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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तस्व भाषा टीका - अहो प्राणी ! न्याय के आचरण करि उपाा जो
धन ताहू करि उत्तम पुरुषनि हू के सुख संपदा नाहीं बढ़े है। जैसे निर्मल जल करि कदाचित् भी समुद्र नाही पूर्ण होवे है। भायार्थ - अयोग्य आचरण तो सर्वधा त्याज्य ही है । अर योग्य आचरण करि उपाळ जो धन ताहू करि विशेष संपदा की वृद्धि नाहीं। जैसे कदाचित् हू निर्मल जल करि समुद्र नाहीं पूर्ण होय है । तातें न्यायोपाजित धन हूँ की तृष्णा तजि सर्वथा
निःपरिग्रही होहु ।' शरीरमपि पुष्यन्ति सेवन्ते विषयानपि ।
नास्त्यही दुष्करं नृणां विषाद्वान्छन्ति जीवितुम् ।।१६६॥ संस्कृत टीका - एवंविधं शरीरं पोषयित्वा कि कुर्वन्तीत्याह -
शरीरमित्यादि । पुष्णन्ति पोषयन्ति ॥१६६।। भाषा टीका .. अहो लोको ! मूर्ख जीव कहा कहा न करें। शरीर
ऑ तो पोरे, अर विषयनि रोवै । मूर्खनि . कछू विवेक नाहीं, विष ने जिया चाहैं। अविवेकीनि . पाप का भय नाही, अर विचार नाहीं । बिना विचारें न करने योग्य होय सो कार्य करें। भावार्थ - जो पण्डित विवेकी हैं ते शरीर अधिक प्रेम न करें। नाना प्रकार की सामग्री करि याहि न पोषै, पर विषयनि जन सेवें । अर जे मूढ़ जन हैं ते शरीर । अधिक पोष, अर विषयनि कू सेवे, न करिव योग्य कार्य की संका न करें। जो विषयनि कै सेवें हैं ते विष खाय जीया चाहे हैं ।।
१ आ. भा. टी, ४८ २ प्रात्मानुशासन शोलापुर, १८७-८% 3 आभा० टी०, २२०