________________
वण्य-विषय और दार्शनिक विचार
१६६
संबर तस्व
ग्रानव का रुकना संवर है। यह भी दो प्रकार का होता है - द्रव्यसंबर और भावसंबर। जो आत्मा का परिणाम कर्म के प्रास्रव को रोकने में हेतु है वह परिणाम भावसंवर है और कर्मों का आगमन रुक जाना द्रव्यसंवर है । यह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है 3 | गृप्ति तीन प्रकार की होती हैंमनोगुप्ति, बचनगप्ति और कायगप्ति । समिति पाँच प्रकार की होती हैं - ईवा समिति, भाषा गमिलि, एषणा समिति, प्रादाननिक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापना समिति । धर्म दस प्रकार के होते हैं - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम प्रार्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम प्राकिचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य । अनप्रेक्षा बारह प्रकार की होती हैं - अनित्य, अशरण, संमार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, पासव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । परीपहजय बाईस प्रकार के होते हैं - क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमसक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणास्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और प्रदर्शन, ये वाईस परीषह हैं। इन्हें जीतना परीपहजय कहलाता है । चारित्र पाँच प्रकार का होता है - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात । इन सत्र का वर्णन जैन दर्शन में विस्तार से मिलता है।
इन सब के सम्बन्ध में यह अज्ञानी प्रास्मा वाह्य दृष्टि से ही विचार करता है, अन्तर में प्रवेश नहीं करता है। अन्तरंग में धर्मरूप स्वयं तो परिणमित होता नहीं है, पाप के भय और पुण्य के लोभ में वाह्य प्रवृत्ति को रोकने की चेष्टा करता रहता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए पं० टोडरमल कहते हैं :
' तत्त्वार्थसूत्र, अ० ६ सू. १ २ द्रव्यसंग्रह, गाथा ३४ ३ (क) सत्त्वार्थसूत्र, ग्रह सू०२
(स) द्रव्यसंग्रह, गाथा ३५