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ror विषय और वार्शनिक विश्वार
प्रास्त्रय तस्व
आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोह-राग-द्वेष भावों के निमित्त से कर्मों का आना ( कार्मारण बर्गेरणा का ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिमित होना) प्रस्रव है । इसके दो भेद होते हैं - द्रव्यास्त्रव और भावास्रव । आत्मा के जिन मोह-राग-द्वेष रूप भावों के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्म आते हैं, उन भावों को भावास्रव या जीवास्रव कहते हैं और जो कर्म श्राते हैं उन्हें द्रव्यासव या अजीवासव कहते हैं" । आस्रवों के भेद या कारण मिध्यात्व, अविरति कषाय और योग माने गए हैं । अज्ञानी आत्मा प्रास्रव तत्त्व के समझने में भी भूल करता है और वह यह कि वह कमस्त्रव से बचने के लिए बाह्य क्रिया पर तो दृष्टि रखता है. पर अन्तर में उठने वाले मोह-राग-द्वेप भावों से बचने का उपाय नहीं करता। पं० टोडरमल के शब्दों में :
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"राग-द्वेष मोह रूप जे आसव भाव हैं, तिनका तौ नाश करने की चिन्ता नाहीं अर बाह्य क्रिया वा बाह्य निमित्त मेटने का उपाय सो तिनके पेटे गाव मिटला नाही" ।
बंध तत्व
श्रात्मप्रदेशों के साथ कर्माशुत्रों का दूध-पानी की तरह एकमेक हो जाना बंध है। इसके भी दो भेद हैं- द्रव्यबंध और भावबंध | आत्मा के जिन शुभाशुभ बिकारी भावों के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों का बंध होता है उन भावों को भावबंध कहते हैं और ज्ञानावरणादि कर्मों का बंध होना द्रव्यबंध है |
बंध के चार भेद हैं - प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध | इनका विस्तृत विवेचन जैन शास्त्रों में किया गया है ।
" द्रव्यसंग्रह, गाथा २८-२६
२ समयसार, गाथा १६४ | आचार्य उमास्वामी में प्रमाद को भी प्रसव का भेद माना है । तस्वार्धसूत्र ०५ सू० १
9 मो०मा० प्र०, ३३३
* द्रव्यसंग्रह, गाया ३२ तत्वार्थसूत्र ०८