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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कत्रय के पठन-पाठन व साहित्य सृजन की सुविधा के लिये प्रारम्भ हुई होगी किन्तु धीरे-धीरे वह एक साधुवर्ग की स्थायी जीवन-प्रणाली बन गई, जिसको कारण नाना मंदिरों में भट्टारकों की गद्दियां व मठ स्थापित हो गये । इस प्रकार भट्टारकों के प्राचार में शैथिल्य व परिग्रह अनिवार्यतः या गया ।
दिगम्बर ब श्वेताम्बर दोनों शाखाओं के साधु निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। निर्ग्रन्थ का अर्थ है - सर्वप्रकार के परिग्रहों से रहित । यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में साधुनों को लज्जा-निवारण के लिये बहुत ही सादा वस्त्र रखने की छूट दी गई है। तथापि जिन शर्तों के साथ दी गई है वह न देने के ही बरावर है । वास्तव में अशक्ति या लाचारी में ही वस्त्र का उपयोग करने की प्राज्ञा है। 'संबोध प्रकरण' में बिना कारण कटिवस्त्र बांधने वाले साधुओं को क्लीव कहा गया है।
काफी खोजबीन के बाद नाथुराम प्रेमी लिखते हैं - "इस बात के भी प्रमाण हैं कि प्राचीन काल में दिगम्बर और श्वेताम्बर प्रतिमानों में कोई भेद न था। प्रायः दोनों ही नम्न प्रतिमाओं को पूजते थे। मथुरा के कंकाली टोले में जो लगभग दो हजार वर्ष की प्राचीन प्रतिमायें मिली हैं, वे नग्न हैं और उनपर जो लेख हैं वे कल्पसूत्र की स्थिरावली के अनुसार हैं।" इसके सिवा १७वीं शताब्दी में पं० धर्मसागर उपाध्याय ने अपने प्रवचन परीक्षा' नामक ग्रंथ में लिखा है - "गिरिनार और शग्रंजय पर एक समय दोनों संप्रदायों में झगड़ा हुया और उसमें शासन देवता की कृपा से दिगम्बरों की पराजय हुई। जब इन दोनों तीर्थों पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय का अधिकार हो गया, तत्र प्रागे किसी प्रकार का झगड़ा न हो, इसके लिये श्वेताम्बर संघ ने यह निश्चय किया कि अब से जो नई प्रतिमायें बनवाई जाए उनके पादमुल में वस्त्र का चिह्न बना दिया जाय ।" १ भा० सं० ज० यो०, ४५ ३ आचारांग प्र० १० अश्वरन ६, उद्देश्य ३; द्वि० श्रु० अध्ययन १४ उद्देश्य १-२ ' कीवो न कुमार लोग लज्जइ गदिमाइ बल्न मुवरोई 1
सोचाहगा य हिंडइ, बंधई कटि पट्टयमकम्जे ।।१४।। ४ जं. सा. इति०, ४६६