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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थिति
जो लोग इन भ्रष्ट चरित्रों को मुनि मानते हैं, उनको लक्ष्य कर के हरिभद्र ने लिखा है
"कुछ नासमझ लोग कहते हैं कि यह तीर्थकरों का वेष है, इसे भी नमस्कार करना चाहिये । अहो ! धिक्कार हो इन्हें ! मैं अपने सिर के शूल की पुकार किसके आगे जाकर करू ?' '
दिगम्बर सम्प्रदाय में भी शैथिल्य पुराने समय से ही है तथा परिस्थिलियाँ और मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलताएं उसे बराबर सींचती रहीं, जिसकी अंतिम परिणति भट्टारकों के रूप में हुई ।
दिगम्बरों में चैत्यवास की प्रवृत्ति सर्वप्रथम द्राविडसंघी, काष्ठासंघी और माथुरमंघियों में आई। बाद में मूलसंघियों में भी चैल्पवास की प्रवृत्ति प्रागई । उक्त संदर्भ में नाथूराम प्रेमी लिखते हैं --
___ "गरज यह है कि द्राविड़संघ के संस्थापक वजनन्दि आदि तो पुराने चैत्ययासो हैं, जिन्हे पहिले हं. अनानास मान लिया गया था और मूलसंघी उसके बाद के नये चैत्यवासी हैं, जिन्हें देवसेन (विक्रम सम्बत् ११०) ने तो नहीं परन्तु उनके बहुत पीछे के तेरहरंथ के प्रवर्तकों ने जैनाभास बतलाया।"
नवीं शती के प्राचार्य गुणभद्र के समय दिगम्बर मुनियों की प्रवृत्ति नगरवास की ओर विशेष वढ़ रही थी। इसकी कटु पालोचना करते हुये वे 'अात्मानुशासन' में कहते हैं "जिस प्रकार इधर-उधर से भयभीत गीदड़ रात्रि में वन को छोड़ गांव के समीप आ जाते हैं, उसी प्रकार इस कलिकाल में मुनिजन भी बन को छोड़ गांव के समीप रहने लगे हैं । यह खेद की बात है।"3
चैत्यवास की प्रवृत्ति के कारणों पर विशद प्रकाश डालते हुए डॉ. हीरालाल जैन लिखते हैं – "चैत्यवास की प्रवृत्ति प्रादितः सिद्धान्त बाला वयंति एवं बेसो तित्थंकराण एसो वि।
णमणिज्जो धिद्धी अहो सिरसूलं कस्स पुष्करिमो ।।७६।। - संबोध प्रकरण २ जे० सा० इति०, ४८६ 3 इतस्ततमच यस्यतो विभावर्या यथा मृगाः । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलो कष्टं तपस्विनः ॥१९७५