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________________ पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तुत्व के साथ ज्ञानावरणादि कर्मों का न होता है । इस तरह यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि यह प्रात्मा स्वयं आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ कर मोह-राग-द्वेष भावों का अभाव कर कर्मों से सम्बन्ध को विच्छेद नहीं कर देता है । आत्मा के मोह-राग-द्वेष भावों से कम-बंध और वार्म के उदय से आत्मा में मोह-राग-द्वेष भावों की उत्पत्ति, इस प्रकार की संगति होने पर भी प्रात्मा और कर्म दो भिन्न-भिन्न तत्त्व होने के कारण केवल अपने-अपने परिणामों को ही निष्पन्न करते हैं, परस्पर एक-दूसरे के परिणामों को नहीं; इनका परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं । वह निमित्त-नमित्तिक सम्बन्ध भी सहज रूप से बन रहा है, उनमें कोई अन्य कारण नहीं है । दोनों में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने पर भी दोनों द्रव्यों में कार्योत्पत्ति स्वयमेव अपने कारण से ही होती है । शास्त्रों में कहीं-कहीं कर्म की मुख्यता से व्यवहार कथन किया जाता है, उसका सही मर्म न समझ पाने के कारण बहुत से जीव हताश हो जाते हैं अथवा अपने द्वारा किये गए बुरे कार्यों को कर्म के नाम पर मढ़ने लगते हैं । ऐसे लोगों को सावधान करते हुए पुरुषार्थ की प्रेरणा पं० टोडरमल इस प्रकार देते हैं :-- "अर तत्त्व निर्णय न करने विष कोई कर्म वा दोष है नाहीं तेरा (प्रात्मा का) ही दोष है, अर तूं ग्राप तो महन्त रह्या चाहै पर अपना दोष कर्मादिक के लगावै, सो जिन आज्ञा मान तो ऐसी अनीति सम्भव नाहीं" । ' मो. मा० प्र०, ४४ २ पु० भा० टी०, ३ मो० मा० प्र०, ३४ ४ वही, ४३ ५ बही, ४५.८
SR No.090341
Book TitlePandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages395
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Story
File Size7 MB
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