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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व इस अन्य पर प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने तेरहवीं शती में एक संस्कृत टीका लिखी जो सन् १९६१ ई० में जीवराज ग्रन्धमाला, शोलापुर से प्रकाशित हुई है। इसकी भाषाटीका लिखते समय पंडित टोडरमल के सामने उक्त संस्कृत टीका थी, पर उन्होंने उसका विशेष सहारा नहीं लिया है । जो स्पष्टता पंडित टोडरमल की भाषाटीका में है वह उक्त संस्कृत टीका में नहीं है। भाषाटीका की एक विशेषता यह है कि उसमें अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए जहाँ आवश्यक समझा गया है वहाँ भावार्थ भी दिया है । दोनों के कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं :
पापाद् दुःखं धर्मात्सुखमिति सर्वजनसुप्रसिद्धमिदम् ।
तस्माद्विहाय मां च तु सुखर्धी राम् ।।६।। संस्कृत टीका - एवंविधः शिष्यो गुरूपदेशात्सुखाथितया
धर्मोपार्जनार्थमेव प्रवर्तताम् । यतः - पापादित्यादि ।
इति एवम् । चरतु अनुतिष्ठतु ||८||' भाषा टीका -- पाप तें दुःख ही है । धर्म त सुख हो है । ऐसें यहु
वचन सर्व जननि विर्षे भली प्रकार प्रसिद्ध हैं । सर्व ही ऐसें मान हैं वा कहैं हैं । तात सुख का अर्थी है, जाकौं सुख चाहिए सो पाप को छोड़ि सदा काल धर्म . प्राचरौं । भावार्थ - पाप का फल दुःख अर धर्म का फल सुख, ऐसे हम ही नाहीं कहैं हैं, सर्व ही कहैं हैं। तातं जो
सुख चाहिये है तो पाप को छोड़ि धर्म कार्य करो।' अंधादयं महानन्धो विषयान्धीकृतेक्षणः । चक्षुषान्धो न जानाति विषयान्धो न केनचित् ।।३५।।
१ आत्मानुशासन शोलापुर, ८ र आ. भा. टी०, ६ .