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व्यक्तित्व
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वस्तुस्वरूप प्रमाणिक माना जाता था। श्री दि० जैन बड़ा मंदिर तेरापंथयान, जयपुर में वि० संवत् १८१५ की लिखित भूधरकृत 'चरचा समाधान' ग्रन्थ की एक प्रति प्राप्त हुई है, जिसमें उनकी प्रमाणिकता के सम्बन्ध में निम्नानुसार उल्लेख है :
"यह चरचा समाधान ग्रंथ भूधरमल्लजी आगरा मध्ये बनाया । सु एक सो अड़तीस १३८ प्रश्न का उत्तर है या ग्रन्थ विषै । सु सवाई जयपुर विर्षे टोडरमल्लजी नं बाच्या । सु प्रश्न बीस-तीस का उत्तर तो ग्रामनाय मिलता है । अबसेष प्रश्न का उत्तर आमनाय मिलता नाही । सु बुधजन कुं यह ग्रन्थ बांचि ग्रर भरम नही खाना औरां मूल ग्रंथां स मिलाय लेगा। सु भूधरमल्लजी बीच टोडरमल्लजी विशेष ग्याता है । जिनींने गोमदुसारजी वा त्रिलोकसारजी वा लब्धिसारजी वा क्षिपणासारजी संपूर्ण खोल्या अर ताकी भाषा साठि हजार ६०,००० बचनका बनाई अर और भी ग्रन्थ धना देख्या । सु इहां ईका बचन प्रमान है यामै सन्देह नाहीं । ...."
अपनी विद्वत्ता और प्रामाणिकता के आधार पर वे तेरापंथियों के गुरु कहलाते थे । उनके रामकालीन प्रमुख प्रतिद्वंद्वी विद्वान पंडित बखतराम शाह तक ने उनको धर्मात्मा और तेरापंथियों का गुरु लिखा है' ।
इस प्रकार पंडित टोडरमल का जीवन चिंतन और साहित्यभावना के लिये समर्पित जीवन है । केवल अपने कठिन परिश्रम एवं प्रतिभा के बल पर ही उन्होंने अगाध विद्वत्ता प्राप्त की व उसे बांटा भी दिल खोलकर | अतः तत्कालीन धार्मिक समाज में उनकी विद्वत्ता स्व की धाक थी ।
जगत के सभी भौतिक द्वन्द्वों से दूर रहने वाले एवं निरन्तर आत्मसाधना व साहित्यसाधना रत इस महामानव को जीवन की मध्यवय में ही साम्प्रदायिक विद्वेष का शिकार होकर जीवन से हाथ धोना पड़ा ।
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गुर हथिन को धग, लोहरमल्ल नाग माहिमी
- ० वि०, १५.३