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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
कहा गया है कि भ्रष्ट चरित्र पंडितों और वठर मुनियों ने जिनदेव का निर्मल शासन मलिन कर दिया है ।"
वह युग ही उथल-पुथल का था। एक ओर शिथिलता बढ़ रही थी तो दूसरी ओर उसकी आलोचना भी डट कर हो रही थी । उस समय मात्र जैनियों में ही नहीं वरन् प्रत्येक भारतीय धर्म में शिथिलाचार और उसका विरोध क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में हो रहा था । प्राचार्य परशुराम चतुर्वेदी लिखते हैं
" उस समय न केवल बौद्ध तथा जैन ही, अपितु स्वयं वैष्णव, शाक्त, शेव जैसे हिन्दू सम्प्रदायों ने भी अपने-अपने भीतर अनेक मतभेदों को जन्म दे रखा था। इनमें से सबने वेदों को ही अपना अंतिम प्रमाण बना रखा था और उनमें से कतिपय उद्धरण लेकर तथा उन्हें वास्तविक प्रसंगों से पृथक करके वे अपने-अपने मतानुसार उन पर मनमाने अर्थों का प्रारोप करने लगे थे। इसके सिवाय कुछ मतो ने वेदों की भांति ही पुराणों तथा स्मृतियों को भी प्रधानता दे रखी थी। अतएव इनके पारस्परिक मतभेदों के कारण एक को दूसरे के प्रति द्वेष, कलह या प्रतियोगिता के प्रदर्शन के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन मिला करता था. और बहुधा अनेक प्रकार के झगड़े खड़े हो जाते थे ।
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इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुये वे लिखते हैं- "इधर बौद्ध धर्म का उस समय पूर्ण ह्रास होने लगा था । शंकराचार्य तथा कुमारिल भट्ट जैसे विरोधी प्रचारकों के यत्नों द्वारा वह प्रायः निर्मूल-सा होता जा रहा था । उस समय जैनधर्म तथा शैव और वैष्णव सम्प्रदायों के भीतर भिन्न-भिन्न संगठन हो रहे थे । इस्लाम के अंदर भी सूफी सम्प्रदाय अपना प्रचार करने लगा था । " 3
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शंकराचार्य के प्रबल प्रहारों से बौद्ध धर्म के तो भारत से पैर ही उखड़ गये। जैन धर्म को भी प्रबल याघात लगा और आगे चल कर
१ डिष्टचारिर्वरंश्च
तपोधनैः २
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥
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३ वही, १२६
३० भा० सं० प०, २०
- जै० सा० इति०, ४५८
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