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पंडित टोडरमल : व्यक्तिरव और कर्तृत्व गद्य शैली में पंडितजी के व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप है। वे अपने अदम्य विश्वास एवं प्रखर पाण्डित्य के साथ सर्वत्र प्रतिबिंबित हैं। समाधानकर्ता भी वे ही हैं और शंकाकार भी; पर समाधानकर्ता सर्वत्र उत्तम पुरुष में विद्यमान है जबकि शंकाकार कहीं मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष भी हो जाता है। 'इहाँ प्रश्न' के रूप में जहाँ वह उत्तम पुरुष में व्यक्त हुआ है वहीं 'तू कहे' या 'तुम कहो' में मध्यम पुरुष एवं 'कोई कहे' में अन्य पुरुष के रूप में आता है। शंकाकार विनयशील है, पर है मुखर । समाधानकर्ता का व्यक्तित्व सर्वत्र दबंग है। कहीं वह करुणा से द्रवित होकर मृदुल सम्बोधन करने लगता है तो कहीं शिष्य की वाचालता पर उसे फटकार भी देता है। एक अच्छे अध्यापक के सर्व मुण पूर्ण रूप से उसमें विद्यमान हैं। नीचे उसके विभिन्न रूपों की कुछ झाँकियाँ प्रस्तुत हैं :
(१) "हे भव्य ! हे भाई ! जो तो संसार के दुःख दिखाए, वे तुझ विर्षे बीते हैं कि नाहीं सो विचारि ।..... तो तं संसारत इटि सिद्धपद पावने का हम उपाय कह हैं सो करि, विलम्ब मति करै । इह उपाय किए तेरा कल्याण होगा' ।"
(२) "अर तत्त्व निर्णय न करने वि* कोई कर्म का दोष है नाहीं, तेरा ही दोष है । पर तू पाप तो महन्त रह्या चाहै पर अपना दोष कर्मादिककै लगावै, सो जिन आज्ञा मानें तो ऐसी अनीति संभव नाहीं। तोकौं विषयकषायरूप ही रहना है, तातै झूठ बोल है। मोक्ष की सांची अभिलाषा होय तो ऐसी युक्ति काहेकी बनावै । सांसारिक कार्यनि विर्षे अपना पुरुषार्थतें सिद्धि न होती जाने तो भी पुरुषार्थ करि उद्यम किया करे, यहाँ पुरुषार्थ खोय बैठे ।"
(३) "बहुरि हम पूछे हैं --ब्रतादिकको छोड़ि कहा करेगा ? जो हिंसादि रूप प्रवत्तैगाती तहाँ तो मोक्षमार्ग का उपचार भी संभवनाहीं।
' मो० मा० प्र०, १०८ २ वही, ४५८ .
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