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दिगम्बर जैन गुप्रकमण्डका वाटेल hb
गद्य शैली
( ३ ) रोग तो बुरा ही है पर अधिक की अपेक्षा कम रोग हो तो अब अच्छा है - यह भी कह देते हैं ।
(४) जैसे दाह् ज्वर बाला वायु होने के भय से शीतल वस्तु का त्याग करे, पर जब तक शीतल वस्तु रुचे तब तक दाह ज्वर गया नहीं जानना चाहिए |
(५) रोग तो शीतांग भी है और ज्वर भी, पर शीतांग से मरना जाने तो उसे ज्वर कराने का उपाय किया जाता है । बाद में ज्वर भी ठीक किया जाता है ।
(६) किसी को विषम ज्वर हो तो कभी तकलीफ अधिक होती है, कभी कम कम होने पर लोग कहते हैं कि अब ठीक है, पर जब तक रोग गया नहीं तब तक ठीक कैसा ?
१ मो० मा० प्र०, २८०
वही, ३०१
वही, ३६२-६३
४ वहीं, ४१२ ५ बही, ४५३
२५१
कर्म के निमित्त से हुए हैं, अतः कर्म के हैं" ।
(३) उसी प्रकार राग भाव तो बुरा ही है किन्तु अशुभ राग की अपेक्षा शुभ राम को भला भी कह देते हैं।
(४) उसी प्रकार कोई नरकादि के भय से विषय - सेवन का त्याग कर दे किन्तु जब तक विषय-सेवन रुचे तब तक वह वास्तविक त्यागी नहीं है ।
(५) उसी प्रकार कषाय तो सब बुरी ही हैं, किन्तु पाप कषायरूप महाकपाय छुड़ाने के लिए पुण्य कषायरूप अल्पकषाय कराई जाती है । बाद में उसे भी छुड़ाया जाता हैं । (६) वैसे ही जब तक जीव मोही है तब तक दुःखी है, कभी अधिक और कभी कम । कम दुःखके काल में अच्छा
भी कहा जाता है, पर है वह दुःखी ही ।
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