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पंडिस टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व अात्मानुशासन भाषाढीका सम्पूर्ण प्राप्त है, पर उसके अन्त में ग्रंथ के अन्त में लिखी जाने वाली टीकाकार को प्रशस्ति उपलब्ध नहीं है। हो सकता है प्रशस्ति लिखी ही न गई हो । अतः इस ग्रंथ में तो रचनाकाल सम्बन्धी कोई उल्लेख है नहीं, अन्यत्र भी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। अ० रायमल द्वारा विक्रम संवत् १५२१ में लिखी गई इन्द्रध्या विधान महोत्सब त्रिकी इस रचना की चर्चा नहीं है. जब कि अन्य रचनाओं के विस्तार से उल्लेख उक्त पत्रिका में हैं। अतः प्रतीत होता है कि यह रचना कम से कम उस समय तक पूर्ण नहीं हुई थी। __हो सकता है यह रचना वि० सं० १८१८ में सम्यग्ज्ञानचंद्रिका के समाप्त होने के बाद प्रारंभ कर दी हो । लगता है इसका नारंभ और मोक्षमार्ग प्रकाशक का प्रारंभ करीब-करीब साथ-साथ हुआ होगा। मोक्षमार्ग प्रकाशक के प्रथम अधिकार में वर्णित वक्ता-श्रोता के लक्षणों में इसके प्रारंभिक श्लोकों के उद्धरण ही नहीं दिये गए, वरन् उनके आधार पर विस्तृत विवेचन भी किया गया है। यह भी प्रतीत होता है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक के छठवें अधिकार तक आतेअाते यह टीका समाप्त हो गई होगी क्योंकि छठवें अधिकार में बरिणत साधुओं के शिथिलाचार पर इस ग्रन्थ में वरिणत शिथिलाचार की स्पष्ट छाप है । वि० संवत् १८२४ के पूर्व तो इसकी समाप्ति माननी ही होगी क्योंकि उसके बाद तो पंडित टोडरमल का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता।
__ यदि इस टीका का उपरोक्त रचनाकाल सही है तो निश्चित रूप से इसकी रचना जयपुर में ही हुई होगी क्योंकि उक्त काल में पंडित टोडरमलजी की उपस्थिति जयपुर में ही सिद्ध होती है । उनके अन्यत्र जाने का कोई उल्लेख नहीं है ।
प्रात्मानुशासन सुभाषित साहित्य है, अतः इसमें किसी एक विषय का क्रमबद्ध वर्णन न होकर बहुत से उपयोगी विषयों का वर्णन है । इसके वर्ण्य-विषय के सम्बन्ध में डॉ० हीरालाल जैन और प्रा० ने० उपाध्ये लिखते हैं :