्यपि ऐसे अंगीकार करने विर्षे दोऊ नयनि विर्षे परस्पर विरोध है तथापि कर कहा, साँचा तो दोऊ नयनि का स्वरूप भास्या नाहीं पर जिनमत विर्षे दोय नय कहे, तिनि विर्षे काहू को छोड़ी भी जाती नाहीं । तातें भ्रम लिए दोऊनि का साधन साधे हैं, ते भी जीत्र मिथ्यादृष्टि जाननें। १ मो. मा० प्र०, ३२२-२४ २ वहीं, ३६५
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बर्थ-विषय और दार्शनिक विचार
१९१ इस प्रकार इनमें कम या अधिक रूप में प्रायः वही दोष पाए जाते हैं जो कि निश्चयाभासी और ब्यवहाराभासियों में पाए जाते हैं । नयकथनों का मर्म और उनका उपयोग
__ जैन शास्त्रों में यथास्थान सर्वत्र निश्चय व्यबहार रूप कथन है । जैसे औषधि-विज्ञान सम्बन्धी शास्त्रों में अनेक प्रकार की औषधियों का वर्णन होता है । पर प्रत्येक औषधि हर एक रोगी के काम की नहीं होती है, विशेष रोग एवं व्यक्ति के लिए विशेष औषधि विशिष्ट अनुपात के साथ निश्चित मात्रा में ही उपयोगी होती है । यही बात शास्त्रों के कथनों पर भी लागू होती है। अतः उनके सही भाव को पहिचान कर अपने लिए हितकर उपदेश को मानना उपयुक्त है, अन्यथा गलत औषधि के सेवन के समान लाभ के स्थान पर हानि की संभावना अधिक रखती है!
जैन शास्त्रों में अनेक प्रकार उपदेश है । बुद्धि और भूमिकानुसार उपदेश ग्रहण करने पर लाभ होता है। शास्त्रों में कहीं निश्चयपोषक उपदेश है, कहीं व्यवहारपोषकः । कोई पहिले से ही निश्चयपोषक बात सुनकर स्वच्छन्द हो रहा था, बाद में जिनवाणी में निश्चयपोषक उपदेश पढ़ कर और भी स्वच्छन्द हो जाय तो बुरा ही होगा । इसी प्रकार कोई पहिले से ही प्रात्मज्ञान की ओर से उदास होकर क्रियाकाण्ड में मग्न था, बाद में जिनवारणी में व्यवहारपोषक कथन पढ़ कर और भी क्रियाकाण्डी हो जाय तो बूरा ही होगा 1 अतः यदि हमारे जीवन में हमें व्यवहार का प्राधिक्य दिखाई दे तो निश्चयपोषक उपदेश हितकर होगा और यदि स्वच्छन्दता की ओर झुकाव हो तो व्यवहारपोषक उपदेश हितकर होगा । अतः जिनवाणी के मर्म को अत्यन्त सावधानीपूर्वक उसकी शैली के अनुसार ही समझने का यत्न करना चाहिए।
' मो० मा०प्र०, ४३६ २ वही, ४३९-४४० ३ वही, ४४३
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१९२
पंडित टोडरमल : व्यक्तिस्त्र और कर्तव चार अनुयोग
जैन शास्त्रों का एक वर्गीकरण चार अनुयोगों के रूप में भी किया गया है :
(१) प्रथमानुयोग (२) करणानुयोग (३) चररणानुयोग (४) द्रव्यानुयोग
अनुयोगों को कथन-शैली आदि का सामान्य वर्णन तो पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों में मिलता है, पर वह अति संक्षेप में है। पंडित टोडरमल ने उक्त अनयोगों की कथन-पद्धति का विश्लेषगा बड़ी बारीकी एवं विस्तार से किया है। उनका विश्लेषण मौलिक एवं तर्कपूर्ण है । उन्होंने प्रत्येक अनुयोग की परिभाषा, प्रयोजन, व्याख्यान का विधान, व्याख्यान-पद्धति और अभ्यासक्रम का विश्लेपरगात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है । प्रत्येक अनुयोग के सम्बन्ध में उठने बालो दोष-कल्पनाओं को स्वयं उठा-उठाकर उनका निराकरण प्रस्तुत किया है। अन्योगों के कथन में परस्पर प्रतीत होने वाले विरोधाभासों का, स्वयं शंकाएँ उपस्थित करके, समुचित समाधान करने का सफल प्रयास किया है।
___ अब हम प्रत्येक अनुयोग के सम्बन्ध में उनके द्वारा प्रस्तुत विचारों का परिचयात्मक अनुशीलन प्रस्तुत करेंगे। प्रथमानुयोग
जिन शास्त्रों में महापुरुषों के चरित्रों द्वारा पुण्य-पाप के फल का वर्णन होता है और वीतरागता को हितकर बताया जाता है, उन्हें प्रथमानयोग के शास्त्र कहते हैं। इनका प्रयोजन संसार की विचित्रता
और पुण्य-पाप का फल दिखा कर तथा महापुरुषों की प्रवृत्ति बता कर प्रथम भूमिका बालों को सन्मार्ग दिखाना है ।
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१ रत्नकरण्ड श्रावकाचार, न. २ श्लोक ४२-४६ २ मो. मा० प्र०, ३६४
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पर्य-विषय और धाशनिक विचार
१६३ उक्त प्रयोजन की सिद्धि हेतु उनमें पौराणिक मुल प्रारूयानों के साथ-साथ काल्पनिक कथाएं भी लिखी जाती हैं तथा प्रयोजन अनुसार उनका संक्षेप-विस्तार भी किया जाता है। कहीं-कहीं धर्मबुद्धिपूर्वक किये गए अनुचित कार्यों की भी प्रशंसा कर दी जाती हैं। जैसे विष्णुकुमार मुनि द्वारा किये गा अलि-बंधन एवं ग्वाल द्वारा मुनि को तपाये जाने की प्रशंसा की है। उक्त कार्य उनकी भूमिवानुमार योग्य नहीं थे, किन्तु प्रयोजनवश प्रशंसा की है | वहन में लोग प्रथमानयोग की पद्धति को नहीं जानते हैं, अतः उक्त कार्यों को यादर्ण व अनुकरणीय मान लेते हैं। पंडित टोडरमल ने एमी प्रवृत्तियों के प्रति सावधान किया है। उन्होंने स्पाट लिखा है कि मुनि विष्णकुमार के बहाने और मुनियों को ऐसे कार्य करना ठीक नही है । इसी प्रकार ग्वाले की प्रशंसा सून कर और गृहस्थों को मुनियों को तपाना आदि धर्मपद्धति के विरुद्ध कार्य करना योग्य नहीं है।
प्रथमानुयोग में काव्यशास्त्रीय परम्परा के नियमानुसार कथन किया जाता है, क्योंकि काभ्य में कही गई बात अधिक असरकारक • तथा मनोरंजक होती है ।
प्रथमानयोग में कहीं-कहीं वर्तव्य विशेष की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए अल्प शुभ कार्य का फल बढ़ा-चढ़ाकर भी बना दिया जाता है तथा पाप कार्यों के प्रति हतोत्साह करने के लिए अल्प पाप का फल भी बहत खोटा बता दिया जाता है, क्योंकि अज्ञानी जीव बहुत फल दिखाए बिना धर्म कार्य के प्रति उत्साहित नहीं होते तथा पाप कार्य मे डरते नहीं है । यह कथन पूर्ण सत्य न होकर भी प्रयोजन अपेक्षा ठीक है क्योंकि पाप का फल घूरा और धर्म का फल अच्छा ही दिखाया गया है, किन्तु उक्त कथन को नाग्नम्यरूप मानने के प्रति सचेत भी किया गया है । १ मो० मा० प्र०, ३१८- ३६६ २ बही, ४०२ ३ वही, ४२१ ४ वहीं, ३६६-४०० ४ वही, ४०१
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१६४
करणानुयोग
कररणानुयोग में गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि रूप जीव का तथा कर्मों का और तीन लोक सम्बन्धी भूगोल का वर्णन होता है'। गणना और नाप आदि का विशेष वर्णन होने से इसमें गणित की मुख्यता रहती है । इसमें सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषयों का स्थूल बुद्धिगोचर कथन होता है । जैसे जीवों के भाव तो अनन्त प्रकार के होते हैं, वे सब तो कड़े नहीं जा सकते, अतः उनका वर्गीकरण चौदह भागों में करके चौदह गुग्गस्थान रूप वर्णन किया है। इसी प्रकार कर्म परमाणु तो अनन्त एवं अनन्तानन्त प्रकार की शक्तियों से मुक्त हैं, पर उन सब का कथन तो सम्भव नहीं है, अतः उनका भी वर्गीकरण साठ कर्मों एवं एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों के रूप में किया गया है ।
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और क
इसमें अधिकांश कथन तो केवलज्ञानी द्वारा कथित निश्चय कथन है, किन्तु कहीं-कहीं उपदेश की अपेक्षा व्यवहार कथन भी है, उसको तारतम्य रूप से सत्य मान लेने के प्रति पंडित टोडरमल ने सावधान किया है तथा कहीं कहीं स्थूल कथन को भी पूर्ण तारतम्य रूप से सत्य मान लेने के प्रति भी सचेत किया है ।
चरणानुयोग
गृहस्थ और मुनियों के आवरण नियमों का वर्णन चरणानुयोग के शास्त्रों में होता है । इसमें सुभाषित नीतिशास्त्रों की पद्धति मुख्य है" तथा इसमें स्थूल बुद्धिगोचर कथन होता है । जीवों को पाप से छुड़ा कर धर्म में लगाना इसका मूल प्रयोजन है व उनका जीवन नैतिक और सदाचार से युक्त हो, यह इसका मुख्य उद्देश्य है । इसमें
" मो० मा० प्र०, ३३, ३५
२ वही, ३६६, ४२१
वही, ४०३
४ वही ४०३
५ श्रही, ४०६
६ वही, ३६३
७
वही, ४२१
-
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अर्का-विषय और बार्शनिक विचार
प्रायः व्यवहार नय की मुख्यता से कथन किया जाता है । कहीं-कहीं निश्चय सहित व्यवहार का भी उपदेश होता है' । व्यवहार उपदेश में तो बाह्य क्रिया की ही प्रधानता रहती है, किन्तु निश्चय सहित व्यवहार के उपदेश में परिणामों के सुधारने पर विशेष बल दिया जाता है।
यद्यपि कषाय करना बुरा ही है तथापि सर्व कषाय छूटते न जान कर चरणानुयोग में तीव्र कपाय छोड़ कर मंद कषाय करने का भी उपदेश दिया जाता है, किन्तु पुष्टि प्रकषाय भाव कीही करते हैं। तीय कषायी जीवों को कषाय उत्पन्न करके भी पाप कायों से विरक्त कर धर्म कार्यों की ओर प्रेरित करते हैं 1 जैसे पाप का फल नरकादि के दुःख दिखा कर भय उत्पन्न कराते हैं और स्वर्गादिक के सुख का लोभ दिखा कर धर्म की ओर प्रेरित करते हैं। । बाह्याचार का समस्त विधान चरणानयोग का मूल वर्ण्य-विषय है। परिणामों की निर्मलता के लिए वाह्य व्यवहार की भी शुद्धि आवश्यक है। व्रव्यानुयोग
द्रव्यानुयोग में षट् द्रव्य, सप्त तत्व और स्वपर-भेदविज्ञान का वर्णन होता है । द्रव्यानयोग में प्रत्येक कथन सबल युक्तियों से सिद्ध व पुष्ट किया जाता है एवं उपयुक्त उदाहरणों द्वारा विषय स्पष्ट किया जाता है। पाठक को विषय हृदयंगम कराने के लिए विषय की पुष्टि में प्रावश्यक प्रमाण प्रस्तुत किए जाते हैं; पाटक की तत्सम्बन्धी समस्त जिज्ञासाओं का तर्कसंगत समाधान प्रस्तुत किया जाता है। क्योंकि इस अनयोग का प्रयोजन वस्तुस्वरूप का सच्चा श्रद्धान तथा स्वपर-भेदविज्ञान उत्पन्न कर बीतरागता प्राप्त करने कीप्रेरणा देना है। इसमें जीवादि तत्त्वों का वर्णन एक विशेष दृष्टिकोण से किया ' मो० मा०प्र०,४०७ २ वहीं, ४०६ ३ वही, ४११ भ चही, ४१२ ५ वही, ४२३
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- पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व जाता है। ग्रामवादि तत्त्वों का वर्णन बीन रागता प्राप्ति के दृष्टिकोण को लक्ष्य में रख कर किया जाता है । आत्मानुभूति प्राप्त करने की प्रेरणा देने के लिए उसकी महिमा विशेप बनाई जाती है। अध्यात्म उपदेश को विशेष स्थान प्राप्त रहता है तथा बाह्याचार और व्यवहार का सर्वत्र निषेध किया जाता है। उक्त कथन-शैली का उद्देश्य न समझ पाने से अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, अतः पंडित टोडरमल ते इसके अध्ययन करने वालों को सावधान किया है। वे लिखते हैं :- "जे जीव यात्मानभवन के उपाय को न करें हैं अर बाह्य क्रियाका विर्षे मग्न हैं, तिनको वहां से उदास करि आत्मानुभवनादि विर्षे लगावने कौं प्रत, शील, संयमादि का हीनपमा प्रगट कीजिए है । तहाँ ऐसा न जानि लेना, जो इनका छोड़ि पाप विर्षे लगना । जातें तिस उपदेश का प्रयोजन अशुभ विर्ष लगावनें का नाहीं । शुद्धोपयोग विष लगावने की शुभोपयोग का निषेध कीजिए है।...तैसें बंधकारण अपेक्षा पुण्य-पाप समान है. परन्तु पापते पुण्य किछु भला है । वह तीवकषाय रूप है, यह मंदकपाय रूप है । ताते पुण्य छोड़ि पाप विर्षे लगना यूक्त नाहीं है।......ऐरों ही अन्य व्यवहार का निषेध तहाँ किया होय, ताकी जानि प्रमादी न होना । मा जानना - जे केवल व्यवहार विर्षे ही मग्न हैं तिनकौं निश्चय की रुचि करावने के अथि व्यवहार की होन दिखाया है।"
द्रव्यानुयोग के शास्त्रों का विशेषकर अध्यात्म के शास्त्रों के अध्ययन का निषेध निहित स्वार्थ वालों द्वारा किया जाता रहा है। इन्होंने इन के अध्ययन में अनेक काल्पनिक खतरे खड़े किए हैं। पंडित टोडरमल के युग में भी इसी प्रकार के लोग बहुत थे, जो अध्यात्म ग्रंथों के अध्ययन-अध्यापन का विरोध करते थे, अत: उक्त संदर्भ में उठाई जाने वाली समस्त संभावित आशंकानों का युक्तिसंगत समाधान पंडितजी ने प्रस्तुत किया है । सब से बड़ा भय यह दिखाया जाता है कि इन शास्त्रों को पढ़ कर लोग स्वच्छन्द हो जावेगे, पुण्य छोड़ कर पाप में लग जावेंगे। इसके सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है :१ मो मा० प्र०, ४१८-१९
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वर्ष-गिग प्रो. शानिय विकार
१९७ __"जैसे गर्दभ मिश्री खाय मरे, तो मनुष्य तो मिथी खाना न छोड़े। तैमें विपरीत बुद्धि अध्यात्म ग्रन्थ मुनि स्वच्छन्द होय, तो विवेकी तो अध्यात्म ग्रंथनि का अभ्यास न छोड़े।
हाँ, इतना अवश्य है कि जहाँ-जहाँ स्वच्छन्द होने की थोड़ी भी अाशंका हो, वहाँ-वहाँ सावधान अवश्य किया जाना चाहिए तथा अध्यात्म ग्रन्थों में यथास्थान सावधान किया भी गया है। यदि स्वच्छन्द होने के भय से अध्यात्म उपदेश का निषेध कर देव तो मुक्ति के मार्ग का ही निषेध हो जायगा, क्योकि मोक्षमार्ग का मूल उपदेश तो वहाँ ही है।
कुछ लोग कहते हैं कि उत्कृष्ट अध्यात्म उपदेश उन्च भूमिका प्राप्त पुरुषों के लिए तो उपयुक्त है, पर निम्न स्तर वानों को तो व्रत, शील, संयमादि का उपदेश ही उपयुक्त है। उक्त शंका का समाधान वे इस प्रकार करते हैं :
"जिनमत विर्ष तो यह परिपाटी है, जो पहलै सम्यक्त्व होय पीछे वत होय । सो सम्यक्त्व स्वपर का श्रद्धान भए होय पर सो श्रद्धान द्रव्यानुयोग का अभ्यास किए होय । तानें पहले द्रव्यानयोग के अनुसार श्रद्धान करि सम्यग्दृष्टि होय, पीछे चरणानुयोग के अनुसार व्रतादिक धारि प्रती होय, ऐसे मुख्याने तो नीचली दशा विषं ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है, गौरापनें जाके मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती न जानिए, ताकौं कोई नतादिक का उपदेश दीजिए है । जाते ऊंची दशा वालौं कौं अध्यात्म अभ्यास योग्य है, ऐसा जानि नीचली दशा वालों को तहाँ से पराङ्मुख होना योग्य नाहीं ।" . भो० मा० प्र०, ४२६ २ वही, ४२६.३० 3 वही, ४३० ४ यहाँ ब्रतादिक का अर्थ प्रणुनत या महानत न होकर साधारण प्रतिज्ञा रूप
ब्रतों से है - जैसे मध-मांस-मचु, सचिन पदार्थ यादि के त्याग, देवदर्शन बारने, अनछना पानी नहीं पीने आदि की प्रतिज्ञा । ५ मो० मा० प्र०, ४३०-३१
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- पंडित टोडरमल : व्यक्तिस्य और कतत्व वे तो अध्यात्म की धारा घर-घर तक पहुँचाना चाहते थे किन्तु कुछ लोगों को यह पसन्द न था, अतः ये लोग कहते थे कि उत्कृष्ट अध्यात्म-उपदेश कम से कम ग्राम सभायों में तो न दिया जाय । पंडित टोडरमल ग्राम जनता में अध्यात्म-उपदेश की अावश्यकता निम्नानुसार प्रतिपादित करते हैं :
"जैसें मेघ वर्षा भए वहत जीवनि का कल्याण होय अर काह के उलटा टोटा पड़े, ती तिसकी मुख्यता करि मेघ का तो निषेध न करना । तैसें सभा विर्षे अध्यात्म उपदेश भए बहुत जीवनि कौं मोक्षमार्ग की प्राप्ति होय अर काहू के उलटा पाप प्रवत्त, तौ तिसकी मुख्यता करि अध्यात्म शास्त्रनि का तो निषेध न करना ।" अनुयोगों का अध्ययन-क्रम
अनयोगों के अध्ययन-क्रम के सम्बन्ध में कोई नियम सम्भव नहीं है। अपनी योग्यता और रुचि के अनुकूल अध्ययन करना चाहिए । फेर-बदल कर चारों अनुयोगों का अध्ययन करना हचि एवं सर्वाङ्गीण अध्ययन की दृष्टि से अधिक उपयुक्त है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनमें वणित-विषय के भाव को, उनकी कथन-शैली के सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए। सब को एक समान जान कर अध्ययन करने में भ्रम हो जाना सम्भव है। कई ग्रन्थों में एकाधिक अनूयोगों का कथन भी एक साथ प्राप्त होता है । अतः अनुयोगों का अध्ययन-क्रम निर्धारित नहीं किया जा सकता है। वीतरागता एकमात्र प्रयोजन ___समस्त जिनवाणी का तात्पर्य एकमात्र वीतरागता है । वीतरागताही परम धर्म है, अतः चारों अनयोगों में वीतरागता की ही पुष्टि की गई है। यदि कहीं पूर्ण राग त्याग की बात कही गई है, तो कहीं पूर्ण राग छूटता संभत्र दिखाई न दिया तो अधिया राग छोड़
... - . - -- । मो० मा प्र०, ४३० २ वही, ४४८ 3 बही, ४२१ ४ पंचास्तिकाय, समयव्याख्या टीका, २५७
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वर्ष-विषय और दार्शनिक विचार
१६९ कर अल्प राग करने की सलाह दी गई है, पर रागादि भाव बढ़ाने को कहीं भी अच्छा नहीं बताया गया है। जिसमें राम का पोषण हो, वह शास्त्र जैन शास्त्र नहीं है । न्याय व्याकरणावि शास्त्रों के अध्ययन को उपयोगिता
चार अनुयोगों के अतिरिक्त न्याय व्याकरणादि-विषयक शास्त्र भी जैन साहित्य में उपलब्ध हैं । अनुयोग रूप शास्त्रों में प्रवेश पाने के लिए उनके सामान्य अध्ययन की उपयोगिता पंडित टोडरमल ने स्त्रीकार की है, क्योंकि व्याकरण और भाषा के सामान्य ज्ञान बिना अनुयोग रूप शास्त्रों का अध्ययन सम्भव नहीं है तथा न्याय शास्त्रों के अध्ययन बिना तत्त्व निर्णय करना कठिन है. 1 पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए इनके अभ्यास में समय नष्ट करना वे उपयुक्त नहीं समझते हैं। वे लिखते हैं :
"जे जोब शब्दनि की नाना युक्ति लिएं अर्थ करने को ही व्याकरण अवगाहै हैं. वादादि करि महन्त होने कौं न्याय अवगाहें हैं, चतुरपना प्रकट करने के अथि काव्य अवगाहें हैं, इत्यादि लौकिक प्रयोजन लिए इनिका अभ्यास करें हैं, ते धर्मात्मा नाहीं । बने जैता थोरा बहुत अभ्यास इनका करि अात्महित के अथि सत्त्वादिक का निर्णय करें हैं, सोई धर्मात्मा पंडित जानना।" सम्यक्चारित्र
अात्मस्वरूप में रमण करना ही चारित्र है। मोह-राग-द्वेष से रहित आत्मा का परिणाम साम्प्रभाव है और साम्यभाव की प्राप्ति ही चारित्र है । अशुभ भाव से निवृत्त होकर शुभ भाव में प्रवृत्ति को भी व्यवहार से चारित्र कहा गया है | जैन दर्शन में वामाचार की अपेक्षा भाव शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। भाव शुद्धि बिना १ मो० मा० प्र०, ४४६ २ वहीं, ४३२ अ वही, ३४७ ४ प्रवचनसार, गाथा ७ ५ द्रव्यसंग्रह, गाथा ४५
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परित टोडरमल ; व्यक्तित्व और कवि वाह्याचार निष्फल है' | वाह्याचार शुद्ध होने पर भी यदि अभिप्राय में हाम्ना बनी रहती है तो आपका यात्महित की दृष्टि से कोई मूल्य नहीं है। विषय-कषाय को बासना का अभाव ही सच्चा चारित्र है
और उसका क्रमशः कम होते जाना ही चारित्र को दिशा में क्रमिक विकास है।
चारित्र के नाम पर किए जाने वाले असंगत आचरण एवं हिंसामुलक प्रवृत्तियों का पं० टोडरमल ने अपने साहित्य में यथास्थान जोरदार स्खण्डन किया है । हिंसामूलक अयत्नाचार-प्रवृत्ति का उन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों में भी निषेध किया है। वे लिखते है :
"देहरा पूजा प्रतिष्ठादिवा कार्य विष जो जीव हिंसा होने का भय न राख, जतन स्यों न प्रवतै, केवल बड़ाई के वास्तै जैसे-तैसे कार्य कर, तो धर्म है नाहीं, पाप ही है।"
आचरण को उन्होंने सर्वत्र अहिंसामूलक और विवेकसंमत ही स्वीकार किया है। सर्वत्र प्राध्यात्मिक लाभ-हानि के विचारपूर्वक चलने की सलाह दी है। लौकिक प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए किये गए धार्मिक सदाचार रूप नाचरणा का उनकी दृष्टि में कोई महत्त्व नहीं है। उन्होंने लिखा है :
"जो मान बड़ाई के वास्ते बहुत उपवास अंगीकार करि लंघन जी ज्यों भूखा गरं तौ किछू सिद्धि नाहीं ।"
उनका मानना है कि बाह्य व्रतादिक की प्रतिज्ञा लेने के पूर्व परिणामों की विशुद्धता पर पूरा-पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। शक्ति के अनुसार ही प्रतिज्ञा ली जानी चाहिए । शक्ति के अभाव में प्रतिज्ञा पाकुलता ही उत्पन्न करेगी। इस संबंध में वे लिखते हैं :
- 'केई जीव पहल तो बड़ी प्रतिज्ञा धरि बैठे पर अंतरंग विषय कपायबासना मिटी नाहीं । तब जैसे तैसे प्रतिज्ञा पूरी किया चाहैं, ' (क) भो गा०प्र०, ३३६
(ख) तस्मारिका प्रतिफलंति न भावान्या: -प्रा० समन्तभद्र २ मो. मा० प्र०.३४६ 3 पू० भा० टी०, ४६ ४ वही, ५२
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दिगम्बर खेळाड
गम्बर (जैक एए क्षमाल ८८५
अप्यं विषय और बार्शनिक विचार
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तहाँ तिस प्रतिज्ञाकरि परिणाम दुःखी हो हैं । जैसे बहुत उपवास करि बैठे, पीछे पीड़ा तैं दुखी हुवा रोगीवत् काल गमात्रै, धर्मसाधन न करें। सो पहले ही सती जानिए कितनी ही प्रतिज्ञा क्यों न लीजिए । दुःखी होने में प्रार्तध्यान होय, ताका फल भला कैसे लागेगा | अथवा उस प्रतिज्ञा का दुःख न सह्या जाय तब ताकी एवज विषय पोषने को अन्य उपाय करें | जैसे तृषा लागे तब पानी तो न पीव अर अन्य शीतल उपचार अनेक प्रकार करें। वा वृत तो छोड़े पर अन्य स्निग्ध वस्तुकौं उपायकरि भखं । ऐसें ही अन्य जानना । सो परीषह न सही जाय थी, विषयवासना न छूटे थी, तो ऐसी प्रतिज्ञा काहे की करी । सुगम विषय छोड़ि विषम विषयनिका उपाय करना पढ़ें, ऐसा कार्य काहे कौं कीजिए । यहाँ तो उलटा राग भाव तीव्र हो है ' ।
१
काला 20% मदद
विवेकपूर्वक प्राचरण को उनकी दृष्टि में कोई स्थान प्राप्त नहीं है | अन्यायपूर्वक धन कमा कर दान देने वालों एवं सब कुछ त्याग कर भिक्षावृत्ति करने वालों को उन्होंने खूब फटकारा है" ।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील श्रीर परिग्रह इन पाँचों पापों के त्याग को भी चारित्र कहा गया है । यह चारित्र दो प्रकार का होता है । सकल चारित्र और त्रिकल चारित्र | सकल चारित्र पाँचों पापों के पूर्ण त्याग रूप होता है और यह मुनियों के होता है । विकल चारित्र पाँचों पापों के एकदेश त्याग रूप होता है और वह गृहस्थों के होता है । हिंसादि पाँचों पापों के पूर्ण त्याग को महाव्रत कहते हैं और एक देश त्याग को सुव्रत । ये अणुव्रत और महाव्रत सब शुभ भाव रूप हैं, ग्रत इन्हें व्यवहार से चारित्र कहा जाता है । वास्तविक चारित्र तो वीतराग भाव रूप ही होता है। इस संदर्भ में पंडित टोडरमल ने लिखा है। :
" मो० मा० प्र०, ३५० - ३५१
नही ३५४
3
रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अ० ३ श्लोक ४६
* वही, प्र० ३ श्लोक ५०
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और फर्तृत्व ___"बहुरि हिंसादि सावद्ययोग का त्याग कौं चारित्र मानें है। तहाँ महायतादि रूप शुभ योग की उपादेयपने करि ग्राह्य माने है । सो तत्वार्थसूत्र विर्ष आस्रव-पदार्थ का निरूपमा वरतें महाप्रत अणुक्त भी प्रास्रव रूप कहे हैं । ए उपादेव कैस होय ? अर पालव तो बंध का साधका है, चारित्र मोक्ष का साधक है, तातै महावतादिरूप पासव भावनिकों चारित्रपनों संभव नाहीं, सकल कपाय रहित जो उदासीन भाव ताही का नाम चारित्र है । मौ चारित्रमोह के देशवाति स्पर्द्धकनि के उदय ते महामंद प्रशस्त राम हो है, सो चारित्र का मल है। याकौं छूटता न जानि याका त्याग न कर है, सावद्ययोग ही का त्याग कर है। परन्तु जैसे कोई पुरुष कंदमूलादि बहुंत दोषीक हरितकाय का त्याग कर है अर केई हरितकानि की भखे है परन्तु याकौं धर्म न माने है । तैसें मुनि हिंसादि तीन कषाय हा भावनि का त्याग करे हैं पर केई मंदकषाय रूप महाग्रतादि की पाले हैं परन्तु ताकी मोक्षमार्ग न माने हैं।
यहां प्रपन -- जो ऐसे हैं, ती चारित्र के तेरह भेदनि विर्षे महावतादि की कहे हैं ?
ताका समाधान -- यह व्यवहारचारिय कहा है । व्यवहार नाम उपचार का है । सो महावतादि भए ही बीत रागचारित्र हो है । ऐसा सम्बन्ध जानि महानतादि विषं चारित्र का उपचार किया है । निश्चय करि निःकपाय भाव है. सोई साँचा चारित्र है'।" ।
इन सत्र का विस्तत वर्णन पंडित टोडरमल मोक्षमार्ग प्रकाशक के 'चारित्र अधिकार' में करने वाले थे' जो दुर्भाग्य से लिखा नहीं जा सका, किन्तु जैनाचार के मूल सिद्धान्त 'अहिंसा' पर पंडित टोडरमल के प्राप्त साहित्य में यत्र-तत्र पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। अहिंसा
राग-दुग-मोह आदि विकारी भावों की उत्पत्ति हिसा है और उन भावों की उत्पत्ति नहीं होना अहिंसा है । हिसा-अहिंसा की १ मो० मा० प्र०, ३३६-३३७ २. वही, २३१ ३ पुरुषार्थसियुपाय, श्लोक ४४
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घण्य-विषय और दार्शनिक विचार
२०३ चर्चा जब भी चलती है, जनसाधारण का ध्यान दूसरे जीवों को मारने, सताने या रक्षा करने आदि की अोर ही जाता है। हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध प्रायः दूसरों से ही जोड़ा जाता है । दूसरों की हिंसा मत करो, बस यही अहिंसा है, ऐसा ही सर्वाधिक विश्वास है । अपनी भी हिसा होतो है, इस ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। जिनका जाता भी है तो अात्महिंसा का अर्थ विष भक्षरणादि द्वारा प्रात्मपात (आत्महत्या) ही मानते हैं । अन्तर में राग-द्वेप की उत्पत्ति भी हिंसा है. इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं। यह तथ्य पंडित टोडरमल की दृष्टि से प्रोझल न रह सका । वे लिखते हैं :
"अपने शुद्धोपयोग रूप प्राग का घात रागादिक भावनि से होय है, तिसत रागादिक भावनि का अभाव सोई अहिंसा है । आदि शब्द से द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, जुगुप्सा प्रमादादिक समस्त विभाव भाव जानन' ।"
व्यवहार में जिसे हिसा कहते हैं, जैसे किसी को सताना, दुःख देना आदि, बह हिंसा न हो; यह बात नहीं है। वह तो हिंसा है ही, क्योंकि उसमें प्रमाद और कपाय का योग रहता है । अठ, चोरी, कुशील और परिग्रह भी हिंसा के ही रूपान्तर हैं, क्योंकि इन सत्र में रागादि विकारी भावों का सद्भाव होने से प्रात्मा के चैतन्य प्रारणों का घात होता है ।
हिंसा दो प्रकार की होती है - द्रव्यहिंसा और भाबहिंसा । जीवों के घात को द्रव्याहिंसा कहते हैं और घात करने के भाव को भावहिंसा ।
अहिंसा के सम्बन्ध में एक भ्रम यह भी चलता है कि मारने का भाव हिंसा है तो बचाने का भाव अहिंसा होगा 1 शास्त्रों में उसे व्यवहार से अहिंसा कहा भी है, किन्तु वह भी राग रूप होने से वस्तुतः हिंसा ही है । वीतराग भात्र ही अहिसा है, वस्तु का स्वभाव 'पु. भा. टी०, ३४ २ (क) तत्त्वार्थमूत्र, य० ७ सू० १३
(ख) पुरुषार्थसिम्युपाय, श्लोक ४६ 3 पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक ४२
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कतत्व होने से वही धर्म है और वही मुक्ति का कारण है । बचाने के शुभ भाव रूप अहिंसा, जो कि हिंसा का ही एक रूप है, पुण्य बंत्र का कारण है, मुक्ति का कारण नहीं । उक्त तथ्य को पंडित टोडरमल ने इस प्रकार व्यक्त किया है :___तहाँ अन्य जीवनि कौं जिवात्रने का वा सुखी करने का अध्यत्रसाय होय सो तो पुण्य बंध का कारण है, पर मारने का बा दुःखी करने का प्रध्यवसाय होय सो पाप बंध का कारगा है । ऐसें अहिंसावत सत्यादिक तो पुण्य बंध की कारण हैं, पर हिंसावत् असत्यादिक पाप बंध कौं कारण हैं। ए सर्व मिथ्याध्यवसाय है, ते त्याज्य हैं। तातें हिसादिवत् अहिंसादिक की भी बंध का कारण जानि हेय ही मानना । हिंसः विथै पाणे व बुद्धि होष सोक, आयु पूरा हुबा बिना मरै नाहीं, अपनी द्वेष परिणति करि आप ही पाप बांध है । अहिंसा विष रक्षा करने की बुद्धि होय सो बाका प्रायु अवशेष बिना जीवे नाहीं, अपनी प्रशस्त राग परिणति करि आप ही पुण्य बांध है। ऐसे ए दोऊ हेय हैं। जहां वीतराग होय दृष्टा-ज्ञाता प्रवर्त, तहाँ निर्बन्ध है । सो उपादेय है । सो ऐसी दशा न होय, तावत् प्रशस्त राग रूप प्रवती, परन्तु श्रद्धान तो ऐसा राखौ - यह भी बंध का कारण है, हेय है । श्रद्धान विर्षे याकौं मोक्षगार्ग जानें मिथ्या दृष्टि ही हो है।"
दूसरों की रक्षा करने के भाव को मुक्ति का कारण मानने वालों से वे पूछते हैं - 'सो हिंसा के परिणामनि ते तो पाप हो है पर रक्षा के परिणामनि त संबर (बंध का प्रभाव) कहोगे तो पुण्य बंध का कारण कौन ठहरेगा।"
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ऐसी अहिंसा तो साधु ही पाल सकते हैं, अतः यह तो उनकी बात हुई । सामान्यजनों (श्रावकों) को तो दया रूप (दूसरों को बचाने का भाव) अहिंमा ही सच्ची है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने श्रावक के आचरण के प्रकरण में ही इस बात को लेकर यह सिद्ध कर दिया है कि अहिंसा दो प्रकार की नहीं होती।
१ मो मा०प्र०, ३३१-३२ २ वहीं, ३३५
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वयं-विषय और वार्शनिक विचार
२.५ अहिंसा को जीवन में उतारने के स्तर दो हो सकते हैं । हिसा तो हिसा ही रहेगी। यदि श्रावक पूर्ण हिंसा का त्यागी नहीं हो सकता तो अल्प हिंसा का त्याग करे, पर जो हिंसा वह छोड़ न मके, उसे अहिंसा तो नहीं माना जा सकता है । यदि हम पूर्णनः हिमा का त्याग नहीं कर सकते हैं तो अंशतः त्याग करना चाहिए । यदि वह भी न कर सकें तो कम से कम हिंसा को धर्म मानना और कहना तो छोड़ना ही चाहिए । शुभ राग, राग होने से हिंसा में प्राता है और उसे धर्म नहीं माना जा सकता।
एक प्रश्न यह भी संभव है कि तीव्र राग तो हिंसा है पर मंद राग को हिंसा क्यों कहते हो? जब राग हिंसा है तो मंद राय अहिंसा कैसे हो जावेगा, वह भी तो राग की ही एक दशा है। ग्रह बात अवश्य है कि मंद राग मंद हिंसा है और तीव्र राग तीन हिंसा है। अतः यदि हम हिसा का पूर्ण त्याग नहीं कर सकते हैं तो उसे मंद तो करना ही चाहिए। राग जितना घटे उतना ही अच्छा है, पर उसके सद्भाव को धर्म नहीं कहा जा सकता है । धर्म तो राग-द्वेषमोह का अभाव ही है और वही अहिंसा है, जिसे परम धर्म कहा जाता है।
राग-द्वेष-मोह भावों की उत्पत्ति होना हिसा है और उन्हें धर्म मानना महा हिंसा है तथा रागादि भावों की उत्पत्ति नहीं होना ही परम अहिंसा है और रागादि भावों को धर्म नहीं मानना ही अहिंसा के सम्बन्ध में सच्ची समझ है । भावों का तात्विक विश्लेषण
क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य आदि विकारी मनोभाव राग-द्वेष-मोह के ही भेद हैं । अतः यह सब हिंसा के ही रूप हैं । पूर्ण अहिंसक बनने के लिए इनका त्याग आवश्यक है। इनकी उत्पत्ति के कारणों एवं नाश के उपायों पर विचार करते हुए पंडित टोडरमन्न ने इनका मनोवैज्ञानिक विश्लेपण प्रस्तुत किया है।
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१ मो० मा० प्र०,५६
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पंजित टोडरमल ; व्यक्तित्व और कर्तृत्व जब आत्मा यह अनुभव करता है कि कुछ पर-पदार्थ मुझे मुखी करते हैं और कुछ दुःखी करते हैं: कुछ मेरे जीवन के रक्षक हैं, कुछ विनाशक : नत्र उनके प्रति दुष्ट अलिष्ट वृद्धि हान होती है । यह इष्ट-अनिष्ट बुद्धि ही राग-द्रंप भावों की मुख्योत्पादक है | जब तत्त्वाभ्यास से वस्तुस्वरूप का सच्चा ज्ञान होता है और पात्मा यह अनुभव करने लगता है वि. मेरे मुख-दुःख और जीवन-मरगा के कारण मुझ में ही है, मैं अपने सुख-दुःख व जीवन-मरगा का स्वयं उत्तरदायी है. कोई. पर-पदार्थ मुझे सुखी-दुःखी नहीं करता है और न कर ही सकता है, तो पर-पदार्थ से इन्ट-अनिष्ट बृद्धि समाप्त होने लगती है और क्रोधादि का भी अभाव होने लगता है ।
___पंडितजी ने क्रोध, मानादि कपायों से युक्त मानसिक और वाह्य क्रिया-कलापों के सजीव चित्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने सब कुछ शास्त्रों में ही देख कर नहीं लिखा है, वरन् अपने अन्तर एवं जगत् का पुरा-पूरा निरीक्षण करके लिखा है। अभिमानी व्यक्ति को प्रवृत्ति का वर्गान ये इस प्रकार करते हैं :
"बहरि जब याकै मान कापाय उपजे तय औरनि वो नीचा वा आपकी ऊँचा दिखाबने की इच्छा हो है। बहुरि ताकै अथि अनेक उपाय विचार, अन्य वी निन्दा कर, अापकी प्रशंसा करै बा अनेक प्रकार करि औरनि की महिमा मिटावे, अापकी महिमा करै । महा कष्ट करि घनादिक का संग्रह किया ताकौं विवाहादि कार्यनि विर्षे खरचै वा देना करि (कर्ज लेकर) भी खर । मुए पो हमारा जस रहेगा ऐसा बिचारि अपना मरन करिके भी अपनी महिमा बधावै । जो अपना सन्मानादि न करै ताकौं भय आदिक दिखाय दुःख उपजाय अपना सम्मान करानै । बहुरि मान होते कोई पूज्य बड़े होहिं तिनका भी सम्मान न करे, किन्लू विचार रहता नाहीं । बहुरि अन्य नीचा, प्राप ऊँचा न दीमें तो अपने अंतरंग विर्ष याम बहुत रान्तापवान होय -.. -- --.- . .- -.. . १ मो मा० प्र०, ३३६ २ वहीं, ३३६
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वर्य-विषय और दार्शनिक विचार बा अपने अंगनि का घात करै वा विषाद करि मरि जाय । ऐसी अवस्था मान होते होय है' 1
पंडितजी ने चारित्र मोह के अन्तर्गत उत्पन्न कपाय भावों का विश्लेषण केवल शास्त्रीय दृष्टि से नहीं किया है, उसमें उनकी मनोवैज्ञानिक पकड़ है । अन्तर केवल इतना ही है कि मनोविज्ञान जहाँ विभिन्न भावों की सत्ता के मनोवैज्ञानिक कारण खोजता है, वहां वे इसका कारण मोहजन्य रागात्मक परिणति को मानते हैं । इस बात में दोनों एक मत हैं कि कषाय और मनोवेग ही मनुष्य के लौकिक चरित्र की विधायक शक्तियां हैं। जीवन में सारी विषमताएँ इन्हीं के कारण उत्पन्न होती हैं। इन्हीं के कारण वह अपने-पराये का भेद करता है।
मनोविज्ञान जिन्हें मनोवेग कहता है, जैन दर्शन में उन्हें राग-द्वेष रूप कषाय भात्र कहा गया है । मनोविज्ञान के अनुसार मानव का सम्पूर्ण व्यवहार मनोवेगों से नियन्त्रित होता है और पंडितजी भी यही कहते हैं कि रागीद्वेषी प्रारगी का व्यवहार राग-द्वेषमूलक है । इस प्रकार उनका मोह-राग द्वेष भावों का विश्लेषण मनोवैज्ञानिक है। विविध विचार
उपयुक्त दार्शनिक विचारों के अतिरिक्त उन्होंने अपने साहित्य में यत्र-तत्र यथाप्रसंग अन्य लौकिक एवं पारिलौकिक, सामयिक एवं
कालिक, सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। अत्र सामान्य रूप से उनका संक्षेप में परिशीलन किया जाता है। वक्ता और श्रोता
पंडित टोडरमन्न मुख्य रूप से विशुद्ध आध्यात्मिक विचारक हैं । विचार उनकी अनुभूति का ग्रंग है । लेकिन यह अनभूतिमूलकता उन्हें तर्क से विरत नहीं करती। वे जिस बात का भी विचार करते हैं, तक उसकी पहली सीढ़ी है। उन्होंने तत्त्वज्ञान और उससे सम्बन्धित 'मो० मा० प्र०, ७६-७७
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कतत्व वक्ता-श्रोता दोनों पक्षों की योग्यता-अयोग्यता को तर्क की कसौटी पर कसा है । वक्ता-श्रोता सम्बन्धी विनार यद्यपि परम्परागत हैं फिर भी वह इन दोनों के सम्बन्ध में अपना विशिष्ट दृष्टिकोण रखते हैं। कहना न होगा इस दृष्टिकोण में उनके व्यक्तित्व और लेखनशैली की झलक मिलती है। उदाहरण के लिए वक्ता श्रद्धावान होना चाहिए, वह विद्याभ्यासी हो और अपने वक्तव्य के लक्ष्य को ठीक से जानता हो । उसे अपने स्वीकृत मत के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। उसका शास्त्रचितन. ग्राजीविका का साधन न हो। यदि वह कोई लौकिक उद्देश्य रखता है तो सम्भव है कि श्रोताओं के प्रभाव में आकर उनके अनुसार शास्त्र की व्याच्या कार दे । उन्होंने लिखा है :..
बहुरि वक्ता कैसा होना चाहिए, जाकं शास्त्र बांचि आजीविका आदि लौकिक कार्य साधने की इच्छा न होय । जाते जो प्राशावान् होइ तो यथार्थ उपदेश देइ सके नाहीं, बाकै सौ कि श्रोतानिका अभिप्राय के अनुसार व्याख्यान बार अपने प्रयोजन साधने का ही साधन रहै पर श्रोतानित वक्ता का पद ऊंचा है परन्तु यदि वक्ता लोभी होय तौ वक्ता प्राप ही हीन हो जाय, श्रोता ऊंचा होय । बहुरि वक्ता कैसा चाहिए जाकै तीव्र क्रोध मान न होय जाते तोत्र क्रोधी मानी की निंदा होय, श्रोता तिसते डरते रहैं, तब तिसतै अपना हित कैसे करें । बहुरि वक्ता कैसा चाहिए जो आप ही नाना प्रश्न उठाय पाप ही उत्तर कर अथवा अन्य जीव अनेक प्रकार करिवहत बार प्रश्न करें तो मिष्ट वचननि करि जैसे उनका संदेह दूर होय में समाधान करें। जो आपके उत्तर देने की सामर्थ्य न होय तो या कहै, याका मौकों ज्ञान नाहीं, किसी विशेष ज्ञानी से पूछ कर तिहारे ताईं उत्तर दूंगा, अथवा कोई समय पाय विशेष ज्ञानी तुम सौं मिले तो पुछ कर अपना सन्देह दूर करना और मौत ह बताय देना' ।"
वक्ता का सबसे बड़ा और मौलिक गुण है -- सत्य के प्रति सच्ची जिज्ञासा और अनुभूत सत्य की प्रामारिगक अभिव्यक्ति । स्पष्ट है कि वक्ता अपनी सीमा में ही उत्तर दे, यदि उसे नहीं आता है तो स्पष्ट
'मो. मा० प्र०, २२-२३
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रूप में स्वीकार करे और कहे कि मैं विशेष ज्ञानी से पूछ कर बताऊँगा श्रथवा श्रोता ही विशेष ज्ञानी से पूछ ले और उसे भी बताए। इससे सिद्ध है कि उनके अनुसार वक्ता में जितनी प्रमाणिक बात बताने की ईमानदारी एवं कुशलता होनी चाहिए, श्रोता में भी उतनी ही जिज्ञासा होनी चाहिए, के अभिमान या पाण्डित्य के झूठे प्रदर्शन से एवं श्रोता की सजगता के अभाव में प्रकरण विरुद्ध अर्थ की सम्भावना बनी रहती है। उन्होंने उन्हीं अर्थों का विरोध किया जो अभिमान या पाण्डित्य के थोथे प्रदर्शन से किये गए हों, लेकिन जहाँ वक्ता श्रपने अध्ययन से प्रसंगों की नई व्याख्या करता है और प्रचलित मान्यतानों को काटता है तो उसे इसकी स्वतन्त्रता है । कहना न होगा कि पंडितजी ने इस स्वतन्त्रता का भरपूर उपयोग किया है, परन्तु ऐसा करते समय नम्र शब्दों में यह भी कह दिया है कि मैं जो कुछ समझ सका वह मैंने लिखा है, बाकी सर्वज्ञ जानें | क्षयोपशम सम्यग्दर्शन में लगने वाले दोपों की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं :
rot विषय और दार्शनिक विचार
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" तातं समल तत्त्वार्थ श्रद्धान होय सो क्षयोपशम सम्यक्त्व है । यहां जो मल लागे है, ताका तारतम्य स्वरूप तो केवली जानें हैं, उदाहरण दिखावने के अथि चलमलिनयमापना कया है । तहाँ व्यवहार मात्र देवादिक को प्रतीति तो होय परन्तु अरहन्त देवादि विष यह मेरा है, यह अन्य का है, इत्यादि भाव सो चलपना है । शंकादि मल लागे है सो मलिनपना है । यहु शांतिनाथ शांति का कर्ता है इत्यादि भाव सो अगाढ़पना है । सो ऐसे उदाहरण व्यवहारमात्र दिखाए परन्तु नियमरूप नाहीं । क्षयोपशम सम्यक्त्व विषं जो नियमरूप कोई मल लागे है सो केवली जाने हैं।"
उन्होंने अपना मत सर्वत्र सविनय किन्तु खुल कर व्यक्त किया है । जैसे :
(१) "बहुरि जैसे कहीं प्रमाणादिक किछू का होय, सोई तहाँ न मानि लेना, तहाँ प्रयोजन होय सो जानना । ज्ञानाव विषे ऐसा
१ मो० मा० प्र०, ४३६
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पंजित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व लिखा है- 'अवार दोय तीन सन्पुरुष हैं।' सो नियम ते इतने ही नाहीं। यहाँ 'थोरे हैं ऐसा प्रयोजन जानना । ऐसे ही अन्यत्र जानना' ।"
(२) “बहुरि प्रथमानुयोग विर्षे कोई धर्मबुद्धित अनुचित कार्य करै ताकी भी प्रशंसा करिये है। जैसे विष्णुकुमार मुनिन का उपसर्ग दूरि किया, सो धर्मानुरागतें किया, परन्तु मुनिपद छोड़ि यह कार्य करना योग्य न था । जाते ऐसा कार्य तो गृहस्थधर्म विर्षे सम्भवै पर गृहस्थधर्मत मुनि धर्म ऊँचा है। सो ऊँचा धर्मकौं छोड़ि नीचा धर्म अंगीकार किया सो अयोग्य है । परन्तु वात्सल्य अंग की प्रधानता करि विष्णुकुमारजी की प्रशंसा करी। इस छल करि औरनिकों ऊँचा धर्म छोड़ि नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नाहीं ।" ।
(३) "बहुरि जैसे गुवालिया मुनिकों अग्नि करि तपाया, सो करुणातें यह कार्य किया। परन्तु प्राया उपसर्गकौं तो दुरि कर, सहज अवस्था विर्षे जो शीतादिक की परीषह हो हैं, तिसकौं दूर किए रति मानने का कारण होय, तामैं उनकी रति करनी नाहीं, तब उलटा उपसर्ग होय । याहीसे विवेकी उनकै शीतादि का उपचार करते नाहीं। गुवालिया अविवेकी था, करुणा करि यह कार्य किया, ताते याकी प्रशंसा करी। इस छल करि औरनिकौं धर्मपद्धति विर्षे जो विरुद्ध होय सो कार्य करना योग्य नाहीं।"
(४) "बहुरि केई पुरुषों ने पुत्रादि की प्राप्ति के अथि वा रोग कष्टादि दूरि करने के अथि चैत्यालय पूजनादि कार्य किए, स्तोत्रादि किए, नमस्कारमन्त्र स्मरण किया। सो ऐसे किए तो निःकांक्षित गुण का प्रभाव होय, निदानबंध नामा प्रार्तध्यान होय । पाप ही का प्रयोजन अंतरंग विर्षे है, तातें पाप ही का बंध होई। परन्तु मोहित होय करि भी बहुत पाप बंध का कारण कुदेवादिक का तो पूजनादि न किया, इतना वाका गुण ग्रहरा करि वाकी प्रशंसा करिए है। इस
'मो० मा०प्र०,४३८-४३६ ३ वही, ४०२ । बही, ४०२
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धर्म-विषय और शार्शनिक विचार छल करि औरनिको लौकिक कार्यनि के प्रथि धर्म साधन करना युक्त नाहीं । ऐसे ही अन्यत्र जानने' ।"
पंडितजी ने जो वक्ता और श्रोता के लक्षण दिए हैं, उनमें उनका व्यक्तित्व स्पष्ट झलकता है। उनके अनुसार वक्ता का बाह्य व्यक्तित्व भी प्रभावशाली होना चाहिए । जैसे - कुलहीन न हो, अंगहीन न हो, उसका स्वर भंग न हो, वह लोकनिंदक अनीतिमुलक आचरण से सदा दूर रहना हो । ३९ सार शान्तरिक मान के साथ वाह्य व्यक्तित्व समन्वय ही अच्छे वक्ता की कसौटी है।
वक्ता के समान उनके अनुसार श्रोता में भी तत्त्वज्ञान के प्रति सच्ची जिज्ञासा होनी चाहिए। वह मननशील हो और उद्यमी । उसका विनयवान होना भी जरूरी है। मोक्षमार्ग प्रकाशक के पंडित टोडरमल ही वक्ता हैं और वे ही श्रोता, वे ही शंकाकार हैं और वे ही समाधानकर्ता हैं। उक्त ग्रंथ में अभिन्न वक्ता-श्रोता का जो स्वरूप है वह अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता। मोक्षमार्ग प्रकाशक का शंकाकार और समाधानकर्ता उनके आदर्श श्रोता और वक्ता हैं । पठन-पाठन के योग्य शास्त्र
वक्ता और श्रोता के स्वरूप के साथ ही उन्होंने आदर्श शास्त्र के बारे में भी विचार व्यक्त किए हैं। उनकी दृष्टि में वीतराग भाव के पोषक शास्त्र ही पठन-पाठन के योग्य हैं। वे लिखते हैं :
"जातें जीव संसार विर्षे नाना दुःखनि करि पीड़ित हैं, सो शास्त्ररूपी दीपक करि मोक्षमार्गको पावें तो उस मार्ग वि आप गमन करि उन दुःखनितें मुक्त होय । सो मोक्षमार्ग एक वीतराग भाव है, तातें जिन शास्त्रनि विर्षे काहू प्रकार राग-द्वेष-मोह भावनि का निषेध करि वीतराग भाव का प्रयोजन प्रगट किया होय तिनिही शास्त्रनि का वांचना सुनना उचित है । बहुरि जिन शास्त्रनि विर्षे शृगार भोग कोतूहलादिक पोषि राग भाव का पर हिंसा-युद्धादिक पोषि द्वेष भाव का अर प्रतत्त्व श्रद्धान पोषि मोह भाव का प्रयोजन प्रगट किया होय
' मो० मा० प्र०, ४०२-४०३
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पंडित टोडरमल : व्यक्तिस्थ और कर्तृत्व ते शास्त्र नाही शस्त्र हैं । जातें जिन राग-द्वेष-मोह भावनि करि जीव अनादित दुःखी भया तिनकी बासना जीव के बिना सिखाई ही थी । बहुरि इन शास्त्रनि करि तिनही का पोषण किया, भले होने को कहा शिक्षा दीनी । जीव का स्वभाव घात ही किया तात ऐसे शास्त्रनि का वौचना सुनना उचित नाहीं है । इहाँ वाँचना सुनना जैसे कह्या तैसे ही जोड़ना सीखना सिखावना लिखना लिखावना आदि कार्य भी उपलक्षण करि जान लेने । ऐसे साक्षात् वा परम्परा करि वीतराग भाव कौं पोषं ऐसे शास्त्र ही का अभ्यास करने योग्य है।"
जिनमें वस्तु स्वरूप का सच्चा वर्णन हो, जो वीतराग भाव के पोषक हो, जो प्रारम सान्ति का मार्ग दिखात हो, जिनमें व्यर्थ की राग-द्वेषवर्धक बातें न हों, जिनसे सच्चा सुख प्राप्त करने का प्रयोजन सिद्ध होता हो, वे ऐसे शास्त्रों के पड़ने-पढ़ाने की प्रेरणा देते हैं ।
अप्रयोजनभूत शास्त्रों के पढ़ने के पंडितजी विरोधी नहीं हैं क्योंकि उनके जानने से तत्त्वज्ञान विशेष निर्मल होता है और ये भी पागामी रागादि भाव के घटाने वाले हैं, पर उनकी शर्त यह है कि वे राग-द्वेष के पोषक न हों। शास्त्रों के इस कथन का कि 'प्रयोजनभूत थोड़ा जानना ही कार्यकारी है' - प्राशय स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि यह कथन उस व्यक्ति की अपेक्षा है जिसमें बुद्धि कम है और जिसके पास समय कम है। यदि कोई शक्तिसम्पन्न है, वह बहुशास्त्रविद् भी हो सकता है। बहुशास्त्रज्ञता प्रयोजनभूत ज्ञान को अधिक स्पष्ट और विशद् करती है। वे स्वयं बहुशास्त्रविद् थे । इस सम्बन्ध में उनके विचार एकदम स्पष्ट हैं :__"सामान्य जाननेते विशेष जानना बलवान है। ज्यों-ज्यों विशेष जाने त्यों-त्यौं वस्तु स्वभाव निर्मल भासै, श्रद्धान हृढ़ होय, रागादि घट, तातें तिस प्रम्यास विर्षे प्रवर्तना योग्य है ।"
' मो० मा० प्र०, २१-२२ २ वही, २६७ 3 देखिए प्रस्तुत ग्रन्थ, ६२-६३ ४ मो० मा०प्र०, ४३२
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वण्य-विषय और दार्शनिक विचार
२१३ "बहुरि व्याकरण न्यायादिक शास्त्र हैं, तिनका भी थोरा-बहुत अभ्यास करना । जाते इनिका ज्ञान बिना बड़े शास्त्रनिका अर्थ भास नाहीं । बहुरि वस्तु का भी स्वरूप इनकी पद्धति जाने जैसा भास, तैसा भाषादिक करि भासै नाहीं । तातै परम्परा कार्यकारी जान इनका भी अभ्यास करना । परन्तु इनहीं विर्षे फैसि न जाना । किछ इनका अभ्यास करि प्रयोजनभूत शास्त्रनि का अभ्यास विर्षे प्रवर्तना । वहरि वंद्यकादि शास्त्र हैं, तिनत मोक्षमार्ग विर्षे किछू प्रयोजन ही नाहीं । तातै कोई व्यवहारधर्म का अभिप्रायतें बिना खेद इनिका अभ्यास हो जाय तो उपकारादि करना, पाप रूप न प्रवर्तना । पर इनका अभ्यास न होय ती मति होहु, बिगार किछू नाहीं।"
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की पीठिका में चतुर और मूर्ख किसान का उदाहरण देकर उन्होंने अपने विचारों को स्पष्ट किया है । उन्होंने लिखा है :
"जैसें स्याना खितहर अपनी शक्ति अनुसारि हलादिकते थोड़ा बहुत खेत को संवारि समय विर्षे बीज बोवे तो ताकौं फल की प्राप्ति होई । तैसें तू भी जो अपनी शक्ति अनुसारि व्याकरणादिक के अभ्यास ते थौरी-बहुत बुद्धि को संवारि यावत् मनुष्य पर्याय बा इंद्वियनि की प्रबलता इत्यादिक प्रवर्ते हैं तावत् समय विर्षे तत्त्वज्ञान को कारण जे शास्त्र तिनिका अभ्यास करेगा तो तुझको सम्यक्तादि की प्राप्ति हो सकेगी। बहुरि जैसे अयाना खितहर हलादिकतें खेत को संवारतासंवारला ही समय को खोने, तो ताको फल प्राप्ति होने की नाही, वृथा ही खेद-खिन्न भया । तैसें तूं भी जो व्याकरणादिकतै बुद्धि को संवारता-संवारता ही समय खोवेगा तो सम्यक्त्वदिक की प्राप्ति होने की नाहीं । वृथा ही खेद-खिन्न भया । बहुरि इस काल विर्षे प्रायु बूद्धि आदि स्तोक हैं तातें प्रयोजन मात्र अभ्यास करना, शास्त्रनि का तो पार है नाहीं ।"
..
५ मो मा प्र०, ४३२-३३ २ स चं० पी०, १३
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पंडित टोडरमल : भ्यक्तित्व और कर्तत्व मोक्षमार्ग प्रकाशक उनका श्रादर्श शास्त्र है । उनका शास्त्र लिखने का उद्देश्य उस समय के मंदज्ञान वाले जीवों का भला करना था। इसीलिए उन्होंने धर्मबुद्धि से भाषामय ग्रंथ की रचना की है। वे लिखते हैं कि यदि कोई इससे लाभ नहीं उठाता है तो इनकी कृति का कोई दोष नहीं है, बल्कि लाभ न लेने वाले का प्रभाग्य है। जैसे एक दरिद्री चिन्तामणि को देख कर भी नहीं देखना चाहता और कोढ़ी उपलब्ध अमृत का पान नहीं करता तो इसमें दोष दरिद्री और कोड़ी का ही है, चिन्तामशिनौर अमृत का नहीं।
मोक्षमार्ग प्रकाशक की उन्होंने दीपक से तुलना की है । संसार को भयंकर अटवी बताते हुए वे लिखते हैं कि इसमें अज्ञान-अंधकार व्याप्त हो रहा है, अत: जीव इससे बाहर निकलने का रास्ता प्राप्त नहीं कर पाते हैं और तड़फ-तड़फ कर दुःख भोगते रहते हैं। उनके भले के लिए तीर्थंकर केवली भगवानरूपी सूर्य का प्रकाश होता है । जब सूर्यास्त हो जाता है तो प्रकाश के लिए दीपकों की आवश्यकता होती है। अत: जब केवलीरूपी सूर्य अस्त हो गया तो ग्रन्थरूपी दीपक जलाये गए। जैसे दीपकों से दीपक जलाने की परम्परा चलती रहती है, उसी प्रकार ग्रंथों से ग्रंथनिर्माण को परम्परा चलती रही। उसी परम्परा में यह मोक्षमार्ग प्रकाशक भी मुक्ति के मार्ग पर प्रकाश डालने वाला एक दीपक है। 1 यद्यपि मार्ग पर कितना ही प्रकाश क्यों न हो, पर आँख वाले को ही दिखाई देता है, अन्धे को नहीं; तथापि अन्धे को दिखाई नहीं देने से प्रकाश अन्धकार नहीं हो जाता, प्रकाश तो प्रकाश ही रहता है । वे बहते हैं कि यदि किसी को मोक्षमार्ग दिखाई न दे तो मोक्षमार्ग प्रकाशक के प्रकाशकत्व में कोई अन्तर नहीं आता। उन्हीं के शब्दों में :
__ "बहुरि जैसे प्रकाश भी नेत्र रहित वा नेत्र विकार सहित पुरुष हैं तिनिफॅ मार्ग सूझता नाहीं तो दीपककै तौ मार्गप्रकाशकपने का
, मो० मा प्र०, २६-३० २ वही, २८
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वयं-विषय और पार्शनिक विचार
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अभाव भया नाही, तैसें प्रगट किए भी जै मनुष्य ज्ञानरहित हैं वा मिथ्यात्वादि विकार सहित हैं तिना मोक्षमार्ग सूझता नाही, तो अन्धकै तौ भोक्षमा प्रकाशकंपने का प्रभाव भया नाहीं । वीतराग-विज्ञान (सम्यकभाव)
पंडित टोडरमल ने मंगलाचरण में पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करने के पूर्व 'वीतराग-विज्ञान' को नमस्कार किया क्योंकि पंचपरमेष्ठी बनने का उपाय वीतराग-विज्ञान ही है। वीतराग-विज्ञान केबल विज्ञान ही नहीं है, वह प्रात्मविज्ञान भी है, इसीसे मंगलमय और मंगलकरण है | मंगल करण इसलिए क्योंकि वह स्वयं मंगलस्वरूप है तथा जो स्वयं मंगलमय हो, वहीं मंगलकरण हो सकता है। पंचपरमेष्ठी पद इसी वीतराग-विज्ञान के परिणाम हैं। ___पंडित टोडरमल के लिए मोक्षमार्ग मात्र ज्ञान नहीं वरन् आत्मविज्ञान है, जिसे वे वीतराग-विज्ञान कहते हैं। चूंकि प्रात्मा अमूर्त हैं, निराकार है, ज्ञानदर्शन स्वरूप है, अतः उसका बैज्ञानिक (भौतिक) विश्लेषण सम्भव नहीं है । वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए जिस वैज्ञानिक प्रक्रिया की जरूरत होती है, उसमें किसी भी मान्यता या सिद्धान्त को तब तक सिद्ध नहीं माना जाता, जब तक वह तथ्यों को प्रायोगिक विधि से सिद्ध नहीं हो जाता। फिर भी किसी पदार्थ की सिद्धि के लिए कोई न कोई सिद्धान्त की कल्पना करनी ही पड़ती है । जैन दर्शन का स्थापित सिद्धान्त है कि संसार में जड़ और चेतन ये दो मुख्य तत्व हैं। वह दोनों की अनन्तता में विश्वास करता है। अनादिकाल से चेतन और जड़ (कर्म) संयोगरूप से सम्बन्धित हैं। कर्मोदय में जीव के रागादि विकार भाव होते हैं और उन भावों से नवीन कर्म बन्ध होता है।
' मो० मा० प्र०, २८-२६ २ मंगलमय मंगलकरण, वीतराग विज्ञान | नमी ताहि जात भये, अरहतादि महान ।।
-मो. मा० प्र०, १
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२१६
पंडिल टोडरमल : व्यक्तित्व और कसत्व इस प्रकार अनादिचक्र चल रहा है । इसी का नाम संसार है। शरीर सहित आत्मा ही वीतराग-विज्ञान की प्रयोगशाला है। शरीरादि जड़ पदार्थों की उपस्थिति में ही चेतन तत्त्व की अनुभूति वीतराग-विज्ञान का मूल लक्ष्य है। अतः इसे भेद-विज्ञान भी कहा गया है । भेद-विज्ञान अर्थात् जड़ और चेतन की भिन्नता का ज्ञान । यद्यपि प्रात्मा का वैज्ञानिक (भौतिक) निपोषण तो संग्ज नहीं तथापि उसकी अनुभूति संभव है, इसी अर्थ में वह विज्ञान है । उसका आधार वीतरागता है क्योंकि प्रात्मानुभूति वीतराग भाव से ही संभव है, अतः वह वीतराग-विज्ञान है। पंडित टोडरमल ने मोक्षमार्ग में वीतरागता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र तीनों की परिभाषा करते हुए उन्होंने निष्कर्ष रूप में वीतरागता को प्रमुख स्थान दिया है । बहुत विस्तृत विश्लेषण करने के बाद वे लिखते हैं :
"तातें बहुत कहा कहिए, जैसे रागादि मिटावनेका श्रद्धान होय सो ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । बहुरि जैसे रागादि मिटावनेका जानना होय सो ही जानना सम्यग्ज्ञान है । बरि जैसे रागादि मिटें सो ही आचरण सम्यक्तारित्र है । ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है।"
रागादि भाव के अभाव का नाम ही वीतराग भाव है । वीतराग भाव राग-द्वेष के अभावरूप अात्मा की वास्तविक स्थिति है । उसका विज्ञान ही वीतराग-विज्ञान है । वीतराग-विज्ञान ही निज भाव है, वह हो मोक्ष मार्ग है, और वह मिथ्यात्य के प्रभाव से प्रगट होता है । यदि वीतराग-विज्ञान के प्रकाश से वीतराग-विज्ञानरूप निज भाव की प्राप्ति हो जाये तो सम्पूर्ण दुःखों का अभाव सहज ही हो जाता है । मिथ्याभाव
इस प्रात्मा के समस्त दुःखों का कारण एक मिथ्याभाव (मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र) ही है। यही संसाररूपी वृक्ष की जड़ है । इसका नाश किए बिना आत्मानुभूति प्राप्त नहीं हो
मो० मा० प्र०,३१३
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वर्ण-विषय और बार्शनिक विचार
२१७ सकती है। इस मिथ्यात्व भाव की पुष्टि कुदेव, कुगुर और कुशास्त्र के संयोग से होती रहती है।
यही कारण है कि पंडित टोडरमल ने मिथ्याभावों और उनके कारणों का विस्तृत वर्णन किया है। उन्हें उन्होंने दो भागों में विभाजित किया है, अग्रहीत और गृहीत 1 मिथ्याभाव तीन प्रकार के होते हैं। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र । इस प्रकार ये कुल मिलाकर छह हुए । इन्हें यों रखा जा सकता है :
मिश्याभाव
मगृहीत
गृहीत
मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्र मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान एक तरीका यह भी हो सकता है :
मिथ्याचारित्र
मिध्याभाव
मिथ्यादर्शन
मिथ्याज्ञान
मिथ्याचारित्र
प्रगृहीत
गृहीत अगृहीत
गृहीत प्रगृहीत
गृहीत
१ मो० मा०प्र० (क) इस भव के सब दुःखनिके, कारण मिथ्या भाव । पृ० १०६ (ख) इस भवतरु का मूल इक, जानहु मिथ्या भाव । पृ. २८३ (ग) मिथ्या देवादिक भजें, हो है मिथ्या भाव ।
तज तिनको सांचे भजी, यह हित हेतु उपाय ॥ पृ. २४७
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२१८
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व अगृहीत मिथ्याभाव अनादि हैं। ये जीव ने ग्रहण नहीं किए हैं, इनका अस्तित्व दूध में घी के समान उसके अस्तित्व से ही जुड़ा हुआ है। इनसे कर्म बन्धन होता है और बन्धन ही दुःस्त्र है । अगृहीत मिथ्यात्व जीव की विवशता है, परन्तु गृहीत मिथ्यात्व वह है जिसे जीव स्वयं स्वीकारता है और उसमें कारण (निमित्त) पड़ते हैं - कुदेव, कुगुरु
और कुशास्त्र । सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का सही स्वरूप न समझ पाने के कारण ही यह गलत मार्ग अपना लेता है। इसलिए उन्होंने इनका विस्तृत वर्णन किया है।
वे किसी व्यक्ति विशेष को कुदेब, कुगुरु या कुधर्म नहीं कहते वरन् अदेव में देवबुद्धि, अगुरु में गुरुबुद्धि एवं अधर्म में धर्मबुद्धिकुदेव, कुगुरु और कुधर्म हैं। उन्होंने कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और कुधर्म की प्रालोचना करते हुए मात्र जनेतर दर्शनों की ही नहीं वरन् जैन दर्शन व उसके अन्तर्गत आनेवाले भेद-प्रभेदों में उत्पन्न विकृतियों की समान रूप से पालोचना की है। जैनेतर दर्शनों पर संक्षिप्त में सामान्य रूप से विचार करने के उपरान्त जैन दर्शन में विशेषकर दिगम्बर जैनियों (वे स्वयं दिगम्बर जैन थे) में समागत विकृतियों की विस्तृत समीक्षा उन्होंने की।
जनेतर दर्शनों में उन्होंने सर्वव्यापी प्रद्वैत ब्रह्म, सृष्टि कर्तृत्ववाद, मायावाद, अवतारवाद, भक्तियोग, ज्ञानयोग, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, जैमिनी, बौद्ध, चार्वाक, मुस्लिम मत, एवं इनके ही अन्तर्गत ब्रह्म से कुल प्रवृत्ति, यज्ञ में पशुहिंसा, पवनादि साधन द्वारा ज्ञानी होना, आदि विषयों पर विचार किया है । श्वेताम्बर जैन मत को भी उन्होंने अन्य मत विचार वाले अधिकार में रखा है तथा उसके सम्बन्ध में विचार करते हुए ढूंढक मत पर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं। अन्य मत-मतान्तरों के अतिरिक्त लोकप्रचलित सूर्य, चन्द्र, ग्रह, गो, सर्प, भूत-प्रेत-व्यन्तर, एवं स्थानीय गणगौर, सांझी, चौथि, शीतला, दिहाड़ी, तथा मुस्लिमों में प्रचलित पीर-पैगम्बर आदि तथा शस्त्र, अग्नि, जल, वृक्ष, रोड़ी आदि की उपासना पर भी अपने तर्कसंगत विचार प्रस्तुत किए हैं।
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यय-विषय और दार्शनिक विचार
२१६
इस प्रकार उन्होंने उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रचलित मत-मतान्तर एवं लपासना-पद्धतियों पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। इससे प्रतीत होता है कि वे मात्र स्वप्नलोक में विचरण करने वाले दार्शनिक न थे वरन् देश-काल की परिस्थितियों से पूर्ण परिचित थे और उन सब के बारे में उन्होंने विचार किया था।
उन्होंने गुरुओं के सम्बन्ध में विचार करते हुए कुल अपेक्षा, पट्ट अपेक्षा, भेष अपेक्षा आदि से अपने को गुरु मानने वालों की भी मालोचना की है। इसके बाद वे जैनियों में विद्यमान सूक्ष्म मिथ्याभाव का वर्णन करते हैं । वे लिखते हैं :
जे जीव जैनी है, जिन प्राशाकों मानें हैं पर तिनकै भी मिथ्यात्व रहै है ताका वर्णन कीजिए है - जाते इस मिथ्यात्व वैरी का अंश भी बुरा है, तातै सूक्ष्म मिथ्यात्व भी त्यागने योग्य है ।"
विविध मत समीक्षा करते समय या जैनियों में समागत विकृतियों की आलोचना करते समय वे अपने वीतराग भाव को नहीं भुलते हैं। इसमें उनका उद्देश्य किसी को दुःख पहंचाना नहीं है और न वे द्वेष भाव से ऐसा करते हैं, किन्तु करुणा भाव से ही यह सब किया है 1 जहाँ वे द्वेषपूर्वक कुछ कहना पसन्द नहीं करते हैं, वहाँ उन्हें भय के कारण सत्य छिपाना भी स्वीकार नहीं है । वे निर्भय हैं, पर शान्त । वे अपनी स्थिति इस प्रकार स्पष्ट करते हैं :
"जो हम कषाय करि निन्दा करै वा औरनिकों दुःख उपजावें तो हम पापी ही हैं। अन्य मत के श्रद्धानादिक करि जीवनिकै अतत्त्वश्रद्धान दृढ़ होय, तातै संसारविर्षे जीव दुःखी होय, तातें करुणा भाव करि यथार्थ निरूपण किया है । कोई बिना दोष ही दुःख पावे, विरोध 'उपजावै तो हम कहा करें। जैसे मदिरा की निन्दा करते कलाल दुःख पावें, कुशील की निन्दा करतें वैश्यादिक दुःख पायें, खोटा-खरा पहिचानने की परीक्षा बतावतें ठग दुःख पावें तो कहा
१ मो०मा० प्र०, २८३
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तव करिए । ऐसें जो पापीनिके भयकरि धर्मोपदेश न दीजिए तो जीवनिका भला कैसे होय ? ऐसा तो कोई उपदेश है नाहीं, जाकरि सर्व ही चैन पावें । बहुरि वह विरोध उपजाये, सौ विरोध तौ परस्पर हो है । हम लरें नाहीं, वे अाप ही उपशान्त होय जायेंगे। हम तो हमारे परिणामों का फल होगा।"
उनकी दृष्टि में एक वीतराग भाव हो परम धर्म है और वहीं अहिंसा है । नः गा भात की गोलक और हिंसामूलक क्रियाओं को उन्होंने कूधर्म कहा है। धर्म के नाम पर फैले आडम्बर और शिथिलाचार का उन्होंने डट कर विरोध किया है । शैथिल्य के वर्णन में तत्कालीन समाज में धर्म के नाम पर चलने वाली प्रवृत्तियों का चित्र उपस्थित होता है :
___ "बहुरि व्रतादिक करिकै तहाँ हिंसादिक वा विषयादिक बधाव है। सौ ब्रतादिक तो तिनकों घटावने के अथि कीजिए है। बहुरि जहाँ अन्न का तो त्याग करै अर कंदमूलादिकनि का भक्षण कर, तहाँ हिंसा विशेष भई -- स्वादादिक विषय विशेष भए । बहरि दिवस विर्षे तो भोजन कर नाही, पर रात्रि विर्षे करें । सौ प्रत्यक्ष दिवस भौजनतें रात्रि भोजन विर्षे हिंसा विशेष भास, प्रमाद विशेष होय । बहुरि प्रतादिक करि नाना शृंगार बनावै, कुतुहल कर, जूवा प्रादिरूप प्रवर्ते, इत्यादि पापक्रिया करै । बहुरि व्रतादिक का फल लौकिक इष्ट की प्राप्ति, अनिष्ट का नाशौ चाहै, तहाँ कषायनि की तीव्रता विशेष भई । ऐसे व्रतादिक करि धर्म मानें हैं, सौ त्रुधर्म है।
बहुरि भक्त्यादि कार्यनिविर्षे हिंसादिक पाप बधा, वा गीत नृत्यगानादिक वा इष्ट भोजनादिक वा अन्य सामग्नीनि करि विषयनिकौं पौर्षे, कुतूहल प्रमादादिरूप प्रवर्तं । तहाँ पाप तो बहुत उपजावं अर धर्मका किछू साधन नाही, तहाँ धर्म मान सो सब कुधर्म है ।" ।
१ मो० मा० प्र०, २०२ २ बही, २७८-७६
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वर्ण्य-विषय और दार्शनिक विचार
२२१ वे सती होना, काशीकरोत लेना आदि आत्मघाती प्रवृत्तियों का धर्म के नाम पर होना धर्म के लिए कलंक मानते थे और उस सामन्त युग में उन्होंने उनका डट कर विरोध किया। उन्होंने निर्भय होकर उनके विरुद्ध आवाज उठाई, उन्हें कुधर्म घोषित किया। उन्होंने यह सब कुछ अपने जीवन की बाजी लगा कर किया। उनके निम्नलिखित शब्दों में क्रान्ति का शंखनाद है :___ "बहुरि केई इस लोक विर्षे दुःख साह्या न जाय या परलोक विर्षे इष्ट की इच्छा वा अपनी पूजा बढ़ाबने के अधि वा कोई क्रोधादिककरि अपघात करें। जैसे पतिवियोगते अग्नि विर्षे जलकरि सती कुहावे है वा हिमालय गलै है, काशीकरोत ले है, जीवित मारी ले है, इत्यादि कार्यकरि धर्म मान हैं। सो अपघातका तो बड़ा पाप है।
गादिकतै मानुराग घमा शा. नौ चपपनगादि किया होता। मरि जाने में कौन धर्म का अंग भया । तातै अपघात करना कुधर्म है । ऐसे ही अन्य भी घने कुधर्मके अंग हैं। कहाँ ताई कहिए, जहाँ विषय कषाय बधै अर धर्म मानिए, सौ सर्व कुधर्म जाननें।"
उनका निष्कर्ष है – 'जहाँ विषय-कषाय बढ़े और धर्म माने वह कुधर्म है, क्योंकि विषय-कषायरूप प्रवत्ति तो अधर्म है और अधर्म में धर्मबुद्धि वह कुधर्म है । वस्तुतः विषय-कषाय भाव स्वयं में कुधर्म नहीं हैं, वे तो अधर्म रूप हैं, उन्हें धर्म मानना धर्म है। इस प्रकार उक्त मान्यता ही कुधर्म रूप है। इसी प्रकार रागी-द्वेषी व्यक्ति कुदेव नहीं है क्योंकि वह तो प्रदेव (देव नहीं) है, उसे देव मानना कुदेव है, अतः मान्यता ही कुदेव है, कोई व्यक्ति विशेष नहीं। ऐसे ही शास्त्र और गुरु के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए।
धर्म विषय-कषाय के प्रभावरूप है। धर्म की इसी कसौटी पर वे तत्कालीन जैन समाज में प्रचलित धार्मिक क्रियाकाण्डों को कसते हैं 1 जनेतरों की आलोचना से भी कठोर पालोचना वे जैनियों की करते दिखाई देते हैं। धर्म के नाम पर चलने वाला पोपडम
मो. मा०प्र०, २७६
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तव
उन्हें बिलकुल स्वीकार नहीं । वे उस पर कस कर प्रहार करते हैं। उनके ही शब्दों में :
"देखो काल का दोष, जैनधर्म विर्षे भी धर्म की प्रवृत्ति भई। जैनमत विर्षे जे धर्मपर्व कहे हैं, तहाँ तो विषय-कषाय छोरि संयमरूप प्रवर्तना योग्य है। ताकी तो आदर नाहीं पर व्रतादिक का नाम धराय तहाँ नाना श्रृंगार बनावें वा गरिष्ठ भोजनादि करै वा कुतुहलादि करै वा कषाय वधाबने के कार्य करें, जूवा इत्यादि महापापरूप प्रवत्त' ।"
___ "बहुरि जिन मंदिर तो धर्मका ठिकाना है । तहाँ नाना कुकथा करनी, सोवना इत्यादिक प्रमाद रूप प्रवत्तै वा तहाँ बाग बाड़ी इत्यादि बनाय विषय-कषाय पोर्षे । बहुरि लोभी पुरुषनिर्की गुरु मानि दानादिक दें वा तिनकी असत्य-स्तुतिकरि महंतपनों माने, इत्यादि प्रकार करि विषय-कषायनिक तौ बधावे पर धर्म मान । सौ जिनधर्म तौ वीतराग भावरूप है । तिस विषं ऐसी प्रवृत्ति कालदोषते ही देखिए है ।"
उक्त कथन में तत्कालीन धार्मिक समाज में व्याप्त शिथिलाचरणा का चित्र आ गया है। लेखक का बह रूप भी सामने आया है, जो उसके जीवन में कूट-कूट कर भरा था। उसने यहाँ स्पष्ट घोषणा कर दी है कि - जैन धर्म तो वीतराग भाव का नाम है, उसमें राग-रंग को कोई स्थान प्राप्त नहीं है । सूक्ष्मातिसूक्ष्म मिथ्याभाष
जैनियों में पाये जाने वाले सूक्ष्मातिसूक्ष्म मिथ्याभाव को उन्होंने दो रूपों में रखा है :(१) निश्चय और व्यवहार को न समझ पाने के कारण होने
वाला। (२) चारों अनुयोगों की पद्धति को सही रूप में न समझ पाने
के कारण होने वाला।
' मो० मा०प्र०, २७६-८० २ वही, २८०
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वर्ण्य विषय और दार्शनिक विचार
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इनका विस्तृत वर्णन उन्होंने मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवेंआठवें अधिकार में क्रमशः किया है। सातवें अधिकार में लेखक भवरूपी तरु का मूल एक मात्र मिध्याभाव को बताता है । इस मिथ्यात्व का एक अंश भी बुरा है, अतः स्थूल मिया की तरह सूदन मिथ्यात्व भी त्यागने योग्य है । स्थूल मिथ्याभाव का वर्णन पिछले अध्यायों में किया जा चुका है। इस अध्याय में सूक्ष्म मिथ्यात्व का विवेचन है । सूक्ष्म मिथ्याभाव से पंडितजी का श्राशय जन अन्तरंग व वाह्य जैन श्राचार-विचारों से है जो तात्विक दृष्टि से विवराभास हैं ।
पंडितजी के अनुसार जैनधर्म विशुद्ध श्रात्मवादी है। उसकी कथनशैली में यथार्थ कथन को निश्चय और उपचारित कथन को व्यवहार कहा है । व्यवहार निश्चय का साधन है, साध्य नहीं । व्यवहार नय की अपनी अपेक्षाएँ और सीमाएँ हैं । उन सीमाओं को नहीं पहिचान पाने से भ्रम उत्पन्न हो जाते हैं । जैन दर्शन का प्रत्येक वाक्य स्याद्वाद - प्ररणाली के अन्तर्गत कहा जाता है। उसके अपने अलग सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य होते हैं। वह कथन किस परिप्रेक्ष्य और संदर्भ में हुआ है, इसे समझे बिना उसका मर्म नहीं समझा जा सकता है, उल्टा गलत आशय ग्रहण कर लेने से लाभ के स्थान पर हानि की सम्भावना अधिक रहती है ।
पंडित टोडरमल ने जैन शास्त्रों के कथनों को उनके सही सन्दर्भ में देखने का आग्रह किया है और कई उदाहरण प्रस्तुत करके यह स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया है कि किस वाक्य का किस प्रकार गलत अर्थ समझ लिया जाता है और उसका वास्तविक अर्थ क्या होता है । प्रत्येक कथन एक निश्चित प्रयोजन लिए होता है । उस प्रयोजन को लक्ष्य में रखे बिना उसका अर्थ निकालने का प्रयास यदि किया जायगा तो सत्य स्थिति हमारे सामने स्पष्ट नहीं हो पायी, किन्तु सन्देह उत्पन्न हो जायेंगे | उक्त तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए पंडितजी द्वारा प्रस्तुत कुछ अंश उदाहरणार्थं नीचे दिये जाते हैं :
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पंदित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व "केई जीव निश्चयकौं न जानते निश्चयाभास के श्रद्धानी होई आपकौं मोक्षमार्गी मानें हैं। अपने प्रात्मा कौं सिद्ध समान अनुभवै हैं । सो आप प्रत्यक्ष संसारी हैं। भ्रमकरि आपकौं सिद्ध मानें सोई मिथ्यादृष्टि है । शास्त्रनिविर्षे जो सिद्ध समान प्रात्माकों कह्या है, सो द्रव्य दृष्टि करि क ह्या है, पर्याय अपेक्षा समान नाहीं है। जैसे राजा पर रंक मनुष्यपने की अपेक्षा समान हैं, राजापना और रंकपना की अपेक्षा तो समान नाहीं। तैसें सिद्ध अर संसारी जीवत्वपनेकी अपेक्षा समान हैं, सिद्धपना संसारीपना की अपेक्षा तो समान नाहीं। यह जैसे सिद्ध शुद्ध हैं, तैसें ही आपको शुद्ध माने । सो शुद्ध-अशुद्र अवस्था पर्याय है । इस पर्याय अपेक्षा समानता मानिए, सो यह मिथ्यादृष्टि है।
बहुरि आपके केवलज्ञानादिकका सद्भाव माने, सो पापकै ती क्षयोपशमरूप मतिश्रुतादि ज्ञान का सद्भाव है । क्षायिक भाव ती कर्म का क्षय भए होइ है । यह भ्रमते कर्मका क्षय भए बिना ही क्षायिक भाव माने । सो यह मिथ्यादृष्टि है। शास्त्रविष सर्वजीवनि का केवल शान स्वभाव कहा है, सो शक्ति अपेक्षा कह्या है । सर्व जीवनिविर्ष केवलज्ञानादिरूप होने की शक्ति है । वर्तमान व्यक्तता तो व्यक्त भए ही कहिए'।"
उक्त कथन को अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि जल का स्वभाव शीतल है, किन्तु अग्नि के संयोग से वर्तमान में वह गर्म है । यदि कोई व्यक्ति जल का शीतल स्वभाव कथन सुन कर गर्म खौलता हुआ पानी पी लेबे तो जले बिना नहीं रहेगा। उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव तो केवलज्ञान अर्थात् पूर्णज्ञान स्वभावी है, किन्तु वर्तमान में तो बह अल्पज्ञानरूप ही परिमित हो रहा है । यदि कोई उसे वर्तमान पर्याय में भी केवलज्ञानरूप मान ले तो अपेक्षा और सन्दर्भ का सही ज्ञान न होने से भ्रम में ही रहेगा ।
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' मो० मा० प्र०, २८३-२८४
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वयं विषय और दार्शनिक विश्वार
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इसी प्रकार शास्त्रों में तप को निर्जरा का कारण कहा है और अनशनादि को तप कहा है । व्यवहाराभासी जीव अनशन यदि तपों का सही स्वरूप तो जानता नहीं है और अपनी कल्पनानुसार उपवासादि करके तप मान लेता है। इस बात को पंडितजी ने इस प्रकार स्पष्ट किया है :
"बहुरि यहु अनशनादि तपते निर्जरा मानें है । सो केवल बाह्य सप ही तौ किए निर्जरा होय नाहीं । वाह्यतप तो शुद्धोपयोग बधावनै के ग्राथ कीजिए है। शुद्धोपयोग निर्जराका कारण है । तानें उपचार करि तपकों भी निर्जरा का कारण कया है । जो बाह्य दुःख सहना ही निर्जरा का कारण होय, तौ तिर्यंचादि भी भूख तृषादि सहैं हैं ।"
"शास्त्रविषै 'इच्छाविरोधस्तपः' ऐसा कह्या है। इच्छा का रोकना ताका नाम तप है । सो शुभ-अशुभ इच्छा मिटै उपयोग शुद्ध होय, तहाँ निजेश ही है | नाते तपकार निर्जरा कहते है ।"
"यहाँ प्रश्न जो ऐसे है तो अनशनादिकक तप संज्ञा कैसे भई ? ताका समाधान इनिकों बाह्यतप कहें हैं । सो बाह्य का अर्थ यह है जो बाह्य श्रीरनिकों दीमै बहु तपस्त्री है । बहूरि आप तो फल जैसा अंतरंग परिणाम होगा, वैसा ही गावेगा । जातें परिणामशून्य शरीर की क्रिया फलदाता नाहीं ।"
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"यहाँ कहेगा- जो ऐसे है तो हम उपवासादि न करेंगे ?
ताको कहिए है - उपदेश तो ऊँचा चढनेक दीजिए है। तु उलटा नीचा पड़ेगा, तो हम कहा करेंगे। जो तु मानादिकने उपवासादि करे है, ती करि बामति करें; किल्लू सिद्धि नाहीं । पर जो धर्मबुद्धि ग्राहारादिकका अनुराग छोड़े है, तो जता राग छूया तैना ही छुट्या । परन्तु इसहीकों तप जानि इस निर्जरामानि सन्तुष्ट मति होहु ।"
' मो० मा० प्र०, ३३७
२ वही ३३८
P
वही, ३३६ वही, २४०
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पंजित टोडरमला व्यक्तित्व और कर्तव सूक्ष्म मिथ्याभावों का विश्लेषण करते समय लेखक ने सर्वत्र सन्तुलन बनाए रखा है । जहाँ उन्होंने अज्ञानपूर्वक किये जाने वाले व्रत सप प्रादि को बालवत और बालतप कहा है, वहीं उन्होंने स्वच्छंद होने का भी निषेध किया है। इस सम्बन्ध में उन्होंने अपनी स्थिति इस प्रकार स्पष्ट की है :
___ "जाकौं स्वच्छन्द होता जान, तात्रौं जैसे वह स्वच्छन्द न होय, तैसें उपदेश दे । बहुरि अध्यात्मग्रंथनि विर्षे भी स्वच्छन्द होने का जहाँ-तहाँ निषेध कीजिए है । तातें जो नीके तिनकौं सुने तो स्वच्छन्द होता नाहीं। पर एक बात सुनि अपने अभिप्रायते कोऊ स्वच्छन्द होय, तौ गन्य माता दोष है माटी, राप जीव ही का दोष है' ।'
इसी नीति के अनुसार उन्होंने सर्वत्र सावधानी रखी है। इस सत्य का ज्ञान कराना भी जरूरी है कि बिना आत्मज्ञान के करोड़ों प्रयत्न करने पर भी प्रात्मोपलब्धि होना सम्भव नहीं है, और यह भी कि सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त वीतरागी चारित्र से ही दुःखों से पूर्ण मुक्ति होगी।
उनकी मूल समस्या यह है कि अधिकांश जैन वस्तु के मर्म को तो जानते नहीं हैं, शास्त्रों का कुछ अंश यहाँ-वहाँ से पढ़ कर अपने मन की कल्पना के अनुसार अविवेकपूर्वक धार्मिक क्रियाएँ करने लगते हैं और अपने को धर्मात्मा मान कर सन्तुष्ट हो जाते हैं । इस तरह के लोगों का चित्ररण उन्होंने इस प्रकार किया है :____ "बहुरि सर्वप्रकार धर्मकों न जानें, ऐसा जीव कोई धर्म का अंगकी मुख्यकरि अन्य धर्मनिकौं गौरग करे है। जैसे केई जीव दयाधर्मको मुख्यकरि पूजा प्रभावनादि कार्यकौं उथा है, केई पूजा प्रभावनादि धर्मको मुख्य करि हिसादिक का भय न राखें हैं, केई तप की मुख्यताकरि अार्तध्यानादि करिके भी उपवासादि कर बा प्रापको तपस्वी मानि निःशंक क्रोधादि करै हैं । केई दान की मुख्यता करि बहत पाप करिके भी धन उपजाय दान दे हैं, केई प्रारम्भ
'मो० मा प्र०, ४२६-३०
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वयं विषय और दार्शनिक विचार
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त्याग की मुख्यताकरि याचना आदि करे हैं। केई जीव हिंसा मुख्य करि स्नान शौचादि नाहीं करें हैं। वा लौकिक कार्य आए धर्म छोड़ि तहाँ लगि जाय हैं। इत्यादि प्रकार करि कोई धर्मको मुख्यकरि अन्य धर्मकों न गिने हैं। वा वाके श्रासरे पाप श्राचरें हैं । सो जैसे अविवेकी व्यापारी कोई व्यापार के नफे के अभि अन्य प्रकारकरि बहुत टोटा पाड़े तैसें यहु कार्य भया । चाहिये तो ऐसे, जैसे व्यापारी का प्रयोजन नफा है, सर्व विचारकरि जैसे नफा घना होय तैसें करे । तैसें ज्ञानी का प्रयोजन वीतरागभाव है। सर्व विचारकरि जैसे वीतरागभाव घना होय तैसें करें जातें मूलधर्म वीतरागभाव है । वाही प्रकार अविवेकी जीव अंगीकार करें हैं. तिनकै तो सम्यक् चारित्र का आभास भी न होय ।"
1
उनके सामने इस प्रकार का जैन समाज था, जिसे उन्हें मोक्षमार्ग बताना था । सतः उन्होंने अपने तत्त्व विवेचन में सर्वत्र सन्तुलन बनाए रखा और प्रत्येक धार्मिक क्रियाकाण्ड को आध्यात्मिक लाभ-हानि की कसौटी पर कसा तथा जो खरा उतरा उसे स्वीकार किया और जो खोटा दिखा उसका इट कर विरोध किया ।
इच्छाएँ
उक्त मिथ्याभावों से इच्छाओं और ग्राकांक्षाओं की उत्पत्ति होती है । संसार के समस्त प्राणी इनकी पूर्ति के प्रयत्न में निरन्तर श्राकुल- व्याकुल रहते हैं और इनकी पूर्ति में सुख की कल्पना करते हैं । किन्तु पंडितजी इच्छा और आकांक्षाओं की पूर्ति में सुख की कल्पना न करके इच्छा के प्रभाव ( उत्पन्न ही न होना) में सुख मानते हैं । वे इच्छाओं में कोई इस प्रकार का भेद नहीं करते कि यह ठीक है और यह बुरी । उनका तो स्पष्ट कहना है कि इच्छा चाहे जिसकी हो, वह होगी दुःखरूप ही । इच्छाओं की पूर्ति करने की दिशा में किया गया पुरुषार्थ ही गलत पुरुषार्थ है । प्रयत्न ऐसा होना चाहिए कि इच्छाएँ उत्पन्न ही न हों। उन्होंने तीन प्रकार की इच्छाओं की
' मो० मा० प्र०, ३५४- ३५५,
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कसूरव चर्चा की है – विषय, कषाय, गौर पाप का उदय । इनका विश्लेषण वे इस प्रकार करते हैं :--
"दुःख का लक्षण प्राकुलता है सो ग्राकुलता इच्छा होते ही है । सोई संसारी जीव कै इच्छा अनेक प्रकार पाइये है। एक तो इच्छा विषयग्रहण की है सो देख्या जाना चाहै । जैसे वर्ण देखने की, राग सुननेकी, अव्यक्तको जानने इत्यादि की इच्छा हो है । सो तहाँ अन्य कि पीड़ा नाहीं परन्तु यावत् देखे जाने नाहीं तावत् महान्याकुल' होइ। इस इच्छा का नाम विषय है। बहुरि एक इच्छा कषाय भावनिके अनुसारि कार्य करने की है तो कार्य किया चाहै। जैसे बुरा करने की, हीन करने की इत्यादि इच्छा हो है । सो इहाँ भी अन्य कोई पीड़ा नाहीं । परन्तु यावत् वह कार्य न होइ तावत् महाळ्याकुल होय । इस इच्छा का नाम कषाय है। बहरि एक इच्छा पापके उदयतें शरीरविषं या बाह्य अनिष्ट कारण मिलें तब उनके दूरि करने की हो है । जैसे रोग पीड़ा क्षुधा आदि का संयोग भए उनके दूर करने की इच्छा हो है सो इहाँ यहु ही पीड़ा मान है । यावत् वह दूरि न होइ तावत् महाव्याकुल रहै । इस इच्छा का नाम पाप का उदय है । ऐसें इन तीन प्रकार की इच्छा होते सर्व ही दुःख मान हैं सो दुःख
___ इन तीन इच्छात्रों के अतिरिक्त उन्होंने एक चौथी इच्छा और मानी है और उसका नाम दिया है पुण्य का उदय । इसकी व्याख्या उन्होंने इस प्रकार दी है :
"बहुरि एक इच्छा बाह्य निमितत्तै बनं है सौ इन तीन प्रकार इच्छानि के अनुसारि प्रवर्तने की इच्छा हो है । सो तीन प्रकार इच्छानिविर्षे एक-एक प्रकार की इच्छा अनेक प्रकार है । तहाँ केई प्रकार की इच्छा पूरण करने का कारण पुण्य उदयतें मिले । तिनिका साधन युगपत् होइ सकै नाहीं । तातै एकको छोरि अन्यकों लाग, प्राग भी वाकी छोरि अन्यकौं लागे । ऐसें ही अनेक कार्यनि
' मो० मा० प्र०, १००-१०१
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वर्ष-विषय और दार्शनिक विचार की प्रवृत्ति विर्षे इच्छा हो है सो इस इच्छा का नाम पुण्य का उदय है । याकौं जगत सुख मानै है सो सुख है नाही, दुःख ही है।"
इच्छात्रों का उक्त बर्गीकरण उनका मौलिक है । इसके पूर्व इच्छाओं का इस प्रकार का वर्गीकरण अन्यत्र देखने में नहीं पाया ।
यद्यपि उक्त सभी इच्छाओं को वे दुःखरूप ही मानते हैं तथापि कषाय नामक इच्छा से उत्पन्न दुःखावस्था का उन्होंने बिस्तार से वर्णन किया है। उसमें होने वाले मरण पर्यन्त कष्ट का बारीकी से उल्लेख करने के उपरान्त वे निष्कर्ष इस प्रकार देते हैं :
"तहाँ मरण पर्यन्त कष्ट तो कबूल करिए है पर क्रोधादिक की पीड़ा सहनी कबूल न करिए है। तातै यह निश्चय भया जो मरणादिकतें भी कषायनि की पीड़ा अधिक है । बहुरि जब याकै कषाय का उदय होइ तब कषाय किए बिना रह्या जाता नाहीं । बाह्य फषायनि के कारण प्राय मिले तो उनके आश्रय कषाय करै । न मिले तो आप कारण बनावै । जैसे व्यापारादि कषायनिका कारण न होइ तो जुना खेलना वा अन्य क्रोधादिक के कारण अनेक ख्याल खेलना वा दुष्ट कथा कहनी सुननी इत्यादि कारण बनावै है।"
इसी प्रकार कामवासना, जिसकी पूर्ति को जगत सूखरूप मानता है, वे उसे महा दुःखरूप सिद्ध करते हुए लिखते हैं :
__ "तिसकरि अति व्याकुल ही है। प्राताप उपजे है। निर्लज्ज ही है, धन खर्चे है 1 अपजसकौं न गिन है। परम्परा दुःख होइ वा दंडादिक होय ताकी न गिनै है। काम पीड़ातै बाउला हो है । मरि जाय है। सो रसग्रंथनि विर्षे काम की दश दशा कही हैं। तहाँ बाउला होना, मरण होना लिख्या है। वैद्यक शास्त्रनि में ज्वर के भेदनि विर्षे कामज्वर मरण का कारण लिख्या है। प्रत्यक्ष काम करि मरण पर्यन्त होते देखिए हैं | कामांधकै किछू विचार रहता नाहीं।
१ गो. मा. प्र०, १०१ २ वही, ७६-५०
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कतव पिता पुत्री वा मनुष्य तिर्यंचणी इत्यादित रमने लगि जाय हैं । ऐसी काम की पीड़ा महा दुःखरूप है।"
संक्षेप में पंडित टोडरमल के विचार परम्परागत विचार ही हैं, किन्तु उनमें उनका मौलिक चिन्तन सर्वत्र प्रतिफलित हुया है। किसी भी वस्तु को वे आगम, अनुभव और तर्क की कसौटी पर कस कर ही स्वीकार करते हैं। मात्र परम्परागत होने से वे उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं । यद्यपि पार्षवाक्यों को उन्होंने सर्वत्र आगे रखा तथापि तकों द्वारा उन्हें तरासा भी, जिससे उनमें एक नवीनता व चमक आ गई है। उन्होंने अपने प्रतिपाद्य को अनुभव करने के बाद पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है, अत: उनके प्रतिपादन में वजन है।
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१ मो० मा०प्र०,७९
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पंचम अध्याय
गद्य शैली
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गद्य शैली
पंडित टोडरमल की प्रतिपादन शैली दृष्टान्तमयी प्रश्नोत्तर शंती है । जैसाकि कहा जा चुका है कि उनका लेखन कार्य प्राचीन आगमग्रंथों की टीका से आरंभ हा लेकिन उसी में से उनके चिन्तक का विकास हुमा । परम्परागत विषय होत हए भी उन्होंने अपनी लेखन शैली का स्वयं निर्माण किया और अपने अनुभवपूर्ण चिन्तन को ऐसी शैली में रखने का संकल्प किया जो सरल, दृष्टान्तमयी और लोक सुगम हो । 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' नाम में उनकी शैली की झलक मिल जाती है। जहाँ तक प्रतिपाद्य विपय का सम्बन्ध है, इसे हम मोक्षशास्त्र कह सकते हैं अर्थात् संसार से मुक्ति का शास्त्र । लेकिन उन्होंने इसे मोक्षशास्त्र न कह कर 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' कहा 1 जैन तत्त्वज्ञान की दृष्टि से मोक्षमार्ग पर प्रकाश डालनेवाले कई ग्रंथ हैं, परन्तु इसे 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' कहने में लेखक का अभिप्राय यह बताना है कि उसके विचार से सही मोक्षमार्ग क्या है ? खासकर उन परिस्थितियों के सन्दर्भ में जिनमें उसे इसे प्रकाशित करना है ।
लेखक अपनी सीमा, अपने पाठक समाज की बौद्धिक क्षमता और विषय की निस्सीमता से परिचित है। इसलिए वह ऐसी शैली को चुनता है जो एकदम शास्त्रीय न हो, जो आध्यात्मिक सिद्धियों और चमत्कारों से मुक्त हो, वह ऐसी पीली हो जिसमें एक सामान्य जन दूसरे सामान्य जन से बात करता है, उसी प्रात्मीय शैली को वे स्वीकार करते हैं। वक्ता के जो गुगा पीर धर्म बताये गए हैं, वे प्रकारान्तर से मोक्षमार्ग प्रकाशक में स्वीकृत लेखन शैली के गुग्ग धर्म हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि वे जिस शैली को प्रादर्श मानते हैं, वह उनकी स्वयं की निर्मित शैली है । यदि शैली मनुष्य के चरित्र की अभिव्यक्ति का प्रतीक हो तो हम इस शैली से पंडित टोडरमल के चिंतक का चरित्र और स्वभाव अच्छी तरह परख
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पंजित दोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व सकते हैं। प्राध्यात्मिक विषय के प्रतिपादन में स्वीकार की गई शैली में व्यक्तित्व का ऐसा मुखरित रूप बहुत कम आध्यात्मिक लेखकों में मिलता है।
पंडितजी की उक्त शैली में दृष्टान्तों का प्रयोग मणिकांचन प्रयोग है। एक ही मूल बात के प्रतिपादन के लिए कभी वे एक दृष्टान्त को दूर तक चलाते चले जाते हैं और दृष्टान्त सांगरूपक की सीमाओं को भी लाँध जाता है । कभी वे एक ही जगह काई दृष्टान्तों का प्रयोग करते हैं। ये दृष्टान्त लोक प्रसिद्ध और जाने माने होते हैं । इनके चयन में गद्यकार टोडरमल का सूक्ष्म वस्तु निरीक्षण प्रतिफलित होता है। उदाहरण के लिए हम यहाँ उनके एक गद्यखण्ड पर विचार करेंगे । इस गद्यस्खण्ड का मुख्य प्रतिपाद्य है कि मतिज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है - दोनों में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है । यहाँ निमित्त का अर्थ है कारण (वाद्य कारण) और नैमित्तिक का अर्थ होता है कार्य 1 प्रश्न है- जीव पदार्थों का ज्ञान कैसे करता है ? यहाँ जानना कार्य है और ज्ञाता है जीव, लेकिन वह इन्द्रिय और मन की सहायता से ज्ञान करता है, इसलिए ये निमित्त कारण हैं । जीव तात्त्विक दृष्टि से ज्ञानस्वरूप है किन्तु वर्तमान में शरीरबद्ध है, अतः उसके ज्ञान में उसकी अंगभुत इन्द्रियों और मन निमित्त हैं । इस तथ्य को समझाने के लिए वे निम्नलिखित दृष्टान्त शैली अपनाते हैं :
"जैसे जाकी दृष्टि मन्द होय सौ अपने नेत्रकरि ही देख है परन्तु चसमा दीए ही देखे । बिना चसमै के देखि सक नाहीं । तैसे आत्मा का ज्ञान मंद है सो अपने ज्ञान हो करि जाने है परन्तु द्रव्य इन्द्रिय वा मन का सम्बन्ध भए ही जानें, तिमि बिना जानि सकै नाहीं । बहरि जैसे नेत्र तो जैसा का तैसा है पर चसमाविर्षे किछु दोष भया होय तो देखि सकै नाहीं, अथवा थोरा दीसे अथवा और का और दोस, तैसें अपना क्षयोपशम तो जैसा का तैसा है अर द्रव्यइन्द्रिय वा मन के परमारण अन्यथा परिगामें होंय तो जानि सकै नाही, अथवा थोरा जाने अथवा और का और जान । जाते द्रव्य इन्द्रिय वा मनरूप परमाणुनिका परिणमनकै अर मतिज्ञानकै निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है
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गद्य शैली
२३५ सो उनका परिणमन के अनुसारि ज्ञान का परिणमन होय है । ताका उदाहरण :
___ "जैसैं मनुष्यादिककै बाल वृद्ध अवस्थाविर्षे द्रव्य इन्द्रिय बा मन शिथिल होय तब जानपना भी शिथिल होय । वहुरि जैसे शीत वायु आदि के निमित्तते स्पर्शनादि इन्द्रियनि के वा मन के परमाणु अन्यथा होय तब जानना न होय वा थोरा जानना होय वा अन्यथा जानना होय । बहुरि इस ज्ञानकै अर वाद्य द्रव्यानक भी निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध पाइये है । ताका उदाहरण :--
__"जैसे नेत्र इन्द्रियकं अंधकार के परमाणु वा फूला अादिक के परमारगु बा पाषाणादिक के परमारण आदि प्राड़े आ जाएँ तो देखि न सके । बहुरि लाल कांच आड़ा आवै तो सब लाल ही दीस, हरित काँच पाड़ा प्रावै तौ हरित ही दीसे, ऐसे अन्यथा जानना होय । बहुरि दूरबीन चसमा इत्यादि यात्रा प्रावे तो बहुत दोसने लगि जाय । प्रकाश, जल, हिलव्धी कांच इत्यादिक के परमाणु आड़े आ तो भी जैसा का तैसा दीखें। ऐसे अन्य इन्द्रिय वा मनकं भी यथासंभव निमित्त-नैमित्तिकपना जानना'।"
उक्त गद्यांश में सिर्फ नेत्र इन्द्रिय के विषय को चश्मा, दुरवीन, अंधकार, फूला, पापारण, प्रकाश, जल, हिलव्बी काँच आदि के उदाहरणों से स्पष्ट किया है तथा इसमें भी चश्मे का कांच लाल, हरा, मैला आदि विश्लेषण द्वारा भी विषय की गहराई तक पहुँचाने का यत्न किया है। साथ ही यह निर्देश भी दिया है कि जितना सांगोपांग विश्लेषण लेखक ने नेत्र इन्द्रिय सम्बन्धी किया है, पाठक का कर्तव्य है कि वह बाकी चार इन्द्रियों और मन का भी इसी तरह विश्लेषण करके प्रतिपाद्य को समझने का यत्ल करे।
___ इसी प्रकार सूक्ष्म विचारों को समझाने के लिए उन्होंने लौकिक उदाहरणों का सफल प्रयोग किया है । क्षयोपशम ज्ञान द्वारा एक समय में एक ही वस्तु को जाना जा सकता है, अनेक को नहीं। इस विषय को वे इस प्रकार स्पष्ट करते हैं :१ मो० मा० प्र०, ४८-४६
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२३६
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कत्तस्य "बहुरि क्षयोपशमतें शक्ति ती ऐसी बनी रहै अर परिणमन करि एक जीव के एक काल विर्ष एक विषय ही का देखना व जानना हो है । इस परिणमन ही का नाम उपयोग है । ... सो ऐसे ही देखिए है। जब सुनने वि उपयोग लग्या होय तब नेत्रनिके समीप तिष्ठता भी पदार्थ न दीसै, ऐसे ही अन्य प्रवृत्ति देखिए है। बहुरि परिणमन विर्षे शीघ्रता बहुत है ताकरि काहू काल विर्षे ऐसा मानिए है कि अनेक विषयनि का युगपत् जानना वा देखना हो है, सो युगपत् होता नाहीं, क्रम ही करि हो है । संस्कार बलतं तिनिका साधन रहै है ! जैसे काम में नेश के लोग मोलद हैं. पुनरी एक है सो फिर शीघ्र है ताकरि दोऊ गोलकनि का साधन कर है, तसे ही इस जीव के द्वार तो अनेक हैं पर उपयोग एक है सो फिर शीन है ताकरि सर्व द्वारनिका साधन रहै है।"
उपयोग चाहे कहीं रहे, अपने पर या दूसरे पर, यदि वह रागद्वेष की उत्पत्ति का कारण नहीं बनता, तो कोई हानि नहीं। इस बात को वे इस प्रकार स्पष्ट करते हैं :
__ "बहुरि वह कहै ऐसे है, तो परद्रव्य तें छुड़ाय स्वरूप वि4 उपयोग लगावने का उपदेश काहैकौं दिया है ? ___ताका समाधान - जो शुभ-अशुभ भावनिकी कारण परद्रव्य है, तिन विचे उपयोग लग जिनके राग-द्वेष होई पात्र हैं, अर स्वरूप चितवन करै तो राग-द्वेष्प घट है, ऐसे नीचली अवस्थावारे जीवनिकों पूर्वोक्त उपदेश है। जैसें कोऊ स्त्री धिकार भाव करि काहू के घर जाय थी, ताको मनै करी-पर घर मति जाब, घर मैं बैठि रहौ । वहुरि जो स्त्री निर्विकार भावकरि काह के घर जाय 'यथायोग्य प्रवत्त तो कि दोष है नाहीं । तैसे उपयोगरूप परराति राग-द्वेष भावकरि परद्रव्यनि विष प्रवत्तं थी, ताकी मन करी-परद्रव्यनि विपं मति प्रवत्त, स्वरूपविर्षे मग्न रहीं । बहुरि जो उपयोगरूप परणति वीतराग भाव करि परद्रव्यकौं जानि यथायोग्य प्रवत्त, तो किछू दोष है नाहीं ।"
1 मो. मा०प्र०, ५२
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मध ली
२३७ बहुरि वह कहै है - एमैं है, तो महामुनि परिग्रहादिक चितवन का त्याग काहेकौं करें हैं।
ताका समाधान - जैसे विकार रहित स्त्री कृशील के कारण परधरनि का त्याग कर. तैसे वीतराग परशाति राग-द्वप के कारण परद्रव्यनि का त्याग कर है। बहुरि जे व्यभिचार के कारण नाही, ऐसे पर घर जाने का त्याग है नाहीं । तैसें जे राग-द्वेषकों कारगण नाही, ऐसे परद्रव्य जानने का त्याग है नाहीं ।
बहुरि वह कहै है - जैसे जो स्त्री प्रयोजन जानि पितादिक के घमि जो जामो, विना प्रमोशन मिति पर जाना तो योग्य नाहीं । तैसे परगतिकौं प्रयोजन जानि सप्त तत्त्वनि का विचार करना। बिना प्रयोजन गुणस्थानादिक का विचार करना योग्य नाहीं।
ताका समाधान - जैसे स्त्री प्रयोजन जानि पितादिक वा मित्रादिक के भी घर जाय तैसें परणति तत्त्वनि का विशेष जानने के कारण गुणस्थानादिक वा कर्मादिक की भी जाने । बहुरि तहाँ ऐसा जानना - जैसे शीलवती स्त्री उद्यम करि ती विट पुरुषनि के स्थान न जाय, जो परवश तहाँ जाना बनि जाय, तहाँ कुशील न सेवै ती स्त्री शीलवती ही है। तैसे वीतराग परगति उपाय करि तो रागादिक के कारण परद्रव्यनि विर्षे न लाग, जो स्वयमेव तिनका जानना होय जाय, तहाँ रागादिक न करें तो परगाति शृद्ध ही है। तातें स्त्री आदि की परीषह मुनिनक होय, तिनिकौं जानें ही नाही,
अपने स्वरूप ही का जानना रहै है, ऐसा मानना मिथ्या है । उनको ' जानै ती है, परन्तु रागादिक नाहीं कर है। या प्रकार परद्रव्यकों जानते भी बीतराग भाव हो है, ऐसा श्रद्वान करना' ।"
उक्त गद्यखण्ड में स्त्री का परघर जाना सम्बन्धी उदाहरण यद्यपि बहत लम्बा है, पर प्रत्येक पंक्ति में विषय क्रमबद्ध स्पष्ट होता चला गया है और निष्कर्ष स्पष्ट हो गया है ।
-- मो० मा०प्र०, ३१०-३१२
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व विषय का विस्तार से वर्णन करने के बाद वे उसका अंत में समाहार कर देते हैं जिससे विषय स्पष्ट हो जाय । क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति आदि कषायों का एवं उनके बेग में होने वाली जीव की अवस्था का विस्तृत वर्णन करने के उपरान्त वे उनका इस प्रकार सारांश देते हैं :
"क्रोधवि तो अन्य का बुरा करना, मानविर्षे औरनिर्या नीचा करि पाप ऊँचा होना, मायाविर्षे छलकरि कार्य सिद्धि करना, लोभ विर्षे इष्ट का पावना, हास्यविषं विकसित होने का कारण बन्या रहना, रसिविर्षे इष्ट संयोग का बना रहना, परतिविष अनिष्ट संयोग का दूर होना, जोगटि सेन को गाविना, भयवि भय का कारण मिटना, जुगुप्सा विषं जूगुप्सा का कारण दुरि होना, पुरुषवेद विर्षे स्त्रीस्यों रमना, स्त्रीवेद त्रिय पुरुषस्यों रमना, नपुंसक वेदवि दोऊनिस्यों रमना, ऐसे प्रयोजन पाइए हैं।"
विषय को स्पष्ट करने के लिए स्वयं शंकाएँ उठा-उठा कर उनका समाधान प्रस्तुत करना उनकी शैली की अपनी विशेषता है । वे विषय प्रतिपादन इस ढंग से करते हैं कि पूर्वप्रश्न के समाधान में अगला प्रश्न स्वयं उभर पाता है । पढ़ते-पढ़ते पाठक के मस्तिष्क में जो प्रश्न उठता है वह उसे अगली पंक्ति में लिखा पाता है। इस प्रकार विषय का विश्लेषण क्रमवद्ध होता चला जाता है। वे किसी भी विषय को तब तक नहीं छोड़ते हैं जब तक कि उसका मर्म सामने न या जाय । प्रथमानुयोग के अध्ययन का निषेध करने वाले को लक्ष्य करके वे लिखते हैं :
"केई जीव कहै हैं-- प्रथमानुयोग विर्षे शृंगारादिक का बा संग्रामादिक का बहुत कथन करें, तिनके निमित्ततं रागादिक बधि जाय, ताते ऐसा कथन न करना था। ऐसा कथन सुनना नाहीं। ताकौं कहिए है - कथा कहनी होय तत्र ती सर्व ही अवस्था का कथन किया चाहिए । बहुरि जो अलंकारादि करि बधाय कथन करें हैं सौ पंडितनिके वचन युक्ति लिए ही निकसैं ।।
• मो० मा० प्र०,०
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गद्य शैली
२३६
पर जो तू कहेगा, मम्बन्ध मिलावनेकौं सामान्य कथन किया होता, वधायकरि कथन का है की किया ?
ताका उत्तर यह है - जो परोक्ष कथनको बधाय कहे बिना वाका स्वरूप भासै नाहीं। बहुरि पहले ती भोग संग्नामादि ऐसे किए, पीछे सर्वका त्यागकरि मनि भए, इत्यादि चमत्कार तबही भास जब बघाय कथन कीजिए । बहुरि तू कहै है, निमित्तते रागादिक बधि जाय । सी जैसे कोऊ चैत्यालय बनावै, सो बाका ती प्रयोजन तहाँ धर्म कार्य करावने का है । पर कोई पापी तहाँ पाएकार्य कर, लौ चैत्यालय बनावने वाले का तौ दोष नाहीं । तैसें श्रीगुरु पुराणादिवि शृंगारादि वर्णन किए, तहाँ उनका प्रयोजन रागादिक करावने का तो है नाहीं, धर्मविर्षे लगावने का प्रयोजन है। पर कोई पापी धर्म न करै पर रागादिक ही बधा, तो श्रीगुरु का कहा दोप है ?
बहुरि जो तु कहै - जो रागादिवाका निमिन होग, मो कथन ही न करना था।
ताका उत्तर यह है - सरागी जीवनि का मन केवल बैराग्य कथन विर्षे लाग नाहीं । तातें जैसे बालकको पतासा के ग्राश्रय औषधि दीजिए, तैसें सरागीको भोगादि कथन के अाश्रय धर्मविर्षे मनि कराइए है।
वहुरि तु कहेगा -- ऐसे हैं तो विरागी पुरुपनिकौं तो ऐसे ग्रंथनिका अभ्यास करना युक्त नाहीं ।
ताका उत्तर बहु है - जिनकै अन्तरंग विषं रामभाव नाही, तिनके शृंगारादि कथन सुनें रागादि उपजे ही नाहीं । यहु जाने से ही यहाँ कथन करने की पद्धति है ।
वहुरि तू कहेगा - जिनकै शृंगादि कथन सुने रागादि होय आवं, तिनकौं तौ वैसा कथन सुनना योग्य नाहीं ।
ताका उत्तर यह है- जहाँ धर्म ही का तौ प्रयोजन पर जहाँ-तहां धर्मको पोषं ऐसे जैन पुराणादिक तिनविर्षे प्रसंग पाय शृंगारादिक का कथन किया, ताकौं सुनै भी जो बहुत रागी भया तो वह अन्यत्र कहाँ
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२४०
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व विरागी होसी, पुराण सुनना छोड़ि और कार्य भी ऐसा ही करेगा जहाँ बहुत रागादि होय । तातै बाकै भी पुराण सुने थोरी बहुत धर्मबुद्धि होय तो होय । और कार्यनितं यह कार्य भला ही है। ___ बहुरि कोई कहे - प्रथमानुयोग विर्षे अन्य जीवनि की कहानी है, तातें अपना कहा प्रयोजन सधै है ?
ताकों कहिए है - जैसे कामोपुरुपनि की कथा सुनें आपके भी काम का प्रेम बर्थ है, तैसें धर्मात्मा पुरुषनिकी कथा सुनें आपकै धर्मकी प्रीति विशेष हो है । तातै प्रथमानूयोग का अभ्यास करना योग्य है।"
उनका मोक्षमार्ग प्रकाशक आध्यात्मिक चिकित्सा शास्त्र है। इसमें उन्होंने आध्यात्मिक रोग मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि एवं एटका निदान लिया है तणा को दूर करने की चिकित्सा पद्धति का वर्णन किया है । आध्यात्मिक विकारों से बचने के उपाय का नाम ही मोक्षमार्ग है, और इस ग्रंथ में उसी पर प्रकाश डाला गया है । उन्होंने इस पुरे ग्रंथ में वैद्य का रूपक बाँधा है। यहाँ लेखक स्वयं वैद्य है। किसी रोगी की चिकित्सा करने में जो पद्धति एक चतुर वैद्य अपनाता है, वही शैली लेखक ने इम ग्रंथ में अपनाई है। उन्होंने लिखा है :
"तहाँ जैसे वैद्य है सौ रोगसहित मनुष्यों प्रथम तो रोग का निदान बतावै, ऐसे यह रोग भया है। बहुरि उस रोग के निमिलते याक जो-जो अवस्था होती होय सो बतावै, ताकरि वाकै निश्चय होय जो मेरे ऐसे ही रोग है । बहुरि तिस रोग के दुरि करने का उपाय अनेक प्रकार बतावै अर तिस उपाय की ताकौ प्रतीति अनाव। इतना ती वैद्य का बतावना है। बहुरि जो वह रोगी ताका साधन करे तो रोगतै मुक्त होई अपना स्वभावरूप प्रवत । सो यहु रोगी का कर्तव्य है । तैसें ही इहाँ कर्मबन्धन युक्त जीवकौं प्रथम तो कर्मबन्धन का निदान बताइए है, ऐसे यह कर्मबन्धन भया है। बहरि उस कर्मबन्धन के निमित्तते याकै जो-जो अवस्था होती होय सो-सो बताइए हैं।
१ मो. मा० प्र०, ४२४-४२६
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गद्य शैली
२४१
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ताकरि जीवक निश्चय होय जो मेरे ऐसे ही कर्मबन्धन है। बहुरि तिस कर्मबन्धन के दूरि होने का उपाय अनेक प्रकार बताइए है पर तिस उपाय की याको प्रतीति अनाइये है, इतना तो शास्त्र का उपदेश है । बहुरि यहु जीव ताका साधन कर तो कर्मबन्धनतें मुक्त होय अपना स्वभावरूप प्रवर्ते, सो यह जीव का कर्तव्य है। सो इहाँ प्रथम ही कर्मबन्धन का निदान बताइये है।"
"बहुरि जैसे वैद्य है सो रोग का निदान अर ताकी अवस्था का वर्णन करि रोगी कौं रोग का निश्चय कराय पीछे तिसका इलाज करने की रुचि करावे है, तैसें यहाँ संसार का निदान वा ताकी अवस्था का बर्णन करि संसारीकौं संसार रोग का निश्चय कराय अब तिनिका उपाय करने की रुचि कराईए है। जैसे रोगी रोगते दुःखी होय रह्या है परन्तु ताका मूल कारण जाने नाही, साँचा उपाय जाने नाहीं पर दुःख भी सह्या जाय नाहीं। तब आपको भास सो ही उपाय कर तातें दुःख दूरि होय नाहीं। तब तड़फि-तड़फि परवश हवा तिन दुःखनिकों सहै है परन्तु ताका मूल कारण जाने नाहीं । याकौं देद्य दुःख का मूल कारण बतावे, दुःखका स्वरूप बतावै, याके किये उपायनिक झंठ दिखावै तब साँचे उपाय करने की रुचि होय । तैसेंही यह संसारी संसारतें दुःखी होय रहा है परन्तु ताका मूल कारण जान नाहीं, पर सांचा उपाय जान नाहीं भर दुःख भी सस्या जाय नाहीं। तब प्रापकौं भासे सो ही उपाय करे तातै दुःख दूरि होय नाहीं। तब तड़फि-तड़फि परवश हुवा तिन दुःखनिकी सहै है । यार्को यहाँ दुःखका मूल कारण बताइए है, दुःखका स्वरूप बताइए है अर तिन उपायनिकू झूठे दिखाइए तो साँचे उपाय करने की रुचि होय, तातें यह वर्णन इहाँ करिये है।"
पंडितजी अपने विचार पाठक या श्रोता पर लादना पसंद नहीं करते हैं । जैसे वैद्य रोगी को अपने विश्वास में लेता है, उससे पूछता है
. मो. मा० प्र०, ३१-३२ २ वही, ६५-६१
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२४२
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तव कि मैंने जो स्थिति तुम्हारे रोग की बताई, क्या तुम अनुभव करते हो कि वह सत्य है ? रोगी के स्वीकारात्मक उत्तर देने पर व संतोष प्रगट करने पर उसे अपने द्वारा बताई गई चिकित्सा करने की सलाह देता है। उसी प्रकार जितनी भी अपने पाटक से पूछते हैं :
"हे भव्य ! हे भाई ! जो तो संसार के दुःख दिखाए, ते तुझ विर्ष बीते हैं कि नाहीं सो विचारि । अर तू उपाय करै है ते झूठे दिखाए सो ऐसे ही हैं कि नाहीं सो बिचारि । अर सिद्धपद पाए सुख होय कि नाहीं सो विचारि । जो तेरे प्रतीति जैसे कही है तैसे ही आवै तौ तूं संसारतें छूटि सिद्धपद पावने का हम उपाय कहें हैं सो करि, विलम्ब मति करै । इह उपाय किए तेरा कल्याण होगा।"
यहाँ बे मात्र पूछते ही नहीं प्रत्युत सलाह भी देते हैं कि देर मत कर, उपाय शीघ्र कर, रोग खतरनाक है और समय थोड़ा। जिसजिस प्रकार वैद्य कुपथ्य सेवन न करने के लिए सावधान करता है और साथ ही यह भी बताता है कि क्या-क्या कुपथ्य हैं, वैसे ही लेखक ने अनेक प्रकार के कुपथ्यों का वर्णन कर उनसे बचने के प्रति सावधान भी किया है। इस प्रकार 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' रूपक के रूप में लिखा गया है । औषधि सम्बन्धी उदाहरणों का बहुत और बारीकी से प्रयोग ग्रन्थ में यत्र-तत्र मिलता है। इससे मालूम होता है कि लेखक को औषधि-विज्ञान एवं चिकित्सा पद्धति का भी पर्याप्त ज्ञान और अनुभव था ।
उनकी शैली में समुचित तर्कों को सर्वत्र यथायोग्य स्थान प्राप्त है। वे किसी बात को मात्र कह देने में विश्वास नहीं करते हैं किन्तु वे उसे तर्क की कसौटी पर कसते हैं। वे स्वयं भी कोई बात बिना तर्क की कसौटी पर कसे स्वीकार नहीं करते । ये जिनाज्ञा को भी बिना परीक्षा किए मानने को तैयार नहीं । वे स्पष्ट करते हैं :
"तातें परीक्षा करि जिन वचननिकौं सत्यपनो पहिचानि
+ मो० मा० प्र०, १०८
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गच्च शैली
२४३ जिन प्राज्ञा माननी योग्य है । बिना परीक्षा किए सत्य असत्य का निर्णय कैसे होय'।"
वे परीक्षा प्रधानी व्यक्ति थे। यही कारण है कि उनकी शैली में तर्क-वितर्क को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वे बहुत सी शास्त्रीय गुस्थियां अपने अनुभूतिमूलक तर्कों से सुलझाते हैं। इस पार्ष वाक्य का कि 'तप आदि का क्लेश करो तो करो, ज्ञान बिना सिद्धि नहीं' - उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि उक्त कथन उनके लिए है जो बिना तत्त्वज्ञान के केवल तप को ही मोक्ष का कारण मान लेते हैं । तत्वज्ञानपूर्वक तप करने के विरोध का तो प्रश्न ही नहीं है, अपनी शक्ति अनुसार तप करना अच्छा ही है। बिना समझे और शक्ति के प्रतिज्ञा लेने के ये विरुद्ध हैं, पर वे यह भी पसंद नहीं करते कि लोग शक्ति मौर समझ का बहाना बना कर या प्रतिज्ञा भंग होने के भय का बहाना बना कर स्वच्छन्द प्रवृत्ति करें। वे यह भी नहीं चाहते कि लोग प्रतिज्ञा ले लें, फिर भंग कर दें, उसे खेल बना लें। ऐसे उलझन भरे प्रसंगों में वे बहुत ही संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हैं एवं वस्तुस्थिति स्पष्ट करने के लिए बड़े ही मनोवैज्ञानिक तर्क व उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । इस सम्बन्ध में उनका कहना है कि अपनी निर्वाह-क्षमता को देख कर प्रतिज्ञा लेनी चाहिए, किन्तु इस भय से प्रतिज्ञा न लेना कि टूट जायगी तो पाप लगेगा वैसा ही है, जैसा यह सोच कर भोजन नहीं करना कि भोजन करने से कहीं अजीर्ण न हो जाय । ऐसा सोचने वाला मृत्यु को ही प्राप्त होगा। वे दूसरा तर्क देते हैं - यद्यपि कार्य प्रारब्ध के अनुसार ही होता है, फिर भी लौकिक कार्यों में मनुष्य बराबर प्रयत्न करता है, उसी प्रकार यहाँ भी उद्यम करना चाहिए । तीसरे तर्क में उसे निरुत्तर करते हुए कहते हैं कि जब तेरी दशा प्रतिमावत् हो जायगी तब हम प्रारब्ध ही मानेगे । वे निष्कर्ष देते हैं:___"तात काहेकौं स्वच्छन्द होनें की युक्ति बनाव है । बनें सौ प्रतिज्ञा करि व्रत धारना योग्य ही है।"
' मो० मा प्र०, ३१६ २ वहीं, ३००
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२४४
पंडित टोडरमल : व्यक्तिरव और कर्तृत्व गद्य शैली में पंडितजी के व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप है। वे अपने अदम्य विश्वास एवं प्रखर पाण्डित्य के साथ सर्वत्र प्रतिबिंबित हैं। समाधानकर्ता भी वे ही हैं और शंकाकार भी; पर समाधानकर्ता सर्वत्र उत्तम पुरुष में विद्यमान है जबकि शंकाकार कहीं मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष भी हो जाता है। 'इहाँ प्रश्न' के रूप में जहाँ वह उत्तम पुरुष में व्यक्त हुआ है वहीं 'तू कहे' या 'तुम कहो' में मध्यम पुरुष एवं 'कोई कहे' में अन्य पुरुष के रूप में आता है। शंकाकार विनयशील है, पर है मुखर । समाधानकर्ता का व्यक्तित्व सर्वत्र दबंग है। कहीं वह करुणा से द्रवित होकर मृदुल सम्बोधन करने लगता है तो कहीं शिष्य की वाचालता पर उसे फटकार भी देता है। एक अच्छे अध्यापक के सर्व मुण पूर्ण रूप से उसमें विद्यमान हैं। नीचे उसके विभिन्न रूपों की कुछ झाँकियाँ प्रस्तुत हैं :
(१) "हे भव्य ! हे भाई ! जो तो संसार के दुःख दिखाए, वे तुझ विर्षे बीते हैं कि नाहीं सो विचारि ।..... तो तं संसारत इटि सिद्धपद पावने का हम उपाय कह हैं सो करि, विलम्ब मति करै । इह उपाय किए तेरा कल्याण होगा' ।"
(२) "अर तत्त्व निर्णय न करने वि* कोई कर्म का दोष है नाहीं, तेरा ही दोष है । पर तू पाप तो महन्त रह्या चाहै पर अपना दोष कर्मादिककै लगावै, सो जिन आज्ञा मानें तो ऐसी अनीति संभव नाहीं। तोकौं विषयकषायरूप ही रहना है, तातै झूठ बोल है। मोक्ष की सांची अभिलाषा होय तो ऐसी युक्ति काहेकी बनावै । सांसारिक कार्यनि विर्षे अपना पुरुषार्थतें सिद्धि न होती जाने तो भी पुरुषार्थ करि उद्यम किया करे, यहाँ पुरुषार्थ खोय बैठे ।"
(३) "बहुरि हम पूछे हैं --ब्रतादिकको छोड़ि कहा करेगा ? जो हिंसादि रूप प्रवत्तैगाती तहाँ तो मोक्षमार्ग का उपचार भी संभवनाहीं।
' मो० मा० प्र०, १०८ २ वही, ४५८ .
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२४
गय शैली तहाँ प्रवर्त्तनेते कहा भला होयगा, नरकादिक पावेगा । तातें ऐसे करमा तो निर्विचारपना है।"
(४) "जो ऐसा श्रद्वान है, तो सर्वत्र कोई ही कार्य का उद्यम मति करै। तू खान-पान व्यापारादिक का तो उद्यम कर, अर यहाँ होनहार बतावै । सो जानिए है, तेरा अनुराग यहाँ नाहीं। मानादिक करि ऐसी झूठी बातें बना है।"
(५) "बहुरि जैसे बड़े दरिद्रीको अवलोकनमात्र चिन्तामणि को प्राप्ति होय अर वह न अवलोक, बहुरि जैसे कोढ़ीकू अमृत पान करावे अर वह न करे, तैसे संसारपीडित जीवकौं सुगम मोक्षमार्ग के उपदेश का निमित्त बने पर वह अभ्यास न करे तो बाके अभाग्य की महिमा हमत तो होई सके नाहीं । वाँका होनहारहीको विचार अपने समता पावै ।"
(६) "सो हे भव्य हो ! किचिन्मात्र लोभत वा भयतें कुदेवादिक का सेवन करि जातें अनन्त काल पर्यंत महादुःख सहना होय ऐसा मिथ्यात्वभाव करना योग्य नाहीं। जिनधर्म विष यह तो
आम्नाय है, पहले बड़ा पाप छुड़ाय पीछे छोटा पाप छुड़ाया। सो इस मिथ्यात्वको सप्तव्यसनादिकतें भी बड़ा पाप जानि पहले छुड़ाया है । साते जो पापके फल' से डर हैं, अपने प्रात्मा को दुःखसमुद्र में न डुबाया चाहें हैं, ते जीव इस मिथ्यात्व कौं अवश्य छोड़ो। निदा प्रशंसादिक के विचार तें शिथिल होना योग्य नाहीं ।"
(७) "हे स्थुलबुद्धि ! से प्रतादिक शुभ भाव कहै ते करने योग्य ही हैं, परन्तु ते सर्व सम्यक्त्व बिना ऐसे हैं जैसे अंक बिना बिन्दी। अर जीवादि का स्वरूप जानें बिना सम्यक्त्व का होना ऐसा है, जैसा
५ मो० मा० प्र०, ३७३ २ बही, २६० 3 बही, २९-३०
वही, २८१-२८२
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२४६
पंडित टोरमस : व्यक्तिरण और कर्तृत्व बांझ का पुत्र । तातें जीवाविक जानने के अथि इस शास्त्र का अभ्यास अवश्य करना।"
(८) "हे सूक्ष्माभासबुद्धि ! तें कह्या सो सत्य, परन्तु अपनी अवस्था देखनी । जो स्वरूपानुभव विष वा भेदविज्ञान विर्षे उपयोग निरंतर रहै तो काहै कौं अन्य विकल्प करने। तहाँ ही स्वरूपानंद सुधारस का स्वादी होइ सन्तुष्ट होना । परन्तु नीचली अवस्था विर्षे तहाँ निरन्तर उपयोग रहै नाहीं, उपयोग अनेक अवलंबनि को चाहै है। तातें जिस काल तहाँ उपयोग न लागे तब गुणस्थानादि विशेष जानने का अभ्यास करना ।"
(E) "सौ हे भव्य हो ! शास्त्राभ्यास के अनेक अंग हैं। शब्द बा अर्थ का बाँचना या सीखना, सिखावना. उपदेश देना, विचारना, सुनना, प्रश्न करना, समाधान जानना, बारंबार चरचा करना, इत्यादि अनेक अंग हैं। तहाँ जैसे बने तैसें अभ्यास करना । जो सर्व शास्त्र का अभ्यास न बने तो इस शास्त्र विर्षे सुगम वा दुर्गम अनेक अर्थनि का निरूपण है, तहाँ जिसका बने तिसही का अभ्यास करना, परन्तु अभ्यास विर्षे प्रालसी न होना' ।"
पंडित टोडरमल का श्रोता या शंकाकार भी कम पंडित नहीं है । वह बुद्धिमान, जिज्ञासु एवं बहुशास्त्रविद् है । मात्र उसमें एक कमजोरी है कि वह यथाप्रसंग सही अर्थ नहीं समझ पाता है । पंडित टोडरमल की शैली की यह विशेषता है कि उन्होंने अधिकांश प्रागम-प्रमाण शंकाकार के मुख में रखे हैं। उनका शंकाकार प्रायः प्रत्येक शंका मार्षवाक्य प्रस्तुत करके सामने रखता है और समाधानकर्ता आर्षवाक्यों का अपेक्षाकृत कम प्रयोग करता है, वह अनुभूतिजन्य थुक्तियों और उदाहरणों द्वारा उसकी जिज्ञासा शान्त करता है । शंकाकार उद्दण्ड नहीं है, पर वह कोई भी बात कहने से चूकता भी
' स. चं. पी०,७ २ बही, १० ३ वही, १६
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नख शैली
नहीं है, वह अपनी बात अपनी मर्यादा में रह कर चतुराई से कह देता है। फटकार और दुतकार मिलने पर भी अखाड़ा छोड़ता नहीं है, किन्तु जिज्ञासा भाव से वस्तु को समझने का बराबर प्रयत्न करता रहता है । शंकाकार द्वारा शंका प्रस्तुत करने के कुछ नमूने नीचे दिये जा रहे हैं :
(१) "बहुरि वह कहै है-शास्त्रविर्षे ऐसा कह्या है - तप आदि का क्लेश कर है तो करौ, शान बिना सिद्धि नाहीं।"
(२) "बहुरि वह कहै है - शास्त्रविर्षे शुभ-अशुभको समान कह्या है, तातें हमको तो विशेष जानना युक्त नाहीं ।"
(३) "बहुरि वह कहै है – गोम्मटसारविर्षे ऐसा कह्या हैसम्यग्दृष्टि जीव अज्ञानी गुरु के निमित्त से झूठ भी श्रद्धान कर तो प्राज्ञा माननेते सम्यग्दृष्टि ही होय है । सौ यह कथन कैसे किया है।"
(४) "यहाँ कहेगा- जो ऐसे है, तो हम उपवासादि न करेंगे।"
(५) "इहाँ प्रश्न - जो मोक्ष का उपाय काललब्धि पाए भवितव्यानुसारि बने है कि मोहादि का उपशमादि भए बनें है अथवा अपने पुरुषार्थतें उद्यम किए बने है, सौ कही ? जो पहिले दोय कारण मिले बनें है, तो हमको उपदेश काहेकौं दीजिए है अर पुरुपार्थते बनें है, तो उपदेश तो सर्व सुनें, तिन विर्षे कोई उपाय कर सके, कोई न कर सके, सो कारण कहा ?"
(६) "यहाँ कोऊ कहै - ऐसें है तो मुनिलिय धारि किर्चित परिग्रह राखे, सो भी निगोद जाय - ऐसा षट्पाहुड़े विषं कैसे कहा है?"
' मो० मा० प्र०, २६८ २ वहीं, ३०१ . वही, ३१६
३४० " वही, ४५५ ३ वहीं, ४४..
४ वही,
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२४॥
पंजित टोडरमल : व्यक्तिस्व और कर्तृत्व (७) "यहाँ कोई प्रश्न कर -- जहाँ अन्य-अन्य प्रकार न संभव, तहाँ तो स्याद्वाद संभवै । बहुरि एक ही प्रकार करि शास्त्रनि विर्षे परस्पर विरुद्ध भास तहाँ कहा करिए ? जैसे प्रथमानुयोग विर्षे एक तीर्थसार की साथि हजारौं पुस्ति गए सार। करणानुयोग विर्षे छह महिना आठ समय वि छहस पाठ जीब मुक्ति जांय - ऐसा नियम किया । प्रथमानुयोग विषं ऐसा कथन किया -देव-देवांगना उपजि पीछे मरि साथ ही मनुष्यादि पर्याय विर्षे उपजै । करणानयोग विर्षे देव का सागरौं प्रमाण, देवांगना का पल्यों प्रमाण आयु कहा। इत्यादि विधि कैसे मिले" ?
(८) "बहरि अर्थ का पक्षपाती कहैं है कि - इस शास्त्र का अभ्यास कीए कहा है ? सर्व कार्य धनतें बने हैं। धन करि ही प्रभावना आदि धर्म निपज हैं । धनवान के निकट अनेक पंडित आय प्राप्त हों हैं। अन्य भी सर्व कार्य सिद्धि होई । तातें धन उपजाबने का उद्यम करना ।"
(E) "बहुरि काम भोगादिक का पक्षपाती बोल है कि - शास्त्राम्यास करने विर्षे सुख नाहीं, बड़ाई नाहीं। तातै जिन करि इहाँ ही सुख उपज ऐसे जे स्त्री सेवना, खाना, पहिरना इत्यादि विषयसूख तिनका सेवन करिए अथवा जिन करि इहाँ ही बड़ाई होई, ऐसे विवाहादिक कार्य करिए ।"
जहाँ वे किसी बात से असहमत होते हैं वहीं शंकाकार के सामने प्रश्नों की बौछार करने लगते हैं। एक के बाद एक तर्क क्रमबद्ध रूप से उसके सामने प्रस्तुत करते चले जाते हैं और उसे बच निकलने का कोई रास्ता नहीं छोड़ते हैं। जैसे सर्वव्यापी ब्रह्म के स्वरूप पर विचार करते हुए निम्नलिखित शैली अपनाते हैं :
"इहां कौऊ कह कि समस्त पदार्थनिके मध्यविष सूक्ष्मभूत ब्रह्म के अंग हैं तिनकरि सर्व जुरि रहे हैं ताकौं कहिए हैं:
मो. मा०प्र०, ४४४ २ स. २० पी०, १३ 3 बही, १४
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गाशैली
२४६ जो अंग जिस अंगतै जुरया है, तिसही तै जुरघा रहै है कि दुटि टूटिं अन्य अन्य अंगनिस्यौं जुरघा कर है । जो प्रथम पक्ष ग्रहेगा तो सूर्यादि गमन करे हैं, तिनिकी साथि जिन मुक्ष्म अंगनितें वह जुर है ते भी गमन करें । बहुरि उनको गमन करते वे सूक्ष्म अंग अन्य स्थूल अंगनित जुरे रहैं, बे भी गमन करें हैं सो ऐसे सर्व लोक अस्थिर होइ जाय । जैसे शरीर का एक अंग खीचें सर्व अंग स्वींचें जाय, तैसें एक पदार्थकों गमनादि करते सर्व पदार्थनि का गमनादि होय, सो भास नाहीं । बहुरि जो द्वितीय पक्ष ग्रहेगा, तो अंग टूटने से भिन्नपना होय ही जाय तब एकत्वपना कैसै रह्या ? तातें सर्वलोक का एकत्व कौं ब्रह्म मानना कैसे संभवै ? बहुरि एक प्रकार यह है जो पहले एक था, पीछे अनेक भयाबहार एक ही जाय तात एक है । जैसे जल एक था सो वासणानिमैं जुदा-जुदा भया बहुरि मिल तब एक होय । वा जैसे सोना का गदा एक था सो कंकरा-कुण्डलादि रूप भया बहरि मिलकरि सोना का गदा होय जाय । तैसे ब्रह्म एक था, पीछे अनेक रूप भया बहुरि एक होयगा तातें एक ही है । इस प्रकार एकत्व माने है तो जब अनेक रूप भया तव जयथा रह्मा कि भिन्न भया । जो जुरया कहेगा तो पूर्वोक्त दोष प्रावैगा | भिन्न भया कहेगा तो तिस काल तो एकत्व न रहा । बहरि जब सूवर्णादिककी भिन्न भा भी एक कहिए है सो तो एक जाति अपेक्षा कहिए है । सो सर्व पदार्थनि की एक जाति भासे नाहीं । कोऊ चेतन है, कोऊ अचेतन है, इत्यादि अनेकरूप हैं, तिनकी एक जाति कैसे कहिए ? बहुरि पहिले एक था पोछे भिन्न भया माने है, तो जैसे एक पाषारादि फूटि टुकड़े होय जाय हैं तैसे ब्रह्मके खण्ड होय गए, बहुरि तिनका इकट्ठा होना माने है तो वहाँ तिनिका स्वरूप भिन्न रहे है कि एक होइ जाय है। जो भिन्न रहे है तो तहाँ अपने-अपने स्वरूप करि भिन्न ही है पर एक होइ जाय है तो जड़ भी वेतन होइ जाय वा चेतन जड़ होइ जाय । तहाँ अनेक वस्तुनिका एक वस्तु भया तब काहू कालविर्षे अनेक वस्तु, काहू कालविर्षे एकवस्तु ऐसा कहना बनें । अनादि अनन्त एक ब्रह्म है ऐसा कहना बने नाहीं ।"
' मो० मा०प्र०, १४०-१४१
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२५०
पंक्ति टोडरमल : ग्यक्तिरष मोर कर्तृत्व उनका साहित्य उदाहरणों का एक विशाल भण्डार है। परम्परागत उदाहरणों की अपेक्षा उन्होंने उदाहरणों का चुनाव दैनिक जीवन एवं प्रकृति से किया है। मानव जीवन, पशु-पक्षी एवं प्रकृति से चुने गए उदाहरणों से उनका सूक्ष्म निरीक्षण एवं विशाल व्यवहारिक ज्ञान प्रस्फुटित हुआ है। परिणक कुल में उत्पन्न होने एवं व्यारारिक सम्पर्क से उनके साहित्य में व्यापार सम्बन्धी उदाहरण भी पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। वैद्यक सम्बन्धी उदाहरण भी विपुल मात्रा में मिलते हैं । उदाहरणों के लिए उदाहरण कहीं भी नहीं पाए, वरन् विषय को स्पष्ट करने की दृष्टि से सहज प्रवाह में आए हैं। बे विषय के साथ घुलमिल गए हैं, अलग-अलग प्रतीत नहीं होते । उनके कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं :-- औषधि विज्ञान से सम्बन्धित उदाहरण
सिद्धान्त (१) जैसे वैद्य सब से पहिले (१) उसी प्रकार मोक्षमार्ग रोग का निदान करता है, रोग प्रकाशक में पहले संसार रोग का के लक्षण बताता है, रोगी को निदान व दुःख के लक्षण बता विश्वास में लेकर रोग की कर संसारी जीव को विश्वास में चिकित्सा करने की प्रेरणा लेकर दुःख दूर करने की प्रेरणा देता है एवं दवा और पथ्य का देते हुए ग्रहण-त्यागरूप उपाय निर्देश करता है।
बताया गया है। (२) जैसे वैध रोग दूर करना। (२) उसी प्रकार श्री गुरु रागादि चाहता है । अत: शीत सम्बन्धी छुड़ाना चाहते हैं। अतः जो रोग हो तो उष्ण औषधि देता है। रागादि को पर जान कर और प्राताप संबंधी रोग हो तो स्वच्छन्द हो जाते हैं, उनसे कहा शीत औषधि देता है।
जाता है तेरे ही हैं; और जो उन्हें अपना मान कर छोड़ना नहीं चाहते, उनसे कहा जाता है कि
१ मो० मा० प्र०, ३१,६५,१०९, १३७
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दिगम्बर जैन गुप्रकमण्डका वाटेल hb
गद्य शैली
( ३ ) रोग तो बुरा ही है पर अधिक की अपेक्षा कम रोग हो तो अब अच्छा है - यह भी कह देते हैं ।
(४) जैसे दाह् ज्वर बाला वायु होने के भय से शीतल वस्तु का त्याग करे, पर जब तक शीतल वस्तु रुचे तब तक दाह ज्वर गया नहीं जानना चाहिए |
(५) रोग तो शीतांग भी है और ज्वर भी, पर शीतांग से मरना जाने तो उसे ज्वर कराने का उपाय किया जाता है । बाद में ज्वर भी ठीक किया जाता है ।
(६) किसी को विषम ज्वर हो तो कभी तकलीफ अधिक होती है, कभी कम कम होने पर लोग कहते हैं कि अब ठीक है, पर जब तक रोग गया नहीं तब तक ठीक कैसा ?
१ मो० मा० प्र०, २८०
वही, ३०१
वही, ३६२-६३
४ वहीं, ४१२ ५ बही, ४५३
२५१
कर्म के निमित्त से हुए हैं, अतः कर्म के हैं" ।
(३) उसी प्रकार राग भाव तो बुरा ही है किन्तु अशुभ राग की अपेक्षा शुभ राम को भला भी कह देते हैं।
(४) उसी प्रकार कोई नरकादि के भय से विषय - सेवन का त्याग कर दे किन्तु जब तक विषय-सेवन रुचे तब तक वह वास्तविक त्यागी नहीं है ।
(५) उसी प्रकार कषाय तो सब बुरी ही हैं, किन्तु पाप कषायरूप महाकपाय छुड़ाने के लिए पुण्य कषायरूप अल्पकषाय कराई जाती है । बाद में उसे भी छुड़ाया जाता हैं । (६) वैसे ही जब तक जीव मोही है तब तक दुःखी है, कभी अधिक और कभी कम । कम दुःखके काल में अच्छा
भी कहा जाता है, पर है वह दुःखी ही ।
보
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२५२
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व (७) कोई रोगी यदि निर्गुण (७) उसी प्रकार कोई व्यक्ति औषधि का निषेध सुन कर पुण्यरूप धर्म का निषेध सुन कर औषधि सेवन छोड़ कुपथ्य सेवन । धर्मसाधन छोड़ दे और विषयों करेगा तो मृत्यू को प्राप्त होगा, में लग जाय तो वह नरकादि में उसमें वैद्य का तो दोष नहीं है। दुःखी होगा, इसमें उपदेशक का
तो दोष नहीं है। (८) यदि गधा मिश्री खाने से (८) उसी प्रकार विपरीत-बुद्धि मर जावे तो मनुष्य तो मिश्री अध्यात्मग्रंथ सुन कर स्वच्छन्द खाना न छोड़े।
हो जावे तो विवेको अध्यात्मग्रंथ
का अभ्यास क्यों छोड़ेर ? (६) अति शीतांग रोग वाले (६) उसी प्रकार किसी एक को अति उष्ण रसादिक औषधि ओर अधिक झुके हुए व्यक्ति के दी जाती है । यदि दाह वाले को संतुलन को ठीक करने के लिए या साधारण शीत वाले को वह उसके निषेध का उपदेश दिया उष्ण औषधि दे दी जावे तो जाता है । यदि सामान्य जन अनर्थ ही होगा।
उसे ग्रहण कर उक्त कार्य छोड़ दें तो बुरा ही होगा। जैसे दिनरात शास्त्राभ्यास में लगे हुए व्यक्ति को कहा जावे कि प्रात्मानुभव के बिना कोरा शास्त्राभ्यास निरर्थक है। इसे सुन कर कम शास्त्राभ्यास करने वाले या शास्त्राभ्यास नहीं करने वाले शास्त्राभ्यास से विमुख हो जावें तो बुरा ही होगा।
' मो० मा०प्र०, ३१३-१४ ५ वही, ४२६ ३ वही, ४४२
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गध शैली
२५३
(१०) जैसे पाकादि औषधि (१०) उसी प्रकार उच्च धर्म गुणकारी ही है पर ज्वर वाला। बहुत अच्छा है किन्तु जब तक खावे तो हानि ही करेगी। विकार दूर न हो और धारण
करे तो अनर्थ ही होगा, जैसे भोजनादि विषयों में आसक्त रहे और प्रारंभत्यागी हो जावे
तो अनर्थ ही करेगा। व्यापार सम्बन्धी उदाहरण उदाहरण
सिद्धान्त (१) जैसे स्वयंसिद्ध मोतियों (१) उसी प्रकार लेखकगरण से गहना बनाने वाले अपनी स्वयंसिद्ध अक्षरों को अपनी इच्छानुसार विभिन्न प्रकार से इच्छानुसार विभिन्न प्रकार गूंथ मोती गूंथ कर विभिन्न प्रकार के कर विभिन्न प्रकार के ग्रंथ गहने बनाते हैं।
वनाते हैं । (२) जैसे शक्तिहीन, लोभी, (२) उसी प्रकार ईश्वरवादी झूठा वैध यदि रोगी को पाराम यदि भला हो तो ईश्वर का हो तो अपना किया बताता है किया मानता है और बुरा और यदि बुरा हो या मरण हो हो तो अपने कर्मों का फल जाय तो होनहार पर टालता है। कहता है ! (३) कमाने की मंद इच्छा (३) उसी प्रकार मुनि पाहार रखने वाला व्यापारी भी बाजार को निकलते हैं, भोजन की मंद में बैठता है, कमाने की इच्छा इच्छा भी है, पर किसी से भी रखता है, पर किसी से प्रार्थना नहीं करते। सहज ही याचना नहीं करता । यदि नाहक उनकी विधि अनुसार आहार
..
मो० मा० प्र०, ४४२ २ वही, १४,१५-१६
३ वही, १५६
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२५४
पंडित दोहरमल : व्यक्तित्व और कस्थि अपने आप सहज आता है तो मिले तो करते हैं, अन्यथा व्यापार करता है, अन्यथा नहीं। नहीं'। (४) कोई भी व्यक्ति धन (४) उसी प्रकार ज्ञानी थोड़ी खर्च करना नहीं चाहता, पर भी कषाय नहीं करना चाहता, सम्पूर्ण जाता देखे तो थोड़ा पर पापरूप महाकषाय होती देकर काम निकालने का उपाय । देखे तो उससे बचने के लिए करता है।
अल्प कषायरूप पुण्य कार्यों में
लगता है। (५) जैसे रोजनामचा (दैनिक (५) उसी प्रकार शास्त्रों में रोकड़) में अनेक रकमें जहाँ- अनेक प्रकार उपदेश दिया तहाँ लिखी रहती हैं, उन्हें खाते गया है। उसको सम्यग्ज्ञान में खताए बिना यह पता नहीं ( सही बुद्धि ) से सही-सही चलता कि किससे क्या लेना है पहिचाने तब हित-अहित का पता और किसका क्या देना है। चलता है, अन्यथा नहीं। (६) मुनीम सेठ का कार्य (६) उसी प्रकार ज्ञानी करता है, उसे अपना कहता है, कर्मोदय में शुभाशुभ भावरूप कार्य बनने बिगड़ने पर उसे परिणमित होता है, उन्हें अपने हर्ष-विषाद भी होता है, उस भी कहता है । पर अन्तर में उन्हें समय वह अपने और सेठ को भिन्न ही मानता है। यदि वह एक ही समझता है; पर अन्तर शरीराश्रित व्रत-संयम को अपना में सेठ और अपने भेद को अच्छी माने सो अज्ञानी ही काहा तरह जानता है । यदि सेठ के जायेगा । धन को अपना माने तो वह मुनीम नहीं, चोर कहा जाएगा। .
१ मो० मा० प्र०, २२७-२८ २ वही, ३०२ ३ वही, ४४८ * वही, ५०५ (रहस्यपूर्ण चिट्ठी)
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२५५
गद्य शैली (७) जैसे खोटा रुपया चलाने वाला उसमें कुछ चांदी भी डालता है।
(७) उसी प्रकार नकली साधु भी धर्म का कोई ऊंचा अंग ( क्रिया) रख कर अपनी उच्चता की धाक लोगों पर जमाए रखना चाहता है'।
मानव जीवन सम्बन्धी उदाहरण
उदाहरण (१) एक पड़ाव पर एक पागल रहता था। वहाँ बहुत यात्री आते थे। उनके साथ गाड़ी-घोड़े अादि धन-धान्यादि सामग्री भी होती। वह उन्हें अपनी मान कर प्रसन्न होता, पर वे जब जाने लगते तो दु.ली होता। (२) गाड़ी अपने आप चल रही है। बालक उसे धक्का देकर मानता है कि यह गाड़ी मेरे धकाने से चल रही है तथा जब । गाड़ी रुक जाती है तब बालक व्यर्थ में खेद-खिन्न होता है ।
सिवान्त (१) उसी प्रकार इस जीव के भवरूपी पड़ाव पर शरीर स्त्री पुत्रादि का संयोग हो गया है। यह उन्हें अपने मान कर प्रसन्न होता है और उनके वियोग में दुःखी । प्रतः पागल केशमा मालनी दी है ! (२) उसी प्रकार सारा जगत स्वयं परिणमनशील है, पर यह अज्ञानी समझता है कि मेरे द्वारा परिणमित हो रहा है। जब इसकी इच्छानुकुल परिणमन नहीं होता तब व्यर्थ ही दुःखी होता है। (३) उसी प्रकार पाप कर्म बाँधे और दुखी हो, फिर को को दोष दे तो मुर्ख ही माना जायगा।
(३) जसे कोई पत्थर से अपना सिर स्वयं फोड़े, फिर पत्थर को दोष दे तो मूर्ख ही है।
' मो० मा०प्र०, २६२-६३ २ बही, ७३ ३ वही, १२८ ४ वही, १३०
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२५६
( ४ ) स्वामी की आज्ञा से नौकर ने भला-बुरा किया । उसमें कोई नौकर से बैर बाँधे तो मूर्ख ही है ।
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(५) जैसे शीलवती स्त्री स्वेच्छा से परपुरुष के साथ पति के समान र मरण क्रिया कभी भी नहीं. करती है ।
( ६ ) जैसे कोई पुरुष स्वप्न में अपने को राजा हुआ देखे और प्रसन्न हो ।
(७) जैसे कोई बालक स्त्री का वेष धारण करके शृंगार रस का ऐसा गाना गावे कि सुनने वाले काम विकाररूप हो जानें किन्तु वह उसका भाव नहीं जानता है, श्रतः कामासक्त नहीं होता है ।
( - ) किसी व्यक्ति ने धर्म साधन के लिए मन्दिर बनाया किन्तु कोई पापी उसमें पापकर्म करे तो मन्दिर बनाने वाले का तो दोष नहीं है ।
१ मो० मा० प्र०, १३० वही, २७६
७ वही, ३०६ ४ चही, ३४८ ५ बद्दी, ४२५
पंडिस टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृस्थ
(४) उसी प्रकार इस जीव का कर्मों को दोष देना बेकार है, क्योंकि वे तो जीव के भावानुसार ही बँधे हैं'।
( ५ ) उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि सुगुरुवत् कुगुरु आदि को कभी भी नमस्कार आदि नहीं करते ।
( ६ ) वैसे ही निश्चयाभासी भ्रम से कल्पना में अपने को सिद्ध मान कर सन्तुष्ट होते हैं । (७) उसी प्रकार भावज्ञान से रहित उपदेशक ऐसा उपदेश देते हैं कि दूसरे आत्मरस के रसिक हो जाने पर स्वयं अनुभव नहीं करते हैं व जैसा लिखा है वैसा उपदेश दे देते हैं ।
I
( 5 ) उसी प्रकार आचार्यों ने धर्म में लगाने के लिए शास्त्रों की रचना की । यदि कोई उन्हें पढ़ कर ही विकाररूप परिरणमित हो तो इसमें श्राचार्यों का तो दोष नहीं है ।
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गद्य शैली
( ९ ) मनुष्य जैसे हाथ-पैर बंदर के नहीं होते ।
(१०) जैसे अंधा मिश्री के स्वाद का अनुभव करता है, उसके प्राकारादि को नहीं देख पाता है ।
पशु एवम् प्रकृति सम्बन्धी उदाहरण
उदाहरण
(१) सूर्योदय होने पर चकवा - arat अपने आप मिल जाते हैं और सूर्यास्त होने पर अपने श्राप बिछुड़ जाते हैं। उन्हें कोई मिलाता या बिछुड़ाता नहीं है ।
(२) जैसे कुत्ते को लाठो मारने पर कुत्ता लाठी मारने वाले की ओर न झपट कर लाठी पर झपटता है। असली शत्रु को नहीं पहिचानता ।
( ३ ) शास्त्रों में इस काल में भी हंसों का सद्भाव कहा है, किन्तु हंस दिखाई नहीं देते ती
१ मो० म० प्र०, ५०२ २] वहीं, ५१० ( रहस्यपूर्ण चिट्ठी)
३ वही, ३७
४ बही, ८३
२५७
( ६ ) उसी प्रकार ज्ञानी के समान अज्ञानी के सम्यक्त्व के अंग नहीं हो सकते' । (१०) उसी प्रकार क्षयोपशम ज्ञान वाले अज्ञानी श्रात्मा का अनुभव करते हैं, आत्मा के प्रदेशों को नहीं देखते हैं ।
सिद्धान्त
I
( १ ) उसी प्रकार रागादि भाव होने पर कर्म अपने श्राप बंध जाते हैं । कर्मोदय काल में जीव स्वयं त्रिकार करता है, उन्हें कोई परिणामाता या विकार नहीं कराता है । (२) उसी प्रकार अज्ञानी स्वयंकृत कर्मों के फल प्राप्त होने पर बाह्य पदार्थों पर रागद्वेष करता है । ग्रपने असली शत्रु मोह-राग-द्वेष को नहीं पहिचानता * ।
( ३ ) उसी प्रकार शास्त्रों में इस काल में भी साधुयों का सद्भाव कहा है, किन्तु सच्चे
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२५८
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व औरों को हम नहीं माना जा साध दिखाई न देखें तो पोरों सकता । जब तक हंस के गुरग को तो साधु नहीं माना जा न मिलें तब तक किसी पक्षी सकता । साधु के लक्षण मिलने को हंस नहीं माना जा सकता। पर ही किसी को साधु माना
जा सकता है, अन्यथा नहीं। (४) बीज बोए बिना खेत को (४) उसी प्रकार सच्चा तत्त्वकितना ही संभालो, अनाज पंदा ज्ञान हार बिना कितना ही नहीं होगा। .
व्रतादि करो, सम्यक्त्व नहीं
होगा। संगीत सम्बन्धी उदाहरण उदाहरण
सिद्धान्त (१) जैसे कोई व्यक्ति संगीत (१) उसी प्रकार कोई जीव सम्बन्धी शास्त्रों के आधार से प्रास्त्रों का अध्ययन कर जीवादि इसके स्वर, ग्राम, मूर्छना ब तत्त्वों के नामादि सीख ले किन्तु रागों के रूप, ताल, तान व उनके गही रूप को पहिचाने उनके भेदों को सीख लेता है नहीं । अतः बिना पहिचान परन्तु उनके स्वरूप को नहीं किसी तत्व को कोई तत्त्व मान पहिचानता। पहिचान बिना ले अथवा सही भी मान ले किसी स्वर को कुछ का कुछ मान पर बिना निर्णय के तो वह लेता है या राही भी मान लेता है सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर पर बिना निर्णय के तो वह सकता । चतुर गायक नहीं बन सकता।
पाठक की सचि-अरुचि एवं कठिनता-सरलता का ध्यान उन्होंने सर्वत्र रखा है । बे उतना ही लिखना चाहते हैं जितना पाठक ग्रहण कर सके और उसी प्रकार से लिखना चाहते हैं जिस प्रकार पाठक
। मो० मा० प्र०, २३५, २७२ २ यही, ३४४ । वहीं, ३२९
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गच शरी
२५६
समझ सके । इस बात का उल्लेख भी उन्होंने जहां आवश्यकता समझी, किया है । इसी बात को लक्ष्य में रख कर उन्होंने 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका' में संदृष्टियां यथास्थान न देकर अन्त में उनका एक पृथक अधिकार रखा है । इसके सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है :
"जो यह टीका मंदबुद्धीनि के ज्ञान होने के अथि करिए सौ या त्रि बीचि-बीचि संदृष्टि लिखने ते तिनकों कठिनता भासै तब अभ्यास से विमुख होई । तातै जिनको अर्थ मात्र ही प्रयोजन होई सौ अर्थ ही कर अभ्यास करौ अर जिनको संदृष्टिनिकौं भी जाननी होई ते संदृष्टि अधिकार विर्षे तिनका भी अभ्यास करी' ।" ।
बीच-बीच में लोक-प्रचलित एवं शास्त्रों में समागत् लोकोक्तियों का यथास्थान प्रयोग किया गया है। इससे विषय की स्पष्टता के साथ-साथ शैली में भी गतिशीलता पाई है। कुछ इस प्रकार हैं :
(१) मेरी माँ और नाँझ (२) जल का विलोबना (३) देह विर्षे देव है, देहुरा वि नाहीं (४) स्वभाव विर्षे तर्क नाहीं (५) बालक तोतला बोले तो बड़े तो न बोलें (६) झोल दिये बिना खोटा द्रव्य चाले नाही (७) विष ते जीवना कहे हैं, (८) कोड़ी के करण और कुंजर के मरण (६) टोटोड़ी की सी नाईं उबारै है (१०) हस्त चुगल का सा नाई (११) मिश्री को अमृत जान भखे तो अमृत का गृण तो न होय (१२) काकतालीय न्यायबत्
. स. चं०पी०,५०
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२६०
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
(१३) यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः (१४) पुत्रस्य गतिर्नास्ति
(१५) चारितं खलु धम्मो
(१६) हस्तामलकवत्
पंडित टोडरमल ने गद्य को अपने विचारों के प्रतिपादन का माध्यम उस समय चुना जब कि प्रमुख रूप से सब लोग पद्य में ही लिखते थे । ब्रज गद्य का रूप भी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में था । यद्यपि छुटपुट रूप में टोडरमलजी से कुछ समय पूर्व के पिंगल गद्य के रूप मिल जाते हैं किन्तु उनसे यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय गद्य विचारों के वाहन का मुख्य साधन बन चुका था। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने गद्य की समस्त विधानों से युक्त प्राचीन से प्राचीन गद्य ग्रंथ सन् १८०० ई० के बाद का ही होना उल्लिखित किया है', जबकि पंडित टोडरमल का खाकाल सन् १७२४ से १७६७ ई० (विक्रम संवत् १८११ - १८२४ ) है । यतः हिन्दी गद्य के निर्माण एवं रूपस्थिरीकरण में पंडित टोडरमल का प्रमुख योगदान रहा है। तत्कालीन गद्य की तुलना में पंडितजी का गद्य कहीं अधिक परिमार्जित, सशक्त, प्रवाहपूर्ण एवं सुव्यवस्थित है ।
4
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि उनकी गद्य शैली प्रश्नोत्तर शैली है, जिसमें दृष्टान्तों का प्रयोग मरिण-कांचन योग की शोभा बढ़ाने वाला है । आध्यात्मिक विषय के प्रतिपादक होने पर भी उनको गद्य शैली में उनके व्यक्तित्व की झलक है । उनकी शैली ऐसी प्रतिपादन शैली है, जिसमें वह प्रत्यक्ष रूप में उपदेशक बन कर नहीं आते। उनकी शैली में शास्त्रीय चिंतन और लोक व्यवहारज्ञान एवं अनुभूति और चिंतन का सुन्दर सामंजस्य है ।
हिन्दी साहित्य, ३६४-३६५
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T
G
षष्ठ अध्याय
भाषा
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भाषा
पंडित टोडरमल द्वारा प्रयुक्त भाषा के सम्बन्ध में विचार करते समय उसके दो रूप देखने को मिलते हैं :
(१) मौलिक लेखन की भाषा
(२) अनूदित ग्रन्थों की भाषा उन्होंने परम्परागत दार्शनिक और सैद्धान्तिक ग्रन्थों का हिन्दी भाषा में रूपान्तर किया जो अधिकतर प्राकृत और संस्कृत भाषा में हैं। इन मूल ग्रन्थों में से किन्हीं-किन्हीं पर संस्कृत टीकाएँ मिलती हैं । ये अनुवाद उन्हीं पर आधारित हैं। अनुवाद केबल अनुवाद ही नहीं अपितु उनमें अनुवाद के साथ मौलिक चिन्तन भी है, जिसमें वे एक स्वतंत्र विचारक के रूप में उभरते दिखाई देते हैं।
इन्हीं मौलिक विचारों और मान्यताओं को उन्होंने स्वतंत्र ग्रन्थों के रूप में ग्रंथित कर दिया है, जिन्हें हम उनकी मौलिक रचनाएँ मान सकते हैं। जहाँ तक अनुवाद की भाषा का प्रश्न है, उसके मूल भाषा पर आधारित होने से लेखक की मौलिक भाषा नहीं मानी जा सकती। अधिक से अधिक यही माना जा सत्रता है कि उन्होंने लोकप्रयुक्त भाषा में उसका अनुवाद किया है। त्रिलोकसार भाषादीका की भूमिका (पीठिका) के प्रारंभ में उन्होंने अपनी टीका की भाषा को लौकिक बोलचाल की भाषा बताया है। वे लिखते हैं :
"इस शास्त्र की संस्कृत टीका पूर्व भई है तथापि तहाँ संस्कृत गणितादिक के ज्ञान बिना प्रवेश होई सकता नाहीं । तातै स्तोक ज्ञान वालों के त्रिलोक के स्वरूप का ज्ञान होने के अथि तिसही अर्थ कौं भाषा करि लिखिए है। या वि मेरा कत्र्तव्य इतना ही है जो क्षयोपशम के अनुसारि तिस शास्त्र का अर्थ कौं जानि धर्मानुराग तें औरनि के
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तव
जानने के अभि जैसे कोऊ मुखतें प्रक्षर उच्चारि करि देशभाषारूप व्याख्यान करे है जैसे मैं हस्ततं क्षरनि की स्थापना करि लिखौंगा।"
पंडित टोडरमल ने अपने लेखन में प्रयुक्त भाषा के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहीं कुछ भी नहीं लिखा । फिर भी प्रसंगवश कहीं कहीं ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनसे उनके भाषा सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश पड़ता है । भाषा के सम्बन्ध में उनका कथन है :
"इस निष्ट समय विषै हम सारिखे मंदबुद्धीनितें भी हीन बुद्धि के धनी घने जन अवलोकिए हैं । तिनिकों तिन पदर्शन का अर्थज्ञान होने के अर्थ धर्मानुराग के वशतें देशभाषामय ग्रन्थ करने की हमारे इच्छा भई, ताकरि हम यहु ग्रन्थ बनायें हैं । सो इस विषै भी अर्थ सहित तिनिही पदन का प्रकाशन हो है । इतना तो विशेष है जैसे प्राकृत संस्कृत शास्त्रनिविषै प्राकृत संस्कृत पद लिखिए हैं, तैसे इहाँ अपभ्रंश लिए वा यथार्थपनाको लिएं देशभाषारूप पद लिखिए हैं परन्तु अर्थ विषै व्यभिचार किछु नाहीं है ।"
इस कथन से सिद्ध है कि पंडितजी ने यद्यपि धर्मानुराग से देशभाषा में अपने ग्रन्थों की रचना की है, फिर भी उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि देशी भाषा उनकी है, जबकि चरिणत विषय और उसकी प्रतिपादन शैली बहुत कुछ परम्परागत है । उनका यह भी कहना है कि जिस प्रकार प्राकृत और संस्कृत शास्त्रों में प्राकृत व संस्कृत पद लिखे जाते हैं, उसी प्रकार इस ग्रंथ में देशभाषारूप पदों की रचना की गई है, परन्तु यह देशी पद रचना अपभ्रंश और यथार्थ को लिए हुए है । यहाँ लेखक का अभिप्राय यह मालूम होता है कि वह जिस देशभाषा में लिख रहा है उसमें अपभ्रंश का पुट है लेकिन साथ ही वह यथार्थ का आधार लेकर भी चलती है । अर्थात् उनकी देशभाषा न ठेठ अपभ्रंश है, न ठेठ देशभाषा | सामान्यतया कुछ आलोचक उसे ढूंढारी (जयपुरी) भाषा कहते हैं, जबकि ब्र० रायमल ने सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की भाषा को
१ त्रि० भा० टी० भूमिका, १
२ मो० मा० प्र० १७
·
9 वही प्रस्तावना, ४
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भाषा
२६५
ग्वालियरी भाषा लिखा है । वस्तुतः वह जयपुर, ग्वालियर आदि विशाल हिन्दीभापी प्रदेश की साहित्य भाषा प्रजभापा ही है क्योंकि लेखक स्वयं इसे देशभाषा कहता है एवं उसका स्वरूप अपभ्रंश और लोकभाषा के बीच स्वीकार करता है। वह अपनी भापा को किसी नाम विशेष से अभिहित नहीं करता है । लेकिन भाषा में रचित्त होते हुए भी इसके अर्थ में कहीं भी किसी प्रकार का दोष नहीं है, यह उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है। उनका 'देशभाषा' से प्राशय है तत्कालीन लोक प्रचलित विकासशील भाषा, जिसको व्याकरणादि के अध्ययन के बिना भी समझा जा सके। वे मोक्षमार्ग प्रकाशक के अध्ययन की प्रेरणा देते हुए लिखते हैं :
"इस ग्रन्थ का तो बाँचना, सुनना, विचारना ना सुगम है, कोऊ व्याकरणादिक का भी साधन न चाहिए, तातै अवश्य याका अभ्यास विर्ष प्रवत्तौं, तुम्हारा कल्याण होयगा ।"
पंडितजी के लेखन कार्य का मुख्य उद्देश्य उच्च माध्यात्मिक ज्ञान को प्रचलित लोकभाषा में सरल ढंग से प्रस्तुत करना था क्योंकि तत्त्व-विवेचन के अन्य संस्कृत या प्राकृत भाषा में थे। उन्होंने इन दो कारणों से इनकी टीका संस्कृत को अपेक्षा देशभाषा में की :
(१) संस्कृत ज्ञान से रहित लोगों को तत्त्वज्ञान सुलभ हो सके । (२) जिन्हें संस्कृत का ज्ञान है, वे इसकी सहायता से अर्थ का
और अधिक विस्तार कर सकते हैं। उनका यह भी कहना है कि नई भाषा में तत्त्वज्ञान की चर्चा वारना मई बात नहीं है। पूर्व में अर्द्धमागधी के ग्रन्थों को समझना कठिन हो गया तो संस्कृत में शास्त्र रचना हुई और उसके बाद देशभाषा में । जब संस्कृत के ग्रंथों का अर्थ देशी भाषा में समझाया ही जाता है तो मूल तत्त्वज्ञान को देशी भाषा में लिखने में भी कोई
१ देखिए प्रस्तुत ग्रंथ, ५२ २ मो मा० प्र०, ३०
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२६६
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कत्तुंस्य दोष नहीं है । अतः उन्होंने देशी भाषा में टीकाएँ लिखीं'।
भाषा के मुलभूत स्वरूप एवं वर्गों के सम्बन्ध में पंडितजी का कथन है कि अकारादि अक्षर अनादिनिधन हैं. जिन्हें लोग अपनी इच्छा के अनुसार लिखते हैं। इसीलिए 'सिद्धो बर्णसमाम्नायः' कहा गया है । जहाँ तक वर्णसमाम्नाय का सम्बन्ध है, पंडितजी उसे सिद्ध मान कर चलते हैं । वे उसके विकास की समस्या में नहीं पड़ते । उनके अनुसार अक्षरों का समुह पद है और सत्यार्थ के प्रतिपादक पदों के समूह का नाम श्रुत है । इस प्रकार उन्होंने श्रुत की परिभाषा ध्यागजा बना दी है।
१ "जे जीव संस्कृतादि विशेष शान रहित हैं ते इस भाषाटीका से अर्थ धारो । बहुरि जे जीन संस्कृतादि ज्ञानसहित हैं परन्तु गणित आम्नाबादिक के शान का अभाव ते मूल ग्रन्थ वा संस्कृत टीकाविर्ष प्रवेश न पात्र हैं, तो इस भाषा टीकात प्रथं को चारि मूलग्नन्थ वा संस्कृत टीकावियें प्रवेश करहू । बहुरि जो भाषाटीका से मूलमन्थ वा सस्कृत टीकाविषं अधिक अर्थ होई ताके जानने का अन्य उपाय बने सो करछु । इहाँ फोऊ कहै संस्कृति ज्ञान वालों के भाषा अभ्यास विर्षे अधिकार नाहीं ? ताकी काहिए हैं - संस्कृत ज्ञान वालों का भाषा बाँचने लें कोई दोष तो नाही उपज है । अपना प्रयोजन जैसे सिद्ध होय तैसें करना । पूर्व अर्द्धमागधी श्रादि भाषामा महान् ग्रंथ थे । बहुरि बुद्धि की मंदता जीवनि के भई लब संस्कृतादि भाषामय ग्रन्थ बने ।
व विशोष बुद्धि की मंदता जीवनि के भई तातै दणभाषामय ग्रन्थ करने का विचार भया । बहरि संस्कृतादिक का अर्थ भी अब भाषावारकरि जीवनि को समझाइये है। इहीं भाषाद्वारकरि ही अर्थ लिया तो किछ दोष नाहीं है। ऐसे विचारि श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीय नाम श्री पंचसंग्रह ग्रन्थ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा संस्कृत टीका ताके अनुसार 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामा याहु देशभाषामयी टीका करने का निश्चय कीया है।"
- स. चं० पी०, ४-५ "अकारादि अक्षर है ते अनादिनिधन हैं, काहू के किए नाहीं । इनिका आकार लिखना तो अपनी इच्छा के अनुसारि अनेक प्रकार है परन्तु बोलने में आई हैं ले अक्षर ती सर्वत्र सर्वदा ऐसे ही प्रवत हैं सो ही कह्या है -- 'सिद्धो वर्णसमाम्नायः' । याका अर्थ यहु - जो अक्षरनि का संप्रदाय है सौ स्वयंसिद्ध है । बहुरि तिनि अक्षरनि करि निपजे सत्यार्थ के प्रकाशक पद तिनके समूह का नाम थुत है शो भी अनादिनिधन है ।"
-- मो. मा०प्र०, १४
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भावा
पंडितजी ने इस सम्बन्ध में मोती-माला का उदाहरण देते हुए कहा है जैसे कोई मोतियों की छोटी-बड़ी माला बनाता है, परन्तु वह मोती नहीं बना सकता, मोती उसके लिए सिद्ध हैं: उसी प्रकार वर्णसमाम्नाय सिद्ध है, जसना अपनी हमामा करते हैं, इस प्रयोग में मूल अर्थ प्रभावित नहीं होता है । अतः इसे भी मूलग्रंथ की तरह प्रमाणिक माना जाय । इस प्रकार उन्होंने देशी भाषा को परम्परा से चली आती रही भाषा के विरुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया । देशभाषा के लिए उनकी यह मौलिक देन है।
__पंडितजी द्वारा प्रयुक्त भाषा (जिसे वे देशभाषा कहते है) वस्तुतः तत्कालीन जयपुर राज्य व पार्श्ववर्ती क्षेत्र में प्रयुक्त ब्रज है, परन्तु उसमें जयपुर की तत्कालीन बोलचाल की भाषा के प्रयोग भी आ गए हैं। इसका एक कारण यह है कि उनका मुख्य उद्देश्य प्राध्यात्मिक तत्त्वज्ञान को देश भाषा में लिख कर अधिक से अधिक व्यापक और लोकप्रिय बनाना था। अत: इसके लिए स्थानीय रूप से प्रयुक्त बोली को माध्यम बनाने के बजाय उन्होंने प्रचलित देशभाषा (ब्रज) को ही माध्यम के रूप में स्वीकार किया, परन्तु उसमें बोलचाल की स्थानीय भाषा का भी पुट है । दूसरे शब्दों में परम्परागत भाषा होते हुए भी उसके बोलचाल के स्वरूप को बनाए रखने का प्रयत्न किया है। शब्द समूह
पंडित टोडरमल का साहित्य मुख्यतः संस्कृत और प्राकृत भाषा में लिखित प्राचीन साहित्य पर आधारित धार्मिक साहित्य है। इसलिए उसमें ७५ प्रतिशत संस्कृत, प्राकृत और उनकी परम्परा से विकसित शब्द हैं । इसके अतिरिक्त देशी शब्दों का भी प्रयोग है पर अपेक्षाकृत कम । उर्दू के शब्द भी मिलते हैं पर बहुत थोड़े । एक स्थान पर अरबी शब्द 'हिलन्वी' का भी प्रयोग हुअा है । इस प्रकार तत्सम, तद्भव 'मो मा०प्र०, १४-१५ २ प्रो० मोलवी करीमुद्दीन द्वारा लिखित 'करीमुललुगात' शब्दकोष में 'हिलब्धी'
का अर्थ एक प्रसिद्ध कांच है । प्रकरण के अनुसार भी यह अर्थ ठीक है ।
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२६८
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कत्तृत्व और देशी शब्दों के अतिरिक्त उसमें उर्दू के भी शब्द मिलते हैं । तत्सम शब्दों की बहुलता का कारण मूल ग्रन्थों का संस्कृत प्राकृत में होना है। खखक अपनी अभिव्यक्ति को सुगम बनाने के लिए खुले रूप में तत्सम शब्दों का प्रयोग करता है। दूसरे वह तद्भव के नाम पर जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनकी रचना-प्रक्रिया प्राकृत रचना-प्रक्रिया से मिलती-जुलती है। उनके गद्य साहित्य में तत्सम शब्दों की सा है गोमा साहिबदायक भी। इसका कारण काव्यभाषा ब्रज में तद्भव और देशी शब्दों के ही प्रयोग के विधान का अनिवार्य होना है । व्रजभाषा प्रकृति और छन्द की लय इन्हीं को अपनाने के पक्ष में है। पद्य में इसीलिए पंडितजी परम्परा से बंधे थे, परन्तु ब्रजभाषा में गद्य का अभाव था इसलिए उन्हें उसमें तत्सम शब्दों के प्रयोग में विसी प्रकार भी रुकावट नहीं थी। नगण्य होते हुए भी देशी शब्द भी उल्लेखनीय हैं क्योंकि वे उस समय बोले जाने वाले स्थानीय शब्द हैं । उनकी भाषा में प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के शब्दों के कुछ नमूने नीचे दिये जा रहे हैं. :संज्ञा शब्द (१) व्यक्तिवाचक :तत्सम - कृष्ण, बुद्ध, वर्द्धमान, शिव, मूलबद्री, काशी, जयपुर,
लक्ष्मी, सूर्य, भूतबलि, वृषभ, नेमिचंद्र, राजमल्ल,
चामुण्डराय, पंचसंग्रह। तद्भव - ऋषभ रिषभ, रामसिंह रामसिंघ, बर्द्धमान
वर्धमान, मूलबद्री मूलविद्रपुर, गिरनार गिरनारि,
जयपुर जैपुर, गोपाल गुवालिया। (२) जातिवाचक :तत्सम - वक्ता, श्रोता, थावक, वैद्य, ब्राह्मण, मुनि, राजा, नृप,
पुत्र, जीव, अजीब, मोक्ष, देव, शास्त्र, गुरु, मुख, नार्म, गुणस्थान, हस्त, पाद, जिह्वा, स्थान, प्राचार्य उपाध्याय, साधु, मनुष्य, द्वीप, लता, शर्करा, निंब,
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भाषा
२६६ किंकर, स्कंध, पुस्तक, चोर, पुण्य, पाप, ग्राम,
उदधि, जमक। तद्भव – मनुध्यमानुप, मृत्तिका माटी, स्वर्ण - सोना,
रौप्य रूपा, स्कंध खंध, स्थान >थान, हृदय >हिया, गृगस्थान गुरणथान, वानर>बाँदर, मुक्ता मोती, यांत यती, रूपकम् रुपैया, क्षेत्रघरखितहर, काक कागला, गोगऊ, हट्ट हाटि, पण्डित पाण्डे, कच्छप काछिवा,
श्वसुरालय ससुराल । देशी - घूभू, मण, हाँडी, सांठा, गाड़ा, जेवरी, पाँ, पतासा,
ठाकुर (भगवान), ठकुरानी, रोड़ी, सूवा, गली । उर्दु - मदिरा, जामा, गुमास्ता, चसमा, दुरवीन, खुदा,
पैग़म्बर, कलाल, हिलवी (अरवी) । (३) भाववाचक :तत्सम-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व, प्रीति, कार्य, सत्य,
व्रत, भ्रम, यश, भाग्य, अध्यात्म, कषाय, क्रोध, राग, द्वेष, मोह, उपयोग, वार्ता, स्तुति, ऋण, अनुभव, सुख, दुःख,आकुलता, अवगुण, उदासीनता, जन्मत्तता,
पांडित्य, स्वामित्व, मनोरथ, चेतना, कलंक, मिलाप । तद्भव - मर्म मरम, बार्ताबात, सत्य सांचा,
सम्यक्त>समकित, निर्धारण>निरवान, योग जोग, बन्धन बन्धान, यश जस, कार्यकारज,
गुणगुन, धृष्ठ>ढीठ । देशी - पाखड़ी, सीर, पावना, जानपना, झापटा । उर्दू - खरीद, एवज, जुदाई।
इनके अतिरिक्त भाववाचक संज्ञाएँ 'पना, पनों, पने, ता, त्व, त्य, आई लगा कर बना ली गई हैं । कहीं-कहीं दो-दो प्रत्यय एक साथ लगा दिये गए हैं । प्रत्येक के कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं :
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२७० . .
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और फर्तृत्व पना - (१) देवाधिदेवपना को प्राप्त भए हैं ।
(२) कुल अपेक्षा महंतपना नाही संभव है। (३) घातिकर्म का होनपना के होने तैं सहज ही
वीतराग विशेषज्ञान प्रगट हो है। पनों - (१) जे गृहस्थपनों त्यागि मुनि धर्म अंगीकार करि निज
स्वभाब साधन च्यारि घातिया कर्मनिवौं खिपाय
अनंतचतुष्यरूप विराजमान भाए । (२) तहाँ इष्ट-अनिष्टपनों न मानिए है । पने - (१) बहुरि जे मुख्यपने तो निर्विकल्प स्वरूपाचरण
विर्षे ही मग्न हैं। (२) राजा और रंक मनुष्यपने की अपेक्षा समान हैं । 'ता - (१) उन्मत्तता उपजाबने की शक्ति है ।
(२) ज्ञान दर्शन की व्यक्तता रहे है। (३) मोए लोकविर्षे पंडितता प्रगट करने के कारण हैं।
(४) कुल की उच्चता तो धर्म साधनते है। त्व - प्राणाधिकारविर्षे प्रागनि का लक्षण पर भेद अर कारण
अर स्वामित्व का कथन है । त्य - अर जो पांडित्य प्रगट करनेकौं लागै तो कपायभाव ते
उल्टा बुरा हो है । आई- (१) जुवाई कौं नाहीं विचार ।
(२) अपनी पण्डिताई जनावनेकौं । त्व और पना] (१) याही वरि जीव का जीवत्वपना निश्चय कीजिए हैं। ___ का एक (२) अनुभाग शक्ति के प्रभाव होनेः कर्मस्थपना का साथ प्रयोग अभाव हो है ।
कहीं-कहीं पर 'ग्रारोग्यवानपनों, बलवानपनों' जैसे प्रयोग भी मिलते हैं। जैसे - बहुरि साता के उदय करि शरीर विर्षे आरोग्यघानपनों बलवानपनों इत्यादि हो है ।
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सर्वनाम
आलोच्य साहित्य की भाषा में नीचे दिये जा रहे चार्ट के अनुसार सर्वनाम का प्रयोग हुआ है :
भाषा
उत्तम पुरुप
मध्यम पुरुष
अन्य पुरुष
एकवचन
कर्तृ
मैं, अहं, हम
तुं, तु, ते (तून), तुम
कर्म-सम्प्रदान
मुझकों, मोकों भैरो, मोब
सो, वा, वह, ता, तिस, इस, या, यहू, यह, जौ, जिहि, कोई, जा, कोऊ, ताको, ता, ताहि, जाकों, जाको. जागो, याकों, ताक
सम्बन्ध
| तेरा, तेरे
मम, मेरा, मेरी, मेरो, मरी, मेरे, मेरयो, मेरचौ. हमारे, हमारै, हमारा
ताका, ताके, ताकी, तार्क, जाका, जाकी, जाकी, ज, याका, बाके, पाकी, याकै, या., काद
कर्म-सम्प्रदान
हमको, हमको, हमकों
नुम
तं, तेई, मन, तिनि, जे, वे, इन,
उन,ए, केट, सई, सब | तुमको, तुमको, तुम जिनको, जिनकों, तिनको, तिनको,
तिनिको, इनको, सब, सबनित तुम्हारा, तुमारे, तुमको, तुमको | तिनका, तिनिका, तिनिक, जिनका,
जिनक, जिनके, इनका, इनकी, इनक, उनका, की, उनकै, सबका, सनिका
सम्बन्ध
हमारा, हमारे, हमारी
२७१
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२७२
कौन
वह (संकेतवा
(प्र. दा.)। {प्र० वा०)
..
डॉ. उदयनारायण तिवारी ने ब्रजभाषा में प्रयोग आने वाले सर्वनामों का विवरण इस प्रकार दिया है। :वह (पु० वा.)।
. क्या वह (संकेत वा यह एकवचन
| मैं, हौं, हो | तु, ते, तें | दो, बहू, वुह । यह, यिह | जौ, जॉन | सो, तीन | को, को, नको कहा, बा तिर्यक मो, मुज, | तो, तुज | विस, वा, वाहि | इस, या, जिस, जा, | तिस, ता, ताहि किस, का, काहे मोहि, मुहि | तोहि, तुहि
याहि । जाहि ।
' | काहि कर्म-सम्प्रदान मोहि, मुहि | तोहि तुहि, वाहि, वाए, याहि, याए, जाहि, जार, ताहि, ताए, | काहि, काए,
मोए, मोय, तोए, तोय, वाय, विसे याय, इसे ! जाय, जिसे ताय, तिसे काय, किस्से मोइ, मो | तोइ, तो मेरौ, मेर्यो| तेरी, तेर्यो
___ .... | जासु तामु
ये, यै
सो, ते
हम तुम बे, वै
को, को । तिर्यक | हम, हौ, | तुम, तुम्हीं | उनि, उन, उन्हीं पनि, इन, | जिनि, जिन. तिनि, तिन, किनि, किन
हमनि, हमन | विनि, विन,बिन्हीं| इन्हौं । जिन्हीं, | तिन्हीं किन्हीं कम-राम्प्रदान हमैं तुम्हें उन्हें, विन्हें | इन्हें, इहैं | जिन्हें तिन्हैं किन्हें सम्बन्ध हमारौ | तुम्हारी हमार्यो । तुम्हार्यो
तिहारी
तिहार्यो नोट :-उपर्यत (प्रमुख रूप से उत्तम तथा मध्यम पुरुष) बहुवचन के रूपों का प्रयोग प्रायः एकवचन में भी होता है । इसी प्रकार ।
इधर 'व' के स्थान पर 'घ' तथा 'य' के स्थान पर 'ज' का प्रयोग भी चलता है। ' हि भा० उ० वि०, ३४५
पंडित दोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व
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भाषा
२७३ आलोच्य साहित्य की भाषा के और बजभाषा के सर्वनामों के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि दोनों में पर्याप्त समानता है। दोनों में ही बहुवचन के रूपों का प्रयोग एकवचन में भी हुया है। इसी प्रकार 'या' के स्थान पर 'जा' की प्रवृत्ति दोनों में समान रूप से पाई जाती है । अालोच्य साहित्य की भाषा में कर्ता के उत्तम पुरुप एकवचन में ब्रजभाषा के हों, हौं' रूप नहीं मिलते हैं, किन्तु एकाध स्थान पर संस्कृत का 'अहं' दिखाई दे जाता है। कर्म व सम्प्रदान में ब्रज के 'मोहि, मुहि, तोहि, तुहि' आदि रूप न होकर खड़ी बोली के 'मुझकों, मो, तोकं रूप प्राप्त होते हैं, पर कहीं-कहीं विशेषकर पद्य में 'ताहि' दिखाई पड़ जाता है। जिन्हें, निन्हें, किन्हें के स्थान पर 'जिनको, तिनकों, किनको', प्रयोग में लाए गए हैं, जो ब्रजभाषा की अपेक्षा खड़ी बोली के अधिक निकट हैं। सब कुछ मिला कर इनकी प्रकृति नजभाषा के सर्वनामों के ही निकट है ।
अध्यय
पंडित टोडरमल की भाषा में निम्नलिखित अव्यय प्रयुक्त हैं, जो वाक्यरचना में विभिन्न रूप से काम आते हैं । अव्ययों को विभिन्न बयाकररगों ने विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत रखा है। विचाराधीन भाषा में प्रयुक्त अव्ययों को निम्नलिखित शीर्षकों में रखा जा सकता है :--
(१) समयवाचक अव्यय (२) परिमाररावाचक अव्यय (३) स्थानवाचक अन्यय (४) गुणवालक अन्यत्र (५) प्रश्नवाचक अव्यय (६) निषेधवाचक अध्यय (७) विस्मयवाचक अव्यय (८) सामान्य अव्यय
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२७४
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कत्तत्व (१) समयवाचक :
अव - अब सिद्धनि का स्वरूप ध्याइये है। तब - (१) तब ऐसा उत्तम कार्य कैसे बने ।
(२) तब कुटुम्ब को मेलो भयो । जब-जब प्रश्न उपज है तब अति विनयवान होय प्रश्न • कर है। अबार - (१) तहाँ ठीक कीए ग्रंथ पाइए प्रचार हैं।
(२) पर बैसे गुरु प्रबार दी नाहीं । सदा - देखे जाने ऐसी आत्मा विर्षे शक्ति सदा काल है । सर्वदा - ऐसी दशा सर्वदा रहे। कबहूँ - (१) कबहूँ पान दशा नहिं गहै । (२) कमहूँ तो जीव की इच्छा के अनुसार शरीर
प्रवत्त हैं, कबहूँ शरीर की अवस्था अनुसार
जीव प्रवत्तें है। अबहू - अनुसारी ग्रंथनितें शिवपंथ पाइ भव्य,
___ अबहू करि साधना स्वभाव सब भयो है । कदाचित् - कदाचित् मंदराग के उदयनै शुभोपयोग भी हो है । पहिले । पहिले जानै तब पीछे तैसे ही प्रतीत करी
पीछ । श्रद्धानकों प्राप्त हो है । इदानी - इदानों जीवनिकी बुद्धि मंद बहुत है । एककाल - तीनों वेदनिविर्षे एकैकाल एक-एक ही प्रकृतिनि का
___बंध हो है। यावत् -- यावत् बंधान रहे तावत् साथ रहें । तावत् – यावत् बंधी स्थिति पूर्ण होय तावत् समय-समय
तिस प्रकृति का उदय पाया ही करे ।
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भाषा
(२) परिणामवाचक :इतना - इतना जानना जिनको अन्यथा जाने जीव का
बुरा होय । जितना - जैसे मूर्य का प्रकाश है सो मेघ पटल में है जितना
ध्यक्त नाही तितना का तो तिसकाल विर्षे अभाव है। तितना--जेता अनुराग होय तितना फल तिसकाल विर्षे
निपज है। R: -- अपनी रिकि के हो कि निधं जमते
उदय प्राव हैं। जैती- जन्म समय तें लगाय जती आयु की स्थिति होय
तितने काल पर्यन्त शरीर का सम्बन्ध रहे है। जेता] अर जेता यथार्थपना हो है, तेता ज्ञानावरण के तेता क्षयोपशम त हो है । जितने ! जितने ग्रंशनि करि वह हीन होय, तितने ग्रंशनि तितने । करि यह प्रगट होय । बहुत -- बहुत सूत्र के करन ते नेमिचन्द गुणधार ।
मुख्यपन या ग्रंथ के कहिए हैं करतार ।। अति -- (१) शास्त्राभ्यास विर्षे प्रति प्रासक्त है।
(२) गमन करन को प्रति तरफरें। किळू – (१) परन्तु किछू अवधारण करते नाहीं ।
(२) संशयादि होते किछू जो न कीजिए ग्रंथ । केतीक -- मुख्यपने केतीक सामग्री साता के उदय ते हो है,
केतीक असाता के उदय ते हो है । कितेक – सूत्र किसेक किए गंभीर ।
केतक - केतक काल पीछे च्यारि अघाति कर्मनिका.......। केतै इक - परन्तु फेतइक अति मंदबुद्धीनि तें भला है ।
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२७६
पंडित टोपरमल : व्यक्तित्व और फर्सस्व केताइक - पर्व के दिन भी केताइक काल पर्यन्त पाप क्रिया
___ करे पीछे पोपहधारी होय । अल्प - अल्प कषाय होते थोरा अनुभाग बंधैं है । अधिक - शास्त्राभ्यास विर्षे सुभग, वढयो अधिक उत्साह । किंचित् - चरम शरीर से किंचित् ऊन पुरुषाकारवत् प्रात्म
प्रदेशनि का आकार अवस्थित भया । किंचिन्मात्र -- जो कुलप्रमादिकतै भक्ति हो है सो किंचिन्मात्र
ही फल का दाता है। (३) स्थानबाचक :
दूर-दूर किया चाहे है । समीप - दूर तें कैसा हो जाने समीप ते कैसा ही जाने । ' निकटि - दक्षिण में गोम्मट निकटि मूलविद्रपुर।
यहाँ -- अर कहाँ से पाकर यहाँ जन्म धाऱ्या है । इहाँ – (१) इहाँ इतना जानना ।
(२) इहाँ ऐसा नियम नाहीं है । कहाँ – मर कर कहाँ जाऊँगा । तहाँ - (१) तहाँ प्रथमपरहंतनि का स्वरूप विचारिए है ।
(२) तहाँ ठीक कीए ग्रंथ पाइए अबार हैं। जहाँ - या विर्षे जहाँ-जहाँ चूका होइ, अन्यथा अर्थ होई
तहाँ-तहाँ मेरे ऊपरि क्षमा करि.....। जह - मार्ग कियो तिहिं जुत विस्तार,
जहें स्थूलनिको भी संचार । ऊँचा - यात ऊँचा और धर्म का अंग माहीं । पीछे-पीछे देश सकल चारित्र को बखान है । सर्वत्र -बहुरि जधन्य सर्वत्र एक अंतर्मुहूर्त काल है ।
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भाषा
(४) गुणवाचक :
ऐसा ऐसा वक्ता होय ।
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ऐसी-ऐसी अंतरंग अवस्था होते बाह्य दिगम्बर सौम्य मुद्राधारी भए हैं ।
ऐसे - ऐसे जैन मुनि हैं, तिन सबनि की ऐसी ही अवस्था हो है'
ऐसे-ऐसें सर्व प्रकार पूजने योग्य श्री अरहंतदेव हैं । सौ - सत्य अर्थ सभा माहिं सौ जिन महिमा अनुसर है । जैसी - होऊ मेरी ग्रेसी दशा जैसी तुम धारी है । जैसे - अपने योग्य बाह्य क्रिया असे बने तैसे बने है । जैसी - जाकी जैसी इष्ट सो सुने है ।
तसे अवशेष जैसे हैं तैसे प्रमारग । वैसा - वैसा विपरीत कार्य कैसे बनं । जैसा, तैसा - जैसा जीव तैसा उपदेश देना ।
( ५ ) प्रश्नवाचक :
कौन - (१) दण्ड न दिया कौन कारण ? (२) ऐसे कार्य को कौन न करेगा ?
२७७
कहा- मेरा कहा स्वरूप है ?
क्यों - टीका करने का प्रारंभ क्यों न कीया ?
कैसा - बहुरि बक्ता कैसा चाहिए ?
कैसी -- जीव की कैसी अवस्था होय रही है ?
कैसे कैसे सौ विचारिए ।
कैसे यह चरित्र कैसे बनि रह्या है ?
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२७८
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और काल (६) निषेधवाचक :नाहीं - (१) परद्रव्य विर्षे ग्रहबुद्धि नाहीं है ।
(२) कौऊ द्रव्य काहू का मित्र शत्रु है नाहीं । नहीं - पुद्गल परमाणु तो जड़ है. उनके किछू ज्ञान नहीं । नाहि - वर्धमान केवली के देहरूप पुद्गल ते,
जीव नाहि प्रेरे तौऊ उपकार करें है । नहि -- संस्कृत सद्दष्टिनि कौं ज्ञान,
नहि जिनके ते चाल समान । न - (१) पर भावनि विर्षे ममत्व न करे हैं ।
(२) बिगार न होय, तो हम काहै कौं निषेध करें। मति – (१) जिनकों बंध न करना होय ते कषाय
मति करो। (२) कार्यकारी नाहीं तो मति होहु, किडू तिनके
मानने से बिगार भी तो होता नाहीं । (७) विस्मयवाचक :
अहो - अहो ! देव गुरु धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ हैं,
इनके प्राधारि धर्म है। हाय हाय -- सो हाय ! हाय !! यहु जगत राजा करि रहित है,
__कोई न्याय पूछनेवाला माहीं। (८) सामान्य अव्यय :
अथ - प्रथ मोक्षमार्ग प्रकाशक नाम शास्त्र का उदय हो है। पर - (१) पर ताही के अनुसार ग्रन्थ बनावें हैं ।
(२) पर श्रद्धान ही सर्व धर्म का मूल है । प्रान - ताही का निमित्त पाय पान स्कंध पुद्गल के ।
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भाषा
२७६
बहुरि - बहुरि बक्ता कैसा चाहिए ? व - वा वचन सुनना वा निकटवर्ती होना व तिनके
अनुसार प्रवर्त्तना। वा- इहाँ जो मैं यहु ग्रंथ बनाऊँ हूँ सो कषायनितं अपना
मान बधावनेकों या लोभ साधनेकौं या यश होनेकौं
श्रा अपनी पद्धति राखनेकौं नाहीं बनाऊँ हूँ। अथवा -- अथवा परस्पर अनेक प्रश्नोत्तर करि वस्तु का
निर्णय कर है। पर – पर यदि वक्ता लोभी होय तो वक्ता आप ही हीन
हो जाय । परन्तु - परन्तु तिस राग भाव को हेय जान कर दूर किया
चाहे है। केवल - केवल निर्जरा ही हो है । बिना – ताके बिना कुमाए भी धन होता देखिए । बिनु - (१) तातै बुद्धिमान बिनु जाने नाहि सार है ।
(२) बल बिनु नाहि पदनिकों धरै। यद्यपि। यद्यपि यह पुद्गल को खंध, तथापि है तथापि श्रुत ज्ञाम निबंध ।
तो- दुर्जन तो हास्य करेंगे। तौ-ऐ ती क्रिया सर्व मुननि के साधारण हैं। भी - (१) ते भी यथायोग्य सम्यग्ज्ञान के धारक हैं।
(२) बहुरि युक्तिसे भी ऐसे ही संभव है । तौऊ - तौऊ उपकार कर है। यदि - पर यदि वक्ता लोभी होय तो वक्ता आप ही हीन
हो जाय।
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२८०
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कतत्व यथावत् - ताको यथावत् निश्चय जानि अवधारै हैं । यथायोग्य – (१) तिनका यथायोग्य विनय करूँ हूँ।
(२) ते भी यथायोग्य सम्यग्ज्ञान के धारक हैं । यथासंभव - ऐसे ही यथासंभव सीखना, सिखावना प्रादि......। नाना प्रकार - जे नाना प्रकार दुःख तिन करि पीड़ित हो रहे हैं । नाना विध - (१) नाना विघ भाषारूप होइ विसतरे हैं।
(२) सो नाना विध प्रेरक भयो । तथा विध – तथा विध कर्म को क्षयोपशम जानिए । बारंबार - अपने अंतरंग विर्षे बारंबार विचार है । जात - ऐसे इतरेतराश्रय दोष नाहीं जातं अनादि का
स्वयंसिद्ध द्रव्यकर्म संबंध है। ताते - तातै भिन्न न देखे कोय, बिनु विवेक जग अंधा होय । सहज - सहज ही वीतराग विशेषज्ञान प्रगट हो है। फुनि - कनकनंदि फुनि माधवचन्द,
प्रमुख भए मुनि बहू गुन कंद । कि - बहुरि कोऊ कहे कि अनुराग है तो अपनी बुद्धि
अनुसार ग्रंथाभ्यास करौं । ही- तातें व्रत पालने विर्षे ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है । प्रगट – वीतराग विशेषज्ञान प्रगट हौ है । बुगपत् - सर्व को युगपत् जानि सकते नाहीं । अन्यथा -- अर्थ अन्यथा ही भासै ।
किन है - किन ने अन्य ग्रंथ बनाए । भिन्न-भिन्न - भिन्न-भिन्न भाषा टीका कीनी अर्थ गायकैं।
सर्वथा - तातें सुखी सर्वथा होई।
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भाषा
संख्यावाची शब्द
मालोच्य साहित्य में संख्यावाची शब्दों का प्रयोग विभिन्न प्रकार से हुआ है। प्रत्येक शब्द के मानेकों मिलते हैं । उसलों तत्सम, तद्भव, एवं देशी सभी प्रकार के रूप पाए जाते हैं । कुछ विभिन्न रूप नीचे दिये जा रहे हैं :-- एक - एक, एका, इकवाई, नौ-नव, नवमा, नवर्मा प्रथम, पहिला
दश – दश, दशबाँ, दाहाको दो- दो, दोय, दोइ, दोऊ, ग्यारह – ग्यारह, ग्यारहीं,
दूजा, दूजौ, दूसरा, ग्यारहवा
द्वितीय, दुणा, दूबा बारह - बारह, द्वादश, बारहवाँ तीन - तीन, तृतीय, तीसरा, तेरह - तेरहवाँ
तीजो, तीजी, तीजा, चौदह - चौदह, चउदह, तीया, तिमणा, तिहाई, चौदहवाँ
तीसरे, तीनों पन्द्रह - पंद्रह, पन्द्रहवाँ चार - चार, च्यार, च्यारि, सोलह – सोलह, सोलह्वा
चारि, चौका, च्यारों, सत्रह - सतरह, सतरहह्वाँ चौथे, चौथा, चौथाई, अठारह- अठारह, अठारहवा चतुर्थ
उन्नीस - उगणीस, उगरणीसवाँ पाँच - पाँच, पँच, पाँचा, बीस - बीस, बीसवाँ
पाँचमा, पाँचवाँ इक्कीस - इकईस, इक्कीसवाँ छह - छह, छ, पद्, छत्रका, बाईस - बाईस, दोयबीस, छठा, छठा
वावीसवाँ सात - सात, सप्त, सातमा, तेईस - तेईस सातवाँ
चौवीस-चौबीस पाठ - पाठ, पाठा, अष्ट, पच्चीस-पच्चीस
अाठमा, आठवा छब्बीस- छब्बीस
F-
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तास
सैंकड़ा
२८२
पंडित टोडरमस । व्यक्तित्व और कर्तृत्व अट्ठाईस - अट्ठाईस, अठाईस पचहत्तर - पिचहत्तरि उन्तीस-गुणतीरा
अस्सी -- असी तीस-तीस
तेरासी-तियासी चौंतीस - चौंतीस
नवासी - निबासी छत्तीस - छत्तीस
बान4 - बारवं संतीस - सैंतीस
तेरानबै-तिराण चालीस -- चालीस छयानवे - छिनवे इकतालीस - इकतालीस सत्तानवे - सत्यागवं पैतालीस - पैंतालीस
सो – सौ, शत, सौ, से, अड़तालीस - अड़तालीस उन्चास - पुरणवास
हजार - हजार, सहस्त्र पचास - पचास
इकाई - इकवाई, एकस्थानीय वैपन -- तरेपन
दहाई-दाहाकी, दशस्थानीय चौवन - चौवन
सैकड़ा -- संकड़ा, शतस्थानीय पचपन--पचाबन
हजार-हजार, सहस्त्र-स्थानीय छप्पन - छप्पन
संख्यात - संख्यात् सत्तावन - सत्तावन असंख्यात - असंख्यात् साठ -- साठ, साठि
अनंत - अनंत बासठ - बासठ
प्राधा-आधा श्रेसठ - तरेसठि
पौन - पौण चौसठ - चौसटि, चौसठवा येड़ -- ड्योड़, ड्योढ़ पैंसठ - पैंसठ
सवा - सवा उनत्तर - गुणहत्तरि, मुणहत्तर शून्य - शून्य, बिन्दी बहत्तर - बहत्तर, बहत्तरियाँ
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भाषा
२८३
शम्व-विशेष के कई प्रयोग (लिपि की दृष्टि से)
विचाराधीन साहित्य की भाषा में एक ही अर्थ में कुछ शब्दों के दो या दो से अधिक रूप मिलते हैं। इनमें प्रायः ध्वनि में परिवर्तन कर दिया जाता है । नमूने के रूप में कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :-- (१) अनुसार - १. इनि का प्राकार लिखना तो अपनी इच्छा के
__ अनुसार अनेक प्रकार है। और २. तिन विर्षे हमारे बुद्धि अनुसार अभ्यास वत है 1 अनुसारि - १. ताके अनुसारि अन्य-अन्य प्राचार्यादिक
नाना प्रकार ग्रंथादिक की रचना करें हैं । २. इच्छा कषाय भावनि के अनुसारि कार्य
करने की हो है। (२) सिद्धि - दुःख विनशै ऐसे प्रयोजन की सिद्धि इनि करि
और हो है कि नाही ?
सिद्धी - इन करि ऐसे प्रयोजन की तो सिद्धी हो है। (३) तिनका - पीछे तिनका भी प्रभाव भया ।
और तिनिका- भ्रम करि तिनिका कह्या मार्गविर्षे प्रवर्ते हैं। (४) किछू - बिना कषाय बाह्य सामग्री किछू सुख-दुःख की
दाता नाहीं। कछु - मिले कछु कहिए भी सो मिलना कर्माधीन है ।
और
कुछ - तिसके उत्तर अपनी बुद्धि अनुसार कुछ लिखिए हैं । वार्ता - धन्य हैं जे स्वात्मानुभव की वार्ता भी करें।
और बात - मात्मा की बात भी सुनी है, सो निश्चय करि भव्य है।
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कत्य विर्षे - परिणामन की मग्नता विर्षे विशेष है ।
और विखें - अर दोनों ही का परिणाम नाम बिखें हैं। धर्म - तब साँचा धर्म हो है । और धर्म - बहुरि धर्म के अनेक अंग हैं । कर्म - जो कर्म पाप कर्ती होय उद्यम करि जीव के और स्वभाव को घात.......| कर्म - कर्म निमित्त ते निपजे जीव नाना प्रकार दुःख
तिन करि पीड़ित हो रहे हैं। (8) च्यारि - तहाँ च्यारि घातिया कर्मनि के निमित्त ते तो
जीब के स्वभाव का घात ही हो है । च्यार - प्रथमनोग. कारणानुगोग, चरणानुयोग,
द्रव्यानुयोग ए च्यार अनुयोग हैं । और चारि - जो ये चारि लक्षण कहे तिनि विर्षे......। काज - करि मंगल करि हौं महाग्रंथ करन को काज । कारज- तब यह उत्तम कारज थयो ।
और
कार्य -- जैसे कोई गुमास्ता साहू के कार्य विर्षे प्रवर्ते है । (११) प्रादि - आहार-विहारादि क्रियानि वियें सावधान हो हैं ।
और आदिक -- वचनाविक लिखनाविक क्रिया,
वर्णादिक अरु इन्द्रिय हिया । (१२) गुमावै - जैसे तैसे काल गुमाये ।
और गमावै - निरुद्यमी होय प्रमादी यूं ही काल गमाव है।
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भाषा
२५५ (१३) प्रतीति । बहुरि प्रतीति अनावन के अर्थि अनेक युक्ति करि
अनावनै । उपदेश दीजिए।
और प्रतीति ! वस्तु की प्रतीति कराबने कौं उपदेश दीजिए है। कगवन
वचन
आलोच्य साहित्य की भाषा में एकवचन और बहुवचन का प्रयोग हुअा है । एकत्रचन से ब्रहृवचन बनाने के लिए 'नि, न, ओं' का प्रयोग किया गया है। एकवचन से बहुवचन बनाने में अकागन्त, प्राकारान्त, इकरान्त, ईकारान्त, उकारान्त और ऊकारान्त प्रादि शब्दों में कोई विशेष नियम न अपना कर सर्वत्र उक्त प्रत्यय लगाकर ही एकवचन से बहुवचन बना लिये गए हैं । ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब वे ह्रस्व 'इ, उ' के बाद नि' लगा कर बह वचन बनाते हैं तब ह्रस्व 'इ, उ' के स्थान पर क्रमश: दीर्घ 'ई, ऊ' कर देते हैं। नीचे कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं :नि..
- तहाँ प्रथम प्ररहंतनि का स्वरूप विचारिए हैं । प्रा - लोक विर्षे तो राजादिक की कयानि विमें पाप का
पोषण हो है। इ - ऐसें तुच्छ बुद्धीनि के समझाबन कौं बहु अनुयोग है । ई-- अर पापीनि को निन्दा जा विर्षे होय.....। उ - इन तीन प्रायूनि का अल्प कषाय से बहुत पर बहुत कषाय
ते अल्पस्थिति बंध जानना। न - तातै श्रोतान का विरुद्ध श्रद्धान करने तै बुरा होय । ओं - जातें जो ऐसा न होइ तो श्रोताओं का सन्देह दूर न होई ।
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२८६
पंडिस टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व कारक और विभक्तियाँ
हिन्दी की साकारण सी दुपित से भीगा कर, वाकाथों में कारक और विभक्ति के सम्बन्ध में बहुत भ्रम है। कारक और विभक्ति दो अलग-अलग चीजे हैं। कारकों का सम्बन्ध क्रिया से है । वाक्य में प्रयुक्त बिभिन्न पदों का क्रिया से जो सम्बन्ध है, उसे कारक कहते हैं। इन प्रयुक्त पदों का आपसी सम्बन्ध भी क्रिया के माध्यम से होता है, उनका क्रिया से निरपेक्ष स्वतंत्र संबंध नहीं होता। इस प्रकार वाक्य रचना की प्रक्रिया में कारक एक पद के दूसरे पद से सम्बन्ध-तत्व का बोधक है अर्थात् वह यह बताता है कि बाक्य में एक पद का दूसरे पद से क्या सम्बन्ध है । भाषा में इस सम्बन्ध को बताने वाली व्यवस्था विभक्ति कहलाती है अर्थात् जिन प्रत्ययों या शब्दों से इस सम्बन्ध की पहिचान होती है उसे विभक्ति कहते हैं । इस प्रकार विभक्ति भाषा सम्बन्धी व्यवस्था है । पाणिनी ने सात विभक्तियाँ और छह कारक माने हैं, इसमें एक-एक कारक के लिए एक-एक विभक्ति सुनिश्चित कर दी गई है।
कर्ता -प्रथमा कर्म -द्वितीया करगण - तृतीया सम्प्रदान - चतुर्थी अपादान - पंचमी
अधिकरण – सप्तमी षष्ठी के सम्बन्ध में उनका स्पष्ट निर्देश है 'शेषे षष्ठी' 1 सम्बन्ध को बताने के अतिरिक्त दूसरे कारकों को बनाने के लिए भी षष्ठी का प्रयोग किया जा सकता है। 'शेषे षष्ठी' का अभिप्राय यही है, परन्तु हिन्दी के व्याकरणों में सम्बन्ध को कारक मान लिया गया और उसे षष्ठी विभक्ति सुनिश्चित कर दी गई। इसी प्रकार संबोधन को भी एक विभक्ति दी जाती है जो कि सरासर गलत है। जहाँ तक कारकों के ऐतिहासिक विकास का सम्बन्ध है, कारकों की
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भाषा
२८७
स्थिति प्रत्येक भापा में अपरिवर्तनशील है, क्योंकि उनका सम्बन्ध वाक्यों में प्रयुक्त पदों की विवक्षा से है। हाँ, इस विवक्षा को बताने वाली भाषाई व्यवस्था में विनिमय या परिवर्तन संभव है। उदाहरण के लिए जब हम कहते हैं कि संस्कृत के बाद प्राकृत-अपभ्रंश में कर्ता. कर्म और सम्बन्ध की विभक्तियों का लोप हो गया तो इसका अर्थ वह नहीं है कि इन कारकों का लोप हो गया, कारक नो ज्यों के त्यों हूँ, हाँ, उनकी सूत्रक विभक्तियां या प्रत्ययों का लोप हो गया अर्थात् चिना भाषा सम्बन्धी प्रत्ययों के ही उनके कारक तत्त्व का प्रत्यय (ज्ञान) हो जाता है ।
पालोच्य साहित्य में नीचे लिखे अनुसार कारक चिह्नों और विभक्तियों के प्रयोग मिलते हैं :फर्ता
कर्ता कारक में विभक्ति का प्रायः लोप मिलता है। जैसे :(१) जीव नवीन शरीर धरे है । (२) राजा और रंक मनुष्यपने की अपेक्षा समान हैं । (३) जे केवल ज्ञानादि रूप प्रात्मा को अनुभव हैं, ते मिथ्यादृष्टि हैं । (४) वैद्य रोग मेट्या चाहै है। (५) मैं सिद्ध समान शुद्ध हूँ। (६) वह तपश्चरण को वृथा क्लेश ठहराव है । (७) तुम कोई विशेष ग्रंथ जाने हों तो मुझ को लिख भेजना। (८) तुम प्रश्न लिखे तिसके उत्तर अपनी बुद्धि अनुसार लिखिए है । (६) तुम तीन दृष्टान्त लिखे । (१०) जिहि जीय प्रसन्न चित्त करि इस चेतन स्वरूप प्रात्मा को
बात भी सुनी है, सो निश्चय करि भव्य है। (११) बहुरि त कह्या सो सत्य..!
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२८८
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृस्व
इसके अपवाद भी मिलते हैं । जैसे :
(१) तुमने प्रत्यक्ष-परोक्ष सम्बन्धी प्रश्न लिखे । (२) तिनिने तिस मंगल करनेवाले की सहायता न करी ।
(३) तातें तुमने जो लिख्या था .......।
(४) हमने स्वप्न विषे वा ध्यान बिये फलाने पुरुष को प्रत्यक्ष देखा | (५) स्वानुभव और प्रत्यक्षादिक सम्बन्धी प्रश्न तुमने लिखे थे । फर्म
कर्म कारक में 'को, कों, कों, कूँ, श्रों' के प्रयोग मिलते हैं । कहीं-कहीं कर्म कारक में भी विभक्ति का लोप देखा जाता है ।
को - ( १ ) तत्त्वज्ञान को पोषते प्रधनिकों धरेंगे।
+
(२) मैं सर्व को स्पर्श, सर्व को सूंधू, सर्व को देखूं, सर्व को सुनूँ, सर्व को जानूँ ।
(३) आपको आप अनुभव है ।
(४) ताको भी मंद करें है ।
को - ( १ ) अनंत वीर्य करि ऐसी सामर्थ्य कों धारे हैं । (२) जुदाई कों नाहि विचारे ।
(३) जो उनकों मानें पूजे तिस सेती कौतुहल किया करें।
को - तिनिक तिन पदनि का अर्थज्ञान होने के अर्थ धर्मानुराग वश तें ........ |
कूं - ( १ ) घन कूँ चुराय अपना माने । (२) तातें ऐसी इच्छा कूं छोरि (३) मोकूं बताय देना । (४) सर्व कूं स्वार्दं ।
|
त्रों-कहीं अनिष्टपनों मानि दिलगीर हो है ।
विभक्ति का लोप - काष्ठ पाषाण की मूर्ति देखि, तहाँ विकाररूप होय अनुराग करें ।.
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भाषा
२८
करण
करण कारक में 'तै, करि, स्यौं, सेती' प्रत्यय प्रयोग में लाये गए हैं :ते - (१) मुनि धर्म साधन तै च्यारि धाति कर्मनि का नाश भये ।
(२) ते तो मोते बने नाहीं । (३) नमो ताहि जात भये अरहंतादि महान । (४) संस्कार के बल से तिनका साधन रहे है। (५) मुख में ग्रास धऱ्या ताकों पवन तें निगलिए है ।
(६) या कारण त यहाँ प्रथम मंगल किया । करि - (१) जा करि सुख उपजै वा दुःख विनशै तिस कार्य का
नाम प्रयोजन है । (२) तिनका संक्लेश परिणाम करि तो तीव्र बंध हो हैं । (३) बन्धन करि आत्मा दुखी होय रह्या है । (४) जीभ करि चाख्या, नासिका करि सूंघ्या। (५) अरहतादिकनि करि हो है ।
(६) ता फरि जीवनि का कल्याण हो है । स्यौं - (१) सुख स्यौं ग्रन्थ की समाप्ति होइ।
(२) राजा स्यौं मिलिए।
(३) शरीर स्यौँ सम्बन्ध न छूटे । सेती - जो उनको मानै पूर्जे तिस सेती कौतूहल किया कर। सम्प्रदान
सम्प्रदान कारक में 'के अथि' का बहुत अधिक प्रयोग हुआ है। 'को, कों, ताई के प्रयोग भी यत्र-तत्र हुए हैं :के अथि-(१) नमस्कार प्ररहंतनि के प्रथि । (२) श्रीगुरु तो परिणाम सुधारने के प्रयि बाह्य क्रियानि को
उपदेश हैं। (३) या प्रकार याके सम्यग्दर्शन के अधि साधन करते भी
सम्यग्दर्शन न हो है।
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२६०
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
(४) जैन शासन के अथि ऐसी सम्प्रदान जानिए । - ( ५ ) भव्यनि के अथि किया ऐसे सम्प्रदान है ।
को - ताके दिखावने को प्रतिबिंन समान है ।
कों- जे कर्म बांधे थे, ते तो भोगे बिना छूटते नाहीं तातें मोकों सहने आए ।
ताई - किसी विशेष ज्ञानी से पूछ कर तिहारे ताई उत्तर दूंगा ।
अपादान
:
अपादान कारक में 'तैं, करि' का प्रयोग प्राप्त होता है :तें - ( १ ) क्षुधा तृषा आदि समस्त दोषनि तैं मुक्त होय देवाधिदेवपना' को प्राप्त भये ।
सम्बन्ध
(२) ग्रंथही ते भयो ग्रंथ यहु अपादान |
( ३ ) ग्रान काज छूटने तें भयो यहु काज,
सोई अपादान नाम ऐसे जानत सुजान है ।
करि - सर्व रागद्वेषादि विकार भावनि करि रहित होय शांतरस रूप परिए हैं ।
सम्बन्ध का ज्ञान कराने के लिए 'का, की, के, कै, को, कौं, कौ, का प्रयोग पाया जाता है :
का - ( १ ) जिनके प्रतिपक्षी कर्मनि का नाश भया ।
(२) स्त्री का आकाररूप काष्ठ, पाषाण की मूर्ति देखि, तहाँ विकाररूप होय अनुराग करें।
की - ( १ ) तिन सबनि की ऐसी अवस्था हो है ।
(२) काष्ठ, पाषाण की मूर्ति देखि, तहाँ विकाररूप होय अनुराग करें ।
( ३ ) ता की सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषामय टीका सुखकार । ( ४ ) लब्धिसार की टीका करी, भाषामय अर्थनि सों भरी ।
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भाषा
२११
के - प्रात्मा के बाह्य सामग्री का सम्बन्ध बने है । कैं- (१) बहुरि जिन के प्रतिपक्षी कर्मनिका प्रभाव भया । (२) संशयादि होते कि जो न कीजिए ग्रंथ,
तो छद्मस्थनि के मिटं ग्रंथ करन को पंथ । (३) जी कषाय उपजाय के धरै अर्थ विपरीत,
तो पापी है आप ही आज्ञा भंग अभीत । को - करि मंगल करि हौं महाग्रंथ करन को काज । कौं - (१) या कौं अवगाहें भव्य पावें भवपार हैं ।
(२) इनकी संदृष्टिनि कौं लिखिकै स्वरूप 1 को - (१) समकित उपशम क्षायिक को है बखान ।
(२) सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका धरौ है या को नाम । (३) लग्यो है अनादि ते कलंक कर्ममल को।
ताही को निमित्त पाय रागादिक भाव भये ।
भयो शरीर को मिलाप जैसे खल को ।। अधिकरण
अधिकरण कारक में 'वि' विभक्ति का बहुत प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त 'इ, में' के भी प्रयोग मिलते हैं :विर्षे - (१) त्रिलोक विर्षे जे अकृत्रिम जिनबिंब बिराजे हैं। (२) पांच ग्रामनि विर्षे जावो परन्तु एक दिन विखें एक ही
नाम को जावो। (३) एक भेद घिर्ष भी एक विषय विषं ही प्रवृत्ति हो है। (४) मुनिधर्म विर्षे ऐसी कपाय संभव नाहीं । (५) लोक विषं भी स्त्री का अनुरागी स्त्री का चित्र बनाते है । (६) जैनश्रुत विवं यह अधिकरण प्रमानिए ।
-...
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२६२
पंडित टोररमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व (७) सो महंत पुरुष शास्त्रनि विर्षे ऐसी रचना कैसे करें ?
(८) सूधी भाषा विर्षे होय सकं नाहीं। इ - इ बीचि नावे तो उनकौं भी बुरा कहैं । में - जामें अपना हित होय ऐसे कार्य कौं कौन न करेगा?
क्रियापद
_ 'धातु' मूल रूप है, जो किसी भाषा की क्रिया के विभिन्न रूपों में पाया जाता है। जा चुका है, जाता है, जायगा - इत्यादि उदाहरगों में 'जाना' समान तत्त्व है। धातु से काल, पुरुष और लकार से बनने वाले रूप क्रियापद हैं।
आलोच्य साहित्य की भाग में शिपागदों की स्थिति मा सौर 'सरल है । मुख्य रूप से उन्हें तीन वर्गों में रखा जा सकता है :-- (क) प्रथम वर्ग में संस्कृत की साध्यमान क्रियाओं से बनने वाली
क्रियाएं तथा संस्कृत संज्ञापदों से बनने वाली क्रियाएँ ग्राती हैं। संज्ञापदों से बनने वाली क्रियाओं को हम 'नाम धातु' नहीं कह सकते, क्योंकि इनमें ब्यक्तिवाचक संज्ञाओं की अपेक्षा भाववाचक संज्ञाओं का प्रयोग होता है। जैसे -- 'अनुभव से अनुभव है', अनुभव करने के अर्थ में एवं 'नादर से प्रादरै है', प्रादर करने के अर्थ में प्रयोग हुए हैं।
खड़ी बोली में जहाँ ऐसे संज्ञा शब्दों के साथ 'कर' जोड़ कर संयुक्त क्रिया से काम चलाया जाता है, वहाँ पालोच्य साहित्य की भाषा में मूल शब्दों से ही क्रिया
बना ली जाती है । (ख) इनके अतिरिक्त जो देशी धातुएँ मिलती हैं, वे दूसरे वर्ग में
अाती हैं । इनमें कई क्रियाएँ ऐसी हैं जिनके मूल स्रोत को संस्कृत धातु की साध्यमान प्रकृति से खोजा जा सकता है, परन्तु ऐसी धातुएँ प्रायः प्राकृत विकास परम्परा से
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भाषा
२६३
आई हैं। ये एक तरह से तदभव रूपों से बनी हुई हैं । जैसे – 'उपजे है', यह रूप 'उत्पद्यते' से प्राया है। हम इन्हें यहाँ देशी मान कर ही चल रहे हैं। कुछ शुद्ध देशी क्रियाएँ भी पाई जाती हैं। जैसे - निगलिए, खोसे,
कुमावे, आदि। (ग) तीसरे वर्ग में वे प्रेरणार्थक क्रियाएँ पाती हैं जो उक्त
दोनों प्रकार के क्रियापदों में प्रेरणार्थक 'या' जोड़ कर ही बना ली गई हैं । जैसे- लिख से लिखाना, पढ़ से पढ़ाना, परिणम से परिणमाना, कर से कराना, आदि । कुछ क्रियाएँ शुद्ध प्रेरणार्थक भी हैं। जैसे - बताना आदि ।
इनके अतिरिक्त एक-दो विदेशी क्रियाएँ भी प्राप्त हुई हैं। जैसे - बक्सी (भेट दी)। कई स्थानों पर एक 'घातु' के एक ही अर्थ में अनेक प्रकार के रूप भी बनाये गए हैं। जैसे - 'कर' धातु से करिए है, कीजिए है, कर है, करी हौं, आदि वर्तमान काल के रूप मिलते हैं । इसी प्रकार देशी क्रिया 'बनाना' के वर्तमान काल में ही
बनाइये है, बनावें है, बनाऊँ हूँ, रूप प्राप्त होते हैं । संस्कृत को साध्यमान (विकरण) क्रियाओं से बनने वाली कुछ क्रियाएँ सोदाहरण नीचे दी जा रही हैं :(१) कर १. करिहीं करि मंगल करिहों महाग्रन्थ करन
को काज। २. करिए है तहाँ मंगल करिए है। ३. कीजिए है चितवन कीजिए है। ४, करेंगे सज्जन हास्य नाहीं करेंगे। ५. करै है ताको भी मंद कर है। ६. करौ हौं । टीका करने का उद्यम करो हों। ७, कीन्हों हम कछु कीन्हों नाहिं। ५. कीनी ऐसें कोनो बहुरि विचारि।
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૨૪
(२) निरूपण है
(३) धार
(४) साध
(५) मान
१. धार है
२. वारौ
१. साधे है
२. सधै है
१. माने है
२. मानेंगे
(६) परिणय परिगए है
(७) परिणम परिणम है
(= ) प्रवतं
प्रवर्त्ते है
भास है
( 8 ) भास (१०) प्रतिभास प्रतिभासं है
(११) बस
बसे है
(१२) स्पर्श स्पर्श
(१३) अवलोक श्रवलोकं है
(१४) दीस
दीसे
(१५) लिख
लिखिए है
(१६) सुन
१. सुने हैं
२. सुनिए है ३. सुनूँ
(१७) विचार विचारिये है
(१८) ध्या
१. ध्याइये है २. ध्यावे है
(१६) अवलोक अवलोकिए है
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तुरब
स्वण्य मिळलिए है ।
सामर्थ्य को धार हैं।
ते इस भाषा टीका ते अर्थ धारों ।
जे ग्रामस्वरूप को साधें हैं ।
स्वयमेव ही सधै है |
अपने माने है ।
ऐसें तो मानेंगे ।
शान्त रसरूप परिरगए हैं ।
दिव्यध्वनि रूप परिराम है ।
परम्परा प्रवर्तें हैं ।
प्रधानता मास है ।
तिनकें स्वभाव ज्ञान विषै
प्रतिभास है ।
वनखंडादि विष बसे हैं ।
मैं सर्व को स्पर्शं ।
सामान्यपर्ने प्रवलोकं है । औरनिकों वीसे यहु तपस्वी है ।
प्राकृत संस्कृत पद लिखिए हैं।
कई सुने हैं।
बहुत कठिनता सुनिए है । सर्व को सुनूँ ।
अरहंतन का स्वरूप
विचारिये है ।
अत्र सिद्धनि का स्वरूप ध्याइये है । अपने स्वरूप को ध्याये है । अब आचार्य उपाध्याय साधुनि का स्वरूप श्रवलोकिए हैं ।
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भाषा
२६५
(२०) कह
१. कहिये है।
३. कह्या है (२१) जिराज बिराज है (२२) बंध बंधी थी
तिन सबनि का नाम प्राचार्य कहिये है। कोई कहै है। सोई कहा है। अब सिद्धालय विर्षे बिराज हैं। पूर्वे असाता आदि पाप प्रकृति बंधी थी। द्रव्यानुयोग के ग्रंथ रचे। मोक्षमार्ग प्रकाशक नाम शास्त्र रचिए है। हमारे बुद्धि अनुसार अभ्यास
(२३) रच
१. 'रचे २. रचिए है
(२४) वत्तं
वत है
वत है।
(२५) पाल पाले है अठाईस मूल गुणनिकों अखण्डित
पालें हैं। (२६) सह सहै है बाईस परीषहनि को सहैं हैं । (२७) सम्भव सम्भव है बीतराग विज्ञानभाव सम्भव है। (२८) पोष पोषे है अन्य कार्यनि करि अपनी कषाय
पोषे हैं। (२६) शोभ शोभै ताको बक्तापनों विशेष शोभ । (३०) विचार १. विचार है अंतरंग विर्षे बारंबार विचार है ।
२. विचारों हों टीका करने विचारों हों। (३१) सुन सुन है जिस अर्थ कौं सुने हैं। (३२) अवधार अवधार है ताको यथावद निश्चय जानि
अवधार हैं 1 (३३) प्रकाश प्रकाश है सो यह भी ग्रंथ मोक्षमार्ग कों
प्रकाश है। प्रकाशोंगा बुद्धि अनुसार अर्थ प्रकाशोंगा।
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(३५) दा
१. दीजिए
३. देते हैं
४. देते भये (३६) सेव १. सेवे है
२. सेवेंगे (३७) धात घात (३८) चल चाल (३६) जीव जीवैगा (४०) बखान बखानिए (४१) अनुसर अनुसरै है (४२) 'चुनना चुने है
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व कथादिक सुनें पापत उरें हैं। दान दीजिए। अधर्मी को दण्ड वे हैं। धर्मोपदेश देते हैं। दिव्यध्वनि करि उपदेश देते भये। उत्तम जीव सेचे हैं। विषयादिक सेवेंगे। जीव के स्वभाव कों घात । हाल चालै 1 यह जिवाया जीवंगा नाहीं। ग्रान को विधान न बखानिए । जिन महिमा अनुसरं है। तानें ग्रंथ गुंथने कौं भले वर्ण चुने हैं। बह शक्ति तो ज्ञानदर्शन बधे बधै। श्रीगुरु तो परिणाम सुधारने के अस्थि बाह्य क्रियानिकों उपदेश हैं। इहाँ बौऊ पूछ कि। नाना विध भाषा रूप होय विस्तरे हैं। शास्त्रनिको पाप पड़े है। इन्द्रियसुख को कारणभूत सामग्री मिल है। सामग्री को मिलावै । नाम धरचो तिन हर्षित होय । बीतराग तत्त्वज्ञान कों पोषते अर्थमि कौं धरेंगे।
(४३) बध (बढ़ना) बधै (४४) उपदेश उपदेश है
(४५) पूछ पुच्छ {४६) विस्तर विस्तरे है
(४७) पढ़ (४८} मिल
पढ़े है १. मिले है
(४६) घर
२. मिलावै १. घरयो २. धरेंगे
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भाषा
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(५०) प्रगट प्रगटै है (५१) निर्जर निर्जर है (५२) निकस निकस है (५३) उथाप उथाप है
प्रकाश प्रगट है। एक समयप्रबद्ध मात्र निर्जरे है । छस्से आठ जीव निकस है। पूजा प्रभावनादि कार्य को उथाप
(५४) अनुभव अनुभव है परमानन्दको अनुभव हैं। (५५) प्रादर प्रादरं है बारह प्रकार तपनि की प्रादरें हैं। {५६) विनश विनशै जा करि सुख उपजे व दुःख
बिनशे । (५७) अनुसर अनुसरे है सभा मांहि ऐसी जिनमहिमा
पानसरे है। (५८) स्वाद स्वार्दू सर्व कौं स्वायूँ ।
पालोच्य साहित्य में देशी क्रियाओं के निम्नलिखित रूप पाए जाते हैं :(१) चाह चाहै है । रागद्वेष भाव कों हेय जान करि
दूर किया चाहै हैं । (२) उपज १. उपज है
२. उपज्यो उपज्यो मानुष नाम कहाय । ( ३ ) देख १. देखिए है ताकै भी दुख देखिए है।
२. देखू सर्व कौं देखू । (४) जान १. जान है प्रत्यक्ष जान है।
२. जानें सर्व कौं आने । ३. जानने ते सर्व मुनि साधु संज्ञा के धारक
जानने । ( ५ ) पकर पकरें कौऊ शरीर को पकर तो आत्मा
भी पक रचा जाय।
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पंडित टोडरमल ; व्यक्तित्व और कर्तृत्व (६) निगल निगग्लिो दुख .. सा चम
निगलिये। (७) चाब चाब जैसे कूकरा हाड़ चाब। (८) बनाना १. बनावै है गूंथि करि गहना बनाये है। २. बनाऊँ हूँ बुद्धि अनुसारि गूंथि ग्रंथ
बनाऊँ हूँ। ३. बनाये तिन ग्रंथनि ते अन्य ग्रंथ बनाये । ४. बनाइये है तातें यह स्तोक सुगम ग्रंथ
बनाइये है। (६) गूंथ १. गूंथे है। अंग्रप्रकीर्णक ग्रंथ गूंथे हैं ।
२. गंधू हौं नाहीं गूंथू हौं । {१०) काढ काढ़िये है मलादिक पबन ते ही काढ़िये है । (११) खोस खोसे कबहूँ खोस । (१२) बनना बने है बाह्य नाना निमित्त बने है । (१३) देख देखिये है विघ्न का नाश होते देखिये है। (१४) पाना साय है अनेक काल विर्षे पूर्व बंधै कर्म
एक कालविर्षे उदय प्राई है। (१५) रह रहेंगे भविष्यकाल में हम सारिखे भी
ज्ञानी न रहेंगे। (१६) कूट कूद है तु कण छोड़ि तुस ही फूट है। (१७) फैलना फैले है सहज ही वाकी किरण फैले है। (१८) लागना लाग है उपयोग बिशेष लागे है। (१६) कुमावना कुमाए बिना कुमाए भी धन देखिए । (२०) मीड़ना मीड़े साँची झूठी दोऊ वस्तुनि कों
मीड़े। (२१) हापटा हापटा मार है बहरि वाको छोड़ि और को ग्नहै, मारना
ऐसे हापटा मार है।
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(२२) सेय सेइए हित का कर्ता जानि सेइए । (२३) पहिराव पहिरावै कबहूँ नवा पहिरावं। (२४) बोल बोले मरमच्छेद गाली प्रदानादि रूप
वचन बोले। (२५) धुनना धुन है सर्व कर्म धुने हैं। (२६) मिटना मिट तो छद्मस्थानि के मिटे,
ग्रंथ करन को पंथ । (२७) लगना लग्यो है लग्यो है अनादि ते कलंक कर्म
मल को। (२८) सूंघ सूचूं सर्व की सूचूं। (२६) पहिचान पहिचानिए भया यहु ग्रंथ सोई कर्म
पहिचानिए। (३) द हिगावै कोई भोला दो सौ ही मोती
नाम करि ठिगाये। प्रेरणार्थक क्रियाओं के निम्नलिखित रूप पाए जाते हैं :(१) परिणमना परिणमावै पुण्य प्रकृति रूप परिणमा । (२) ठहराना ठहराव वह तपश्चरण को बृथा ठहरावे । (३) अनाना अनाइये याको प्रतीति अनाइये है। (४) अनावना अनाव तिस उपाय की ताको प्रतीति
अनावै । (५) कराना १. करावं है। संयोग करावं है। २. करावी
जैसे बने तैसे शास्त्राभ्यास
करावौ। (६) लिखाना लिखावी लिखो लिखायौ वांची पढ़ी। (७) पढ़ाना पढ़ावं अन्य धर्मबुद्धीनिकौं पढ़ावै। (८) द्याव द्याक्ने दुख धावने की जो इच्छा है सो
कषायमय है।
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पंजित टोडरमल : व्यक्तित्व मौर कर्तृत्व १९) बताना बताइये है प्रथम ही कर्मबन्धन को निदान
बताइये है। (१०) दिखाना १. दिखाइये है ताका सार्थकपना दिखाइये है ।
२. दिखाया सो ताको मिथ्या दिखाया। (११) मिलना मिलादै असत्यार्थ पदनि को जैन शास्त्रनि
विर्षे मिलाये। (१२) बनाना बना है। अर ताहीं के अनुसार ग्रंथ
बनाव है। (१३) राख राखूगा मैं तो बहुत सावधानी राखूगा। (१४) लजाना लजावं जिनधर्म को लजाये। (१५) भ्रमाना भ्रमाव है अपने उपयोग को बहुत नाही
भ्रमावै हैं। निम्नलिखित विदेशी क्रियाएँ भी पाई जाती हैं :(१) बक्सना (देना) १. बक्सी राजा मौन अक्सी। २. बससे पीछे राजा बक्से तो ग्रहण
करना। ३. बक्स
पीछे ठाकुर बक्स तो ग्रहण की । वर्तमानकालिक क्रिया
पंडित टोडरमल ने अपने साहित्य की भाषा में मूल साध्यमान (विकरण) धातु एवं संज्ञापदों के साथ 'है' सहायक क्रिया के रूप जोड़ कर वर्तमान काल के रूप बनाए हैं, किन्तु मूल धातु या संज्ञा शब्द के अन्त में तथा सहायक क्रिया के पहिले 'ऐ, इए, औ, ऊँ' प्रत्यय लगाए हैं। जैसे 'कर' साध्यमान धातु में 'ऐ' प्रत्यय जो. कर और 'है' सहायक क्रिया लगाकर कर है' रूप बनाया है, जबकि मूल में संस्कृत 'करोति' से 'करई, करै' रूप बनता है, किन्तु आलोच्य भाषा में मात्र 'करे' कालबोध नहीं देता, अतः इसमें 'है' सहायक क्रिया लगाना
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517 diamy
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कानाike thvent
भाषा
आवश्यक हो जाता है। साध्यमान धातु से यहाँ प्राय: इसी प्रकार क्रियाएँ बनाई गई हैं। कहीं-कहीं सहायक क्रिया के बिना भी काम चलाया गया है । 'यों, ऊँ' प्रत्ययों का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन में किया गया है । उक्त रूपों के कुछ उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं :-- ऐ - कर-|-ऐ+हैकर है ताको भी मंद कर है।
धार+ए+है=धार है सामर्थ्य को पार है। इ:- लिख+३९+ - लिजिए है प्राकृत संस्कृत पद लिखिए है ।
सुन+इए+है-सुनिए है बहुत कठिनता सुनिए है। ओं- कर+ों+ही करों हौं टीका करने का उद्यम करों हौं।
विचार+ों+हौं-विचारों ही टीका करने विचारों हों। ॐ- गूंथ-++k-गू) हूँ नाही यूं हूं। निम्न उदाहरणों में सहायक क्रिया का प्रयोग नहीं किया गया है :स्वाद+ऊँ-स्वार्दू सर्व को स्वा५ । स्पर्श+ ऊँ स्पर्श सर्व को स्पर्श। बध+ए बधै यह शक्ति ज्ञानदर्शन बधे वधं । पूछ+ए पूछ यहाँ कोऊ पूछ । विनश+ए विनशै जा करि सुख उपजै व दुख विनशै । निगल +इए-निगलिए मुख में ग्रास घऱ्या ताकौं पवन तें
निगलिए। चाव --ए-चाब जैसे कूकरा हाड़ चाब। बोल +ए बोल मरमच्छेद गाली प्रदानादि रूप
बचन बोले। भूतकालिक क्रिया
भूतकाल सम्बन्धी रूप 'ई, श्रा, ए, ऐ, प्रौ' प्रत्यय जोड़ कर बनाये गए हैं। कहीं-कहीं 'थी, था, थे' सहायक क्रिया के रूप भी लगाये गए हैं । सामान्य भूत के रूप 'या, ए, ई, यो' प्रत्यय जोड़ कर
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पंडित टोडरमल : यक्तित्व मौर कर्तृत्व बना लिये गए हैं। कहीं-कहीं 'या' के साथ 'हुना है' भी लगा दिया गया है और कहीं-कहीं 'या' के स्थान पर 'या' भी लगा हुआ है। उदाहरण इस प्रकार हैं :बंध+ई+थी बंधी थी पूर्वे असाता आदि पाप प्रकृति
बंधी थी। रच+ए-रचे
द्रव्यानुयोग के ग्रंथ रचे । बक्स+ई-बक्सी
राजा बक्सी। सामान्यभूत सम्बन्धी उदाहरण निम्नानुसार हैं :-- देख --या देख्या
नृत्य देख्या । सुन+या सुन्या
राग सुन्या । सुंध--या-सूच्या
फूल सूंघ्या। जान+या-जान्या
स्वाद जान्या । स्पर्श - आ = स्पर्शा
पदार्थ स्पर्शा। ग्रह + या + हुआ = ग्रह्या हुग्रा मुखद्वार करि ब्रह्मा हमा
भोजन..."। उपदेश +- या = उपदेश्या सम्यग्दृष्टि जीव उपदेश्या सत्य
बचन को श्रद्धान कर है। मु (मरना) + ए = मुए मुए पीछे हमारा यश होगा । भू - ए = भए
विराजमान भए । भू + ई = भई
प्रारंभी अर पूरण भई। भू + यो = भयो
सफल मनोरथ भयो हमारो। उपज + यो उपज्यो उपज्यो मानुष नाम कहाय । धर + यो = धरचो
नाम घरयो तिन हर्षित होय, टोडरमल्ल कहैं सब कोय ।
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भाषा
निगमालिक जिस
भविष्यकाल के रूप आलोच्य साहित्य की भाषा में खड़ी बोली के समान 'गा, गे, गी' लगा कर ही बनाये गए हैं, किन्तु 'गा, गे, गो' प्रत्ययों के पूर्व मूल धातु के अन्त में ए, ए, ऐ, ओं, औं, ॐ का प्रयोग पाया जाता है । इनके अतिरिक्त 'सी, स्यूं , हो' प्रत्ययों का प्रयोग भी मिलता है । कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं :
ऐसे तो मानेंगे।
मान + ए + गे = मानेंगे प्रकाश +ों + गा= प्रकाशोंगा सेव + ए + गे= सेवेंगे जीव + ए | गा = जीवेगा रह + एं+गे = रहेंगे
कर +ऐ+ गे= करेंगे कर 4-ए + मा= करेगा लिस्त्र + औं + गा= लिखोगा कर + इ + ही = करिहौं =
बुद्धि अनुसार अर्थ प्रकाशोंगा। विषयादिक सेवेंगे। यह जिवाया जीवेगा नाहीं। भविष्यकाल में हम सरीखे भी ज्ञानी न रहेंगे। ऐसे विचारि हास्य न करेंगे। ऐसे कार्य कौन न करेगा। उपचार करि मैं लिखौंगा। कर मंगल करिहों महाग्रंथ करन को काज । मैं तो बहुत सावधानी राखूगा। एक हूँ वहुत होस्यूं । इससे इतना तो होसो नरकादिक न होसी स्वर्गादिक होसी परन्तु मोक्षमार्ग की प्राप्ति तो होय नाहीं।
राख - ॐ + गा राखंगा हो + स्यूं = होस्यूँ हो + सी = होसी
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व
प्राज्ञार्थ क्रिया
आज्ञार्थ रूप बनाने के लिए 'ओ, औ, ने, ना, हु' प्रत्यय प्रयोग किये गए हैं :(१) लिख -- श्री = लिखौ (२) लिखाव -|- औ = लिखाबो (३) बांच + औ = बांची (४) पद + प्रो = पढौ
लिखो लिखावौ बाँचौ पढ़ी, (५) सोध । यो = सोचो सोधो सोखो रुचिजुत बढ़ौ। (६) सीख + औ = सीखो । दुःखदायक रागादिक हरी, (७) बढ़ + औ = बढ़ी अर्थ विचारों धारण करौ ।। (८) हर +ौ = हरौ (६) विचार + औ = विचारी (१०) कर - प्री करी जान ने =जानने ।
ते सर्व मूनि साधु संज्ञा के धारक
जानने । जान -- मा= जानना तिनकी सुश्रुषा का निषेध किया
है, सो जानना। धार + औ = धारी
ते इस भाषाटीका ते अर्थ धारौ । जान + हु = जानहु
बहुरि लोभी पुरुषनिकों दान देना जो होय, सो शव जो मरचा ताका विमान जो चकडोल ताकी शोभा
समान जानहुँ। पूर्वकालिक क्रिया
पूर्वकालिक क्रियाएँ माध्यमान (विकरण ) धातु संज्ञा शब्दों में 'इ, पाय' प्रत्यय जोड़ कर बनाई गई हैं। सर्वाधिक प्रयोग 'इ' के मिलते हैं :
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कर + इ = करि
करि मंगल करिहौं महा,
ग्रंथ करन को काज । जात मिलै समाज सब,
पावै निज पद राज ॥ त्याग -- इ = त्यागि
गृहस्थपनौं त्यागि मुनिधर्म
अंगीकार करि.....! विचार -- ई - विचारि अपना प्रयोजन विचारि अन्यथा
प्ररूपण करें तो राग-द्वेष नाम
पावै। बन +माय = बनाय
ते झूठी कल्पित युक्ति बनाय विषय-कषायाशक्त पापी जीवनि
करि प्रगट किए हैं। पा+प्रायपाय
प्रधान पद कौं पाय संघ विर्षे
प्रधान भये । गा -|- प्राय = गाय
गाय गाय भक्ति करें। उपज +पाय - उपजाय तिनको लोभ कषाय उपजाय धर्म
कार्यनि विर्षे लगाइये हैं। चुर + आय = चुराय साहू के धनकं चुराय अपना माने
तौ गुमास्ता चोर ही कहिए । उक्त विवेचन से निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि टीकाओं और मोक्षमार्ग प्रकाशक में प्रयुक्त भाषा परम्परागत तत्कालीन प्रचलित अजभाषा ही है जिसे उन्होंने देशी कहा है, यद्यपि उसमें स्थानीय बोलचाल के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। आध्यात्मिक विद्या का प्रतिपादन होने के कारण इनकी गद्य शैली संस्कृतनिष्ठ है अर्थात् उसमें तत्सम शब्दों के प्रयोग अधिक हैं । उसकी तुलना में पद्म साहित्य की भाषा में तद्भव शब्द अधिक है। इसके अतिरिक्त स्थानीय देशी शब्दों का भी प्रयोग है। उर्दू का प्रभाव नगण्य है क्योंकि उसके बहुत कम शब्द मिलते हैं। इस प्रकार उनकी भाषा में देशी ठाठ है। भाववाचक संज्ञामों में 'आई, स्व, स्य,
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पंडित टोडरमस : व्यक्तित्व और कस्तत्व ता, पना, पनों, पने' और कहीं-कहीं दुहरे भाववाचक प्रत्ययों का प्रयोग किया है । उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम में विशेष उल्लेखनीय यह है कि इसमें कर्ता कारक के एकवचन में 'हौं' का प्रयोग नहीं है जबकि ब्रजभाषा में यह प्रयोग मिलता है। इसके स्थान पर आलोच्य भाषा में खड़ी बोली का 'मैं मिलता है । कर्ता कारक में 'ने' कहीं-कहीं ही मिलता है । आलोच्य भाषा में निम्नलिखित परसर्ग (कारक चिह्न) मिलते हैं :
कर्ता कर्म - को, कों, कौं, कू, ओं करण - तें, करि, स्यों, सेती सम्प्रदान -को, कों, ताईं, के अर्थि अपादान -ते, करि सम्बन्ध - का, की, के, के, को, को, कौं अधिकरण - विर्षे, इ, में |
डॉ. उदयनारायण तिवारी ने ब्रजभाषा के परसर्ग (कारक चिह्न) निम्नानुसार दिए हैं। :
कर्तृ - नें, मैं कर्म-सम्प्रदान - कुं, कू, कौं, के, के करण-अपादान - सों, सूं, ते, ते
सम्बन्ध - कौ; तिर्यक (पुल्लिग) के, (स्त्रीलिंग) की अधिकरण - में, मैं, पै, लौं दोनों के तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि आलोच्य भाषा के कर्म कारक में ब्रजभाषा के अन्य प्रत्ययों के साथ खड़ी बोली का 'को' भी मिलता है । करण और अपादान कारक में 'करि' का प्रयोग मिलता है जो कि अजभाषा में नहीं है। इसी 'हि. भा. उ० वि०, २४४
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भाषा
प्रकार सम्प्रदान कारक में 'के अथि' और 'ताई' नये प्रयोग है। सम्बन्ध कारक में प्रजभाषा की अपेक्षा व्यापक प्रयोग हुए हैं, खड़ी बोली का 'का' पाया जाता है जो कि मज में नहीं है । अधिकरण में ब्रजभाषा का 'लौं' और 'प' न होकर 'विष' और 'इ' पाया जाता है । प्रायः शेष कारक चिन्ह ब्रजभाषा से मिलते हैं।
पंडितजी की भाषा में खड़ी बोली का भी प्रभाव देखने में प्राता है। सामान्यभूत में 'चल्र.:, मासा, कहा' हा गाते हैं से खदी दोनी के निकट हैं। कुछ प्रयोग तो सीधे खड़ी बोली के भी हैं- जैसे 'स्पर्शा। शेष प्रायः सभी रूप अजभाषा से मिलते-जुलते हैं। खड़ी बोली से मिलते-जुलते कुछ अंश नीचे दिए जा रहे हैं :
"बहुरि मैं नृत्य देख्या, राग सुन्या, फूल सूंघ्या, पदार्थ स्पर्शा, स्वाद जान्या तथा मौकों यह जानना, इस प्रकार ज्ञेयमिश्रित ज्ञान का अनुभव है, ताकरि विषयनि करि ही प्रधानता भास है।"
"जैसे बाउलाकौं काहू नै वस्त्र पहराया, वह बाउला तिस वस्त्रकों अपना अंग जानि आपत पर शरीरको एक मानै । वह वस्त्र पहरावने वाले के अधीन है, सो वह कबहू फार, कबहू जोरै, कबहू खोस, कबहू नवा पहराव इत्यादि चरित्र करै । वह बाउला तिसकों अपने प्राधीन माने, वाकी पराधीन क्रिया होय तातें महा खेदखिन्न होय।"
उत्तम पुरुष एकवचन क्रिया के रूप निम्नलिखितानुसार पाए जाते हैं, जो खड़ी बोली के प्रति निकट हैं :____ "मैं सर्व को स्पशी, सर्व कौं स्वादौं, सर्व को सूंघों, सर्व को देखों, सर्व कौं सुनौं, सर्व कौं जानौं, सो इच्छा तो इतनी है और शक्ति इतनी ही है जो इन्द्रियनि के सम्मुख भया वर्तमान स्पर्श रस गंध वर्ण शबद तिनि विष काहू को किंचिन्मात्र ग्रहै ।" १ मो० मा० प्र०, ६७ २ वही, ७३ ३ वही, ६८
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्पस्व 'होइ' का प्रयोग भी बहुतायत से मिलता है । जैसे – “प्रायु पूर्ण भए तो अनेक उपाय कर है, अनेक सहाई होई तो भी मरन होइ ही होइ । एक समय मात्र भी न जीवै । पर यावत् आयु पूरी न होइ तावत् अनेक कारण मिलौ, सर्वथा मरन न होई । तातै उपाय किए मरन मिटता नाहीं । बहुरि प्रायु को स्थिति पूर्ण होइ हो होइ तातें मरन भो होइ ही होइ....!"
'होसी' का प्रयोग भी मिलता है। जैसे - 'जो इनका प्रयोजन पाप न बिचारै, तब तो सूवा का सा ही पढ़ना भया । बहरि जो इनका प्रयोजन विचार है, तहाँ पाप की बुरा जानना, पुन्य की भला जानना, मुगास्थानादिक का स्वरूप जानि लेना, इनका अभ्यास करेंगे, तितना हमारा भला है, इत्यादि प्रयोजन विचारया सो इसतें इतना तौ होसी-- नरकादि न होसी स्वर्गादिक होमी परन्तु मोक्षमार्ग की तो प्राप्ति होय नाही ।"
एक ही क्रिया के अनेक प्रकार के रूप देखने में आते हैं। जैसे'कर' के वर्तमान काल में ही 'करिये है, कीजिए है, करें हैं रूप मिलते हैं।
ब्रजभाषा की मृदुता सर्वत्र विद्यमान है। कठोर वर्गों के स्थान पर मृदु वणों का प्रयोग हुआ है। 'ड' के स्थान पर 'र' का प्रयोग मिलता है। जैसे - लडिएलरिए, लड़नेलरने, छोड़<छोरि, फोड़े फोरे, पकड़े पकरे, थोड़ा थोरा।
इस प्रकार पंडितजी की भाषा तत्कालीन जयपुर राज्य और पार्श्ववर्ती क्षेत्र में प्रयुक्त साहित्यभाषा ब्रज है किन्तु उसमें खड़ी बोली के रूप भी मिलते हैं तथा स्थानीय पुट भी विद्यमान है। उन्होंने अपनी भाषा को जो देशभाषा कहा है वह उक्त अर्थ में ही है, ढूंढाड़ी के अर्थ में नहीं । देशभाषा कह कर उन्होंने प्रान्त का बोध न करा के संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश से भिन्नता का बोध कराया है। उनकी भाषा परिमार्जित, सरल एवं सुबोध है।
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. मो. मा. प्र. ८८ ३ वही, ३४७
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सप्तम अध्याय
उपसंहार : उपलब्धियाँ और मल्यांकन
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उपसंहार : उपलब्धियाँ और मूल्यांकन
भारतीय परम्परा में धर्म और दर्शन एक दूसरे से अन्तः सम्बद्ध हैं । उनकी यह अन्तः सम्बद्धता मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्य और नैतिक आचरण से सम्बन्ध रखती है। समय के प्रवाह में लौकिक मूल्यों और आध्यात्मिक मूल्यों में उतार-चढ़ाव के साथ अन्तविरोध की स्थितियां श्रीविभित होती रहती हैं। कभी सूक्ष्म प्राध्यात्मिक साधनाएँ और विचारधाराएँ वाह्य आडम्बर और धर्म की मिथ्या अभिव्यक्तियों से श्राच्छन्न हो जाती हैं और कभी आध्यात्मिकता की प्रतिवादी शक्तियाँ मनुष्य के जीवन को अकर्मण्य बना कर उसकी समूची ऐहिक प्रगति के पथ को अवरुद्ध कर देती हैं। जैन धर्म भी इस प्रक्रिया का अपवाद नहीं ।
ईसा की छठी शती के आसपास जिन परम्परा के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बनवासी व चैत्यवासी भेद हो चुके थे तथा कुछ दिगम्बर साधु भी त्यों में रहने लगे थे' । प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र ने मठवासी साधुयों की प्रवृत्ति की कड़ी आलोचना की है । दिगम्बरों में भी चैत्यवास की प्रवृत्ति द्राविड़संघ की स्थापना के साथ प्रारंभ होती है, जो बाद में मूलसंघ में भी श्रा जाती है।
पहिले मठवासी साधु नग्न ही रहते थे, बाद में उनमें शिथिलाचार बढ़ा और यहीं से भट्टारकवाद की स्थापना हुई । मुस्लिम राज्यसत्ता ने भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। आलोच्यकाल तक आते-आते भट्टारकवाद देश के विभिन्न भागों में फैल कर अपनी जड़ें गहरी और मजबूत बना चुका था । यह युग सभी धर्मों में वाह्य शिथिलाचार एवं साम्प्रदायिक भेद-प्रभेद का युग था । सोलहवीं शती में दिगम्बरों में तारणस्वामी और श्वेताम्बरों में लोकाशाह ने क्रमशः तारणपंथ एवं
१ भा० सं० ॐ० यो०, ४५ २० सा० इति०, ४५६
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३१२
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व मोर कसंव स्थानकवासी संप्रदाय की स्थापना की तथा अठारहवीं शती में प्राचार्य भिक्षु ने स्थानकवासियों में से एक तेरहपंथ अलग बनाया।
सत्रहवीं-अठारहवीं शती में दिगम्बर परम्परा में भट्टारकवाद ठाठ-बाट की चरम सीमा पर था और निवृत्तिवाद पर प्रवृत्तिबाद जम कर प्रासन जमाए बैठा था, जिसने एक तथाकथित प्राध्यात्मिक सत्तावाद स्थापित कर लिया था - जिसका वास्तविक अध्यात्मवाद से कोई सम्बन्ध न था। सब्रह्लीं शती में इसके विरुद्ध विद्रोह का चीड़ा बनारसीदास ने उठाया। उनके बाद क्रांति की इस परम्परा में पंडित टोडरमल का नाम उल्लेखनीय है। प्रांति की इस धारा का नाम 'अध्यात्मवाद' और 'तेरापंथ' अभिहित किया गया है ।
छठी शती से लेकर सोलहवीं शती तक बिशाल भारतीय धर्मों के पंथों में भी यथास्थितिवाद और आध्यात्मिक विचारधारा के बीच संघर्ष होते रहे हैं। प्राचार्य शंकर के वेदान्नवाद और धार्मिक संगठन ने भी इस देश की धार्मिक विचारधाराओं को बहुत दूर तक प्रभावित किया। कुछ आलोचकों के अनुसार उनके मठों की स्थापना का प्रभाव भट्टारक प्रथा पर पड़ा।
___ यद्यपि बौद्ध धर्म को निःशेष करने का श्रेय प्राचार्य शंकर को है तथापि परवर्ती लाल में बौद्ध साधना ने नई साधनाओं को जन्म दिया । सिद्ध, नाथ, निर्गण, सगुण आदि आध्यात्मिक विचारधाराओं में यह क्रिया-प्रतिक्रिया स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। जैन धर्म भी इस विशाल प्राध्यात्मिक उथल-पुथल और वाह्य दबावों का तटस्थ दृष्टा नहीं रह सका, उसमें भी इसकी प्रतिक्रिया हुई।
पंडित टोडरमल का समय विक्रम की अठारहवीं शती का अन्त एवं उन्नीसवीं शती का प्रारंभिक समय है । यद्यपि यह समय राजनीतिक दृष्टि से मुगलसत्ता के विघटन का युग था तथापि असंगठित हिन्दू राजसत्ता भी इस परिस्थिति का लाभ नहीं उठा सकी । नादिरशाह दुर्रानी और अहमदशाह की दिल्ली लूट के बाद देश में केन्द्रीय शासन के अभाव में
'भ० सं०, १७
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उपसंहार : उपलरिधयों और मूल्यांकन प्रान्तीय स्वायत्तता का भाव अधिक था । यद्यपि पंडितजी के समकालीन जयपुर रियासत सम्पन्न एवं सुशासित थी तथापि उनके जीवन तथ्यों से यह प्रमाणित है कि वहाँ भी एक समय साम्प्रदायिक तनाव अवश्य रहा' । ___ साहित्यिक दृष्टि से यह युग रीतिकालीन शृंगार युग था । जैन कवि शृंगारमुलक रचनाओं के कड़े पालोचक थे । वे इसी के समानान्तर प्राध्यात्मिक ग्रंथों के निर्माण में लगे हए थे। उन्होंने प्राचीन प्राकृत-संस्कृत धर्म ग्रन्थों की गद्य में भाषा व नकाएँ लिखीं। यद्यपि यह परम्परा पंडितजी के दो सौ वर्ष पूर्व से मिलती है तथापि उसे पूर्णता पर उन्होंने ही पहुँचाया :
पंडितजी के जीवन का पूरा इतिवृत्त नहीं मिलता है। विभिन्न प्रमारणों के आधार पर इतना निश्चित है कि एकाध अपवाद को छोड़ कर जयपुर ही उनकी कार्यभूमि था। जयपुर के बाहर वे केवल चार-पाँच वर्ष सिंघारणा रहे । पंडितजी ने स्वयं लिखा है :
देश ढहारह माँहि महान, नगर सवाई जयपुर जान । तामें ताकी रहनौ घनो, थोरो रहनो औठे बनो' ।।
परम्परागत मान्यतानुसार पंडितजी की आयु कुल २७ वर्ष की थी परन्तु उनकी साहित्य साधना, ज्ञान एवं प्राप्त उल्लेखों को देखते हुए मेरा निश्चित मत है कि वे ४७ वर्ष तक जीवित रहे। उनकी मृत्यु तिथि लगभग प्रमाणित है। अतः जन्म तिथि इस हिसाब से विक्रम संवत् १७७६-७७ में होना चाहिए। वे प्रतिभासम्पन्न, मेधावी और अध्ययनशील थे। उस समय प्राध्यात्मिक चिन्तन के लिए जो अध्ययन मंडलियाँ थीं, उन्हें 'सली' कहा जाता था। पंडितजी को आध्यात्मिक चिन्तन की प्रेरणा जयपूर की तेरापंथ सैली से मिली थी। बाद में वे इस मैली के संचालक भी बने । 'सैली' का लक्ष्य धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ न्याय, व्याकरण, छंद, अलंकार, प्रादि की शिक्षा देना भी था।
'चु० वि०, १५२-१५७ २ स. चं० प्र०, छंद ४१
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पंडित दोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तव प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी के अतिरिक्त उन्हें कन्नड़ भाषा का भी ज्ञान था। मूल ग्रंथों को वे कन्नड़ लिपि में पढ़-लिख सकते थे। उनका कार्यक्षेत्र आध्यात्मिक तत्वज्ञान का प्रचार व प्रसार करना था, जिसे वे लेखन-प्रवचन आदि माध्यम से करते थे। उनका सम्पर्क तत्कालीन आध्यात्मिक समाज से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से दूर-दूर तक था। अनेक जिज्ञासु उनके सम्पर्क में आकर विद्वान् बने । उनसे प्रेरणा पाकर कई विद्वानों ने साहित्य सेवा में अपना जीवन लगाया एवं परवर्ती विद्वानों ने उनका अनुकरण किया । वे विनम्र, पर स्वाभिमानी एवं सरल स्वभावी थे। वे प्रामाणिक महापुरुष थे । तत्कालीन प्राध्यात्मिक समाज में तत्त्वज्ञान सम्बन्धी प्रकरणों में उनके कथन प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत किए जाते थे। बे लोकप्रिय आध्यात्मिक प्रवक्ता थे । ग्रहस्थ होने पर भी उनकी वृत्ति साधुता की प्रतीक थी।
उन्होंने अपने जीवन में छोटी-बड़ी बारह रचनाएँ लिखीं, जिनका परिमाण करीब एक लाख श्लोक प्रमाण है -- पांच हजार पृष्ठ के करीब । इनमें कुच्छ लोकप्रिय सैद्धान्तिक एवं आध्यात्मिक गन्थों की भाषाटीकाएँ हैं - एक है मौलिक ग्रन्थ अत्यन्त लोकप्रिय 'मोक्षमार्ग प्रकाशक । एक है प्रसिद्ध आध्यात्मिक पत्र जिसे 'रहस्यपूर्ण चिट्टी' के नाम से जाना जाता है । पञ्च-रत्तना है 'गोम्मटसार पूजा' जो कि संस्कृत और हिन्दी छंदों में लिखी गई है। एक वर्णनात्मक कृति 'समोसरण वर्णन' है। टीकाग्रन्थों में कुछ प्राकृत ग्रन्थों की टीकाएँ हैं
और कुछ संस्कृत ग्रन्थों की। प्राकृत ग्रन्थों में गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार-क्षपरणाराार पर लिखी गई टीकाएँ हैं, जिनका नाम है 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' । सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका में प्राए विषयों को समझाने के लिए हजारों संदृष्टियाँ (चार्ट्स) बनाई, जिन्हें स्वतंत्र रूप से अर्थसंदृष्टि अधिकार में रखा गया है। इस अधिकार को भी सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका का परिशिष्ट समझना चाहिए । इसके अतिरिक्त प्राकृत भाषा का ग्रन्थ त्रिलोकसार भी है। इसकी टीका त्रिलोकसार भाषाटीका' नाम से लिखी है। सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका और त्रिलोकसार भाषाटीका के प्रारम्भ में उनके विषय में सुगमता से प्रवेश करने के लिए विशाल भूमिकाएँ लिखी गई हैं।
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उपसंहार : उपलब्धियां प्रौर मूल्यांकन
संस्कृत टीकाग्नन्थों में 'अात्मानुशासन' एवं 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' की भाषाटीकाएँ हैं। पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषाटीका अपूर्ण रह गई थी जिसे बाद में दीवान रतनचंद की प्रेरणा से पं० दौलतराम कासलीवाल ने वि० सं० १८२७ में पूर्ण किया। मोक्षमार्ग प्रकाशक भी अधूरा रह गया है जिसे पूर्ण करने के लिए कबिवर दालनदास बनारस ने अनेक ग्रन्थों के लोकप्रिय टीकाकार पंडित जयचंद छाबड़ा जयपुर से प्राग्रह किया था किन्तु उन्होंने पं० टोडरमल की बुद्धि की विशालता एवं स्वयं के ज्ञान की तुच्छता प्रदर्शित करते हुए इसके लिये असमर्थता प्रकट की थी । उनका लिखना था कि कोई मूलग्रन्य हो तो उसकी टीका या व्याख्या तो मैं कर सकता है किन्तु मोक्षमार्ग प्रकाशक जैसी स्वतंत्र मौलिक कृति की रचना टोडरमल जैसे विशाल बुद्धि वाले का ही कार्य है।
उनका पद्य साहित्य यद्यपि सीमित है, फिर भी उसमें जो भी है, उनके कवि-हृदय को समझने के लिए पर्याप्त है ।
पंडितजी का सबसे बड़ा प्रदेय यह है कि उन्होंने संस्कृत प्राकृत में निबद्ध प्राध्यात्मिक तत्त्वज्ञान को भाषागद्य के माध्यम से व्यक्त किया
और तत्त्व-विवेचन में एक नई दृष्टि दी। यह नयापन उनकी क्रान्तिकारी दृष्टि में है। वे तत्त्वज्ञान को केवल परम्परागत मान्यता एवं शास्त्रीय प्रामाणिकता के सन्दर्भ में नहीं देखते । तत्वज्ञान उनके लिए एक जीवित चिन्तन प्रत्रिया है जो केवल शास्त्रीय परम्परागत रूढ़ियों का ही खण्डन नहीं करती अपितु समकालीन प्रचलित चिन्तनरूढ़ियों का भी खण्डन करती है। उनकी मौलिकत्ता यह है कि जिस तत्त्वज्ञान से लोग रूढ़िवाद का समर्थन करते थे, उसी तत्त्वज्ञान से उन्होंने रूढ़िवाद को काटा। उन्होंने समाज की नहीं, तत्त्वज्ञान की चिन्तन-रूढ़ियों का खण्डन किया। उनकी स्थापना है कि कोई भी तत्त्व-चिन्तन तब तक मौलिक नहीं जब तक अपनी तर्क और अनभूति पर सिद्ध न कर लिया गया हो । कुल और परम्परा से जो तत्त्वज्ञान को स्वीकार लेते हैं, वह भी सम्यक् नहीं है। उनके अनुसार धर्म परम्परा नहीं, स्वपरीक्षित साधना है। उन्होंने निश्चय और व्यवहार पर भी अपना मौलिक भाष्य प्रस्तुत किया है ।
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३१६
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व वे मुख्य रूप से आध्यात्मिक चिन्तक हैं, परन्तु उनके चिन्तन में तर्क और अनुभूति का सुन्दर समन्वय है। वे विचार का ही नहीं, उसके प्रवर्तक और ग्रहणकर्ता की योग्यता-अयोग्यता का भी तर्क की कसौटी पर विचार करते हैं । तत्त्वज्ञान के अनुशीलन के लिए उन्होंने कुछ योग्यताएँ प्रावश्यक मानी हैं। उनके अनुसार मोक्षमार्ग कोई पृथक नहीं प्रत्युत् आत्मविज्ञान ही है, जिसे वे वीतराग-विज्ञान कहते हैं। जितनी चीजें इस वीतराग-विज्ञान में रुकावट डालती हैं, वे सब मिथ्या हैं। उन्होंने इन मिथ्याभावों के गृहीत और अग्रहीत दो भेद किए हैं। गृहीत मिथ्यात्व से उनका तात्पर्य उन विभिन्न धारणाओं और मान्यताओं से है जिन्हें हम कुगुरु आदि के संसर्ग से ग्रहण करते हैं और उन्हें ही वास्तविक मान लेते हैं - चाहे वे पर-मत की हों या अपने मत की। इसके अन्तर्गत उन्होंने उन सारी जैन मान्यताओं का ताकिक विश्लेषण किया है जो छठी शती से लेकर अठारहवीं शती तक जैन तत्त्वज्ञान की अंग मानी जाती रही और जिनका विशुद्ध प्राध्यात्मिक ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। जैन साधना के इस वाह्य आडम्बर - क्रियाकाण्ड, भट्टारकबाद, शिथिलाचार आदि का उन्होंने तलस्पर्शी और विद्वत्तापूर्ण खण्डन किया है।
इनके पूर्व बनारसीदास इसका खण्डन कर चुके थे, परन्तु पंडितजी ने जिस चितन, तर्क-वितर्क, शास्त्र-प्रमाण, अनुभव और गहराई से इसका विचार किया है वह ठोस, प्रेरणाप्रद, विश्वसनीय एवं मौलिक है। इस दृष्टि से उन्हें एक ऐसा विशुद्ध आध्यात्मिक चिन्तक कहा जा सकता है जो हिन्दी-जैन-साहित्य के इतिहास में ही नहीं, बल्कि प्राडात व अपभ्रंश में भी पिछले एक हजार वर्षों में भी नहीं हुआ। धार्मिक आडम्बर और वाह्य क्रियाकाण्ड का विरोध और खण्डन सरहलाद, जोइन्दु, रामसिंह, नामदेव, कबीर, जाम्भोजी, नानक प्रादि सन्तों और कवियों ने भी किया था। उन्होंने स्वानुभूति पर भी जोर दिया, परन्तु पंडितजी ने जिस विशुद्ध शास्त्रीय और मानवीय दृष्टिकोण से प्राध्यात्मिक सत्य का विश्लेषण गद्य में किया है, बह मौलिक है। उनकी मूल दृष्टि सन्तुलन बनाये रखने व मूल लक्ष्य न छोड़ने की है।
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उपसंहार : उपलब्धियां और मूल्यांकन
३१७ टीकाकार होते हुए भी पंडित जी ने अपनी गद्य शैली का निर्माण स्वयं किया। उनकी शैली दृष्टान्तयुक्त, प्रश्नोत्तरमयी तथा सुगम है। वे ऐसी शैली को अपनाते हैं जो न तो एकदम शास्त्रीय है और न आध्यात्मिक सिद्धियों और चमत्कारों से बोझिल । उनकी इस शैली का सर्वोत्तम निर्वाह मोक्षमार्ग प्रकाशक में है । उस समय तक हिन्दी में प्रश्नोत्तर रूप में मुख्यतः निम्नलिखित गद्य शैलियाँ प्रचलित थीं :
(१) गुरु-शिष्य अथवा दो प्रसिद्ध व्यक्तियों के प्रश्नोत्तर या संवाद के रूप में। यह शैली नाथपंथी और कबीरपंथी साहित्य में पाई जाती है । इसमें पंथ-विशेष के प्रतिष्ठापक या गुरु-विशेष के मुल मंतव्यों का स्पष्टीकरण मुख्यतः रहता है ।।
(२) विभिन्न प्रकार के लोगों द्वारा विभिन्न समय और स्थिति में पूछे गए अनेकविध प्रश्नों के उत्तर के रूप में सम्प्रदाय-प्रवर्तक या गुरु-विशेष द्वारा वारणी कथन । इस शैली का प्रयोग जम्भवाणी में हुआ है ।
(३) किसी मत, विचार, कथन, तात्त्विक-रहस्य, चितन-बिन्दु विशेष की व्याख्या हेतु लेखक द्वारा स्वयं ही विविध प्रश्न उठाना और अनेक कोणों से स्वयं ही उनका सम्यक, तकसम्मत एवं बोधगम्य रूप में उत्तर देना । इस शैली के एकछत्र सम्राट पंडित टोडरमल हैं। कहने की आवश्यता नहीं कि इसके लिए अनेक शास्त्रों के मंथन और गहन चितन की आवश्यकता थी, क्योंकि उस समय तक इस प्रकार के परिष्कृत प्रयोग प्रचलित नहीं थे । ऐसी स्थिति में गद्य को आध्यामिक चिंतन का माध्यम बनाना बहुत ही सूझ-बूझ और श्रम का कार्य था। उनकी शैली में उनके नितक का चरित्र और तर्कका स्वभाव स्पष्ट झलकता है। एक आध्यात्मिक लेखक होते हुए भी उनकी गद्य शैली में व्यक्तित्व का प्रक्षेप उनकी ही मालिक विशेषता है ।
दृष्टान्त उनकी शैली में मरिण-कांचन योग से चमकते हैं। दृष्टान्तों के प्रयोग में पंडितजी का सुक्ष्म वस्तु-निरीक्षण प्रतिबिंबित है। कभी-कभी तो वे एक ही दृष्टान्त को वहुत आगे तक बढ़ा कर अपना प्रतिपाद्य स्पष्ट करते हैं, और कभी एक ही वात के लिए अनेक दष्टान्तों का प्रयोग करते हैं।
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३१८
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व उनकी शैली की विशेषता यह है कि प्रश्न भी उनके होते हैं और उत्तर भी उनके । पूर्व प्रश्न के समाधान में अगला प्रश्न उभर कर आ जाता है। इस प्रकार विषय का विवेचन विचार के अंतिम बिन्दु तक पहुंचने पर ही वह प्रश्न समाप्त होता है । उनकी शैली की एक मौलिकता यह है कि वे प्रत्यक्ष उपदेश न दे कर अपने पाठक के सामने वस्तुस्थिति का चित्रण और उसका विश्लेषण इस तरह करते हैं कि उसे अभीष्ट निष्कर्ष पर पहुँचना ही पड़ता है । एक चिकित्सक रोग के उपचार में जिस प्रक्रिया को अपनाता है, पंडितजी को मनाली में यह प्रक्रिया देखी जा सकती है । उनको शैली तर्क-वितर्कमूलक होते हुए भी अनुभूतिमूलक है। कभी-कभी वह मनोवैज्ञानिक तर्कों से भी काम लेते हैं । उनके तर्क में कठमुल्लापन नहीं है । उनकी गद्य शैली में उनका अगाध पाण्डित्य और आस्था सर्वत्र प्रतिबिम्बित है । उनकी प्रश्नोत्तर शैली आत्मीय है क्योंकि उसमें प्रश्नकर्ता और समाधानकर्ता एक ही है। उसमें शास्त्रीय और लौकिक जीवन से सम्बन्धित दोनों प्रकार की समस्याओं का विवेचन है। जीवन के और शास्त्र के प्रत्येक क्षेत्र से उन्होंने अपने उदाहरण चुने हैं। कहीं-कहीं कथा-कहानी भी उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की गई हैं । लोकोक्तियों का भी उसमें प्रयोग है।
हिन्दी के अन्तर्गत सामान्यतः पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी, बिहारी तथा पहाड़ी भाषाओं और इनकी बोलियों की गणना की जाती है । इस प्रकार इनमें से किसी भी बोली या भाषा में लिखा गया गद्य हिन्दी गद्य कहलाएगा । अद्यावधि उपलब्ध सामग्री के आधार पर राजस्थानी, मैथिली, पुरानी अवधी,
' (क) हिन्दी भाषा का इतिहास : डॉ. धीरेन्द्र बर्मा
(ख) हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास : डॉ. उदयनारायण तिवारी २ राजस्थानी भाषा और साहित्य : डॉ. हीरालाल माहेश्वरी, अध्याय १४ तथा
उसके अंतर्गत दिये गए विभिन्न संदर्भ 3 (क) वर्ण रत्नाकर
(ख) हिस्ट्री ऑव मैथिली लिट्रेचर, भाग १, डॉ. जयकान्त मिश्र ४ उक्तिव्यक्ति प्रकरण
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उपसंहार: उपलब्धियां और मूल्यांकन
३१६
५
पड़ी बोली और इनके प्राचीन गद्यों के नमूने मिलते हैं। ब्रजभाषा और खड़ी बोली के सम्बन्ध में कुछ बातें विचारणीय हैं। प्राचार्य भिखारीदास का यह कथन :
-
"ब्रजभाषा सीखिबे की त्रजवास ही न अनुमानौ । ऐसे ऐसे कविन की, वानी हू लें जानिये ।। " ब्रजभाषा के प्रचार और प्रसार के संदर्भ में यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और सटीक टिप्पणी है। खड़ी बोली के लिए भी प्रकारान्तर से कुछ ऐसी ही बात कही जा सकती है, किन्तु नितान्त भिन्न संदर्भ में । मुसलमानों के इस देश में निरन्तर प्राते रहने और अनेक के यहाँ स्थायी रूप से बस जाने के कारण यहाँ के लोगों और विदेशी आगन्तुकों की भाषाओं का पारस्परिक आदान-प्रदान हुआ । श्रनेक सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक और भौगोलिक कारणों से दोनों के सम्मिलन से खड़ी बोली को रूप-रेखा मिली । जहाँ-जहाँ मुसलमानों का विशेष प्राबल्य रहा, वहाँ वहाँ यहाँ के क्षेत्र विशेष की भाषा के संपर्क और समन्वय से खड़ी बोली अपना रूप सुधारती गई । ऊपर लिखे कारणों से उन्नीसवीं शताब्दी में उसमें एकरूपता यानी आरम्भ हुई, जिसकी पूर्ण परिणति और निखार आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के हाथों हुआ। अनेक ऐसे कवि और लेखक हुए, जिन्होंने यहाँ के क्षेत्र विशेष की भाषा के साथ खड़ी बोली का; तथा क्षेत्र विशेष की भाषा के साथ ब्रजभाषा का प्रयोग किया है । ऐसे भी लेखक हुए जिन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं की विशेषताओं के साथ उपर्युक्त प्रकार की खड़ी बोली और ब्रजभाषा- दोनों का मिश्रण
,
खड़ी बोली के लिए द्रष्टव्य :
(क) कुतुब- शतक और उसकी हिन्दुई सम्पादक डॉ० माताप्रसाद गुप्त (ख) पंजाब प्रान्तीय हिन्दी साहित्य का इतिहास : पं० चन्द्रकान्त वाली (ग) खड़ी बोली हिन्दी साहित्य का इतिहास : वृजरत्नदास
' ब्रजभाषा के लिए द्रष्टव्य :
(क) सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य : शिवप्रसादसिंह (ख) अजभाषा का व्याकरण : डॉ० भीरेन्द्र वर्मा
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३२०
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
किया है। पंडित टोडरमल की भाषा पर अंतिम दोनों बातें विशेष रूप से लागू हैं, यद्यपि उनका झुकाव क्षेत्रीय भाषा - ढूंढाड़ी मिश्रित ब्रजभाषा की ओर विशेष है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पंडितजी की भाषा प्रधान रूप से ढूंढाड़ी मिश्रित ब्रज है जिसमें यत्र-तत्र खड़ी बोली के रूप भी प्रयुक्त हुए हैं ।
यों तो खड़ी बोली और ब्रजभाषा के नमूने हिन्दी के आदिकालीन साहित्य में मिलते हैं, किन्तु पन्द्रहवीं शताब्दी से उनके अपेक्षाकृत प्रौढ़ नमूने प्राप्त होते हैं । श्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किसी अज्ञात लेखक द्वारा रचित ब्रजभाषा का नमूना दिया है, जो इस प्रकार है :
"श्री गुरु परमानन्द तिनको दंडवत है । हैं कैसे परमानन्द, आनन्द स्वरूप हैं सरीर जिन्हि को, जिन्हिके नित्य गाए तें सरीर चेतन्नि अरु श्रानन्दमय होतु हैं । मैं जु हों गोरिष सो मछंदरनाथ को दण्डवत करत ह । हैं कैसे वे मछंदरनाथ ? आत्मज्योति निश्चल है अंत करन जिनके अरु मूलद्वार तैं छह चक्र जिनि नीकी तरह जानें " । "
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार गोरखपंथ से सम्बन्धित पुस्तकों का काल विक्रम की दशमी शती है और इस प्रकार ब्रजभाषा गद्य के प्राचीनतम लेखक गोरखनाथ माने जा सकते हैं, किन्तु प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल और मिश्रबन्धु ने इन्हें गोरखनाथ की लिखी न मान कर उनके शिष्यों द्वारा लिखी माना है । इसीलिए वे उसका समय १४वीं शती के आसपास मानते हैं। डॉ० रामकुमार वर्मा तो इसे इसके भी बाद का मानते हैं * ।
५
डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि गोरखबानी' में संग्रहीत सभी रचनाएँ गोरल रचित नहीं हैं तथा
" हि० सा० इति०, ४०३
वही, ४०३
मिश्रन्धु विनोद प्र० भा०, २४२
४ हि० सा० प्रा० इति०, १११
# जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और साहित्य - भाग १, २ : डॉ० हीरालाल माहेश्वरी
गोरखबानी : संपादक - डॉ० पीताम्बरदत्त बडथ्वाल
"
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उपसंहार : उपसम्धिा और मूल्यांकन
३२१ उनका संकलन विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में नाथ सिद्ध पृथ्वीनाथ के समय किया गया था।
मद्य का एक और नमूना 'शृगार रस मंडन' में दिखाई देता है, . जिसकी भाषा का नमूना निम्नलिखित है :
"प्रथम की सखी कहतु हैं । जो गोपीजन के चरण विष सेवक का दासी करि जो इनको प्रेमामृत में डुबि के इनके मंद हास्य ने जीते हैं । अमृत समूह ता करि निकंज विष शृगाररस श्रेष्ठ रसना कीनो सो पूर्ण होत भई'।"
प्राचार्य शुक्ल और मिश्रबन्धु आदि ने 'शृगार रस मंडन' का लेखक श्री वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथजी को माना है, किन्तु डॉ० प्रेमप्रकाश गौतम ने सिद्ध किया है कि यह पुस्तक विट्ठलनाथजी ने संस्कृत में लिखी थी । इसका अजभाषा में रूपान्तर किसी अन्य परवर्ती विद्वान् (संभवतः १८वीं शती) का है |
इसके बाद वल्लभ सम्प्रदाय के 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता तथा 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' की गद्य रचनाएँ हैं। इनके लेखक के सम्बन्ध में मतभेद है । कुछ लोग इन्हें विट्ठलनाथ के पुत्र गोकुलनाथ की लिखी मानते हैं, जबकि कुछ लोग उनके किसी शिष्य के द्वारा। इनका समय सत्रहवीं शती का उत्तरार्द्ध है । इनमें कथाएँ बोलचाल की भाषा में लिखी गई हैं और अरबी, फारसी के शब्दों का निःसंकोच प्रयोग है । प्राचार्य शुक्ल का कहना है कि साहित्यिक निपुणता या चमत्कार की दृष्टि से ये कथाएँ नहीं लिखी गई 1 उदाहरण के लिए यह उद्धृत अंश पर्याप्त होगा :
"सो श्री नंदगाम में रहतो सो खंडन ब्राह्मण शास्त्र पन्यो हतो। सो जितने पृथ्वी पर मत हैं सबको खंडन करतो; ऐसो वाको नेम हतो । याही ते सब लोगन ने वाको नाम खंडन पारयो हतो। सो एक दिन श्री महाप्रभुजी के सेवक बैष्णवन की मंडली में आयो ।
'हि. सा० इति०, ४०४ २ हि ग० वि०, ६०
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३२२
पंधित टोडरमल : यक्तित्व और करिब सो खंडन करन लागो। वैष्णवन ने कही जो तेरो शास्त्रार्थ करनो होवै तो पंडितन के पास जा, हमारी मंडली में तेरे प्रायबे को काम नहीं। इहाँ खंडन मंडन नहीं है । भगवद्वार्ता को काम है। भगवद्यश सुननो हो तो इहाँ श्रावो' ।"
विक्रम संवत् १६६० में नाभादास द्वारा लिखित अष्टयाम के ब्रजभाषा गद्य का नमूना इस प्रकार है :
"तब श्री महाराज कुमार प्रथम वसिष्ठ महाराज के चरन छुइ . प्रनाम करत भए 1 फिर ऊपर वृद्ध-समाज तिनको प्रनाम करत भए । फिर श्री महाराजाधिराज जू को जोहार करिके श्री महेंद्रनाथ दशरथ जू के निकट बैठते भए ।”
पूर्व टोडरमल, जैन लेखेकों द्वारा रचित गद्य के कतिपय नमूने कालक्रमानुसार निम्नलिखित हैं :
"यथा कोई जीव मदिरा पीवाइ करि अविकल कीजै छ, सर्वस्व छिनाइ लीज छ। पद तें भ्रष्ट कीजै छै तथा अनादि ताई लेई करि सर्व जीव राशि राग द्वेष मोह अशुद्ध परिणाम करि मतवालो हलो छ, तिहि ते ज्ञानाबरणादि कर्म को बंध होइ छ ।”
उक्त गद्य खण्ड सत्रहवीं शती के पूर्वार्द्ध के प्रसिद्ध विद्वान् पंडित राजमलजी पाण्डे द्वारा रचित समयसार कलश की बालबोधिनी टीका से लिया गया है। इसके करीब पचास वर्ष बाद कविवर पंडित बनारसीदास के द्वारा लिखित 'परमार्थ वचनिका' का गद्म इस प्रकार है :
"मिथ्यादृष्टी जीव अपनी स्वरूप नहीं जानती तातें पर-स्वरूप विष मगन होइ करि कार्य मानतु है, ता कार्य करती छती अशुद्ध व्यवहारी कहिए । सम्यग्दृष्टि अपनी स्वरूप परोक्ष प्रमान करि अनुभवतु है । परसत्ता परस्वरूपसौं अपनी कार्य नहीं मानतो संतो पहि० सा० इति०, ४०४-४०५ २ वही, ४०५ ३ हि सा०, वि० ख०, ४७६-४७७
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उपसंहार : उपलग्घियां प्रौर मूल्यांकन जोगद्वारकरि अपने स्वरूपको ध्यान बिचाररूप क्रिया करतु है ता कार्य करतौ मिश्र व्यवहारी कहिए। केवलज्ञानी यथाख्यात चारित्र के बलकरि शुद्धात्मस्वरूप को रमनशील है तातें शुद्ध व्यवहारी कहिए, जोगारूह अवस्था विद्यमान है तातै व्यवहारी नाम कहिए । शुद्ध व्यवहार की सरहद त्रयोदशम गुणस्थानक सौं लेइ करि चतुर्दशम गुणस्थानक पर्यंत जाननी । प्रसिद्धत्व परिगमनत्वात् व्यवहार : ।
इन बातनको ब्यौरो ई लिरिक वा माहित । वचनातीत, इन्द्रियातीत, ज्ञानातीत तात यह विचार वहुत कहा लिखहिं । जोग्याता होइगो सो थोरो ही लिख्या बहुत करि समझेगो, जो प्रग्यानी होइगो सो यह चिट्ठी सुनंगो सही परन्तु समुझमो नहीं । यह वचनिका यथा का यथा सुमति प्रवांन केवली वचनानुसारी है। जो याहि सूनगो समुझेपो सरदहेगो ताहि कल्याणकारी है भाग्यप्रमाण' ।"
इसके बाद विक्रम की अठारवीं शती के उत्तरार्द्ध में रचित पंडित दीपचन्दजी की रचनाएं आती हैं। उनकी भाषा का नमूना इस प्रकार है :
“जसे बानर एक कांकरा के पड़े रोवे तसे याके देह का एक अंग भी छीजं तो बहुतेरा रोवं । ये मेरे और मैं इनका झूठ ही ऐसे जड़न के सेवन से सुख मानै । अपनी शिवनगरी का राज्य भूल्या, जो श्रीगुरु के कहे शिवपुरी की संभाले, तो वहाँ का आप चेतन राजा अविनाशी राज्य करें।"
उपर्युक्त उद्धरणों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्वतः प्रमाणित है कि पंडित टोडरमल के गद्य की भाषा की प्रकृति और प्रवृत्ति परम्परागत अज की ही है । लेकिन उनकी देन यह है कि उन्होंने इस भाषा को अपने दार्शनिक चितन का धारावाहिक माध्यम बना कर उसको पूर्णत: सशक्त किया । जहाँ तक गोरखपंथी गद्य का प्रश्न है, उसकी ऐतिहासिकता और लेखक की प्रामाणिकता संदिग्ध है।
'प्र० का भूमिका, ७८ १ हि सा०, द्वि० ख०, ४६५
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डिल टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृरव
विट्ठलनाथजी के 'श्रृंगार रस मंडन'' का गद्य आचार्य शुक्ल के अनुसार अपरिमार्जित और अव्यवस्थित है । 'चौरासी वैष्णवों की बार्ता' के गद्य में साहित्यिकता और निपुणता नहीं है । उसमें बोलचाल का सीधा-सादा गद्य है । नाभादास का गद्य भी इतिवृत्तात्मक है । इस काल की प्रालोचना का निष्कर्ष शुक्लजी के अनुसार यह है कि वैष्णव वार्ताओं में ब्रजभाषा गद्य का जैसा परिष्कृत और सुव्यवस्थित रूप दिखाई पड़ा, वैसा फिर आगे चल कर नहीं । काव्यों की टीकानों आदि में जो थोड़ा बहुत गद्य देखने में आता है वह बहुत ही अव्यवस्थित और अशक्त था । इस प्रकार आचार्य शुक्ल का अन्तिम निष्कर्ष यह है कि जिस समय मद्य के लिए खड़ी बोली उठ खड़ी हुई उस समय तक गद्य का विकास नहीं हुआ था, उसका कोई साहित्य खड़ा नहीं या था, इसी से खड़ी बोली के ग्रहण में कोई संकोच नहीं हुआ ।
श्राचार्य शुक्ल 'के उक्त कथन पर विचार करने के पूर्व जैन गद्यों के नमूनों का विश्लेषण कर लेना आवश्यक है ।
जैन गद्य में पांडे राजमल की भाषा आदर्श ब्रज गद्य नहीं है । 'है' की जगह 'छै' का प्रयोग उसके राजस्थानी - गुजराती प्रभाव को सूचित करता है । 'पीवाइ करि श्रविकल कीजे ले' जैसे प्रयोग ब्रज गद्य के लिए अपरिचित हैं । उसे परिमार्जित और शुद्ध नहीं माना जा सकता ।
बनारसीदास मुख्य रूप से कवि हैं, गद्य उन्होंने बहुत कम लिखा है । अतः उनके गद्य के आधार पर ब्रजभाषा गद्य सम्बन्धी कोई निश्चित धारणा नहीं बनाई जा सकती। दूसरे उसमें क्रिया में 'ता' वाले रूप जैसे - 'जानतो, करतो, नाहीं जानतो मानतु है, दिखायतु' आदि अधिक हैं, जो ब्रज की प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं ।
दीपचंद शाह का गद्य परिमार्जित गद्य है, परन्तु परिमाण की दृष्टि से अधिक नहीं है ।
२.
श्रृंगार रस मंडन के कर्ता और काल के विषय में डॉ० प्रेमप्रकाश गौतम ने असहमति व्यक्त की है। हि० ० वि०, ६०
हि०
० सा० इति०, ४०६
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उपसंहार : उपलब्धियां और मूल्यांकन
३२५ अत: उपलब्ध जैन गद्यकारों में पंडित टोडरमल ही ब्रजभाषा गद्य के श्रेष्ठ गद्य-लेखक ठहरते हैं।
__ प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ब्रजभाषा के जिन गद्यकारों की भाषा के आधार पर अपना उक्त मत व्यक्त किया है, वह प्रांशिक रूप से ही सत्य माना जा सकता है, क्योंकि 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में प्रयुक्त परिष्कृत और सुव्यवस्थित ब्रजभाषा गद्य का पूर्ण विकास टोडरमलजी के गद्य में देखा जा सकता है, अतः उसकी परम्परा . वहीं समाप्त नहीं हो जाती। टोडरमलजी ने वार्ताकार के रूप में नहीं, दार्शनिक चिंतक के रूप में उसे अपनी अभिव्यक्ति के समर्थ माध्यम के रूप में प्रयोग किया है । अतः प्राचार्य शुक्ल का यह कथन तर्कसंगत नहीं माना जा सकता कि ब्रज के गद्य के विकास या उसके गद्य-साहित्य के खड़े न होने से खड़ी बोली को गद्य के माध्यम के रूप में निःसंकोच रूप से स्वीकार कर लिया गय।। टोडरमल के गद्य के साक्ष्य पर यह कहा जा सकता है कि ब्रजभाषा का गद्य और गद्यसाहित्य दोनों ही पूर्ण रूप से समृद्ध थे, फिर भी खड़ी बोली के गद्य के निविरोध स्वीकार किए जाने का कारण ऐतिहासिक था, ब्रजभाषा गद्य
और गद्य-साहित्य के होने न होने से उसके विकास का कोई सम्बन्ध नहीं था। हाँ, ब्रजभाषा का गद्य में उतना एकाधिकार नहीं था, जितना कि पद्य में। गद्य में उसका विषय सीमित था। अतः हम प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमल को इस रूप में ब्रजभाषा का एक समर्थ एवं मौलिक गद्यकार स्वीकार कर सकते हैं।
जहाँ तक पंडितजी की भाषा का प्रश्न है, टीकारों की भाषा परम्परागत और संस्कृतनिष्ठ है । मूल ग्रन्थ की अनुगामी होने से अनुवाद की भाषा को अध्ययन का प्राधार नहीं बनाया जा सकता। मोक्षमार्ग प्रकाशक की भाषा उनकी प्रतिनिधि भापा है । 'सिद्धोवर्णः समाम्नायः' कह कर उन्होंने भाषा के विकास के सम्बन्ध में अपने विचार प्रगट नहीं किए। यह उनका विषय भी नहीं था । वह अपनी भाषा को देशभाषा अवश्य कहते हैं, पर वस्तुत: वह उनके समय की प्रचलित साहित्यभाषा थी। वे यह भी कहते हैं कि उनकी देशी
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पंडित टोबरमत : व्यक्तित्व और कतृत्व पदरचना 'अपभ्रंश' और 'यथार्थ' को लिये हुए है। कुछ लोग इसे ढूंढाड़ी मानते है । मेरे विचार में देशभाषा से उनका प्राशय तत्कालीन प्रचलित लोकभाषा से है जो साहित्य में विशेषतः प्रयुक्त होती थी। जिस कारण से वह संस्कृत प्राकृत भाषा के विरुद्ध देशीभाषा का प्रयोग करते हैं, उसी कारण से उन्होंने शुद्ध दूंढाड़ी भाषा का प्रयोग उचित नहीं समझा होगा, क्योंकि वह सीमित क्षेत्र की भाषा हो जाती। अतः उनकी देशभाषा तत्कालीन प्रचलित साहित्य भाषा 'ब्रजभाषा' है ।
उनके गद्य की भाषा संस्कृतनिष्ठ है, जबक्रि पद्य की भाषा में तद्भव और देशी शब्दों का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक है । गा में तत्सम शब्दों की अपेक्षा तद्भव शब्द कम है, तद्भव की अपेक्षा देशी शब्द तथा उर्दू के पार न के बराबर हैं . भावाचक संज्ञा में 'पना. पर्ने, पने, त्य, त्व, ता, पाई, वपना', प्रादि रूप मिलते हैं। सर्वनाम और कारक चिन्हों में आलोच्य साहित्य की भाषा ब्रजभाषा के निकट है, जैसा कि तुलनात्मक चित्रों से स्पष्ट है। यही स्थिति अव्ययों व संख्यावाचक शब्दों के सम्बन्ध में भी है । कुछ संख्यावाचक इसके अपवाद हैं, वे खड़ी बोली के समान हैं । एक ही शब्द के कई उच्चारण वाले रूप मिलते हैं, जैसे-अनसारिअनुसार, तिनिका तिनका, किडूकुछ कछु धर्म>धर्म, इत्यादि । इसका कारण यह भी हो सकता है कि लिपिकारों ने शब्दरूपों में परिवर्तन कर दिया हो ।
बिभक्ति विनिमय की भी प्रवृत्ति है । सम्प्रदान के लिए 'के अर्थि' का प्रयोग बहुत मिलता है । वस्तुतः यह परसर्ग जैसा प्रयोग है । इसके अतिरिक्त 'कौं, को भी पाते हैं परन्तु यह कर्म के भी परसर्ग हैं। 'ताई' का प्रयोग भी मिलता है लेकिन बहुत कम । करण व अपादान में 'करि' का विशिष्ट प्रयोग है । यह विशेष उल्लेखनीय है कि सम्बन्ध के परसर्गों में अपभ्रंश के 'केर और तगु' का प्रयोग कहीं नहीं है । अधिकरण में विर्षे' का प्रयोग बहुत मिलता है । 'किए' का भी प्रयोग कहीं-कहीं हुआ है।
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उपसंहार : उपलब्धियों और मूल्यांकन
३२७ क्रियापदों में धातु का मूल रूप संस्कृत की साध्यमान धातु से लिया गया है । संस्कृत शब्दों से क्रिया बनाने की प्रवृत्ति बहुत व्यापक है। इसके अतिरिक्त अपभ्रंश परम्परा और देगी धातुओं का भी प्रयोग है तथा वर्तमान व भविष्य में तिगंतक्रिया का प्रयोग है। भविष्य में 'गा, गे, गी' वाले रूप भी हैं । पूर्वकालिक क्रिया में 'करि, आय' का प्रयोग है। ___इस प्रकार उनकी भाषा ब्रजभाषा है, लेकिन उसमें संस्कृत का अनुसरण है और देशी भाषा का भी पुट है। साथ ही खड़ी बोली के कतिपय रूप भी मिलते हैं । उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा मजी और निखरी हुई है। ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पंडित टोडरमल न केवल टीकाकार ही थे बल्कि अध्यात्म के मौलिक विचारक भी थे। उनका यह चिन्तन समाज की तत्कालीन परिस्थितियों और बढ़ते हुए आध्यात्मिक शिथिलाचार के सन्दर्भ में एकदम सटीक है । वे यह अच्छी तरह समझ चुके थे कि बेलाग और मौलिवा चितन के भार को पद्य के बजाय गद्य ही वहन कर सकता है ।
वे विशुद्ध प्रात्मवादी विचारक थे । उन्होंने उन सभी विचारधारानों और धारणाओं पर तीखा प्रहार किया जो
आध्यात्मिकता के विपरीत थीं। प्राचार्य कुन्दकुन्द के समय जो विशुद्ध प्राध्यात्मवादी आन्दोलन की लहर उठी थी, वे उसके अपने युग के सर्वोत्तम व्याख्याकार थे । केवल रचना परिमाण की दृष्टि से पिछले एक हजार वर्षों में हिन्दी साहित्य में इतने विशाल दार्शनिक गद्य का इतना बड़ा रचनाकार नहीं हुया । प्राध्यात्मिकता के प्रति उनकी रुचि और निष्ठा का सब से बड़ा प्रमाण यह है कि उन्होंने लगभग एक लाख श्लोक प्रमाण मद्य लिखा ।
सादगी, अध्यात्म-चिंतन, लेखन और स्वाभिमान उनके व्यक्तित्व की सब से बड़ी विशेषताएँ हैं । वे अपने युग की जैन प्राध्यात्मिक विचारधाराओं के ज्योति-स्तम्भ थे। वे एक वृहत्तर ग्रंथ लिखना चाहते थे – 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' उसी का एक अंश है । दुर्भाग्यवश वे
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
अपनी योजना पूरी नहीं कर सके पर वह जिस रूप में है, उस रूप में जिन - अध्यात्म पर इतना विशद, प्रांजल, सुस्पष्ट और मौलिक गद्य-ग्रन्थ लोकभाषा में दूसरा नहीं मिलता। उनका 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' वस्तुतः श्रात्मवाद का प्रतिष्ठापक, वीतराग-विज्ञान और प्राध्यात्मिक चिकित्सा का शास्त्र है । श्राध्यात्मिकता उनके लिए अनुभूतिमूलक चिंतन है ।
लोकभाषा काव्यशैली में 'रामचरित मानस' लिख कर रामभक्ति के अनुभूतिमूलक महाकवि के रूप में महाकवि तुलसीदास ने जो काम किया, वही काम उनसे दो सौ वर्ष बाद गद्य में जिन अध्यात्म को लेकर पंडित टोडरमल ने किया । इसीलिए उन्हें 'आचार्यकल्प' कहा गया |
आध्यात्मिक लेखक होते हुए भी उनकी शैली दृष्टान्त-प्रतिदृष्टान्त बहुला प्रश्नोत्तर शैली है, जिसमें उनका व्यक्तित्व झलक उठा
। उसमें लोक-जीवन शैली और मनोविज्ञान का सुन्दर समन्वय हैं । सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रश्नोत्तर शैली में प्राश्निक और उत्तरदाता भी वही हैं, इससे उसमें रोचक प्रात्मीयता है। मूलभाषा ब्रज होते हुए भी उसमें खड़ी बोली का खड़ापन भी है, साथ ही उसमें स्थानीय रंगत भी है ।
श्राध्यात्मिक चिंतन की ऐसी अनुभूतिमूलक सहज लोकाभिव्यक्ति, वह भी गद्य में, पंडितजी का बहुत बड़ा प्रदेय है । आध्यात्मिक चितन की अभिव्यक्ति के लिए गद्य का प्रवर्तक, व्यवहार और निश्चय, तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति का सन्तुलनकर्ता, धार्मिक आडम्बर और साम्प्रदायिक कट्टरतानों की तर्क से धज्जियाँ उड़ा देने वाला निस्पृही और आत्मनिष्ठ गद्यकार इसके पूर्व हिन्दी में नहीं हुआ । उनका गद्य लोकाभिव्यक्ति और ग्रात्माभिव्यक्ति का सुन्दर समन्वय है । दार्शनिक चिंतन की ऐसी सहज गद्यात्मक अभिव्यक्ति, जिसमें गद्यकार का व्यक्तित्व खुलकर झलक उठे, इसके पूर्व विरल है ।
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परिशिष्ट ३ परिशिष्ट २
परिशिष्ट १
... नामानुक्रमणिका ... संदर्भ ग्रंथ-सूची ... जीवन पत्रिका
इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका
परिशिष्ट
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परिशिष्ट १
जोवन पत्रिका
[साधर्मो भाई ० रापमल] अथ आगें केताइक स्माचार एकोदेशी जघन्य संयम के धारक रायमल्ल ता करि कहिए है। इह असमानजातीपरजाय उतपन्न भएँ तीन वर्ष नौ मास हुएं, हमारे ता सम ग्येय का जानपनां की प्रवत्ति निर्मल भई सो प्रायु पर्यंत धारण शक्ति के बल करि स्मृति रहै। तहो तीन वर्ष नौ मास पहली हम परलोक संबंधी च्यारां गति मांसूं कोई गति विर्षे अनन्त पुद्गल की परपुवा' अर एक हम दोऊ मिलि एक असमानजातीपर्याय कौं प्राप्त भया था, ताका व्यय भया । ताही समैं हम वें पर्याय संबंधी नोकर्म शरीर क् छोड़ि कार्माण शरीर सहित इहां मनुष्य भव विष वैश्य कुल तहां उत्पन्न भया । सो कैसे उत्पन्न भया जैसे भिष्टादिक असुचि स्थानक विष लटकमि आदि जीव उपजे तैसें माता-पिता के रुधिर शुक्न विषै प्राय उहाँ नोकर्म जाति की वर्गणा का ग्रहण करि अंतमहत काल पयंत छहूं पर्याप्त पूर्ण कीए । ता समै लोही सहित नांक के श्लेष्म का पुंज सादृष्य शरीर का प्राकार भया। पीछे अनुक्रम सूं बधता बधता केताक दिनां मैं मांस को बूथी सादृश्य प्राकार भया।
बहुरि केताइक दिन' पीछे सूक्ष्म आखि नाक कान मस्तक मुख हाथ पाव इंद्रयां गोचर आवे असा आकार भया। ऐसे ही बधता बधता बिलसति प्रमाण प्राकार भया । असे नौ मास पर्यंत प्रौधा मस्तक, ऊपरि पाव, गोडा विर्ष मस्तक, चांम की कोथली करि पाछादित, माता के भिष्टादिक खाय महाकष्ट सहित नाना प्रकार की वेदना • भोगवता संता, लघु उदर विष उदराग्नि मैं भस्मीभूत होता 'परमारगु, २ बालिश्त
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. पंजित टोडरमल : व्यक्तित्व प्रौर कतत्व संता, जहां पौन का संचार नाही असी अवस्था नै धरयां नौ मास नर्क साद्रस्य दुख करि पूर्ण कीया। पीछे गर्भ बाह्य निकस्या बाल अवस्था के दुख करि फेरि तीन वर्ष पूर्ण कीये । असा तौ तीन बर्ष नौ मास का भावार्थ जाननां ।
पर या अवस्था के जो पूर्व अवस्था भई ताका जानपनां तो हमारे नाहीं। तहां पीछला जानपनां की यादि है सोई कहिए है। तेरा चौदा वर्ष की अवस्था हुएं स्वयमेव विशेष वोध भया । ता करि पैसा विचार होने लागा जीव का स्वभाव तौ अनादिनिधन अविनासी है । धर्म के प्रभाव करि सुखी होय है। पाप के निमत्त करि दुखी होय है। ताते धर्म ही का साधन कर धनां पाप का साधन न करनां 1 परन्तु सक्ति हीन करि वा जथार्थ ज्ञान का प्रभाव करि उत्कृष्ट धर्म का उपाय बनें नाहीं । सदेव परमां की वृत्ति असे रहै, धर्म भी प्रिय लागे अर ई पर्याय संबंधी कार्य भी प्रिय लागे ।
बहुरि सहज ही दयालसुभाब, उदारचित्त, ज्ञान बैराज्ञ की चाहि, सतसंगति का हेरू, मुरगीजन पुरषां का चाइक होत संता इस पर्याय रूप प्रवर्तं । पर मन विष असा संदेह उपजै - ए सासता एता मनुष्य ऊपज है, एता तिर्यंच ऊपज है, एती बनास्पती ऊपज है, एता नाज सप्त धातु रूई षट्रस मेवा आदि नाना प्रकार की वस्तु उपजै है, सो कहाँ सूं आवै है पर बिनसि कहां जाय है । इसका कर्ता परमेश्वर बतावै है सो तो परमेश्वर कर्ता दीस नांहीं। ए तो आपै आप उपज है, आपै पाप विनसै है, ताका स्वरूप कौंन कू बूझिए।
बहुरि ऊपर कहा कहा रचना है। अधो दिशा ने कहा कहा रचना है, पूर्व आदि च्यारां दिशां ने कहा कहा रचना है, ताका जानपना कैसे होइ । याका जानपनां कोई के है का नाही, असा संदेह कैसे मिटै ।
बहुरि कुटुंबादि बड़े पुरुष ताने याका स्वरूप कदे पूछे तब कोई तौ कहै परमेश्वर कर्ता है, कोई कहै कर्म कर्ता है, कई कहै हम तो क्यूं'
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जीश्रम पत्रिका जानें नाहीं । बहुरि कोई प्रानमत' के गुरु वा ब्राह्मण ताकू महासिद्ध वा बिशेष पंडित जांनि बाकं पूछे तब कोई तो कहै ब्रह्मा विष्णु महेश ए तीन देव इस सृष्टि के कर्ता हैं, कोई कहे राम कर्ता है, कोई कहै बड़ा-बड़ी भवानी कर्ता है, कोई कहै नारायण कर्ता है; बेहमाता लेख घाले है, धर्मराय लेखा ले है, जम का डांगी इस प्राणी • ले जाय है, वा सिगनागरे तीन लोक कुँ फरण ऊपर धारें हैं। ऐसा जुदा जुदा वस्तु का स्वरूप कहै । एकजिम्या कोई बोले नाही। सो ए न्याय है - सांचा होय तो सर्व एक रूप ही कहै । पर जाने क्यूं भी खबरि नाही, अर माहीं मान कषाय का प्राशय ता करि चाहै ज्यौं बस्तु का स्वरूप चतावै अर उनमांन मुं प्रतक्ष विरुद्ध ; तात हमारे सदैव या रात को आकुलता रहै, संदेह भाज नाहीं।
बहुरि कोई कालि ऐसा विचार होइ अ धर्म साधन करिए पीछे याका फल तै राजपद पावै, ताके पाप करि फेरि नकि जाय तो असा धर्म करि भी कहा सिधि । असा धर्म करिए जा करि सर्व संसार का दुख सू निर्वत्ति होइ । जैसे ही विचार होते होते बाईस बर्ष की अवस्था भई।
ता समै साहिपुरा नग्र विष नीलापति साहूकार का संजोग भया । सो वाक सुद्ध दिगंबर धर्म का प्रधान, देव गुरु धर्म की प्रतीति, प्रागम अध्यात्म शास्त्रों का पाठी, षट द्रव्य नव पदार्थ पंचास्ति काय सप्त तत्व गुणस्थान मार्गणा बंध उदय सत्व प्रादि चरचा का पारगामी, धर्म की मूत्ति, ज्ञान का सागर, ताके तीन पुत्र भी विशेष धर्मबुद्धी और पांच सात दस जने धर्मबुद्धी; ता सहित सदैव चर्चन होइ, नाना प्रकार के सास्त्रां का अवलोकन होइ । सो हम बाके निमत्त करि सर्वज्ञ वीतराग का मत सत्य जान्यां अर बाके वचनां के अनुसारि सर्व तत्वों का स्वरूप यथार्थ जान्यां ।
थोरे ही दिनां मैं स्वपर का भेद-विज्ञान भया । जैसें सुता आदमी जांगि उठे है तैसें हम अनादि काल के मोह निद्रा करि सोय रहे थे ' भन्य मत, २ शेष नाग, ३ चर्चाएं
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व सो जिनबोगी के प्रसाद ने वा नीलापति आदि साधर्मी के निमत्त तें सम्परज्ञान-दिवस विष जा . सादा बाद 2 सिम सादृश्य, अपना जाम्यां और सब चरित्र पुद्गल द्रव्य का जान्यां। रागादिक भावां की निज स्वरूप सं भिन्नता वा अभिन्नता नीकां जानी। सो हम विशेष तत्वज्ञान का जांनपनों सहित आत्मा हवा प्रवर्तं । विराग परिणांमां के बल करि तीन प्रकार के सौगद - सर्व हरित काय, रात्रि का पाणी, विवाह करने का प्रायुपर्यंत त्याग कीया। असे होत संते सात वर्ष पयंत उहाँ ही रहे ।।
पीछे रांगां का उदेपुर विष दौलतराम तेरापंथी, जैपुर के जयस्यंघ राजा के उकील 'तासं धर्म अथि मिले । वाकै संस्कृत का ज्ञान नीको, बाल अवस्था संले ब्रद्ध अवस्था पर्यंत सदैव सौ पचास शास्त्र का अवलोकन कीया और उहां दौलतराम के निमत्त करि दस बीस साधर्मी वा दस बीस पायर्या सहित सैली का वरणाव बरिण रह्या । ताका अवलोकन करि साहिपुरै पाछा पाए ।
पीछे केताइक दिन रहि टोडरमल्ल जैपुर के साहूकार का पुत्र ताकै विशेष ज्ञान जानि वामं मिलने के अथि जैपुर नगरि पाए । सो इहां वाकू नहीं पाया अर एक बंसीधर किंचित संजम का धारक विशेष व्याकरणादि जैन मत के शास्त्रों का पाठी, सौ पचास लड़का पुरुष वाया जा नखें२ व्याकरण छेद अलंकार काव्य चरचा पढ़े, ता सूं मिले।
पीछे वानै छोडि प्रागरै गए। उहां स्याहगंज विष भूधरमल्ल साहूकार व्याकरण का पाठी घणा जैन के शास्त्रों का पारगामी तासूं मिले और सहर विर्ष एक धर्मपाल सेठ जनी अग्रवाला व्याकरण का पाठी मोती काटला के चैताल शास्त्र का व्याख्यान कर, स्याहगंज के चैताले भूधरमल्ल शास्त्र का व्याख्यान करै, और सौ दोय से साधर्मी भाई ता सहित वासू मिलि फेरि जैपुर पाछा आए ।
पीछे सेखावाटी विष सिंघांणां नग्र तहां टोडरमल्लजी एक दिली का बड़ा साहकार साधर्मी ताके समीप कर्म कार्य के अथि . वकील, २ जिसके पास
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जीवन पत्रिका वहां रहै, तहां हम गए अर टोडरमल्लजी सं मिले, नाना प्रकार के प्रश्न काए, ताका उत्तर एक गोमट्टसार नामा ग्रंथ की साखि सूं देते मए। ता ग्रंथ की महिमा हम पूर्व सुरणी थी, तातूं विशेष देखी। पर टोडरमल्लजी का ज्ञान की महिमा अद्भुत देखो।
पीछे उन हम कही - तुम्हारै या ग्रंथ का परचै निर्मल भया है। तुम करि याकी भाषा टीका होय तौ घणां जीवां का कल्याण होइ अर जिन धर्म का उद्योत होइ । अबही' काल के दोष करि जीवां की बुद्धि तुछ रही है, अागे यातें भी अल्प रहेगी, तातै पैसा महान् ग्रंथ पराकृत ताकी मूल गाथा पंद्रह से १५०० ताकी टीका संस्कृत प्रकारह हजार १५००० ता विर्ष अलौकिक चरचा का समूह संदृष्टि वा गरिरात शास्त्र की आम्नाय संयुक्त लिस्या है, ताका भात भासना महा कठिन है । अर याके ज्ञान की प्रवत्ति पूर्वं दीर्घ काल पर्यंत तें लगाय अब ताई नाहीं तो प्रागै भी याकी प्रवत्ति कसे रहेगी। तातें तुम या ग्रंथ की टीका करने का उपाय शीघ्र करो, प्रायु का भरोसा है नांहीं।
पीछे ऐसे हमारे प्रेरकपरणों का निमत्त करि इनकै टीका करने का अनुराग भयो । पूर्व भी याकी टीका करने का इनका मनोर्थ था ही, पीछे हमारे कहने करि विशेष मनोर्थ भया । तन्न शुभ दिन महल विष टीका करने का प्रारंभ सिंघांणां नग्न विर्ष भया । सो वे तो टीका बणावते गए, हम बांचते गए। बरस तीन मैं गोमट्टसार ग्रंथ की अठतीस हजार ३५०००, लब्धिसार क्षपणासार ग्रंथ की तेरह हजार १३०००, त्रिलोकसार ग्रंथ की चौदह हजार १४०००, सन्न मिलि च्यारि ग्रंथों की पेंसठि हजार टीका भई ।
पीछे सबाई जैपुर ग्राए। तहां गोमटसारादि च्यारौं ग्रंथों के सोधि याकी बहोत प्रति उतराई । जहां सैली छी तहां सुधाइ मुधाइ पधगई। असे या ग्रंथां का अवतार भया । अबार के अनिष्ट काल विर्ष टोडरमल्लजी के ज्ञान का क्षयोपसम विशेष भया। ए गोमटसार ग्रंथ का बचना पांच से बरस पहली था। तापीछ बुधि की मंवता करि माव सहित बचना रहि गया। बहरि प्रब फेरि याका उद्योत मया ।
१ वर्तमान में ही २ प्राकृत
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व
बहुरि वर्तमान काल विषे इहां धर्म का निमित्त है तिसा अन्यत्र नांहीं । वर्तमान काल विषै जिन धर्म की प्रवृत्ति पाईए है ताका विशेष आगे इंद्रध्वज पूजा का विधान लिखेंगे ता विधै जानना ।
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बहुरि काल दोष करि बीचि मैं एक उपद्रव भया सो कहिए है । संवत् १८१७ कै सालि असाढ़ के महने एक स्यामराम ब्राह्मण वाके मत का पक्षी पापमुत्ति उत्पन्न भया । राजा माघवस्येह का गुर ठाहरचा, ता करि राजा नैं बसि कीया। पीछे जिनधर्म सूं द्रोह करि या न के वा सर्व ढूंढाड़ देश का जिन मंदिर तिनका विघ्न कीया, सर्व कूं बेस करने का उपाय कीया, ता करि लाखां जीवां में महा घोरान घोर दुख हूवा पर महा पाप का बंध भया । सो एह उपद्रव बरस ड्योढ पर्यंत रधा ।
पीछे फेरि जिनधर्म का अतिशय करि वा पापिष्ट का मान भंग वा जिन वर्ष का पर्व जिन मंदिरां का फेरि निर्माण हूवा। श्रगां बीचि दुगुरणां तिगुणांचीगुरगां जिनधर्म का प्रभाव प्रबर्त्या । तासमै बीस तीस जिन मंदिर या नम्र विषै अपूर्व बरणें । तिन विषै दोय जिन मंदिर तेरापंथ्यां की शैली विषै श्रद्भुत सोभा ने लीयां, बड़ा विस्तार नै धरयां बर्गों । तहां निरंतर हजारों पुरष स्त्री देवलोक की सी नाई चैत्याले प्राय महा पुन्य उपारजै, दीर्घ काल का संच्या पापताका क्षय करें । सौ पचास भाई पूजा करने वारे पाईए, सौ पचास भाषा शास्त्र बांचने बारे पाईए, दश बीश संस्कृत शास्त्र बांचनें वारे पाईए, सौ पचास जने चरचा करने बारे पाईए और नित्यान' का सभा के सास्त्र का व्याख्यान विषै पांच से सात से पुरष तीन से च्यारि से स्त्रीजन सब मिलि हजार बारा से पुरष स्त्री शास्त्र का श्रवण करै, बीस तीस बाय शास्त्राभ्यास करें, देश देश का प्रश्न इहां श्रावै तिनका समाधान होय उहां पहुंचे, इत्यादि अद्भुत महिमां चतुर्थकालवत या नम्र विषे जिनधर्म की प्रवृत्ति पाइए है।
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इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका
[ साधर्मी भाई क० रायमल ] आगें माह सुदि १० संवत् १८२१ अठारा से इकदीस के सालि इन्द्रध्वज पूजा का स्थापन हवा । सो देस-देस के साधर्मी बुलांवनें कौं चीठी लिखी ताकी नकल इहां लिखिए है। दिल्ली १, आगरै १, भिड १, कोरडा जिहांनाबाद १, सिरोज १, वासोदो १, ईदौर १, औरगांवाद १, उदपुर १, नागोर १, बीकानेरि १, जैसलमेरि १, मुलतान १ पर्यंत चीठी असें लिखी सो लिखिए है :
स्वस्ति दिल्ली आगरा आदि नन के समस्त जैनी भायां योग्य सवाई जयपुर थी राइमल्ल केनि श्री शब्द बांचनां । इहाँ प्रानन्द वर्ते है । थाँ के आनंद की वृद्धि होऊ । थे धर्म के बड़े रोचक हो ।
अप्रचि इहाँ सवाई जयपुर नग्र विष इन्द्रध्वज पूजा सहर के बारे अधकोस परै मोतीडूंगरी निकटि ठाहरी है। पूजा की रचना का प्रारंभ तो पोस बदि १ सं ही होने लगा है। चीसठि गज का चौड़ा इतनां ही लांबा एक च्यौतरा बण्या है। ता उपरि तेरह द्वीप की रचना बरणी है । ता विष यथार्थ च्यारि सै अठावन चैत्यालय, अढाई द्वीप के पांच मेरु, नंदीश्वर द्वीप के बावन पर्वत ता उपरि जिनमंदिर बरणें हैं। और अढाई द्वीप विष क्षेत्र कुलाचल नदी पर्वत वन समुद्र ताकी रचना बरणी है । कठे ही कल्पवृक्षों का वन ता विष कठे ही चैत्य वृक्ष, कठे ही सामान्य वृक्षां का बन, कठे ही पुष्प बाड़ी, कठे ही सरोवरी, कठे ही कुंड, कठे ही द्रह, कठे ही द्रह माहि सूं निकसि समुद्र में प्रवेश करती नदी, ताकी रचना बगी है। कठे ही महलां की पंक्ति, कटै ही ध्वजा के समूह, कठे ही छोटी-छोटी ध्वजा के समूह का निर्मापण हूवा है।
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पंडित दोरमल : व्यक्तित्व और कर्तत्व पोस बदि १ सूं लगाय माह सुदि १० ताईं सौ ड्योढ से कारीगर, रचना करने वाले सिलावट, चतेरे, दरजी, खराधी, खाती, सुनार आदि लागे हैं । ताकी महिमा कागद मैं लिखी न जाय, देखें ही जानी जाय । सो ए रचना तो पथर चूना के चौसठि गज का च्यौंतरा ता उपरि बरणी है। ताके च्यारयौं तरफ कपड़ा का सरायचां के कोट बगैंगा । और च्यारयों तरफ च्यारि वीथी कहिए गली, च्यारघौं तरफ के लोग दरवाजा में प्रवेश कारि श्रावनें को भैसी मारा सरकः च्याति वीथी की रचना समोसरण की वीथी सादृश्य बनेंगी । अर च्यारां तरफा में बड़े-बड़े कपड़ा के वा भोडल का काम के वा चित्रांम का कांम के दरवाजे खड़े होयगे। ताकै परै च्यारचौं तरफ नौबतिखांनां सरू होंइगे । और च्यौंतरा की आसिपासि सौ दो से डैरे तंबू कनात खड़े होंयगे । और च्यारि हजार रेजा पाघ राता' छीट लौंगी पाए हैं । सो निसान धुजा चंदवा बिछायत विष लागेंगे ।
दोय से रूपा के छत्र झालरी सहित नवा घड़ाए हैं । पांच सात इन्द्र बरसेंगे; तिनकै मस्तक धरने • पांच सात मीना का काम के मुकट बणेंगे। बीस तीस चालीस गड्डी कागदा की बागायति वा पहोपबाडी के ताई अनेक प्रकार के रंग की रंगी गई है। और बीस तीस मण रद्दी कागद लागे हैं, ताकी अनेक तरह की रचना बरणी है। पांचसै कडी वा सोटि बांस रचना विष लागेंगे।
__ और चौसठि गज का न्यौतरा उपरि आगरा सं पाए एक ही बड़ा डेरा धरती सूं बीस गज ऊंचा इकत्रोभा दोय सै फरास प्रादम्यां करि खड़ा होयगा । ताकरि सर्व च्यौंतरा उपरि छाया होयगी । और ता डेरा के च्यारां तरफा चौईस चौईस द्वार कपड़ा के वा भोडल के झालरी सहित अंत विष चर्कोतरा की कोर उपरि बणे हैं । च्यारां तरफ के छिनद्वार भए। और डेरा के बीचि ऊपर ने सोनां के कलस चढ़े हैं और ताक पासि पासि घणां दरबार का छोटा बड़ा डेरा खड़ा होयगा । ताक परे सर्व दिवान मुतसो का डेरा खड़ा होइगा । ताकै परै जात्र्यां का डेरा खड़ा होयगा । ' लाल, २ चांदी, 3 बाग, ४ पुष्प वाटिका
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३३६ और पोस बदि १ सू लगाय पाचास रुपयां को रोजीनों कारीगरां को लाग है । सो माह सुदि १० ताई लागेगा। पाछै सौ रुपयां को रोजीनों फागण नदि '४ ताई लागेगा। और तेरा द्वीप, तेरा समुद्र के बीचि बीचि छब्बीस कोट बरणंगा । और दरबार की नाना तरह की जलूसि आई है अथवा प्रागरं इन्द्रध्वज पूजा पूर्व हुई थी ताको सारो मसालो वा जलुसि इहां पाया है।
और इहां सर्व सामग्री का निमत्त अन्यत्र जायगा ते प्रचुर पाईए है तातै मनोर्थ अनुसारि कार्य सिद्धि होहिंगे ।
एह सारी रचना द्वीप नदी कुलाचल पर्वत आदि की घन रूप जाननी। चांवल रोली का मंडल की नाईं प्रतर रूप नहीं जाननी । ए रचना त्रिलोकसार ग्रंथ के अनुसारि बणी है । और पूजा का विधान इंद्रध्वज पूजा का पाठ संस्कृत श्लोक हजार तीन ३००० ताकै अनुसारि होयगा । च्यारां तरफ नै च्यारि बड़ी गंधकुटि ता विर्ष बड़े बिंब बिराजेंगे। तिनका पूजन च्यारां तरफा युगपत् प्रभति मुखिया साधर्मी करेंगे।
पीछे च्यारो तरफा जूदा-जूदा महतद्धि का धारक मुखिया साधर्मी सास्त्र का व्याख्यान करेंगे। देस-देस के जात्री आए वा इहां के सर्व मिलि सास्त्र का उपदेश सुणेंगे। पीछे आहार लेना आदि शरीर का साधन करि दोपहर दिन चढ़े से लगाय दोय घडी दिन रहें पर्यंत सुदर्शन मेरू का चैत्यालय सूं लगाय सर्व चैत्यालयां कां पूजन इन्द्रध्वज पूजा अनुसारि होयगा। पीछे च्यौतरा की तीन प्रदक्षिणा देय च्यारां तरफा प्रारती होयगी। पीछे सर्वरात्रि विष च्यारां तरफ जागरण होयगा।
और सर्वत्र रूपा सोना के जरी का वा तबक' का वा चित्राम का या भोडल के काम का समवसरणवत् जगमगाट ने लियां सोभा बनेंगी और लाखों रूपा सोना के दीप वा फूल पूजन के ताई बन है। और एक कल का रथ बण्या है सो बिना बलधां बिना प्रादम्यां कल के
' सोने-चांदी के वरक
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कल्य
फेरनें करि गमन करेगा। ता ऊपर भी श्रीजी बिराजैगे और भी अनेक तरह की प्रसवारी बगी । इत्यादि श्रद्भुत आश्चर्यकारी सोभा जानूंगे ।
और सौ दो से कोस के जैनी भाई सर्व संग चरणाय कबीला सुधां श्रावेंगे । श्रर इहां जैनी लोगों का समूह है ही अर माह सुदि दसैँ के दिनि लाखों आदमी अनेक हाथी घोरे पालिकी निसारण अनेक नोबति नगारे आखी' बाजे सहित बडा उचव सूं इन्द्रां करि करी हुई भक्ति ताकी उपमा ने लीयां ता सहित चैत्यालय सूं श्रीजी रथ उपरि बिराजमान होइ वा हाथी के हौदे बिराजमान होई सहर के बारें तेरह द्वीप की रचना वि बि
सो फागुण दि ४ तां तहां ही पूजन होयगा वा नित्य शास्त्र का व्याख्यान तत्वां का निर्णय, पठन-पाठन, जागर्ग आदि शुभ कार्य afriई उहां ही होयगा । पीछे श्रीजो चैत्यालय आय बिराजेंगे । तहां पीछे भी देश-देश के जात्री पांच सात दिन पर्यंत और रहेंगे । ईं भांति उच्छ्रव की महिमां जानोंगे। तातें अपने कृतार्थ के प्रथि सर्व देस वा प्रदेस के जैनी भायां कूं श्रगाऊ समाचार दे वाकूं साथि ले संग बराय मुहूर्त्त पहली पांच सात दिन सीघ्र प्रावोगे । एउछन फेरि ई पर्याय में देखणा दुर्लभ हैं ।
ए कार्य दरबार की आज्ञा सूं हुवा है और ए हुकम हुवा है जो यां पूजाजी के प्रथि जो वस्तु चाहिजे सो ही दरबार सूं ले जायो । सोए बात उचित ही है। ए धर्म राजां का चलाया हो चाले हैं । राजा का सहाय बिना ऐसा महत परम कल्याणरूप कार्यं बर्णे नाही । अर दोन्यूँ दिवान रतनचन्द वा बालचन्द या कार्य विषं श्रग्रेश्वरी है तातें विशेष प्रभावना होइगी ।
और इहां बड़े-बड़े पूर्व जिन मन्दिर बरतें हैं । सभा विषं गोमट्टसारजी का व्याख्यान होय है । सो बरस दोय तो हूवा अर बरस दोय सांई और होइगा। एह व्याख्यान टोडरमल्लजी करें हैं। और इहां गोमट्टसार ग्रन्थ की हजार अठतीस ३८०००, लब्धिसार
1 सब प्रकार के
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३४१ क्षपणासार अन्य की हजार तेरा १३०००, त्रिलोकसार ग्रन्थ की हजार चौदह १४००७. मोशा कारक ग्रंथ की इजार बीस , बड़ा पद्मपुराण ग्रन्थ की हजार बीस २०००० टीका बरणी है ताका दर्शन होयगा और इहां बड़े-बड़े संयमी पंडित पाईए है ताका मिलाप होइगा।
और दोय च्यारि भाई धवल महाधवल जयधवल लेने कूँ दक्षिण देश विष जैनबद्री नगर वा समुद्र ताई गए थे। वहां जैनबद्री विष धवलादि सिद्धान्त ताड़पत्रां विष लिख्या कर्णाटी लिपि में विराज हैं ताकी एक लाख सत्तर हजार मूल गाथा है। ता विष सरि हजार धवल की, साठि हजार जयधवल की, चालीस हजार महाधवल की है । ताका कोई अधिकार के अनुसारि गोमटसार लब्धिसार क्षपणासार बगे हैं।
पर उहां के राजा वा रैति' सर्व जैनी है अर मुनि धर्म का उहाँ भी अभाव है। थोरे से बरस पहली यथार्थ लिंग के धारक मुनि थे, अ काल के दोष करि नाही। अगल-बगल क्षेत्र घरगां ही है, तहां होयगा । और उहां कोड्यां' रूपयां के काम के सिंगीबंध मौंधा मोल के पथरनि के बा ऊपरि सर्वत्र तांबा के पत्रा जड़े ताकै तीन कोट ताका पाव कोस का व्यास है, ऐसे सोला चड़ा-बड़ा जिन मन्दिर बिराज हैं। ता विष मुंग्या लसण्यां आदि रतन के छोटे जिन बिब घरमा बिराज है और उहाँ अष्टाह्निकां का दिनां विष रथयात्रा का बड़ा उछव होइ है।
और उहां एक अठारा धनुष ऊंचा, एक नो धनुष ऊंचा, एक तीन धनुष ऊंचा कायोत्सर्ग जुदा जूदा तीन देशां विष तीन जिन विव तिष्ट है। ताकी यात्रा जुरै है। ताका निराभरण पूजन होय है। ताका नाम गोमट स्वामी है । जैसा गोमट्ट स्वामी प्रादि घणां तीर्थ है ।
वा उहां सीतकाल विर्ष भीम रिति' की सी उष्णता पाई है। उहाँ मुख्यापन चांवलों का भखन विशेष है। उहां की भाषा विष इहां के समझे नाहीं । इहां की भाषा विर्ष उहां के समझे नाही । 'प्रजा, २ करोड़ों, ३ शिखरबंध, ५ महगे, ५ ऋतु, । भोजन
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व दुभाष्या तें समझचा जाय है । सो सुरंगपट्टण पर्यंत ती इहाँ के देश के थोरे बहुत पाईए है। तातें इहां की भाषा · रामझाम दे हैं । पर सुरंगपट्टण के मनुष्य भी वैसे ही बोले हैं । तहां पर इहां का देस के लोग नाहीं । सुरंगपट्टण आदि सूं साथि ले गया जाय हैं। सो ताका अवलोकन करि पाए हैं।
इहां सूं हजार बारास कोस परै जनबद्री नग्र है । वहां जिन मन्दिर विष धवलादि सिद्धान्त नैं आदि दे और भी पूर्व वा अपूर्व ताड़ पत्रां मैं वा बांस के कागदां मैं करर्णाटी लिपि मैं वा मरहटी लिपि मैं वा गुजराती लिपि मैं वा तिलंग देश की लिपि मैं वा इहां के देश की लिपि मैं लिख्या बऊगाड़ा' के भार शास्त्र जैन के सर्व प्रकार के यतियाचार वा श्रावकाचार वा तीन लोक का वर्नन के वा विशेष बारीक चर्चा के वा महंत पुरुषां के कथन का पुराण, वा मंत्र, यंत्र, तंत्र, छंद, अलंकार, काव्य, व्याकरण, न्याय, एकार्थकोस, नाममाला प्रादि जुदे-जूदे शास्त्र के समूह उहां पाईए हैं। और भी उहां बड़ा-बड़ा सहर पाईए है, ता विर्ष भी शास्त्रां का समूह तिब्द है । घणां शास्त्र तो ऐसा है सो बुद्धि की मंदता करि कंही खुले नाही । सुगम है ते बचे ही है।
उहां के राजा वा रैति भी जैनी है। वा सुरंगपट्टण विषै पचास घर जनी ब्राह्मणां का है। वका राजा भी थोड़ा सा बरस पहली जैनी था। इहां सूं साढ़ा तीन से कोस परै नौरंगाबाद है, ताक पर पांच सै कोश सुरंगपट्टण है, ताक परे दोय स कौस जैनबद्री है, ता उर बीचि बीचि घणां ही बड़ा बड़ा नन पाईए है, ता विष बड़े-बड़े जिन मन्दिर बिराज है और जैनी लोग के समूह बस है
और जैनबद्री पर च्यार कोश खाड़ी समुद्र है इत्यादि; ताकी अद्भुत वार्ता जानूंगे।
धवलादि सिद्धान्त तौ उहां भी बचे नाही है। दर्शन करने मात्र ही है । उहां बाकी यात्रा जुरै है पर देव बाका रक्षिक है तातें ई देश मैं
, कई गाड़ियों, २ वहाँ का
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३४३ सिद्धांतां का आगमन हूवा नाही । रुपया हजार दोय २०००) पांच सात प्रादम्यां के जाबै पाबै खरचि पड्या। एक साधर्मी डालूराम की उहाँ ही पर्याय पूरी हुई। वां सिद्धांतों के रक्षिक देव डालुराम के स्वप्न पाए थे । तानं ऐसा कहा हे भाई तू यां सिद्धांतां में लेने कू पाया है सो ए सिद्धांत वा देश विर्षे नाहीं पधारेंगे । उहां म्लेच्छ पुरषां का राज है। तातै जाने का नाही । वहरि या बात के उपाय करने मैं बरस च्यारि पांच लागा। पांच विश्वा पौरू भी उपाय वर्ते है।
औरंगाबाद सूं सौ कोस पर एक मलयखेड़ा है। तहां भी तीनूं सिद्धांत बिराजै है । सो नौरंगाबाद विर्ष बड़े-बड़े लखेस्वरी, विशेष पृन्यवान, जाकी जिहाज चाल, पर जाका नवाब सहायक, ऐसा नेमीदास, अविचल राय, अमृतराय, अमीचन्द, मजलसिराय, हुकमचन्द, कौलापति ग्रादि सौ पचास परिणीपथ्या अग्रवाले जैनी साधर्मी उहां है। ताक मलयखेड़ा सूं सिद्धान्त मंगायबे का उपाय है । सो देखिए ए कार्य बगर्ने विषै कठिनता विशेष है, ताकी वार्ता जानूंगे ।
और हम मेवाड़ विर्ष गए थे । सो उहां चीतोड़गढ़ है । ताकै तले तलहटी नग्र बसे है। सो उहां तलहटी विथै हवेली निर्माचरण के अधि भौमि खरगतै एक भैहरा निकास्या । ता विष सोला बिच फटिकमरिण सादृश्य महा-मनोज्ञ उपमां-रहित पद्म पासण विराजमान पंद्रा सोला बरस का पुरूष के प्राकार सादृश्य परिमाण ने लीयां जिनबिंब नीसरे । ता विष एक महाराजि बावन के साल का प्रतिष्ठया हया मोहरा का अतिसय सहित नीसरे । और घणां जिनबिंब वा उपकरण धातु के मीसरे ता विष सूवर्ण पीतल सादृश्य दीस ते नीसरे। सो धातु का महाराजि तौ गढ़ उपरि भैहरा विर्षे विराजे है । उपरि किल्लादार वा जोगी रहे है। ताकै हाथि ता भैहरा की कंत्री है। और पाषाण के बिंब तलहटी के मन्दिर विषै बिराजै है ! घर सौ उहां महाजन लोगां का है । ता विषे प्राधे जनी है। प्राधे महेश्वरी हैं। सो उहां की यात्रा हम करि पाए। ताके दरसण का लाभ की महिमा वचन अगोचर है । सो भी वार्ता थे जानेंगे ।
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व और कोई थांक मनविष प्रश्न होय वा संदेह होय ताकी विशुद्धता होयगी । और गोमदृसारादि ग्रंथांकी अनेक अपूर्व चर्चाजानंगे। इहां घणां भायां के गोमटसारादि ग्रंथां का अध्ययन पाईए है ।
और घणी बायां के व्याकरण वा गोमट सारजी की चर्चा का ज्ञान पाईए है। विशेष धर्म बुद्धि है ताका मिलाप होयगा। सारां हो विष माईजी टोडरमलजी के ज्ञान का क्षयोपशम अलोकीक है जो गोमट्टसारादि ग्रंथा की संपालाप लोकटीला मसाई और पांच सात ग्रंथां का टीका बरणायचे का उपाय है। सो प्रायु की अधिकता हुधा बणेगा। पर घयल महापवलावि ग्रंथों के खोलबा का उपाय कीया या उहां बक्षिण वेस पांच सात और ग्रंथ ताड़पत्रां विष कर्णाटी लिपि मैं लिख्या इहां पधारे हैं, ताक मलजी बांच है, धाका यथार्थ ध्याख्यान कर है वा कर्णाटी लिपि मैं लिखि ले हैं। इत्यादि न्याय व्याकरण गणित छंद अलंकार का याकै ज्ञान पाईए है। ऐसे पुरुष महंत बुद्धि का धारक ईकाल विर्ष होनां दुर्लम है। ताते यांसं मिलें सर्व संदेह दूरि होइ है। घरपी लिखबा करि कहा, प्रापरणां हित का बांछीक पुरुष सीध्र प्राय यासं मिलाप करो। और भी देश देश के साधर्मी भाई प्राबैंगे तासू मिलाप होयगा ।
और इहां दश बारा लेखक सदैव सासते जिनवाणी लिखते हैं वा सोधते हैं । और एक ब्राह्मण पंडित महैनदार चाकर राख्या है सो बीस तीस लड़के बालकन कू न्याय व्याकरण गणित शास्त्र पडाव है। और सौ पचास भाई वा बायां चर्चा व्याकरण का अध्ययन कर हैं। नित्य सौ पचास जायगा जिन पूजन होइ है । इत्यादि इहां जिन धर्म की विशेष महिमा जाननी ।
और ई नग विष सात विसन का अभाव है। भावार्थ ई नग्न विष कलाल कसाई वेश्या न पाईए है। अर जीव हिंसा की भी मनाई है। राजा का नाम माधवसिंह है। ताके राज विषै वर्तमान एते कृविसन दरबार की आज्ञात न पाईए है। पर जैनी लोग का समूह बस है । दरबार के मृतसद्दी सर्व जैनी है और साहूकार लोग सर्व जैनी है। जद्यपि और भी है परि गौणता रूप है, मुख्यता रूप नाही । छह सात
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वा श्राठ दस हजार जैनी महाजनां का घर पाईए है । अंसा जैनी लोगों का समूह और दिएँ नांही ! और यहां के देश व सर्वत्र मुख्यपर श्रावगी लोग बसे हैं । तातें एह नम्र वा देश बहोत निर्मल पवित्र है । तातें धर्मात्मा पुरुष बसने का स्थानक है। अबार तो ए साक्षात धर्मपुरी है ।
बहुरि देखो ए प्राणी कर्म कार्य के अथि तौ समुद्र पर्यंत जाय है वा विवाहादिक के कार्य विषै भी सौ पचास कोस जाय है, अर मनमान्या द्रव्यादिक खरचै है । ताका फल तो नर्के निगोदादि है । ता कार्य विषे तो या जीव के अंसी ग्रासलता पाईए है, सो ए तौ वासना सर्व जीवनि के बिना सिखाई हुई स्वयमेव नरिंग रही है; परंतु धर्म की लगनि कोई सत्पुरुषा के ही पाईए है ।
विषय - कार्य के पोषने वाले तो पेंड पेंड विषं देखिए है, परमार्थ कार्य के उपदेशक वा रोचक महादुर्लभ बिरले ठिकाणं कोई काल विषै पाईए है । तातें याको प्रापती महाभाग्य के उदै काललब्धि के अनुसारि होय है । यह मनुष्य पर्याय जावक खिनभंगर' है, ता विषे भी अवार के काल में जावक अल्प बीजुरी का चमत्कारवत थिति है । ताकै विषै नफा टोटा बहुत है। एकां तरफ नैं तो विषय कषाय का फल नरकादिक अनंत संसार का दुख है। एकां तरफ ने सुभ सुद्ध धर्म का फल स्वर्ग मोक्ष है । थोड़ा सा परणांमां का विशेष करि कार्य विदे एता तफावत' पर है । सर्व बात विषे एह न्याय है। बीज ती सर्व का तुछ ही होइ है पर फल वाका अपरंपार लागं है, तातें ज्ञानी विचक्षण पुरषन के एक धर्म ही उपादेय है ।
अनंतानंत सागर पर्यंत काल एकेन्द्री विषै वितीत करें है तब एक पर्याय अस कापावे है। सा स पर्याय का पायवा दुर्लभ है तौ मनुक्ष पर्याय पायबा की कहा बाल । ता विषै भी उच्च कुल, पूरी ग्रायु, इन्द्री प्रबल, निरोग शरीर, आजीवका की थिरता, सुभ क्षेत्र, सुभ काल, जिनधर्म का अनुराग, ज्ञान का विशेष क्षयोपशम, परणांमां की विशुद्धता, ए अनुक्रम करि दुर्लभ सूं दुर्लभ ए जीव पाव है । कैसे दुर्लभ
२ अंतर,
छोटा
क्षणभंगुर,
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पंडित टोडरमल : व्यक्तिरव और कर्तत्व पाव है ? अबार असा संयोग मिल्या है सो पूर्वं अनादि काल का नहीं मिल्या होगा। जै असा संजोग मिल्या होय ती फेरि संसार विष क्यां ने रहै ? जिनधर्म का प्रताप ऐसा नाहीं क सांची प्रतीति आयां फेरि संसार के दुख • पावै । तातें थे बुद्धिमान हो । जामैं अपना हित सधै सो करना। धर्म के अर्थी पुरुष ने तो थोड़ा सा ही उपदेश घणो होइ परणमै है । घणी कहबा करि कहा ।
और ई चीठी की नकल दश बीस और चीठी उतराय उहां के आसि पासि जहां जनी लोग बसते हाइ तहां भजनी । ए चीठी सर्व जैनी भायां न एकठे करि ताकै बीचि बांचणी । ताकं याका रहस्य सर्व कं समझाय देना। चीठी की पहोंचि सिताबी' पाछी लिखनीं। लिख्यां बिनां चीठी पहोंची वा न पहोंची की खबरि पड़े नाहीं। पाबा न पाबा की खबरि पड़े नाही । मिती माह बदि ६ संवत् १८२१ का।
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' तुरंत
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परिशिष्ट २
संदर्भ ग्रन्थ-सची
१. अध्यात्म सन्देश (हिन्दी) : कानजी स्वामी; ब. हरिलाल
__ प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमल ग्रंथमाला, ए-४ बापूनगर, जयपुर २. अध्यात्म सन्देश ( गुजराती ) : कानजी स्वामी; 4. हरिलाल
श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ । ३. प्रखं कथानक : बनारसीदास ; नाथूराम प्रेमी ; संशोधित साहित्यमाला,
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शिक्षापीठ, भारतीय विद्या भवन, बंबई, वि० सं० २०१० १२. उत्तरी भारत को संत परम्परा : परशुराम चतुर्वेदी; भारतीय भण्डार,
लीवर प्रेस, इलाहाबाद, वि० सं० २०२१ १३. एनल्स एण्ड एन्दीक्विटीज प्राव राजस्थान : जेम्स टॉड; रोटलेज
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३४८ .
पशित टोबरमल : व्यक्तित्व और कर्तुत्व १४. करीमुललुगात ( उर्दू शब्दकोष): प्रो० मौलवी करीमुद्दीन, सन् १८५६ १० १५. कविवर बनारसीदास - जीवनी और कृतित्व : डॉ. रवीन्द्रकुमार जैन ;
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १६, काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध : श्री जयशंकर 'प्रसाद';
भारती शाहीर प, हिमाद, ... २०, १७. कार्तिकेयानुप्रेक्षा : स्वामी कार्तिकेय ; श्रीमद् राजचंद्र पाश्रम, प्रगास १८, कुतुब शतक और उसकी हिन्दुई : सम्पादक – डॉ० माताप्रसाद गुप्त;
भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड वाराणसी-५, सन् १९६७ ई. १६. खड़ी बोली हिन्दी साहित्य का इतिहास : ब्रजरलदास; हिन्दी साहित्य
कुटीर, हाथी गली, बनारस, वि० सं० २००६ २०. गोम्मटसार पूजा : पंडित टोडरमल ; भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी
संस्था, कलकत्ता २१. गोम्मटसार पूजा: पं० टोडरमल ; कुन्थुसागर स्वाध्याय सदन, बुरई २२. गोम्मटसार जीयकाण्ड (बालबोधिनी टीका) : पंडित खूबचंद जैन;
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास २३. गोम्मटसार जीवकाण्ड ( अंग्रेजी अनुवाद ) : जे. एल. जनी;
पं० अजितप्रसाद जैन, दी सेन्ट्रल पब्लिशिंग हाउस, अजिताश्रम,
लखनऊ, सन् १९२७ ई० २४. गोम्मटसार कर्मकाण्ड (संक्षिप्त हिन्दी टीका): पं० मनोहरलाल शास्त्री
श्रीमद राजचंद्र आश्रम, प्रगास २५. गोम्मटसार कर्मकाण्ड (अंग्रेजी अनुवाद) : अ० पीतलप्रसाद तथा
बाबू अजितप्रसाद २६. गोम्मटसार (मराठी अनुवाद) : गांधी नेमचंद बालचंद २७. गोम्मटसार जीयकाण्ज भाषाटीका (सम्यग्ज्ञानचंद्रिका) : पं० टोडरमाल;
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जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, करलकत्ता २६. गोरख बानी : सम्पादक-डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ; हिन्दी साहित्य
सम्मेलन, प्रयाग, वि. सं० २००३
जन
स
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संदर्भ प्रन्थ-सूची
३४९ ३०. चरचा संग्रह ( ह. लि०) : ० रायमल ; श्री दि. जैन मन्दिर
अलीगंज, जिला ऐटा (उ० प्र०) ३१. चर्चा समाधान (ह. लि.) : भूधरदास : थी दि० जन बड़ा मंदिर
तेरापंथियान, जयपुर ३२, जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और साहित्य [ जम्भवाणी के पाठ
सम्पादन सहित], भाग १, २ : डॉ. हीरालाल माहेश्वरी;
बी. बार, पब्लिकेशन्स, कलकत्ता-६, सन १६७० ई. ३३. जीवन और साहित्य : डॉ० उदयभानुसिंह, दिल्ली ३४. जन शतक : भूधरदारा; जैन ग्रंथ प्रचारक पुस्तकालय, देवबन्द ३५. जेनतष मीमांसा : पं० फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री ; अशोक प्रकाशन मंदिर,
२/३८, भईनीघाट, वाराणसी ३६. जैनेन्द्र सिद्धान्त शवकोश, भाग १, २ : क्षुल्लक जैनेन्द्र बरणीं;
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ३७. जैन निबंध रत्नावती : पंडित मिलापचंद कटारिया एवं पंडित
रतनलाल कटारिया; वीर शासन संघ, कलकत्ता ३८. जैन साहित्य और इतिहास : नाथूराम प्रेमी; संशोषित साहित्यमाला,
ठाकुरद्वार, बम्बई-२, सन् १९५६ ई० ३९. जैन सम्प्रदाय शिक्षा : श्रीपालबंद; निर्णय सागर प्रेस, बम्बई ४०. जैन शोध और समीक्षा : डॉ. प्रेमसागर जैन; दि. जैन अ. क्षेत्र
श्री महावीर जी, महावीर भवन, जयपुर ४१. तत्वार्थसूत्र : प्राचार्य उमास्वामी; दि० जन पुस्तकालय, सूरत ४२. तत्त्वार्थ सूत्र-श्रुतसागरी टीका : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी,सन् १९४६ ई. ४३. सीन लोक मंडलपुजा (ह. लि.) : कविवर टेकचंद; श्री दि. जन
मन्दिर, माधोराजपुरा (राज.) ४४. तेरहपंथ वंटन (ह.लि.) : पंडित पन्नालाल ; श्री दि. जैन बड़ा
मंदिर तेरापंथियान, जयपुर ४५. क्याबाई की बानो : बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, सन् १९६७ ई० ४६. द्रव्य संग्रह : नाचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती; श्री दि०जन स्वाध्याय
मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र)
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३५०
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और करव
४७. धर्म सरोवर (०) जीवराज गोदीका बाबा दुलीचंद का शास्त्र भंडार, श्री दि० जैन बड़ा मंदिर तेरापंथयान, जयपुर ४८. धर्म संग्रह श्रावकाचार (६० लि०) : पंडित मेधावी; श्री दि० जैन मंदिर लूणकरणजी पाण्डया, जयपुर
४६. न्यायदीपिका : धर्मभूषरण यति, जैनग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई ५०. न्यू हिस्ट्री आाव दि मराठाज सर जी. एस. देसाई के. वी. धवल, फोनिक्स पब्लिकेशन्स, चीरा बाजार, बम्बई
५१. नाटक समयसार कविवर बनारसीदास ; श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र )
५२. निरंजनी सम्प्रदाय और संत सुरसीदास निरंजनी : डॉ० भगीरथ मिश्र; लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ, सन् १६६४ ई०
५३. परमात्मप्रकाश और योगसार : आचार्य योगीन्दुदेव श्रीमद् राजचन्द्र श्राश्रम, अगास, वि० सं० २०१७
५४. पदसंग्रह ( ह० लि०) : पोथीखाना, राजमहल, जयपुर
५५. प्रवचनसार भाषा ( ह० लि०) : जोधराज गोदीका, श्री दि० जैन मंदिर छोटा दीवानजी जयपुर
५६. प्रवचनसार : आचार्य कुन्दकुन्द श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र )
५७. पंचास्तिकाय संग्रह प्राचार्य कुन्दकुन्द श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र )
५८. पंचास्तिकाय समयव्याख्या टीका: श्राचार्य कुन्दकुन्द श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र )
५६. पंचाध्यायी : पांडे राजमल्ल श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, भदैनी घाट, वाराणसी
६०. पंजाब प्रान्तीय हिन्दी साहित्य का इतिहास
पं० चंद्रकान्तबाली; नेशनल पब्लिशिंग हाउस, जवाहर नगर, दिल्ली, सन् १९६२ ई०
६१. पंचामृत: सम्पादक - स्वामी मंगलदास श्री स्वामी लक्ष्मीराम ट्रस्ट, दादूद्वारा, मोती डूंगरी, जयपुर, सन् १६४८ ई०
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संदर्भ ग्रन्थ-सूची
३५१ ६२. पुरातन जैन वाक्य सूची : जुगलकिशोर मुल्तार; वीर सेवा मंदिर,
सरसावा, जिला सहारनपुर, सन् १९५० ई. ६३. पुरुषार्षसिद्धयुपाय भाषाटीका : पंडित टोडरमल तथा पं० दौलतराम
___कासलीवाल ; मुंशी नातालाल शाह, किशनपोक बाजार, जयपुर ६४. पुरुषार्थसियुपाय : प्राचार्य अमृतचंद्र; नाथूराम प्रेमी, श्रीमद् राजचंद्र
प्राथम, भगास, वि. सं. २०१७ ६५. पुरुषार्थसिद्धयुपाय : याचार्य अमृतचंद्र; उग्रसेन जैन; श्री दि. जैन
मंदिर, सराय मुहल्ला, रोहतक ६६. पुरुषार्थसिद्धयुपाय : प्राचार्य अमृतचंद्र पं० मक्खनलाल शास्त्री;
भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता ६७. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय : आचार्य अमृतचंद्र; श्री दि० जन स्वाध्याय
मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र) ६८. बसनाजी की वाणी : स्वामी मंगलदास; दादू महाविद्यालय, जयपुर,
सन् १९३७ ई. ६६, ब्रजभाषा व्याकरण : डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, रामनारायणलाल,
इलाहाबाद, सन् १९५४ ई. ७०. ब्रह्म विलास : मैया भगवतीदास, जैन ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बंबई,
सन् १६२६ ई. ७१. वृन्दावन विलास : बृन्दाबनदास; नाथूराम प्रेमी; जैन हितधी कार्यालय,
बम्बई ७२. बनारसी बिलास : बनारसीदास; नन्नूलाल स्मारक ग्रंथमाला,
न्यू कालोनी, जयपुर । ७३. बुद्धि विलास : बखतराम शाह; रा. प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ७४. भट्टारक सम्प्रदाय : विद्याधर जोहरापुरकर; जैन संस्कृति संरक्षक संघ,
शोलापुर, वि० सं० २०१४ ७५. भक्ति सागर : चरणदासजी; डॉ. त्रिलोकीनारायण दीक्षित,
सेजकुमार प्रेस बुक डिपो, लखनऊ, सन् १९६६ ई. ७६. भक्ति विलास (ह लि.) : पोथीलाना, राजमहल, जयपुर ७७, भक्ति प्रिया (ह० लि.) : पोषीखाना, राजमहस, जयपुर
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३५२
हितोक्ति की प
:
७८. भारतीय इतिहास एक दृष्टि ज्योतिप्रसाद जैन; भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९६६ ई०
७६. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान : डॉ० हीरालाल जैन; मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद्, भोपाल, सन् १९६२ ई०
८०. मध्यकालीन धर्म साधना : डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ; द्विवेदी प्र० साहित्य भवन प्रा० लि०, श्रहमदाबाद
८१. मकरन्द : डॉ० पीताम्बरदत्त बढ़ध्याल; सम्पादक - डॉ० भगीरथ मिश्र : अवध पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ
८२. मिध्यात्व खण्डन ( ३० लि०): बखतराम शाह, श्री दि० जैन बड़ा मंदिर तेरापंथीयान, जयपुर
८३. मिश्रबन्धु विनोद मिश्रबन्धुः काशी नागरी प्रचारिणी सभा काशी ८४. मोक्षमार्ग प्रकाशक : पंडित टोडरमल सस्ती ग्रन्थमाला, दिल्ली ८५. मोक्षमार्ग प्रकाशक : पं० टोडरमल भा० द० जैन संघ, मथुरा ८६. मोक्षमार्ग प्रकाशक : पं० टोडरमल श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र), वि० सं० २०२३
८७. मोक्षमार्ग प्रकाशक : पं० टोडरमल बाबु ज्ञानचंदजी, लाहौर
८. मोक्षमार्ग - प्रकाशक : पं० टोडरमल जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९११ ई०
८९. मोक्षमार्ग प्रकाशक : पं० टोडरमल; बाबु पन्नालाल चौधरी, वाराणसी ६०. मोक्षमार्ग प्रकाशक : पं० टोडरमल; अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला, बम्बई ६१. मोक्षमार्ग प्रकाशक (उर्दू) : पंडित टोडरमल दाताराम चैरिटेबिल ट्रस्ट, १५८३, दरीबा कलाँ, दिल्ली
१२. मोक्षमार्ग प्रकाशक (गुजराती) : पं० टोडरमल श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़
२३. मोक्षमार्ग प्रकाशक ( मराठी ) : पं० टोडरमल ; महावीर ब्रह्मचर्याश्रम, कारंजा (महाराष्ट्र )
Ex. मोक्षमार्ग प्रकाशक की किरणें, भाग १ व २ ( हिन्दी, गुजराती ) : कानजी स्वामी श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ ९५. मोक्षमार्ग प्रकाशक (६० लि० मूल प्रति) : पंडित टोडरमल ; श्री वि० जैन मंदिर दीवान भदीचंदजी, घी वालों का रास्ता, जयपुर
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संधर्भ ग्रन्थ-सूची ६६. प्रशस्तिलक भार : पोपदेव मूमि विशंसापराई १७. पुक्ति प्रबोध : मेघविजय महोपाध्याय; ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर
संस्था, रतलाम ६८. योगप्रवाह : डॉ० पीताम्बरदत्त बडवाल, सम्पादक - श्री सम्पूर्णानन्द,
श्री काशी विद्यापीठ, बनार, संवत् २००३ ६६. रस्मफरण्ड श्रावकाचार : प्राचार्य समन्तभद्र; मरल जैन ग्रन्थ भण्डार,
जवाहरगंज, जबलपुर १००. मकरड श्रावकाचार : प्राचार्य समन्तभद्र, पंडित सदाममदास
कासलीवाल; श्री दिगम्बर जैन समाज, माधोराजपुरा (राज.) १०१. रहस्यपूर्ण चिट्ठी : पंडित टोडरमल; दिगम्बर जैन पुस्तकालय,
कापड़िया भवन, सूरत १०२. रहस्यपूर्ण चिट्ठी (ह. लि.): पं० टोडरमल ; श्री दि. जैन मंदिर
आदर्शनगर, जयपुर १.३. रज्जब बानी : सम्पादक – हॉ० ब्रजलाल वर्मा, उपमा प्रकाशन प्रा.
लि• कानपुर, सन् १६६३ ई० १०४. राजस्थान का इतिहास : जैम्स टाड, आदर्श हिन्दी पुस्तकालय,
इलाहाबाद, सन् १९६२ ई. १०५. राजस्थानी भाषा और साहित्य [वि० सं० १५००-१६५० ] :
डा हीरालाल माहेश्वरी, आधुनिक पुस्तक भवन, कलकत्ता-७,
सन् १९६० ई० १०६, राजस्थान के जैन ग्रन्थ-भण्डारों की अन्ध-सूची [प्रथम भाग, द्वितीय
भाग, तृतीय भाग, चतुर्थ भाग] : सम्पादक - डॉ. कस्तुर पन्द कासलीवाल एवं पं० अनूपचंद न्यायतीर्थ; श्री दि० जन अ० क्षेत्र
श्री महावीरजी, महावीर भवन, जयपुर १०७. रीतिकाव्य को भूमिका : डॉ. नगेन्द्र ; गौतम दुक रिपो, नई सड़क,
दिल्ली, सन् १९५३ ई० १०८. लब्धिसार (क्षपरणासार गभित) संक्षिप्त हिन्दी टोका : पं. मनोहरलाल
शास्त्री; श्रीमद् राजचंद्र प्राश्रम, अगास १०६. लक्ष्मी विलास : पंडित लक्ष्मीचंदजी लश्करवाले; सेठ कन्हैयालाल
गंगवाल, सर्राफा बाजार, लश्कर
-...
पराम
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३५४
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व ११०. अणं रत्नाकर : संगादक - डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी तथा
श्री बबुया मिथ; रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल,
१. पार्थस्ट्रीट, कलकत्ता, सन् १९४० ई. . १११. शान्तिनाय पुराण वनिका (ह. लि.) : सेवाराम; जैन सिद्धान्त
भवन, मारा, वि० सं० १८३४ ११२. श्री महाराज हरिदासजी की वाणी : संपादक - स्वामी मंगलदास,
दादू महाविद्यालय, जयपुर, सन् १९६२ ई० ११३. श्री दादू महाविद्यालय रजत जयन्ती ग्रन्थ : संपादक- स्वामी सुरजन दास,
दादू महाविद्यालय, मोतीडूंगरी, जयपुर, वि. सं. २००६ ११४. षट् खण्डागम (जीवस्थान सत्प्ररूाणा पुस्तक) : प्राचार्य भूतबलि
पुष्पदन्त ; डॉ. हीरालाल जैन ; श्रीमंत सेठ शितावराव लक्ष्मीचंद
जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती (बरार) ११५. षट् प्राभूत (श्रुतसागरीय टीका सहित) : प्राचार्य कुंदकुंद; माणिकचन्द
___दि जैन ग्रंथमाला समिति, हीराबाग, बम्बई-४ ११६. समयसार : कुन्दकुन्दाचार्य : श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ ११७. समयसार (नात्मख्याति टीका) : प्राचार्य कुन्दकुन्द, टीकाकार
प्राचार्य अमृतचंद्र; श्री दि० जन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ ११८. सम्यग्ज्ञानचंद्रिका : पंडित टोडरमल, जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था,
कलकत्ता ११६. सभ्याझानचन्द्रिका ( ह. लि. मूल प्रति अपूर्ण) : पं० टोडरमल;
श्री दि० जैन मंदिर दीवान भदीचंद, घी वालों का रास्ता, जयपुर १२०. सम्पक्त कौमुदो (ह. लि.) : जोधराज गोदीका; श्री दि० जैन बड़ा
मन्दिर तेरापंथियान, जयपुर १२१. सर्वासिविवनिका : पं० जयचंद्र छामड़ा, जिनेन्द्र प्रेस, कोल्हापुर १२२. समोसरण रचना वर्णन(ह. लि.) : पंडित टोडरमल; ऐलक पन्नालाल
दि. जैन सरस्वती भवन, बम्बई १२३. सहजोबाई को बानी : बेलबेडियर प्रेस, इलाहाबाद, सन् १९६७ ई० १२४. सत्ता स्वरूप : पं० भागचंदजी छाजेड़; श्री दि जैन मुमुक्ष मण्डल,
मनावद (म० प्र०)
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संदर्भ ग्रन्थ-सूची १२५. संबोध प्रकरण : हरिभद मूरिः जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, अहमदाबाद १२६. सामुद्रिक पुरुष लक्षण (ह. लि.) : श्री दि. जैन मन्दिर बड़ा धड़ा,
अजमेर (राज.) १२७. सुन्दर-ग्रंथायली : सम्पादक-पुरोहित हरिनारायण: राजस्थान रिसर्च
सोसाइटी, २७, वाराणसी चोष स्ट्रीट, कलकत्ता, वि०सं० १९९३ १२८. सूर पूर्व प्रजभाषा और उसका साहित्य : शिवप्रसादसिंह हिन्दी प्रचारक
पुस्तकालय, वाराणसी, सन् १९५८ ई. १२६. हिन्दी साहित्य का इतिहास : प्राचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी
सभा, काशी, वि० सं० २००६ १३०, हिन्दी साहित्य का इतिहास : डॉ० रामपांकर शुक्ल 'रसाल', इलाहबाद,
सन् १९३१ ई. १३१. हिन्दी जन साहित्य का संक्षिप्त पहिः : - कासाद जैन;
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, फरवरी १९४७ ई. १३२. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास : नाथूराम प्रेमी; जैन ग्रन्थ रत्नाकर
कार्यालय, हीराबाग, बंबई, जनवरी १९१७ ई. हिन्दी साहित्य का पालोचनात्मक इतिहास : डॉ. रामकुमार वर्मा ;
रामनारायणलाल, इलाहाबाद १३४. हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास : डॉ. उदयनारायण तिवारी;
भारती भण्डार, लीडर प्रेस, प्रयाग, वि० सं० २०१८ ई० हिन्दी साहित्य का प्राविकात : डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, विहार राष्ट्र
भाषा परिषद्, पटना ३, सन् १९५८ ई० १३६. हिन्दी साहित्य द्वितीय खण्ड : धीरेन्द्र वर्मा व वनेश्वर वर्मा; भारतीय
हिन्दी परिपद्, प्रयाग, ६ मार्च १६५६ ई. १७. हिन्दी गद्य का विकास : डॉ. प्रेमप्रकाश गोतम; अनुसन्धान प्रकाशन,
प्राचार्य नगर, कानपुर, सन् १९६६ ई० १३८. हिन्दी साहित्य : पं० हजारीप्रसाद द्विवेदी; (१९५२) दिल्ली १३६. हिस्ट्री प्राप मैथिली लिटरेचर, भाग १ (अंग्रेजी) : डॉ० जयकान्त मित्र;
तीरमुक्ति पब्लिकेशन्स्, १-सर पी. सी. बनर्जी रोड, इलाहाबाद, सन् १९४६ ई.
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________________
परित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तव
१४०. हिन्दी भाषा का इतिहास : डॉ० धीरेन्द्र वर्मा; हिन्दुस्तानी एकेडेमी,
प्रयाग, सन् १९५३ ई० १४१. क्षपणासार भाषाटोका : पंडित टोडरमल जैन सिद्धान्त प्रकाशिमी,
संस्था, कलकत्ता १४२. त्रिलोकसार भाषाटीका : पंडित टोडरमल ; हिन्दी जैन साहित्य प्रसारक
कार्यालय, बम्बई, सन् १९१८ ई० १४३. त्रिलोकसार भाषाटीका (ह लि.) : पंडित टोडरमल ऐलक पन्नालाल
सरस्वती भवन, बम्बई, मि सं० १८२३ है. १४४. ज्ञानानन्द श्रावकाचार : ब. रायमल, सबोध रत्नाकर कार्यालय, सागर १४५, ज्ञान सागर (ह. लि.) : पोथीखाना, राजमहल, जयपुर
पत्र-पत्रिकाएँ १४६. अनेकान्त : वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ १४७. प्रात्मधर्म : श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र) १४८. इन्द्रयज विधान महोत्सव पत्रिका (ह. लि. मूल प्रति) : श्री दि० जन
__ मन्दिर दीवान भीनंदजी, घी वालों का गस्ना, जयपुर १४६. जीवन पत्रिका (ह० लि. मूल प्रति) : श्री दि. जैन मन्दिर दीवान
भदीचंदजी, घी वालों का रास्ता, जयपुर १५०, जैन संदेश : भा. दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा १५१. अन हितैषी : जन हितैषी कार्यालय, बम्बई १५२. टोडरमल जयन्ती स्मारिका : श्री टोडरमल स्मारक महोत्सव कमेटी,
ए-४, बापूनगर, जयपुर-४ १५३. रिपोर्ट (बीर नि० सं० २४५१) : ऐलक पन्नालाल दि जैन सरस्वती
भवन, बम्बई १५४, बल्लभ संदेश : गौड़ भवन, कमला मार्ग, सी-स्कीम, जयपुर १५५. धीरवारणी : श्री वीर प्रेस, मनिहारों का रास्ता, जयपुर १५६. सन्मति सन्देश : ५३५, गांधीनगर, दिल्ली-३१
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5:
परिशिष्ट ३
财
नामानुक्रमणिका
अनागार धर्मामृत
: ८
अमरचंद गोदीका (अमरा भोसा) : १५, २२, २३, २४, २५ अध्यात्म पंथ १६
अर्द्ध कथानक २२, २३, ९७, ३२३ अहमदशाह अब्दाली : ३२, ३१२ अलवर क्षेत्र का हिन्दी साहित्य : ३६
अजमेर : ४८, ४९, ५७
अलीगंज : ५० ५१, ५२ समरचंद दीवान : ६१, ६२ अनन्तकीति ग्रंथमाला, बम्बई : ४४, ६२, १०६, १२३
भ्रष्टपाहुड़ : ६३,६६, १६० अजबराय : ६६
अर्थसंदृष्टि अधिकार : ७६८०६१ ८५,६२,६४, १४६, १५०, १५४, ३१४
अध्यात्म सन्देश ८२
श्रष्ट सहस्त्री : ८४
अभयचंद्राचार्य : प
आ
श्रात्मानुशासन: ५, ५०, ६३, ११३. १३१ से १४०, ३१५. प्रारमानुशासन भाषाटीका ७६, ८०, ८१, १३२ से १३६, १४० १४६ आप्तमीमांसा : ६६, १७८ आचारांग प्र० श्रु० : ६
( पं० ) श्राशावर : ८, ११ आगरा: १६, २१, ४६, ५८, ७५ आमेर ३०
:
आचार्यकल्प पंडित टोडरमल ग्रंथमाला, ए-४, बापूनगर, जयपुर ८२, १२३ आध्यात्मिक पत्रिका : ८२ श्राध्यात्मिक पत्र ८३
( डॉ० ) आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ८६ १३२, १३ श्रादिपुराण ६६, १०७
श्रागरा : १४२
श्राचारांग सूत्र : १३१
इ इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका : २६, ३३, ३५, ४४, ५०, ५५, ६१, ६३, ६६, ६७, ६५, ७४, १०३, ११३, ११५, १२२. १३८, १४३, १४४
अनेकान्त : ८
( बाबू) प्रजितप्रसाद ८६
( श्राचार्य) अमृतचंद्र : १४१, १६१, इन्द्रभूति गौतम गणधर १६०
१८६, २०४
ई
अकबर : ५८
अवतारवाद : १३०
श्रभिधर्मकोप : १३१
अष्टयाम ३२२
ईश्वरसिंह: ३३
उ
उत्तरी भारत की संत गरम्परा १२, १३, १६, २०
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पंडित टोडरमल : व्यक्तिस्य मोर काय
उजागरदास; ५०
कषायमाभृत : १५६ (घाचार्य) उमास्वामी : १६७ (प्रो०) (मौलवी) करीमुद्दीन : २६७ उग्ररोन जैन : १४२
करीमुललुगात (शब्दकोश) : २६७ उपादान-निमित्त संवाद : १७९ कनकन दि : २८० (डॉ.) उदयनारायण तिवारी: कठोपनिषद् : १३० २७२, ३७६, ३१८
कबीरपंथी : ३१७ उत्तराध्ययन सूत्र : १३१
कविबर बनारसीदास : जीवन और उपदेश सिद्धान्त रलमाला : १३१ | कुतित्व : १९ उक्तिभ्यक्ति प्रकरण : ३१८ काष्ठासंत्री : ५
कार्तिकेयन प्रेक्षा : ११ ऊदौजी नैण : ३६
कामां : २१, २७, २२
(डॉ.) कामताप्रसाद : ४४ ऋग्वेद : १३०
| काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध :५६ ऋषभ : २६८
कानजी स्वामी : २,११०
काशी : १११, १२२ एनएस एण्ड एन्टीक्विटीज प्राव | काशीनपट : १३० राजस्थान:३३
कुमचन्द्र भट्टारक : ७ एटा : ५०
कुमारिल भट्ट : १२
कुन्दकुन्दाचार्य : २४, १८, १००, ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बई :| १४१, १५६, १६०, १५२, ३२७
कुरान शरीफ : १३०
कुतुब-शतक और उसकी हिन्दुई : ३१६ औरंगजेब : ३२
केशरीसिंह पाटनी : ५५ मोरंगाबाद : ६६
केशव वर्णी : ८८, ८६, १५५
केशव ; ३७ कलकत्ता : ८५, ६७
| कसोजी : ३६ कल्पसूत्र की स्थिरावली : ६
ख कबीर : १४, २५, ३१६
खण्डेला नगर : ५६ कल्ला : २२
(राजा) झण्डेलगिरि चौहान : ५६ कर्नल टॉड : ३२
खण्डेलवाल जाति की उत्पत्ति का कर्तव्य प्रबोध कार्यालय', 'नुरई : २ । इतिहास : ५७ (पंडित) कमल कुमार शास्त्री : ६७ । खण्डेलगिरि : ५७
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नामानुक्रमणिका
३४६ खड़ी बोली हिन्दी साहित्य का | मोम्मटसार फर्मकाण्ड भाषाटीका : इतिहास : ३१६
८१, ८६, ७, १२, १४, १३३, खानचंद : ५३
| गोम्मट राम : ८८ (पंडित) खूबचंद : ८९
गोवर्धनदास : ५८ खेतड़ी प्रोजेक्ट : ६१, ६२
गोम्मटसार दीका : १३१
(गोरखपंथी) मोरखपंथ : ३२०, ३२३ गढ़ाशाह : १५
गोरखनाथ {गोरख) : ३२० ग्वालियर : २६५
गोरख बानी : ३२० गणेश पुराण : १३७
गोकुलनाथ : ३२१ गिरिनार : ६, १५४, १५५, २६८। गंगा नदी : १८४ गीता : १३०
गंगाधर : ८३ (प्राचार्य) गुगभद्र : ५, १३३ गुजरात : ७
चन्द्रमुकीति : १६ (५०) गुमानीराम : ३०, ३१, ५७,
चरणदासी सम्प्रदाय : ३८, ३६ ५८, ६६
चर्चा-समाधान : ४६, ७५, ७६, ६१, गुमानपंथ : ३०, ३१, ५८, ६६ (प्राचार्य) गुसाधर : १५६
चर्चा-संग्रह : ५०, ५१, ५२, १२२ गुवालिया : २१०
(पं.) चन्द्रकान्त वाली : ३१६ गोम्मटसार कर्मकाण्ड : ४३, ७६, | (राजा) चामुण्डा
(राजा) चामुण्डराय : ८८, ५६,२६८ ८०,८६, १७, ९, ५, ६७, ६, | चार्वाक : १३० १००, १०१, १६० १६५, ३१४ । चित्तौड़ : १० गोम्मटसार पूजा : ४५, ७८, ., : चिन्तामणि : २२
६१, ६७,६८, १४६, १५०, ३१४ | चैत्यवारी : ३, ३११ गोम्मटसार : ४५, ४६, ४७, ४६, | (40) चनसुखदास : ४४ ५०, ५६, ६६, ७४. ७५, ८, ६१, | चौरासी बंधावों की वार्ता : ३२१, ६४, १००, ११५, १५०, १५४, १६० ३२४, ३२५
चंद्रकवि : १८, २३, २४, २५, २६ गोम्मटसार जीवकाण्ड : ७६, ८०, ८६
चंदेरी : १०३, १०६ ८७, ६, ६५, ६, ८, १००, १०१, १३१, १६०, ३१४ गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषाटीका : |
दाजू : ११, ८६, ७, ६२, ६४, १३२, |
छान्दोग्योपनिषद् : १३० १४४, १४६
| छिदवाड़ा : १५
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पंजित टोडरमल व्यतिरष पौर कर्सव
ज
| जैन तत्त्वमीमांसा : १७६ (पं०) जयकुमार शास्त्री : १५ अन निबन्ध रत्नावली : ८, २०, २८ जयपुर : २२, २५, २६, ३०, ३२ से | जन शतक : ३८ ३५, ४३, ४७, ५३, ५४, ५५, ५०, जैन संप्रदाय शिक्षा : ५६ ५६, ६१, ६३, ६५, ६७, ६६. ७५, जैनबद्री नगर : ६६ ७६, ८३, ६२, ६६, ११०,१११, ११५, १३८, १४५, २६५, २६७,
जन प्रथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई : २६६, ३०८, ३१३, ३१५ १०६, १३२ जगन्नाथ : २२
जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापूर : (पं.) जयचंद छावड़ा : २६, ५६, ६५, ६६, ७४, १११, १२२, ३१५ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त शब्दकोश : १३३ जगतपुरा: ३०
जैन सन्देश : ५० (सवाई) जयसिंह : ३२, ३३, ४५,
जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था,
कलकत्ता : २५, ६७ जयरोन : १६१
जमिनीय : १३० जयधवल : १८, १३१, १५६, ६६ जोधराज गोदीका : १८, २३, २४, जम्भवाणी : ३१७
२५, २६, २७ (डॉ.) जयकान्त मिश्र : ३१८ जोबनेर ; ४६ जाम्भोजी : ३१६
| जोगीदास : ५६ जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और |
साहित्य : ३७, ३६, ३२० जिनसेनाचार्य : ५६, १३३, १५ , (कविबर) टेकचंद : २८ (सर) जी. एस. देसाई :
टोडर : ४३, ४४ जीवन पत्रिका : ३४, ४३, ४६, १७, (ब्रह्म) टोडर : ४३ ५०, ५३, ६०, २१, ६५, ६६, ६७, । (10) टोडरमल (मल्लजी, मलजी): ७४. ६२, १०२, १०४
१७, १६, २०२१, २५, २६, २८ से जीवन और साहित्य : ३६
३१, ३५, ४०,४३ से ४६,४६, ५०, (ब्र०) जीवराज गौतमचंद्र : १३२
५३ से ५७, ५६ से ६३, ६५, ६६,
६८ में ७१, ७४, ७५, ७६, ८०, जीवराज ग्रंथमाला, शोलापुर : १३४ |
५१, ८३ से ११,६७ से १०३,१०६, जीवतत्त्व प्रदीपिका ; ८८, ८६,२६६ । १०७, १०६, १११ से ११४, ११६, जे० एल० अनी: ९९, १३२.
११३, ११८, १२२, १२३, १२६, जैन साहित्य और इतिहाग़ : ३, ४, | १३२, १३३, १३४, १३७, १३८,
२०, २७, ३११
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मामानुक्रमणिका
१६६, १७०, १७१, १७३ से १७५, | तेरापन्थ (दिगम्बर) : १६, २५, १७७ से १५२, १८५, १८६, १८८, । २६, २७, २८, २९, ३०, ३१. १८६, १६०, १६२, १६३, १६४, । ५४, ५८, ६० १६६. १६८, १६६ से २०५, २०७४, २११, २१५, २१६, २१७, २२३,
द्रव्यसंग्रह : १६२, १६४, १६७, १६६ २३०, २३३, २३४, २४६, २६०,
१७०, १७१, १७३, १६६ २६३, २६४, २६७, २७३, ३००,
दयाचंद; २२ ३०२, ३१२, ३१५, ३१७, ३२०, ३२२ ३२३, ३२५, ३२७, ३२८
दयाबाई : ३६ टोडरमल जयन्ती स्मारिका : ३५,
दयाबाई की बानी : ३६ ६०, २
दशावतार चरित्र : १३० (राजा) टोडरमल : ५०
दक्षिणमूर्ति सहस्त्रनाम : १३०
दशरथ : ३२२ डालूराम : ६६
द्राविड़संघी : ५, ३११
द्राविड़ परिवार : ६१ लूंढाष्ट्र देश : ३४, ६२, ६५, ३१३
दानशासन : १८ ढूंढारी पंथ : १३१
दादूपंथी : २५, ३७,३८, ३६ ढूंढ़िया : १४
(श्री) दादू महाविद्यालय रजत जयन्ती
ग्रंथ : ३६ तर्कशास्त्र : १४
दाताराम चेरिटेबिल ट्रस्ट, दिल्लीः ११० तत्त्वार्थ सार : १४१
दिगम्बर : ३, ५, ६, ७, १०, २६, तत्वार्थ मूत्र (मोक्षशास्त्र) : ११, ६३,
३०, २१८, ३११, ३१२
' | दिल्ली (दिली) : ३२, ३४, ४६, ६१, ८४, १३१. १४१, १६२, १६३, १६४, १६७ से १७०, २०३
(श्री) दि. जैन बड़ा मन्दिर तेरातारणपंथ : १५, ३११
पंथियान, जयपुर : ४६, ६७, ७५, तारण स्वामी : १५, ३११
७६.६१, १०१, १०३, ११०, ११३ तीनलोक मण्डल पूजा : २८ दि० जैन पुस्तकालय, कापड़िया भवन, (प्राचार्य) तुलसी गणी : १५ सूरत : ८२,८३ तुलसीदास : ३२८
दि. जैन मन्दिर सराय मुहल्ला, तुरसीदास : ३६
रोहतक : १४२, १४३ । तुम्बुलूर : १५६
दिगम्बर जैन सम्प्रदाय : ३१ तेरापन्थ खण्इन : १६, २०, २६, २६ | दि० जैन मुमुक्ष मण्डल, सनावद : ८६ तेरापन्य (पवेताम्बर) : ५, १५, २०, | दिगम्बर जैन मन्दिर भदीचंदजी,
२१, २२, २७, २८, ५६, ३१२ | घी वालों का रास्ता, जयपुर : ४७
'
भ:
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३६२
पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व भौर कतत्व (श्री) दि. जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, ' नरेन्द्रकीति : १८, २२, २३, २४ सोनगढ़ : ४४, ८२, ११०, १२३, । नयनचंद पाटनी : ६६
नगर पुराण (भवावतार रहस्प): (श्री) दि अन मन्दिर (बड़ा घड़ा) अजमेर. : ४८
नाथूराम प्रेमी : ६, ६, २२, २७, दि. जैन मुमुक्षु मण्डल, धर्मपुरा, ४४, १११, ११३, १४२ दिल्ली: ११०
नानक : २५, ३१६ दि जैन मन्दिर, अलीगंज : ५१, ५२ नादिरशाह दुर्रानी : ३२, ३१२ दि.जैन मंदिर भादर्शनगर, जयपुर : ८३ नामदेव : ३१६ दीने-इलाही : ५०
नाथपंथी : ३१७ (40) दीपचंद : ३२३
नाभादास : ३२२, ३२४ देवसेन : ५
निसई (मल्हारगढ़) : १५ (यति) देवसूरि : ७
निरंजनी सम्प्रदाय : ३८, ३६ देवीलाल : २२
नियमसार : ६३, १६० (५०) देवीदास गोचा : ५७, ६६, ७४ | | नीतिशतक : १३०, १३२ दो सौ बावन वैष्णों की वार्ता : ३२१ | नेमिचन्द्राचार्य : ८६, ८६, १००, (40) दौलतराम कासलीवाल : २६, | | १०२, १५४, १५५, १६०, २६८ ५३, ५६, ६६, ७३, १४१ से १४५, ! नेमचंद बालचंद गांधी; ८६
नंदगाम : ३२१
परमात्मप्रकाश : ८, १०, १११, (40) धर्मसागर उपाध्याय : ६ ।
११३, १३१ धर्मघोष : १०
परशुराम चतुर्वेदी : १२, १३, १६, २० धर्मसरोवर : २४ धर्मसंग्रह श्रावकाचार : १०७
पद्मावती : १
परमानन्ददास पणियाल : ३७, ३६ (प्राचार्य ) घरसेन : १५६
| पदसंग्रह : ४३ धवल (धवला):६६,६८, १६१, १५६ धर्मपरीक्षा : १३१
(पं०) परमानन्द शास्त्री : ४५, ८३, (डॉ.) धीरेन्द्र वर्मा : ३१८, ३१६
पद्म पुराण : ६६
पद्मनंदि पंचविशतिका : ८४ न्यू हिस्ट्री याफ दि मराठाज : . पन्नालाल चौधरी वाराणसी : १०६ न्यायदीगिका : १८१
| पचनदि पच्चीसी : १३१
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नामानुक्रमणिका
परमानन्द : ३२०
पंडित पन्नालाल : २६ परमार्थ वनिका : ३२२
पंचास्तिकाय : ६३, १३१, १४१,१६०, प्रवचन परीक्षा : ६
१६१, १६२, १७६, १८६, १९८ प्रवचनसार भाषा : १६, २४, २५, २७ / पंचसंग्रह : ८७, २६८, ३६६ प्रवचनसार : ६३, १३१,१४१, |पंचाध्यायी : १०२
१६०, १६१, १६२, १६८ पंजाब प्रान्तीय हिन्दी साहित्य का प्रमेयरलमाला : ६६
इतिहास : ३१६ प्र. वी. कश्मीरीलाल जैन सब्जी मंडी, दिल्ली : १३२
फूलचंद पुष्पेन्दु, खुरई : ६७ (प्रा.) प्रभाचंद्र : १३३, १३४, १४०
(वैद्य) फैजुल्लाखा : १७६ प्रथम श्रुतस्कंध : १५२ प्रभास पुराण : १३० पृथ्वीसिंह : ३५, १४२
बनारस (वाराणसी) (काशी) : १६, पृथ्वीनाथ : ३२१
६१, ६२, १११, १२२, ३१५ पानीपत: ३४
(पं०) बनारसीदास : १८, १९, २१,
३१, ४०, ५८, १७, ३१२, ३१६, पाहुड़ दोहा : १३१
३२२, ३२४ पाणिनी : २५६
बनारसीमत लंडन : १६ प्राकृत शतपदी : १०
(पं0) बखतराम शाह : २२, २५, (डॉ०) पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल : ३२०
२६, २७, २६, ५४, ७५ पुष्पावती नगरी : १५
बखनाजी : ३६ पुरुषार्थसिन्युपाय : ५३, ६३, १३१,
बखनाजी की बानी : ३६ १४१, १४४, १४५, १६३, १८१,
बम्बई : ११० १८२, २०२, २०३, ३१५
बापदेव : १५६ पुरुषार्थसिद्धयुपाय' भाषाढीका : ५४,
बनवासी : ३, ३११ ६६, ७३. ७६, ८०, ८१, ८६, १४१, १४३, १४४, १४५, १४६,
| ब्रह्म दिलास : ३७ १६६, २००, २०३, ३१५ | ब्रह्मपुराण : १३० पुरातन जैन वाक्य सूची : ७, ८८, बजरलदास : ३१६ ८६, १०२
बजभाषा का व्याकरण : ३१६ (नाचार्य) पुष्पदन्त : १५.६ बाजिन्दजी : ३१ पूनिया : ३६
| बाबा बंशीधर : ५६, ६० (डॉ.) प्रेमप्रकाश गौतम : ३२१, ३२४ | (दीवान) बालचंद छाबड़ा : पोथीखाना : ४३
| ३५, ६८, ६६
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पंडित टोडरमल : व्यलिस्य और कतत्व बाहुबलि : ८८
| भूधर मिश्र : १४२ (पं०) भालचंद्र सिद्धान्तशास्त्री : १३२] (प्राचार्य) भूतबलि : १५६, २६८ बासबोधिनी टीका ; ३२२ बिहारीलाल : २२ बिहारी : ३१८
(भगवान) महाबीर : १६० बीसपंथी (विषमपंथ) : २७, २८, २६ |
मधुरा का कंकाली टोला : ६ बुद्धि विलास : १४, ३४, ३५, ५४, |
| (प्राचार्य) महेन्द्रसूरि : १०
मध्यकालीन धर्मसाधना : १४ बंसीधर : ४६
(पं.) मक्खनलाल शास्त्री : १४२ (40) बंशीधर : ११३, १३२
महासिंह : २२ मनोहरदास : ३६
मकरन्द : ६६ भट्टारक सम्प्रदाय : ८, १४, १६, ३१२ महाराम : ५६ भर्तृहरि : १३२
मलयखेड़ा : ६६ भरतपुर : २१
(पंडित) मनोहरलाल : ९ भक्तिकाल : ३६
महाबदल : ६६६८, भगवानदास : ३६
महावीर बह्मचर्याश्रम, कारंजा : ११० भक्तिसागर : ३६
मत्स्यपुराण : १३० भक्तविलास : ४३
मनुस्मृति : १३० भक्तिप्रिया : ४३
महाभारत ; १३० भगवतीसूत्र: १३१
महिम्निस्तोत्र : १३० भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का महावीरप्रसाद द्विवेदी : ३१६ योगदान : ३, ६, ७, १५, १५६, |
मलंदरनाथ : ३२०
माथुरसंघी : ५ (पंडित) भागचंद छाजेड़ : ८६ माधोराजपुरा : ३० भारतीय इतिहास - एक दृष्टि : ३२ | माधोसिंह (माधवसिंह): ३३, ३४, भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी ३५, ५५, ६८
संस्था, कलकत्ता : ६७, १४२ प्राचार्य) माधवनंद विद्य: ८६, भा०दि जैन संघ, मथुरा : ११०, १२३ १०२, १५४, २८० भागवत : १३०
, (डॉ.) माताप्रसाद गुप्त : ३१६ (प्राचार्य) भिक्षु : १५, ३१२ | मिथ्यात्व खण्डन : १८, १९, २०, (प्राचार्य) भिखारीदास : ३१६ २१, २२, २३, २६ भूधरदास : ४६, ७५, १०३ | (५०) मिलापचंद कटारिया : ४५,
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नामानुक्रमणिका
३६५
मिथवन्धु : ३२०, ३२१
योगप्रवाह : ३६ मिश्रबन्धु विनोद : ३२०
योगशास्त्र : १३० मुकुन्ददास : २२
योग वशिष्ठ : १३० मुलतान : ७०, ८३ मुण्डकोपनिषद् : १३०
रतनचंद (दीवान) (रतन दीवान) : मुंशी मोतीलाल शाह, जयपुर : १४२ |
३०, ३५, ६८, ६६, १४२, १४३, मुलसंघी : ५
रसिक प्रिया : ३७ मूलसंघ की गुर्वावली : १०
रज्जबजी : ३६ मूलविद्रपुर (मूलबद्री): २६८, २७६
रज्जबहानी : ३६ मूलसंघ : ३११ (श्वेताम्बराचार्य) मेघ विजय : १६,
रहस्पपूर्ण चिट्ठी : ४६, ६१, ६४,
६५, ७०, ७४, ७६, ८०, ८१, ८२, २१, २७
८३, ८४, २५४, २५७, ३१४ महोजी गोदारा : ३६
रम्भा देवी : ५६ मोक्षमार्ग प्रकाशक : १७, ४०, ५०,
रलकरण्ड श्रावकाचार भाषा ६२, ६३, ६४,७३, ७६, २० से ८३, !
वनिका : ६०, २०१ ८५, १०१, १०६, १११ से ११८,
रत्नकरण्ड श्रावकाचार : १३१,१६३, १२०, १२२, १२३, १२४, १२६ से
१७३, १७४, १६२ १३१, १३८, १४४, १४३, १५१, १५१, १६३, १६४, १६६, १६७,
रमणसार : १३१ १७०, १७१, १७३ से १७७, १८०,
० रायमल (राजमल्ल, रायमल्ल) : १८१, १८३ से २०२, २०४ से
२१, २६, २६, ४५, ४६, ४७, २१७, २१६ से २२२, २२४ से
४६, ५०, ५३, ५६, ६१, ६२, ६५, २३०, २३३, २३५ से २३८, २४० से २४५, २४७ से २५८,
६७, ६, १०२, १०३ १०४,
१०६, ११३, ११५, १२२, १३८, २६४ से २६७ २७८, २९५, ३०५,
१४३, १४४, १५३, २६४, २६८ ३२५, ३२७, ३२८
राजस्थान का इतिहास : ३२, ३३, मोक्षमार्ग प्रकाशक की किरणें : ११०
राधाकृष्ण : ३६ मंद प्रबोधिका : ८८
राजुल : ३६
राजस्थानी भाषा और साहित्य : ३८ पजुर्वेद : १३०
राजमहल : ४३ मुक्ति प्रबोध : १६, २०, २१ राजस्थान के अन्यभण्डारों की योगीन्दु (योगीन्द्रदेव, जोइन्द्र) : ८, ' ग्रंथसूची; ४३
| राजमल संघी: ५७
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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कराव
वल्लभान
(राजा) राजमल्ल : ८८ . वल्लभ सन्देश : २७ (पं०) रामप्रसाद शास्त्री : ११३ | वर्णरत्नाकर ; ३१८ राजमल पांडे : १८, ३२२, ३२४ । रामसिंह : २६८, ३१६
वल्लभ सम्प्रदाय : ३२१ (प्राचार्य) रामचंद्र शुक्ल : ३२०, वशिष्ठ : ३२२ ३२१, ३२४, ३२५
बृहन्नय चक्र : ८४ राहुल सांकृत्यायन : ३२०
(कविवर) वृन्दावनदास : १११, (डॉ.) रामकुमार धर्मा : ३२०
१२२, ३१५
वृन्दावन विलास : १११ रामचरितमानस : ३२८ राजचंद्र शास्त्रमाला, अगास : १४२
बृहत्कल्पसूत्र : १३१
बृहत्स्वयंभू स्तोत्र : १३१ रीति काव्य की भूमिका : ३२
वृषभ : २६८ रीतिकाल : ३६,४४
न्यास सूत्र : १३० रीतिकाव्य : ४४
वासुपूज्य ऋषि : १८ रुद्रयामलतंत्र (भवानीसहस्रनाम):१३१ वाजिन्द की बानी : २६
(डॉ.) वासुदेवशरण अग्रवाल : ५८ (पं.) लखमीचंद : ५७
वायुपुराण : १३० लश्कर : ५७
विमलश्री देवी (वीर श्री) : १५ लक्ष्मी विलास : ५७
विद्याधर : ३३ लब्धिसारः ६०, ६३, ७५, ५६, | विष्णोई सम्प्रदाय : ३८, ३६ ९७, १८, १३१, १६०, २६० विष्णुकुमार मुनि : १६३, २१० लब्धिसार भाषाटीका : ७६, ८१, | विष्णुपुराण : १३०
विट्ठलनाथ : ३२१, ३२४ लब्धिसार - क्षपणासार भाषाटीका : | वीरवाणी : १७,४४,५४, ५५, १२३ ८०, ८६ से १०,६२, १४, १०१,
| बील्होजी : ३६ १४४, १४६, १५०, ३१४
वीरसेनाचार्य : १५६ (डॉ.) लाल बहादुर शास्त्री : ८३, १११, ११३, १२३
येतवा नदी : १५ लोकाशाह : १४, ३११ -
वराग्य शतक : १३२ लोकर्षण मुनि : १३३
वैशाम्पायन सहस्रनाम : १३०
वर्तमान : २६८ वअनन्दि : ५ घसन्तकीर्ति : ६,१०
शत्रुञ्जय : ६ शतपदी : १०, ११ श्वेताम्बर : ३, ६, ७, १४, ३११
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मामानुक्रमणिका
३६७
•
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-..-.
-
---"
श्याम तिवाड़ी : ३४
| सम्यग्ज्ञानचंद्रिका : २६, ४३, ४५, श्वेताम्बर मत : १२५
५६,६४, ६८,७१ से ७४, ८१, शाक्त : १२
८५ से ६४,६७,६८,६९, १०१ से शान्तिनाथ पुराण वनिका : ५६,
१०४, १०६, ११५, १३०, १३८, १४६, १५१, १५२ १५४, १६०,
२१३, २४६, २४८, २५६ शाहपुरा : ६५
सरदारमल साह : २० शामकुण्ड: १५६
(प्राचार्य) समन्तभद्र : १५६, २०० शान्तिनाम : २०६
समयसार नाटक : ८४ शिष : २६८
सहजोयाई : ३६ शिवप्रसादसिंह : ३१६
सहनोबाई की बानी : ३६ (ब) शीतलाद : ८६
सम्मति सन्देश : ४५, ६१ शंव : १२
सर्वार्थसिद्धि वनिका : ५६, ६५, शंकराचार्य : १२, १३, ३१२
६६, ७४ श्रवणबेलगोला : ८८
(40) सदासुखदास कासलीवाल : ६० भूगार रस मण्डन : ३२१, ३२४
समोसरण वर्णन : ७६,८०,६१, १०६, शृंगार शतक : १३०
१०७, १८, १४६, ३१४ । श्रावकाचार (योगीन्द्रदेव कृत): १३१ |
सस्ती ग्रंथमाला, नयामंदिर, घरमपुरा, श्रीपाल : ८३
दिल्ली: ४४, ८२,१०६, १२३ श्रीपालचंद : ५६
सत्तास्वरूप : ८६ (भट्टारक) श्रुतसागरसूरि : ६, १०, ११
समोशरण (समवसरण) - १०६,
१०७, १०८ षट्खण्डागम : १५६, १६० ।
स्थानकवासी ( ढूंढिया ) सम्प्रदाय : षट्प्राभृत (षट्पाहुड़) टीका : ६, १०
१४, ३१२ २४, २५, १३१, २४७
स्याहगंज : ४६
सामुद्रिक पुरुष लक्षण : ४८, ४६ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका : २६४, २६६,
सांगानेर : १८, २१ से २५, २७, ३० २६०, २६१, ३१३, ३१४
सिद्धराज : ७ सरहपाद : २१६
सिरीज : १५ समयसार : ६३, ६६, ६४, १४१
| सिद्धान्तसारसंग्रह वचनिका : ५७, १६०, १६१, १६७, १६८, १७२ १८१, १८२
सिद्धास्थदास : ८३ सनावद : ८६
सिंघाणा : ४६, ५३, ६१, ६५, ६८, समयसार कला : १३१, १४१,२३२ | १,६२, १०४, ३१३ सम्यक्प्व कौमुदी : २४
| सीतला : २५
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________________ पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्सरत्र सुन्दर : 22 हिमालय पर्वत : 184 गुन्दरदास (सुन्दर) : 37, 36 हिन्दी साहित्य : 26. . सुन्दर ग्रन्थावली : 37, 36 हिलन्ची : 267, 266 सुरजनदासजी : 36 हिन्दी भाषा का लद्गम और विकास : सुक्ति मुक्तावली : 131 272, 306, 318 सूर पूर्व बृजभाषा और उसका साहित्य : हिन्दी भाषा का इतिहास : 318 हिस्ट्री ऑन मैथिली लिट्रेचर : 318 (बाबू) सूरजभान वकील : 142 हिन्दी साहित्य का इतिहास (शुक्ल) : सेमरस्लेड़ी : 15 320, 282, 324 / सेवादास : 36 हिन्दी साहित्य का अालोचनात्मक सेखावाटी : 46, 61 इतिहास : 320 (50) सेवाराम : 53, 65 हिन्दी गद्य का विकास : 324 सली : 36, 58, 56, 60, 85, 62, (डॉ०) हीरालाल जैन : 3, 5, 132, 138, 168 सोमदेव : 7 (डॉ.) हीरालाल माहेश्वरी : 318, सोनगढ : 110 संघपट्ट : 131 क्षपणासार : 60, 63, 75, 16, संबोध प्रकरण : 4, 5, 6 67, 18, 160 क्षपणासार भाषाटोका : 64, 76, हरिभद्र : 4, 5, 611 81, 8, 66 (डॉ.) हजारीप्रसाद द्विवेदी ; 14 / क्षेत्रपाल : 22, 25 हरिकिशान : 22 हरिदास की बानी : 36 त्रिलोकसार : 50, 55, 56, 63, हरिचंद : 57 75, 80, 100 से 103, 107, 314 हरिया पुरामा : 66, 107 त्रिलोकचंद पाटनी : 66 हनुमन्नाटक : 130 त्रिलोकचंद सोगारंगी : 66 हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल : 18 / बिलोकसार भाषाटीका : 43, 76, हिन्दी साहित्य इतिहास (रसाल) : 38 100 से 104, 106, 107, 148, हिन्दी जैन साहित्य और इतिहास : 44 146, 264, 314 हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त त्रिलोक प्रज्ञप्ति : 107 इतिहास : 44 हिन्दी साहित्य, द्वितीय खण्ड : 54. ज्ञानानन्द यावकाचार : 16, 21.26 ज्ञानसागर : 43 हिन्दी साहित्य प्रसारक कार्यालय, | (बाबू) ज्ञानचंद जैन लाहौर : 106 हीराबाग, बम्बई : 100, 101 / ज्ञानार्णव : 131, 206 ज्ञ