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रचनामों का परिचयात्मक अनुशीलन
शिरःस्थं भारमुत्तार्य स्कन्धे कृत्वा सुयत्नतः ।
शरीरस्थेन भारेग अज्ञानी मन्यते सुखम् ॥२०६।। संस्कृत टीका - प्रेक्षावतामुद्वेगः कर्तुं मनुचित इत्याह ।।२०६।।' भाषा टीका - जैसे कोऊ शिर का बोझ उतारि कांधे धरि सुख
मान है, तैसें जगत के जीव रोग का भार उतारि शरीर के भार करि सुख माने हैं। भावार्थ - जगत के जीव रोग गए, शरीर रहे सुख मान हैं । अर ज्ञानी जीव शरीर का सम्बन्ध ही रोग जाने हैं। तातै शरीर जाय तो विषाद नाहीं । जैसा शिर का भार तैसा ही कांधे का भार । जैसे रोग
का दुख तैसा ही देह धारण का दुख है ।। उक्त संस्कृत टीका की अस्पष्टता एवं भाषाटीका के प्रभाव की पूर्ति पंडित टोडरमल की भापाटीका से हुई। इस टीका में पंडित टोडरमल की अगाध विद्वत्ता की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है ।
आत्मानुशासन भाषाटीका लिखने की प्रेरणा उन्हें अपने अन्तर से ही प्राप्त हुई है । अन्तःप्रेरणा का प्रेरक मिथ्या भ्रम में फंसे हुए जीवों के उपकार की भाबना रही है। इस टीका को देशभाषा में लिखने का उद्देश्य मंदबुद्धि जीवों को भी इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का अर्थ समझाना रहा है, जैसा कि उन्होंने मंगलाचरगा के छन्द में दिया है ।
'भात्मानुशासन शोलापुर, १६४ २ प्रा. भा० टी०, २२७ । ऐसे सार शास्त्रनको प्रकाशे अथं जीवन कौं ।
बन उपकार नाशै मिथ्यानम वासना ।। तातं देशभाषा करि अयं को प्रकाशकरे । जात मंद बुद्धि हू के होवे अर्थ भासना ।।१।।
-प्रा० भा० टी०,१