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पंडित टोररमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व (७) सो महंत पुरुष शास्त्रनि विर्षे ऐसी रचना कैसे करें ?
(८) सूधी भाषा विर्षे होय सकं नाहीं। इ - इ बीचि नावे तो उनकौं भी बुरा कहैं । में - जामें अपना हित होय ऐसे कार्य कौं कौन न करेगा?
क्रियापद
_ 'धातु' मूल रूप है, जो किसी भाषा की क्रिया के विभिन्न रूपों में पाया जाता है। जा चुका है, जाता है, जायगा - इत्यादि उदाहरगों में 'जाना' समान तत्त्व है। धातु से काल, पुरुष और लकार से बनने वाले रूप क्रियापद हैं।
आलोच्य साहित्य की भाग में शिपागदों की स्थिति मा सौर 'सरल है । मुख्य रूप से उन्हें तीन वर्गों में रखा जा सकता है :-- (क) प्रथम वर्ग में संस्कृत की साध्यमान क्रियाओं से बनने वाली
क्रियाएं तथा संस्कृत संज्ञापदों से बनने वाली क्रियाएँ ग्राती हैं। संज्ञापदों से बनने वाली क्रियाओं को हम 'नाम धातु' नहीं कह सकते, क्योंकि इनमें ब्यक्तिवाचक संज्ञाओं की अपेक्षा भाववाचक संज्ञाओं का प्रयोग होता है। जैसे -- 'अनुभव से अनुभव है', अनुभव करने के अर्थ में एवं 'नादर से प्रादरै है', प्रादर करने के अर्थ में प्रयोग हुए हैं।
खड़ी बोली में जहाँ ऐसे संज्ञा शब्दों के साथ 'कर' जोड़ कर संयुक्त क्रिया से काम चलाया जाता है, वहाँ पालोच्य साहित्य की भाषा में मूल शब्दों से ही क्रिया
बना ली जाती है । (ख) इनके अतिरिक्त जो देशी धातुएँ मिलती हैं, वे दूसरे वर्ग में
अाती हैं । इनमें कई क्रियाएँ ऐसी हैं जिनके मूल स्रोत को संस्कृत धातु की साध्यमान प्रकृति से खोजा जा सकता है, परन्तु ऐसी धातुएँ प्रायः प्राकृत विकास परम्परा से