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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितिया
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में न केबल मुनियों द्वारा वस्त्र-ग्रहण की मात्रा बढ़ी किन्तु धीरे-धीरे तीर्थंकरों की मूर्तियों में भी कोपीन का चिह्न प्रदर्शित किया जाने लगा तथा मुर्तियों का लांख, अंगी, मुकुट बारिश अल है कि सीमासमतोमा। इस कारण दिगम्बर और श्वेताम्बर मंदिर व मूर्तियाँ, जो पहले एक ही रहा करते थे, अब पृथक्-पृथक् होने लगे। ये प्रवृत्तियां सातवी-आठवीं शती से पूर्व नहीं पाई जाती हैं।
ग्यारहवीं शती के तार्किक बिद्वान् सोमदेव शिथिलाचारी मुनियों की वकालत करते हुए लिखते हैं -
"यथा पूज्यं जिनेन्द्रागां रूपं लेपादि निमितं । तथा पूर्वमुनिच्छाया: पूज्याः संप्रति संयता ।।'' "भुक्तिमात्र प्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्तः संत्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति ।। मरिंभप्रवृत्तानां गृहस्थानां धनन्ययः ।
बहुधाऽस्ति ततोऽत्यर्थं न कर्तव्या विचारणा ।।"3 "जैसे लेप-पाषाणादि में बनाया हुअा अर्हतों का रूप पूज्य है वैसे ही वर्तमान काल के मुनि पूर्व मुनियों की छाया होने से पूज्य हैं।
भोजनमात्र देने में तपस्वियों की क्या परीक्षा करनी ? वे अच्छे हों या बुरे, गृहस्थ तो दान देने से शुद्ध हो ही जाता है। गृहस्थ लोग अनेक प्रारम्भ करते हैं जिनमें उनका बहुत धन खर्च होता है, अतः साधुओं को आहार दान देने में उन्हें विचार नहीं करना चाहिये।"
पहले मठवासी हो जाने पर भी दिगम्बर साधु नग्न ही रहते थे पर उनका चरित्र शिथिल था। वि० सं० ११५१ में भट्टारक कुमुन्दचन्द्र का शास्त्रार्थ श्वेताम्बर यति देवसूरि के साथ गुजरात के राजा सिद्धराज की सभा में हुआ था । उसके वर्णन में कुमुदचन्द्र के बारे में
- -- - । भा० सं० ज० यो०, ४४-४५ २ यशस्तिलकचम्पू, उत्तरखण्ड, ४०५ ३ नही, ४०७