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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियां १३ उसकी साधना-पद्धति एवं वाह्याचार भी प्रभावित हुये विना न रहे । शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों के अनकरा पर भट्रारक गहियां स्थापित हो गईं। शंकराचार्य के कार्यकलापों का वर्णन करते हुए आचार्य परशुरामजी लिखते हैं -
"शंकराचार्य (सं० ८४५-८७७) ने अपना मुख्य ध्येय बौद्ध तथा जैन जैसे अवैदिक धर्मों का इस देश से बहिष्कार कर अपने धार्मिक समाज में एकता स्थापित करना बना रखा था। इन्होंने अपने मत का मूल आधार श्रुति अर्थात् वैदिक साहित्य को ही स्वीकार किया और उसके प्रतिकुल जान पड़ने वाले मतों का खंडन तथा घोर विरोध किया। उक्त दोनों धर्मों के अनुयायियों को नास्तिक ठहरा कर इन्होंने हिन्दू धर्म के भिन्न-भिन्न प्रचलित संप्रदायों को कटु आलोचना भी की।"१
जब विभिन्न संस्कृतियाँ एक क्षेत्र व एक काल में अनुकूल व प्रतिकूल घनिष्टतम सम्पर्क में गाती हैं तो उनमें परमार न्यूनाधिक प्रभाव पड़ता ही है एवं उनमें परस्पर बहुत कुछ आदान-प्रदान भी होता ही है। जैन धर्म और संस्कृति ने भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में अन्य भारतीय संस्कृतियों को प्रभावित किया है तथा वह भी उनके प्रभावों से अढ़ती नहीं रही। जैनियों के अल्पसंख्यक होने के कारण उन पर यह प्रभाव विशेष देखने में आता है। भट्टारक युग में व्यापक समाज के साथ अपना तालमेल बैठाने के लिए उन्होंने शैव और वैष्णव क्रियानों का अनुकरण किया। राजस्थान के इतिहास में इस प्रकार के कई उदाहरण मिल जायेंगे कि एक ही कूल में जैन और शैव साधना चलती थी। विशेषकर वैदिक संप्रदायों का अद्भुत प्रभाव श्रमण संस्कृति पर पड़ा। इससे जैन समाज का ढांचा बिल्कुल ही बदल गया। एक सवर्ण हिन्दू की तरह जैन भी जातिसिद्ध उच्चता पर विश्वास करने लगे। सामाजिक और वैधानिक मामलों में भी जैनियों ने प्रायः पूरी तरह वैदिकों का अनुकरण किया। उस समय की कुछ मांग ही ऐसी ही थी। भट्टारक पीठों में भी कई दृष्टियों से
'उ०मा० सं० १०, ३४