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________________ पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियों सहन न होने से आवरण डाल लेते हैं, तो फिर उसे पहनते क्यों नहीं ? क्योंकि ऐसा तो निषेध कहीं है नहीं कि प्रावरण रखना परन्तु पहनना नहीं। और वह प्रावरण भी जैसे-तैसे मिले हुए प्रासुक वस्त्र से क्यों नहीं बनाते हो? धोबी आदि के हाथ से जीवाकुल नदी तालाब में क्यों धुलवाते हो और बिना सोधे ईंधन से जलाई हुई प्राग के द्वारा उसे रंगाते भी क्यों हो?" ___ इससे स्पष्ट है कि विक्रम की तेरहवीं शती तक सादड़ी और योगपट्ट पा गये थे। आगे चलकर दिगम्बर साधुनों ने वस्त्र धारण करना जायज-सा मान लिया। भट्टारक श्रुतसागर ने तत्वार्थसूत्र की संस्कृत टीका में लिखा है कि द्रयलिंगी मुनि शीतकाल में कम्बलादि ले लेते हैं और दूसरे समय में उन्हें त्याग देते हैं । इसके बाद तो वस्त्र धारग में बाहर जाने के समय एवं शीतादि के समय की ही कोई सीमा नहीं रही, उनका खूब खुलकर उपयोग होने लगा। गद्दे-तकिये भी आगये । यहां तक कि पालकी, छत्र-चंवर आदि राजसी ठाटबाट भी परम दिगम्बर मुनियों (भट्टारकों) ने स्वीकार कर लिए। पूर्वोक्त 'शतपदी के अनुसार उस समय दिगम्बर साधु मठों में रहते थे, अपने लिए पकाया हुआ (हिष्ट) भोजन करते थे, एक ही स्थान पर महीनों रहते थे, शीतकाल में अंगीठी का सहारा लेते थे, पयाल के बिछौने पर सोते थे, तेल मालिश कराते थे। सर्दी के मारे जिन मंदिरों के गूट मण्डप (गर्भालय) में रहते थे। कपड़े के जूते, धोती, दुपट्टे पहनते और सदिरवटी आदि औषधियाँ रखते थे। मंत्र, तंत्र, ज्योतिष ग्रादि विद्यानों का उपयोग करते थे। इस सम्बन्ध में पंडित पाशाधरजी ने एक एलोक उद्धत किया है जिसमें १ जैन सा इति०, ४६१ २ व्यलिगिन: असमर्थामहर्षयः शीतकालादो कम्बलादिकं गृहीत्वा न प्रक्षालयन्ते न सौश्यन्ति न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति अपरकाले परिहरंतीति । -- अ.६ सुष ४७ 3 ज. सा० इति०, ४६२
SR No.090341
Book TitlePandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages395
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Story
File Size7 MB
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