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उपसंहार : उपलब्धियां प्रौर मूल्यांकन
संस्कृत टीकाग्नन्थों में 'अात्मानुशासन' एवं 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' की भाषाटीकाएँ हैं। पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषाटीका अपूर्ण रह गई थी जिसे बाद में दीवान रतनचंद की प्रेरणा से पं० दौलतराम कासलीवाल ने वि० सं० १८२७ में पूर्ण किया। मोक्षमार्ग प्रकाशक भी अधूरा रह गया है जिसे पूर्ण करने के लिए कबिवर दालनदास बनारस ने अनेक ग्रन्थों के लोकप्रिय टीकाकार पंडित जयचंद छाबड़ा जयपुर से प्राग्रह किया था किन्तु उन्होंने पं० टोडरमल की बुद्धि की विशालता एवं स्वयं के ज्ञान की तुच्छता प्रदर्शित करते हुए इसके लिये असमर्थता प्रकट की थी । उनका लिखना था कि कोई मूलग्रन्य हो तो उसकी टीका या व्याख्या तो मैं कर सकता है किन्तु मोक्षमार्ग प्रकाशक जैसी स्वतंत्र मौलिक कृति की रचना टोडरमल जैसे विशाल बुद्धि वाले का ही कार्य है।
उनका पद्य साहित्य यद्यपि सीमित है, फिर भी उसमें जो भी है, उनके कवि-हृदय को समझने के लिए पर्याप्त है ।
पंडितजी का सबसे बड़ा प्रदेय यह है कि उन्होंने संस्कृत प्राकृत में निबद्ध प्राध्यात्मिक तत्त्वज्ञान को भाषागद्य के माध्यम से व्यक्त किया
और तत्त्व-विवेचन में एक नई दृष्टि दी। यह नयापन उनकी क्रान्तिकारी दृष्टि में है। वे तत्त्वज्ञान को केवल परम्परागत मान्यता एवं शास्त्रीय प्रामाणिकता के सन्दर्भ में नहीं देखते । तत्वज्ञान उनके लिए एक जीवित चिन्तन प्रत्रिया है जो केवल शास्त्रीय परम्परागत रूढ़ियों का ही खण्डन नहीं करती अपितु समकालीन प्रचलित चिन्तनरूढ़ियों का भी खण्डन करती है। उनकी मौलिकत्ता यह है कि जिस तत्त्वज्ञान से लोग रूढ़िवाद का समर्थन करते थे, उसी तत्त्वज्ञान से उन्होंने रूढ़िवाद को काटा। उन्होंने समाज की नहीं, तत्त्वज्ञान की चिन्तन-रूढ़ियों का खण्डन किया। उनकी स्थापना है कि कोई भी तत्त्व-चिन्तन तब तक मौलिक नहीं जब तक अपनी तर्क और अनभूति पर सिद्ध न कर लिया गया हो । कुल और परम्परा से जो तत्त्वज्ञान को स्वीकार लेते हैं, वह भी सम्यक् नहीं है। उनके अनुसार धर्म परम्परा नहीं, स्वपरीक्षित साधना है। उन्होंने निश्चय और व्यवहार पर भी अपना मौलिक भाष्य प्रस्तुत किया है ।