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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
शुभ भावों से पुष्यबंध होता है और अशुभ भावों से पापबंध" । बंध चाहे पाप का ही या पुण्य का, वह है तो आखिर बंध ही, उससे आत्मा बंधता ही है, मुक्त नहीं होता । पुण्य को सोने की बेड़ी एवं पाप को लोहे की बेड़ी बताया गया है । बेड़ी बंधन का ही रूप है, चाहे वह सोने (पुण्य) की हो, चाहे लोहे (पाप) की । इस संबंध में डॉ० हीरालाल जैन लिखते हैं :
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"यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि और ग ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ कर्मबंध उत्पन्न करती हैं। हाँ, उनमें से प्रथम प्रकार का कर्मबंध जीव के अनुभवन में अनुकुल व सुखदायी और दूसरा प्रतिकूल व दुःखदायी सिद्ध होता है । इसीलिए पुण्य और पाप दोनों को शरीर को बाँधने वाली बेड़ियों की उपमा दी गई है । पाप रूप बेड़ियाँ लोहे की हैं; और पुण्य रूप बेड़ियाँ स्वर्ण की, जो अलंकारों का रूप धारण कर प्रिय लगती हैं। जीव के इन पुण्य और पाप रूप परिणामों को शुभ व अशुभ भी कहा गया है। ये दोनों ही संसारभ्रमण में कारणीभूत हैं, भले ही पुण्य जीव को स्वर्गीय शुभ गतियों में ले जाकर सुखानुभव कराये अथवा पाप नरकादि व पशु योनियों में ले जाकर दुःखदायी हो। इन दोनों शुभाशुभ परिणामों से पृथक् जो जीव की शुद्धावस्था मानी गई है, वही कर्मबंध से छुड़ा कर मोक्ष गति को प्राप्त कराने वाली है ।"
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पुण्योदय से लौकिक भोगों की प्राप्ति होती है, अतः लौकिक भोगों का अभिलापी प्राणी पुण्यबंध को भला और पापबंध को बुरा मान लेता है। अथवा पुण्यबंध के कारण रूप जो शुभ भाव हैं, उन्हें मोक्ष का कारण मान लेता है । जो बंध के कारण हैं - चाहे वे पुण्यबंध के ही कारण क्यों न हों, उन्हें मुक्ति के कारण मान लेना ही बंध तत्व संबंधी अज्ञान है ।
' तत्त्वार्थ सूत्र श्र० ६ सू० ३
२ समयसार, गाथा १४६
3 भा० सं० जं० गो०, २३३
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