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वर्ण्य-विषय और दार्शनिक विचार
(३) कभी-कभी शास्त्रानुसार बात तो ठीक करते हैं किन्तु उसका भाव उनके ध्यान में नहीं आता है। आत्मा की बात इस तरह करते हैं जैसे बे स्वयं प्रारमा न होकर कोई और हों। प्रात्मा शुद्ध है. बुद्ध है, ऐसा बोलते हैं, पर 'मैं शुद्ध-बुद्ध हुँ', ऐसी प्रति उनें नहीं हो पाती।
(४) शरीरादि से आत्मा को भिन्न भी कहते हैं. पर बात ऐसे करते हैं जैसे किसी और से और वो भिन्न बता रहे हों, इनका उमसे कोई सम्बन्ध ही न हो। ऐसा अनुभव नहीं करते कि मैं आत्मा हूँ, शरीर मुझ से भिन्न है।
(५) शरीर और आत्मा के संयोगकाल में दोनों में कुछ क्रियाएँ एक दूसरे के निमित्त से होती हैं, उन्हें दोनों के संयोग से उत्पन्न हुई मानते हैं । ऐसा नहीं जान पाते कि यह त्रिया जीब की है, शरीर इसमें निमित्त है; और यह श्रिया शरीर की है, जीव इसमें निमित्त है।
प्ररीर से भिन्न प्रात्मा की प्रतीति एवं अनुभूति ही जीव और अजीव तत्त्व सम्बन्धी सच्चा ज्ञान है। इसे पाना बहुत आवश्यक है, अन्यथा दुःखों से मुक्ति सम्भव नहीं है।
कर्म - अजीव के अन्तर्गत जिन पाँच द्रव्यों का वर्णन किया गया है, उनमें से पुद्गल के अन्तर्गत बाईस प्रकार की वर्गरगाएं होती हैं। उन में एक कारण वर्गणा भी होती है, जो जीव के मोहराग-द्वेष भावों का निमित्त पाकर कर्म रूप परिग्गमित हो जाती है और उसका सम्बन्ध मोही-रागी-द्वेषी यात्मा से होता रहता है । वे कर्म पाठ प्रकार के होते हैं - ज्ञानाबरगा, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायू, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनके भी अवान्तर एक सौ अड़तालीस भेद होते हैं।
ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय में प्रात्मा मोह-राग-द्वेष आदि विकारी भाव करता है और मोह-राग ईष भावों के होने पर प्रात्मा
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१ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा 5,२२