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जीश्रम पत्रिका जानें नाहीं । बहुरि कोई प्रानमत' के गुरु वा ब्राह्मण ताकू महासिद्ध वा बिशेष पंडित जांनि बाकं पूछे तब कोई तो कहै ब्रह्मा विष्णु महेश ए तीन देव इस सृष्टि के कर्ता हैं, कोई कहे राम कर्ता है, कोई कहै बड़ा-बड़ी भवानी कर्ता है, कोई कहै नारायण कर्ता है; बेहमाता लेख घाले है, धर्मराय लेखा ले है, जम का डांगी इस प्राणी • ले जाय है, वा सिगनागरे तीन लोक कुँ फरण ऊपर धारें हैं। ऐसा जुदा जुदा वस्तु का स्वरूप कहै । एकजिम्या कोई बोले नाही। सो ए न्याय है - सांचा होय तो सर्व एक रूप ही कहै । पर जाने क्यूं भी खबरि नाही, अर माहीं मान कषाय का प्राशय ता करि चाहै ज्यौं बस्तु का स्वरूप चतावै अर उनमांन मुं प्रतक्ष विरुद्ध ; तात हमारे सदैव या रात को आकुलता रहै, संदेह भाज नाहीं।
बहुरि कोई कालि ऐसा विचार होइ अ धर्म साधन करिए पीछे याका फल तै राजपद पावै, ताके पाप करि फेरि नकि जाय तो असा धर्म करि भी कहा सिधि । असा धर्म करिए जा करि सर्व संसार का दुख सू निर्वत्ति होइ । जैसे ही विचार होते होते बाईस बर्ष की अवस्था भई।
ता समै साहिपुरा नग्र विष नीलापति साहूकार का संजोग भया । सो वाक सुद्ध दिगंबर धर्म का प्रधान, देव गुरु धर्म की प्रतीति, प्रागम अध्यात्म शास्त्रों का पाठी, षट द्रव्य नव पदार्थ पंचास्ति काय सप्त तत्व गुणस्थान मार्गणा बंध उदय सत्व प्रादि चरचा का पारगामी, धर्म की मूत्ति, ज्ञान का सागर, ताके तीन पुत्र भी विशेष धर्मबुद्धी और पांच सात दस जने धर्मबुद्धी; ता सहित सदैव चर्चन होइ, नाना प्रकार के सास्त्रां का अवलोकन होइ । सो हम बाके निमत्त करि सर्वज्ञ वीतराग का मत सत्य जान्यां अर बाके वचनां के अनुसारि सर्व तत्वों का स्वरूप यथार्थ जान्यां ।
थोरे ही दिनां मैं स्वपर का भेद-विज्ञान भया । जैसें सुता आदमी जांगि उठे है तैसें हम अनादि काल के मोह निद्रा करि सोय रहे थे ' भन्य मत, २ शेष नाग, ३ चर्चाएं