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गच्च शैली
२४३ जिन प्राज्ञा माननी योग्य है । बिना परीक्षा किए सत्य असत्य का निर्णय कैसे होय'।"
वे परीक्षा प्रधानी व्यक्ति थे। यही कारण है कि उनकी शैली में तर्क-वितर्क को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वे बहुत सी शास्त्रीय गुस्थियां अपने अनुभूतिमूलक तर्कों से सुलझाते हैं। इस पार्ष वाक्य का कि 'तप आदि का क्लेश करो तो करो, ज्ञान बिना सिद्धि नहीं' - उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि उक्त कथन उनके लिए है जो बिना तत्त्वज्ञान के केवल तप को ही मोक्ष का कारण मान लेते हैं । तत्वज्ञानपूर्वक तप करने के विरोध का तो प्रश्न ही नहीं है, अपनी शक्ति अनुसार तप करना अच्छा ही है। बिना समझे और शक्ति के प्रतिज्ञा लेने के ये विरुद्ध हैं, पर वे यह भी पसंद नहीं करते कि लोग शक्ति मौर समझ का बहाना बना कर या प्रतिज्ञा भंग होने के भय का बहाना बना कर स्वच्छन्द प्रवृत्ति करें। वे यह भी नहीं चाहते कि लोग प्रतिज्ञा ले लें, फिर भंग कर दें, उसे खेल बना लें। ऐसे उलझन भरे प्रसंगों में वे बहुत ही संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हैं एवं वस्तुस्थिति स्पष्ट करने के लिए बड़े ही मनोवैज्ञानिक तर्क व उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । इस सम्बन्ध में उनका कहना है कि अपनी निर्वाह-क्षमता को देख कर प्रतिज्ञा लेनी चाहिए, किन्तु इस भय से प्रतिज्ञा न लेना कि टूट जायगी तो पाप लगेगा वैसा ही है, जैसा यह सोच कर भोजन नहीं करना कि भोजन करने से कहीं अजीर्ण न हो जाय । ऐसा सोचने वाला मृत्यु को ही प्राप्त होगा। वे दूसरा तर्क देते हैं - यद्यपि कार्य प्रारब्ध के अनुसार ही होता है, फिर भी लौकिक कार्यों में मनुष्य बराबर प्रयत्न करता है, उसी प्रकार यहाँ भी उद्यम करना चाहिए । तीसरे तर्क में उसे निरुत्तर करते हुए कहते हैं कि जब तेरी दशा प्रतिमावत् हो जायगी तब हम प्रारब्ध ही मानेगे । वे निष्कर्ष देते हैं:___"तात काहेकौं स्वच्छन्द होनें की युक्ति बनाव है । बनें सौ प्रतिज्ञा करि व्रत धारना योग्य ही है।"
' मो० मा प्र०, ३१६ २ वहीं, ३००