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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
रहने वाले व्यवहाराभासी जीव उसका प्रयोग तो करते नहीं, किन्तु शास्त्रों में लिखों जीवादि की परिभाषाएँ रट लेते हैं, दूसरों को सुना भी देते हैं, तदनुसार उपदेश देवर व्याख्याता भी बन जाते हैं, पर उनके मर्म को नहीं जान पाते, अतः वे सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।
जैन शास्त्रों में जीव, नीलग्राम
र निर्जरा कर जीव और प्रजीव
ही विशेष हैं ।
मोक्ष से सप्त तव कहे गये हैं । सामान्य रूप से दो ही तत्त्व हैं, ग्राम्रवादिक तो जीवन्यजीव के इनका सच्चा स्वरूप क्या है और पं० टोडरमल के अनुसार अज्ञानी जीव इनके जानने में क्या-क्या और कैसी-कैसी भूलें करता है, उनका संक्षेप में पृथक्-पृथक् विवेचन अपेक्षित है ।
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जीव और प्रजीव तत्व
ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा को जीव तत्त्व कहते हैं। जिनमें ज्ञान नहीं है, ऐसे पुद्गलादि द्रव्य अजीव तत्त्व हैं । जीव और शरीरादि अजीव अनादि से संयोग रूप से संबंधित हैं, अतः यह आत्मा इन्हें भिन्नभिन्न नहीं पहिचान पाता, यही अज्ञान है | शरीरादि राजीव से भिन्न ज्ञानस्वभावी आत्मा को पहिचान को भेदविज्ञान कहते हैं । जीवप्रजीव को जानने के अनेक प्रयत्न करने के उपरान्त भी भेदविज्ञान क्यों नहीं हो पाता ? पं० टोडरमल ने इसके पाँच कारण बताए हैं :
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(१) जैन शास्त्रों में वरिंगत जीव और अजीव के भेद-प्रभेदों को तो जान लेते हैं, पर अध्यात्म शास्त्रों में कथित भेदविज्ञान के कारण एवं वीतराग दशा होने के कारण रूप कथन को नहीं पहिचान राते हैं ।
(२) यदि कदाचित् प्रसंगवश जानना हो भी जाय तो उन्हें शास्त्रानुसार जान लेते हैं, उनकी परस्पर भिन्नता नहीं पहिचान पाते । शरीर अलग है. श्रात्मा अलग है; ऐसा मानने पर भी शरीर के कार्य को और प्रारमा के कार्य को भिन्न भिन्न नहीं जान पाते हैं ।
१ तत्त्वार्थ सूत्र, अ० १ सू० ४
द्रव्यसंग्रह, गाथा २८-२६
3 मो० मा० प्र०, २३०
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